छायावाद: काव्य शक्ति एवं शक्ति काव्य / अरुण होता
छायावाद को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शैली की पद्धतिमात्र स्वीकारा है तो नंददुलारे वाजपेयी ने अभिव्यक्ति की एक लाक्षणिक प्रणाली के रूप में अपनाया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे रहस्यवाद के भुल-भुलैया में डाल दिया तो डॉ. नगेंद्र ने 'स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह' कहा। आलोचकों ने छायावाद की किसी न किसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे जानने-समझने का प्रयास किया। छायावाद संबंधी विद्वानों की परिभाषाएँ या तो अधूरी हैं या एकांगी। इस संदर्भ में नामवर सिंह का छायावाद (1955) संबंधी ग्रंथ विशेष अर्थ रखता है। उन्होंने एक नए एंगल से छायावाद को देखा। उनके शब्दों में - 'छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से। इस जागरण में जिस तरह क्रमशः विकास होता गया, इसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी विकसित होती गई और इसके फलस्वरूप छायावाद संज्ञा का भी अर्थ विस्तार होता गया।'1 उपर्युक्त परिभाषा उस मान्यता को भी पूरी तरह बदलकर रख देती है जो यह मानने तथा प्रमाणित करने के लिए कमर तोड़ मेहनत करती है कि छायावाद प्रेम और वेदना का काव्य है। छायावाद का समय 1918 से 1936 ई. तक है। अर्थात छायावाद का उद्भव तथा विकास दो विश्वयुद्धों के बीच हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति एवं द्वितीय विश्वयुद्ध की प्रस्तुति के बीच हिंदी साहित्य में छायावाद का सृजन तथा पल्लवन हुआ। आलोच्य काल की सामाजिक परिस्थितियों पर ध्यान दें तो स्पष्ट पता चलता है कि समाज दो पाटों के बीच पीसा जा रहा था। एक ओर औपनिवेशिक परतंत्रता की जंजीर से भारतीय समाज आबद्ध था तो दूसरी ओर धार्मिक रूढ़ियों और वर्जनाओं से अधिकांश लोग घिरे हुए थे। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को सामने रखा जाए तो गांधी जी के असहयोग आंदोलन ने भारतीयों को उद्बुद्ध किया था। ऐसे समय में सृजित साहित्य में पलायनवादिता का स्वर भला कैसे उभर सकता है। इस युग के स्रष्टाओं ने अपनी रचनाओं में स्वप्नों को पूर्ण करने का प्रयास किया है। सामंती व्यवस्था से मुक्ति, धार्मिक कट्टरता का त्याग एवं साम्राज्यवादी शक्ति से मुक्ति - इन रचनाकारों के स्वप्न थे। स्वप्नों को साकार बनाने के लिए इन्हें बाहरी तथा भीतरी संघर्षों का सामना करना पड़ा। इन संघर्षों की अभिव्यक्ति छायावाद युग में हुई है।
रामस्वरूप चतुर्वेदी ने 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' में छायावाद को शक्तिकाल के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने छायावादी रचनाओं में ज्योति और जागरण की चेतना को रेखांकित किया है। उनकी मान्यता है - 'अपने व्यक्तिगत प्रणय और राष्ट्र-प्रेम की अनुभूति में और उनके संश्लेष में छायावाद मूलतः शक्ति काव्य है।'2
नामवर सिंह तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आलोच्य काव्यधारा में जागरण पर बहुत अधिक महत्व दिया है। वास्तव में छायावादी कवियों ने सुप्त समाज को जागृत किया है। उन्होंने ओजस्वी स्वर में जागरण-गीत भी खूब लिखे हैं।
