छात्र आंदोलन पर बनी फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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छात्र आंदोलन पर बनी फिल्में
प्रकाशन तिथि : 17 दिसम्बर 2019


छात्र आंदोलन के तीन प्रभाव फिल्म उद्योग पर पड़ते हैं। फिल्म बनाने के लिए छात्र आंदोलन अच्छा विषय प्रदान करते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेते हुए कुछ छात्रों ने परीक्षाएं नहीं दीं और कुछ समय बाद वे फिल्म निर्माण से जुड़ गए। तीसरा प्रभाव यह है कि छात्र आंदोलन के कारण लगाए गए कर्फ्यू में सिनेमाघर बंद हो जाते हैं। छात्र वर्ग ही सबसे बड़ा दर्शक वर्ग है। सभी समस्याओं के निदान में असफल व्यवस्था इंटरनेट, टेलीफोन इत्यादि संचार माध्यमों पर रोक लगा देती है। पूरा समाज दंड भुगत रहा है।

राम गोपाल वर्मा की पहली फिल्म 'शिवा' की पृष्ठभूमि छात्र आंदोलन ही थी। प्रकाश झा की 'सत्याग्रह' की पृष्ठभूमि भी शिक्षा ही थी, परंतु फिल्म केवल प्राइवेट ट्यूशन माफिया में सिमटकर रह गई। केवल अच्छे इरादों से सार्थक फिल्में नहीं बनती। अच्छी फिल्में बनाने के लिए कुछ और भी करना होता है। राजकुमार हिरानी और आमिर खान की 'थ्री-ईडियट्स' भी परीक्षा प्रणाली पर करारा व्यंग्य करती है। डिग्रियां हासिल करना ज्ञान प्राप्त करने से अलग है। नायक अपने पिता के मालिक के बेटे के नाम से डिग्री प्राप्त करता है। ज्ञान से वह अपना नया संसार खड़ा करता है।

वर्तमान में संसारभर में छात्र आंदोलन कर रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व चीन के तियानमेन स्क्वायर पर छात्र एकत्रित हुए थे। उस आंदोलन को हिंसा द्वारा दबा दिया गया। चीन में व्यापक असंतोष है और इमारतों के बेसमेंट में छात्र एकत्रित होते हैं। दिल्ली में भी पुलिस परिसर में घुस गई और छात्राओं को भी नहीं बख्शा गया। सभी मोर्चो पर असफल व्यवस्थाएं छात्राओं पर लाठी बरसाते हुए अपनी झेंप मिटाने का हास्यास्पद प्रयास कर रही हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि पाठ्यक्रम में व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयों से जूझने के उपाय भी शामिल किए जाने चाहिए। गांधीजी के विचार से ऐसा नहीं करने पर शिक्षण संस्थाएं प्रभावहीन होकर मृत समान हो जाएंगी।

आनंद एल राय की फिल्म 'रांझणा' भी शिक्षा समस्या पर बनी प्रभावोत्पादक फिल्म साबित हुई थी। अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म 'गब्बर इज बैक' का नायक भी एक शिक्षक ही रहा है। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ अलग किस्म का युद्ध छेड़ता है। उसके साधन उसके साध्य को अपवित्र कर देते हैं। आत्म समर्पण करके सजा भुगतने जाते हुए वह स्वीकार करता है कि उसका तरीका गलत था, परंतु वही उसका एकमात्र विकल्प भी था। सोए हुए मनुष्य को जगाया जा सकता है, परंतु जागते हुए सोने का अभिनय करने वालों को कैसे जगाया जा सकता है। इसी तरह आर्थिक मंदी दरवाजे पर दस्तक दे रही है और हमारी व्यवस्था जागते हुए भी सोते रहने का अभिनय कर रही है। अवाम को किफायत व बचत करते हुए स्वयं अपनी रक्षा करनी होगी।

भारत की जनसंख्या में युवा प्रतिशत सबसे अधिक है। इतने लोगों का आक्रोश तरह-तरह से अभिव्यक्त हो रहा है। यह छात्र असंतोष अभी प्रारंभिक अवस्था में है। अरसे पहले विनोद खन्ना और तनूजा अभिनीत फिल्म 'इम्तिहान' भी शिक्षा की पृष्ठभूमि पर बनी थी। जिसके एक गीत की पंक्ति इस तरह है- 'राहों के दिए आंखों में लिए तू बढ़ता चल, ओ राही...ओ राही।' शांताराम की फिल्म 'बूंद जो बन गई मोती' में भी शिक्षक छात्रों को कक्षाओं से बाहर ले जाकर प्रकृति की गोद में शिक्षा देता है। प्रकृति सबसे बड़ी शिक्षक हुआ करती थी, परंतु विकास के नाम पर उसे नष्ट किया गया है। बंगाली भाषा में बनी फिल्म 'अपनजान' से प्रेरित फिल्में भी आक्रोश की मुद्रा में आपस में भिड़ जाने वाले दो छात्रों को एक विधवा अपने स्नेह से हिंसा त्यागने की प्रेरणा देती है। हम आए दिन सुनते हैं कि अमेरिका के शिक्षा परिसर में एक छात्र ने गोलियां दागी हैं। 'क्लास ऑफ 84' भी शिक्षा में हिंसा पर बनी फ़िल्म थी। संकीर्णता की हामी एक राजनीतिक विचारधारा ने अपने स्कूलों की शृंखला रची है, परंतु उनमें प्रचारकों की जमात ही तैयार की जा रही है। इसी क्षेत्र में 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' जैसी फूहड़ फिल्मों ने भी घुसपैठ कर ली है। उपरोक्त फिल्मों में कक्षा के दृश्य नहीं हैं। बदन उघाड़े छात्र धींगा-मस्ती करते रहते हैं। एक शिक्षक इस कदर समलैंगिक है कि मृत्यु शैया पर भी अपने खेल शिक्षा सहयोगी से जन्म जन्मांतर के प्रेम का वादा मांगता है। अंतहीन फूहड़ता से बचना असंभव होता जा रहा है। युवा शक्ति का यह अपव्यय एक भयावह संसार का निर्माण कर सकती है।