छाया और चन्द्र-ग्रहण / कविता भट्ट

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छाया

अक्सर हम रात के समय कोई छाया या परछाई देखकर डर जाते हैं। पहले यह जानना जरूरी है कि छाया क्या है? किसी अपारदर्शी वस्तु पर प्रकाश पड़ने पर वह उस वस्तु में से नहीं गुजर सकता तथा प्रकाश स्रोत के विपरीत अपारदर्शी वस्तु की दूसरी तरफ एक काला क्षेत्र बन जाता है। यह काला क्षेत्र ही छाया कहलाता है। इसका कारण यह है कि प्रकाश सीधी रेखा में चलता है। जैसे-जैसे वस्तु प्रकाश स्रोत के समीप आती जाती है, छाया का आकार बढ़ता जाता है। छाया दो प्रकार की होती हैµप्रच्छाया और अपछाया। प्रच्छाया का आशय छाया के उस काले घने भाग से है जो प्रकाश रहित होता है। इस भाग में प्रकाश की कोई किरण नहीं पहुँचती। तथा उपछाया का आशय उस छाया से है जो कम प्रकाश के कारण बनती है। इस छाया का कम काला क्षेत्र होता है। उपछाया उस समय बनती है, जब प्रकाश स्रोत वस्तु के आकार से बड़ा होता है।

चन्द्र ग्रहण

ग्रहण-वैदिक एवं पौराणिक कथाएँ ग्रहणों का कारण एक असुर राहु को बताती हैं, जिसका स्पष्ट उल्लेख अथर्ववेद में है। ग्रहणों की सही गणितीय परिकल्पना भारतीय संदर्भ में सबसे पहले आर्यभट्ट ने की, उन्होंने बताया कि चंद्रमा को अपने किसी संगम बिंदु पर रहना चाहिए, अर्थात वे दो बिंदु, जहाँ पर चंद्र कक्ष कांतिवलय के मार्ग को काटते हों। बाद में राहु शब्द वैदिक ग्रंथों से उधार लिया गया तथा इसे चंद्र पात पर लागू किया गया। पात से तात्पर्य प्रतिच्छेद बिंदु से है। ख़ासतौर से आरोही पात या बिंदु (जब चंद्रमा उत्तर की ओर बढ़ते हुए कांतिवलय को काटे)। इसी के साथ वैज्ञानिक विकास का ध्यान रखते हुए पौराणिक कथा को रूपांतरित किया गया। प्राचीन राहु को दो भागों में बाँटा गया। दोनों पातों के अनुसार सिर को राहु नाम दिया गया तथा धड़ को केतु का नाम दिया गया। केतु भी वैदिक है। यह मृत्यु का दूसरा नाम है। यह अन्दाज़ा लगाया गया कि धूमकेतु का अर्थ चिंता से उठने वाले धुएँ से है। राहु और केतु, दो पात एक-दूसरे से 180 डिग्री दूरी पर हैं। एक का निर्धारण दूसरे को तय करता है। इन सबके बावजूद ज्योतिष ग्रंथों में इन्हें दो ग्रहों के रूप में चित्रित किया गया है। वराहमिहिर ने अपनी वृहत-संहिता में दोनों का नाम दिया है।

राहु-केतु की अवधारणा भारत से बाहर भी गई। बर्मी परंपराओं में याहु (निस्संदेह राहु की तरह) को एक नर (आत्मा) के रूप में माना गया है, जो आंशिक ग्रहण के लिए ज़िम्मेदार है। रंगून के श्वे डैगन पगोडा में याहु सहित आठ ‘ग्रह-स्थितियों’ द्वारा व्यक्ति के जन्मदिन का प्रतिनिधित्व होता है।

चीनी स्रोतों में यह संदर्भ अधिक महत्त्वपूर्ण है, जहाँ ये दो ‘अदृश्य नक्षत्रों’ के रूप में चीन और बौद्ध धर्मग्रंथों में तेंग वंश के समय में चर्चित हुए। एक भारतीय बौद्ध भिक्षु जिन जू क्तहा ने क्चीयाओं रैंग ज़ई ज्यू, अर्थात् सात नक्षत्रों के अनुसार विपत्तियों से बचने के सूत्र नामक कृति का संकलन किया। इस कृति में राहु और केतु पर पंचांग के माध्यम से विस्तृत प्रकाश डाला गया है। ये तेंग पंचांगीय गणनाओं में सम्मिलित किए गए थे। दिलचस्प बात यह है कि राहु आरोही पात का सूचक है, तो केतु चंद्रशीर्ष का बिंदु सूचक है। इस प्रकार की पहचान भारतीय ग्रंथों में नहीं है।

सिद्धांतीय काल के संपूर्ण समय के दौरान संगणना में उपकरणों तथा अवलोकनों की स्थिति गौण थी। अवलोकनों से प्राप्त परिणामों को स्पष्ट रूप से अंकित नहीं किया जाता था और खगोलीय उपकरणों का वर्णन मात्र यंत्राध्याय नामक एक अध्याय तक सीमित था। ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फुट सिद्धांत के 19 से 24 तक के अध्याय उपकरणों और प्रेक्षणों को समर्पित हैं। यद्यपि भास्कर द्वितीय को एक बहुमुखीय उपकरण, फलक यंत्र की संरचना का श्रेय दिया जाता है, परंतु इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रेक्षणात्मक खगोल विज्ञान की अपनी पहचान मध्य एशिया से पारस्परिक आदान-प्रदान से ही संभव होकर भारत में मध्य युग में प्रचलन में आई।

चन्द्र ग्रहण उस समय लगता है, जब पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाती है और पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर बनती है। तब चन्द्रमा पूर्ण रूप से पृथ्वी के अवरुद्ध हो जाता है जो कि पूर्ण रूप से प्रच्छाया क्षेत्र में पड़ता है तब पूर्ण चन्द्र ग्रहण घटित होता है। सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा तक नहीं पहुँच पाता है और पृथ्वी में पूर्ण रूप से अंधकार युक्त दिखाई पड़ता है। यदि चन्द्रमा का कुछ भाग पृथ्वी की छाया में से गुजरता है जो कि उपच्छाया क्षेत्र में पड़ता है और सूर्य के कुछ भाग से प्रकाश प्राप्त करता है, तो उसे आंशिक चन्द्र ग्रहण कहते हैं।

चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा की रात में लगता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि यह प्रत्येक पूर्णिमा को घटित हो। यह केवल तभी घटित होता है, जब कि तीनों आकाशीय पिण्ड, सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सरल रेखा में आते हैं। यह घटना सूर्य ग्रहण की अपेक्षा अक्सर घटती है  ; क्योंकि पृथ्वी की छाया चन्द्रमा की अपेक्षा अधिक बड़ी होती है। आप चन्द्र ग्रहण नंगी आँखों से देख सकते हो। वैज्ञानिक उस समय तथा तिथि की भविष्यवाणी कर सकते हैं कि कब पृथ्वी के किस भाग पर सूर्य- ग्रहण और चन्द्र -ग्रहण घटित होंगे। भविष्यवाणी गणनाओं के आधार पर की जाती है।

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