प्रसाद ने न केवल अपनी कविताओं में बल्कि अपने नाटकों - चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त में भी जातीय जागरण का प्रसार किया है। स्कंदगुप्त का प्रसिद्ध गीत 'हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार' आत्म-गौरव का ओजस्वी उद्बोधन है। प्रसाद की दृष्टि में भारत संस्कृति की जननी है। बुद्ध की अहिंसा, अशोक की करुणा आदि की प्रदात्री भारत भूमि ही है। संसृति में संस्कृति का प्रचार भारत द्वारा हुआ है। मातृगुप्त के द्वारा प्रस्तुत उद्बोधन गीत एक ओर हताश, उदास, निराश भारतीयों में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न करता है तो दूसरी ओर भारत की दिव्य, भव्य एवं उदात्त परंपरा का प्रतीक बनकर आता है। भारतीय संस्कृति एवं उसकी ऐतिह्यमय परंपरा का निदर्शन भी प्रस्तुत होता है-
'वही है रक्त, वही है देह, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान।'3
'पेशोला की प्रतिध्वनि' शीर्षक कविता में निर्धूम भस्मरहित ज्वलन पिंड के अरुण करुण बिंब का जो चित्रण किया है, वह अत्यंत प्रतीकात्मक है। यहाँ भी अस्तगामी सूर्य के बहाने कवि ने भारतीय अस्तगामी गौरवोज्ज्वल गाथा का प्रतिबिंब उकेरना चाहा है। परोक्ष रूप में भारतीयों को प्रेरित किया है। उन्हें जगाया है। जागरण का संदेश दिया है। तभी तो कवि चुनौती से भरपूर ललकार सुनाता है -
कौन लेगा भार यह? कौन विचलेगा नहीं।
प्रसाद जी के काव्य-संग्रह 'लहर' की 'बीती विभावरी जाग री'। कविता को भले ही प्रभाकर श्रोत्रिय विशुद्ध प्रकृति-प्रेम आधारित कविता मानें, परंतु भारतीय परतंत्रकालीन उक्त कविता राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की एक महत्वपूर्ण कविता मानी जा सकती है। यह भी एक जागरण गीत है। सखी (आली) के बहाने जातीय जागरण का प्रसार किया गया है। 'अब जागो जीवन के प्रभात', 'अपलक जगती रहो एक रात', 'शेरसिंह का शस्त्र-समर्पण' आदि अनेक कविताओं के माध्यम से कवि ने शक्ति का आवाहन किया है। वैयक्तिक प्रेम के साथ राष्ट्र-जागरण के भाव को कवि ने समन्वित रूप प्रदान किया है। कवि प्रसाद की मान्यता है कि मनुष्य मात्र में जागरण विद्यमान है। यह भाव सुषुप्तावस्था में है। चैतन्य एवं शक्ति के आवाहन को सामने रखकर प्रसाद जी ने जागरण-गीत लिखे हैं। ये गीत तत्कालीन राष्ट्रीय संदर्भ, स्वाधीनता की चिंता आदि से भी ओतप्रोत है। ध्यातव्य है कि प्रसाद के समकालीन कवि निराला, पंत तथा महादेवी ने भी अपनी कविताओं में जागृति के स्वर को निनादित करने का प्रयास किया है।
निराला के जागरण गीतों से शक्तिकाव्य को अधिक बल मिला है। 'जागो फिर एक बार' (1921) में आत्म-गौरव एवं उद्बोधन का भाव व्यक्त हुआ है। अकाली सिक्खों के शौर्य की वाणी को स्मरण करते हुए निराला कहते हैं -
'शेरों की माँद में
आया है आज स्यार
जागो फिर एक बार।'4
'बादलराग श्रृंखला' की कविताओं में स्वतंत्रता केंद्रीय संवेदना के रूप में उभरती है। सोवियत क्रांति में सर्वहारा वर्ग ने जो भूमिका निभाई थी कुछ ऐसी आशा निराला को भारतीय कृषक एवं अन्य वर्ग से संबंधित शोषितों से रही होगी। 1923 में विप्लव के बादल का आह्वान करते हुए निराला का चित्रण द्रष्टव्य है -
'जीर्ण-बाहु है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के वीर।'4
'प्रिय मुदित दृग खोलो', 'जागा दिशा ज्ञान', 'जागो जीवन धानिके' आदि अनेकानेक कविताओं में निराला ने जागरण गीत लिखे हैं। इन गीतों के माध्यम से कवि मनुष्य के हृदय के किसी कोने में निहित सुषुप्ति को चैतन्यावस्था प्रदान करने के लिए प्रतिश्रुत प्रतीत होता है। उक्त गीतों के माध्यम से संघर्ष एवं क्रांति के कवि निराला ने आम आदमी के संघर्ष की अभिव्यक्ति की है। उन्होंने जागरण के माध्यम से आम आदमी को संघर्षशील बनाने का भी प्रयास किया है। शक्ति के आवाहन हेतु कवि ने जागरण-गीत लिखे हैं। निराला की कविता तुलसीदास में भी यह आह्वान है -
'जागो, जागो, आया प्रभात
बीती वह, बीती अंध रात।'
निराला की रचनाओं में शक्ति-चेतना निहित है। परतंत्रता ही नहीं रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों से भी मुक्त होना निराला की शक्ति-चेतना का मूलकेंद्र है। इनकी शक्ति चेतना बैसवाड़े के पुरुषत्व से ऊर्जस्वित ही नहीं थी बल्कि बंगीय प्रांत की सुकोमलता से भी प्रभावित थी। इसलिए इनके जागरण गीतों तथा लंबी कविताओं में ओजस्विता का स्वर संचार होता है, नई ऊर्जा से राष्ट्रीय आंदोलन मजबूत होता है।
निराला ने शक्ति की मौलिक कल्पना की है। शक्ति-साधना में मनुष्य मात्र को विवेकवान बनाने का सपना है। उनके समाज में देश के नायक तथा अधिनायक विवेकशून्य हो दूसरे के हाथों की कठपुतली बनने लगे थे। ऐसे में निराला ने ज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया। ज्ञानविहीन होकर ये लोग जाति-वर्ण-धर्म की संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ पा रहे थे। निराला ने सरस्वती (ज्ञान की प्रदात्री) की वंदना की। ज्ञान की ज्योति प्रवाहित करने का अनुरोध किया ताकि ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छुआछूत के तमाम भेद-भाव मिट सकें।
शक्ति की मौलिक कल्पना करना छायावादी काल के लिए आवश्यक था। यह मनुष्य को केवल जगाती नहीं उसे आगे बढ़ाने में भी सहायक होती है। इस शक्ति की साधना के लिए न तो फूलों की आवश्यकता है और न अक्षत दुर्वादल की। व्यक्ति के आत्म-प्रत्यय को झंकृत करने की जरूरत है। शक्ति की मौलिक कल्पना का रूप बुद्धिजीवियों द्वारा संगठित हो सकता है। यह रूप जनशक्ति बनकर उभरे और बंधनमात्र को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास करे। 'आराधन का दृढ़ आराधन' में उत्तर देने के पश्चात शक्ति का मौलिक रूप नवीन हो सकता है। इससे जय-जयकार की अनुगूँज उत्पन्न होती है।
छायावाद युग में शक्ति मुट्ठी भर लोगों की वंदिनी बनी हुई थी। हालाँकि आज भी शक्ति या तो सत्तासीनों अथवा अंडरवर्ल्ड के डॉनों के हाथ की कठपुतली बनी हुई है। रामायण काल में रावण, महाभारत काल में कौरव एवं निराला के समाज में अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया है शक्ति ने। अन्याय एवं अत्याचार की क्रूर दानव-लीला से प्रपीड़ित आम आदमी का संताप व्यक्त होता है -
'अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।'6
इस शक्ति के स्वरूप को जानना भी आवश्यक है। यह शक्ति अंतस उत्पन्न हैं, आंतरिक है, बाह्य नहीं। यह शक्ति नवीन तो है ही, मौलिक भी। यह शक्ति इंपोर्टेड नहीं, सेल्फ आर्नड (स्वार्जित) है।
'कामायनी' तथा 'राम की शक्तिपूजा' दोनों रचनाओं में दानवी वृत्ति पर स्वस्थ संस्कृति या शक्ति की विजय है। प्रसाद जी की दृष्टि में विनाश एवं निर्माण के द्वंद्व के मध्य मानवीय संस्कृति का विकास होता है - 'पुरातनता का यह निर्मीक सहन न करती प्रकृति पल एक।' नश्वरता ही सृजन का मार्ग प्रशस्त करती है। पुरानी टूटी-फूटी वस्तुओं को गलाकर नई चीजें बनाई जाती हैं। कामायनी में प्रसाद ने इस निर्माण की शक्ति को पहचाना है। उन्होंने सर्जनात्मक मूल्य की चिरंतनता को स्वीकार किया है। मानवीय चेतना के विकास को प्रस्तुत किया है -
'शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं हो निरुपाय
समन्वय करे उनका समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।'7
राष्ट्रीयता शक्तिकाव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। परंतु शक्तिकाव्य का सामान्य अर्थ राष्ट्रीय-काव्य नहीं है।8 उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि हेतु 'विजयिनी मानवता' पदबंध देखा जा सकता है। मानवता की चिंता कवि की प्रमुख चिंता बनकर आई है। इसकी विजय की कामना सबसे बड़ी उपलब्धि है। शक्तिकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसने व्यक्ति से मनुष्य, मनुष्य से जातीयता, जातीयता से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्वभावना की यात्रा की है। पंत ने मानवतावाद की प्रतिष्ठा करते हुए कहा है -
'सुमन सुंदर, विहग सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम।'
इस संदर्भ में महादेवी के गीतों को 'आँसू से गीले' कहकर उपेक्षित कर देना भी अनुचित है। ये आँसू से भीगे गीत निराशा के भाव प्रदर्शित नहीं करते। ये रचनात्मक आस्था प्रकट करते हैं। महादेवी दुःखव्रती अवश्य हैं परंतु सृजन हेतु उन्मद भी हैं -
'दुखव्रती निर्माण उन्मद, यह अमरता नापते पद।'
प्रसाद जी ने काम के उदय को रहस्यात्मक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। श्रद्धा प्रेरणादायिणी, शक्तिप्रदायिनी है। यह शक्ति-स्वरूप है। काम सर्जनात्मक मूल्य का प्रतीक है -
'जिसे तुम समझते हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल
ईश का वह रहस्यमय वरदान, उसे तुम कभी न जाओ भूल।'9
निरालाकृत 'तुलसीदास' में तुलसीदास के कामातुर रूप में रत्नावली जाग्रत होती है -
'जागी जोगिनी अरूप-लग्न वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।'10
'सांध्यगीत' एवं 'संध्यासुंदरी' कविताओं के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि अंतर्विरोधी भावों से शक्ति-काव्य को अधिक बल मिला है। अंतर्विरोध किसी भी श्रेष्ठ साहित्य की कमजोरी नहीं है। उसकी शक्ति के रूप में उसकी खास पहचान बनती है। शयन एवं जागरण के द्वंद्व से शक्ति काव्य अद्भुत ऊर्जा प्राप्त करता है -
निराला - दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या सुंदरी परी सी
धीरे-धीरे-धीरे।
महादेवी - चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना जाग तुझको दूर जाना।
यह अंतर्विरोध युगीन द्वंद्वात्मक अंतर्विरोधी प्रवृत्ति का परिचायक है। हताशा के बीच आशा का प्रज्ज्वलन इस युग और साहित्य की विशेषता है। यह अंतर्विरोध उसकी खास पहचान भी है। रूमानियत से शक्ति अर्जित करने वाली महादेवी लिखती है -
'तू जल-जल जितना होता क्षय
वह समीप आता छलनामय
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल-खिल
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
प्रियतम का पथ आलोकित कर।'11
सृजन के केंद्र में कल्पना की अहम भूमिका है। शक्तिकाव्य में कल्पना काव्य शक्ति है। कल्पना व्यक्ति के अभिन्न अंग के रूप में आती है। इसके द्वारा ही कवि दुखद वर्तमान में भी मनोहर स्वप्न-लोक की सृष्टि करने का सामर्थ्य प्रदर्शित करता है। यह कल्पना के पंखों के सहारे अतीत के स्वर्णकाल में विचरण कर पाता है। वहाँ से लौट आता है। वह कल्पना के सहारे क्षितिज के उस पार से वापस आ जाता है एवं भविष्य का स्वप्नलोक बना लेता है।12 इसी शक्ति से कवि का शाश्वत सौंदर्य सृजन संभव होता है। संसार नश्वर है। परंतु इसी नश्वरता में अनश्वरता की खोज हो जाती है। कम से कम इस खोज की शक्ति अर्जित हो जाती है -
'तुम सत्य रहे चिर सुंदर
मेरे इस मिथ्या जग के।'
शक्ति-काव्य के रूप में छायावाद की चर्चा करते समय नारी की प्रधानता को स्वीकार करने वाले कवियों की दृष्टि पर भी विचार करना उचित है। इस काल में पंत जी ने नारी को 'अकेली सुंदरता कल्याणी' ही नहीं कहा बल्कि उसे समस्त ऐश्वर्यों की खोज के रूप में प्रकट किया है। नारी शक्ति के विविधरूपों का स्मरण करेत हुए पंत ने कहा है - 'देवि, माँ, सहचरि, प्राण'। इस काल के कवियों ने नारी को भारतीय जागरण का आधारस्रोत बताया है। तत्कालीन राजनीतिक जीवन में नारी की सहयोगिता का भी वर्णन मिलता है। निराला, पंत आदि ने प्रकृति को नारी-रूप में चित्रित किया है। छायावाद युग में नारी को प्रियतमा के रूप में अधिक स्वीकारा गया है, पत्नी के रूप में कम। प्रेयसी के सम्मान तथा समान भाव के आधार पर देखा गया। इस संदर्भ में नामवर सिंह की मान्यता भी है - 'साहित्य में पहली बार स्त्री और पुरुष के बीच वैयक्तिक स्वच्छंद प्रेम का अभ्युदय हुआ।'13
'राम की शक्ति पूजा' में राम स्वयं को धिक्कारने का एक कारण यह भी है कि जानकी (शक्ति की प्रतिमूर्ति) का उद्धार न हो सका। निराला ने पत्नी-प्रेम को आधार बनाकर 'तुलसीदास' 'राम की शक्तिपूजा' जैसी कविताएँ लिखीं तो पुत्री स्नेह को अपनाकर 'सरोजस्मृति'। आशय यह है कि छायावाद युग में नारी शक्ति की प्रतिमूर्ति आधारशिला तथा मूलकेंद्र थी। पूर्णशक्ति अर्जित करने के पश्चात् महादेवी कहती है -
'मैं अनंत पथ में लिखती जो
सस्मित सपनों की बातें
उनको कभी न धो पाएँगी
अपने आँसू से रातें।'14
छायावादी काव्य में शक्ति के विविध रूप विद्यमान हैं। छायावदी रचनाएँ काव्य-शक्ति के रूप में ही नहीं, शक्ति काव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। ये रचनाएँ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा विश्व को अमाप शक्ति प्रदान करती हैं। शक्ति काव्य में श्रम है, सौंदर्भ भी है। श्रम और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय साधित हुआ है - 'श्याम तन भर बंधा यौवन, नत नयन, प्रिय कर्मरत मन।'15 में। इस काव्यांदोलन ने ऊर्जस्वित शक्ति-साधना से हिंदी साहित्य को परिपूर्ण कर दिया है। बंधनों, अंधविश्वासों, दकियानुसी विचारों, पुरानी मान्यताओं तथा गलित परंपराओं से मुक्ति प्रदान करने की अपार शक्ति छायावादी रचनाओं में निहित है। अतः छायावादी काव्य यथार्थतः शक्तिकाव्य है।
संदर्भ
1. सिंह नामवर, छायावाद, पृ 17.
2. चतुर्वेदी रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 114,
3. प्रसाद जयशंकर, स्कंदगुप्त, पृ. 133,
4. निराला, राग-विराग, पृ. 58,
5. यथोपरि, पृ. 56
6. यथोपरि, पृ. 98
7. प्रसाद,कामायनी, श्रद्धासर्ग, पृ. 26
8. चतुर्वेदी रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 114
9. प्रसाद, कामायनी, श्रद्धासर्ग, पृ. 28
10. निराला रचनावली, भाग-2, पृ. 51
11. महादेवी, महादेवी, पृ. 56
12. सिंह नामवर, छायावाद, पृ. 87
13. यथोपरि, पृ. 51
14. महादेवी, महादेवी, पृ. 61
15. निराला, राग-विराग, पृ.119