छाया मत छूना मन / हिमांशु जोशी
दो आखरप्रिय देवेन, जो सुना, सच न लगा। ऋचा ने बताया तुम यहाँ तक खोजते आये, मैं न मिल सका। सच, इन दिनों अजीब-सी मनःस्थिति में रहा। ज़िन्दगी से हारे-थके से तुम जब अन्तिम बार मिले थे, तब की तुम्हारी मुद्रा आँखों के आगे घूमती रही है। वे शब्द कानों में अब तक गूँज रहे हैं। सहसा कितने भावुक हो आये थे तुम ! मेरे प्रश्नों से बचने के लिए सामने टँगे कैलेण्डर की ओर अपलक देखते रहे थे-
सागर में डूबता सूरज ! जलता हुआ भीगा किनारा ! अधजले ठूँठ-से आबनूसी खम्भे पर अटके रीते जाल ! लगता था-मोम की तरह पानी पर कुछ पिघल रहा है जो चित्र से सरककर धीरे-धीरे दीवार पर फैल जाएगा। तुम्हें शायद सच न लगे, पर वह पिघला हुआ रंग दीवार पर सचमुच ही बिखर गया है आज। समेटे हुए जाल और लौटते हुए जल-पाँखियों की टोलियाँ उस छोटे-से आकाश में पंख फड़फड़ाते हुए साफ़ दिखाई देती हैं। सामने शून्य पर निराधार अटकी तुम्हारी सूनी आँखें क्या खोज रही थीं उस दिन ? कसक की कड़वी घूँट भीतर-ही-भीतर पीते तुम्हारे गले में कुछ अटक-सा क्या रहा था ? क्यों तुम्हारे चेहरे पर एक विचित्र-सी वेदना घिर आयी थी ? तुम देर तक यों ही कुछ उड़ीकते-खोजते से बैठे रहे थे। जानता था किसी की तलाश तुम्हारी उदास आँखों को अब न थी। खोजतीं ही किसे वे अब ! फिर भी एक ठहराव-कोई टिकाव ? नहीं; इससे परे, बहुत-बहुत परे, तुम कुछ और ही जोह रहे थे।
यह सब होगा, जानता था, समझ रहा था। उस दिन तुम आये, तुम्हें देखते ही समझ गया था। कुछ ही दिन हुए थे जब मेडिकल इन्स्टीट्यूट की तीसरी मंज़िल से तुम्हें झाँकते हुए देखा था। हाथ में काँपती एक्स-रे प्लेट थीं। डॉ. माथुर से सब जान आया था। तुम्हारा बम्बई ले जाने का आग्रह ठीक था। ले जाया गया होता, देवेन, तो शायद....शायद ! पर उसके लिए तब समय ही कहाँ रह गया था। माथुर ने साफ़ कह दिया : अब कहीं कोई उपाय नहीं है; जो दिन हैं, किसी तरह जी लेने दो ! उस रात नींद तो आती भी क्या ! सवेरा होते न होते पहुँचा तो टैक्सी जा चुकी थी। सामने हलकी धूल-धूल-सी थी; दूर, बहुत दूर होती, किसी छोटे-से कुत्ते के भूकने की आवाज़ थी; और द्वार पर दीवार के सहारे खड़ी कोई वृद्धा सिसक-सिसककर रो रही थीं।
लौट आया भारी मन और भारी डगों। सोचता रहा, यह क्या हुआ, क्यों हुआ ? फिर लगता, यह ‘क्या’ और ‘क्यों’ भी क्या आज के लिए कोई असहज बात है ? और चुप का चुप बना तुम्हारे पत्र की राह देखा किया। एक बार जाने की भी सोची। पर वह शायद उचित न होता। इस वर्ष हम लोग वहाँ गये। ऋचा पूछ उठी : कौन-सा है वह होटल ? और मैंने जितना ही टालना चाहा उतनी ही उसकी हठ बढ़ती गयी। हारकर एक दिन ले गया। काश, जाना बचा सका होता ! पर ऋचा ने शायद भाँप लिया था और उसने कुछ भी पूछा नहीं। जिस कमरे में तुम ठहरे थे, उसमें एक कोई नवदम्पती थे। दोनों खिड़की से झुककर सामने की हरी-हरी झील पर हवा से उभरती-उठती सिलवटों को एकटक देख रहे थे। कहीं-कहीं पर जल सूरज की किरणों से पारे की तरह चमक रहा था। सारे पेड़ झील पर झुक-से आये थे-सारे पहाड़ !
महिला दूर से वैसी ही लग रही थी जैसे वसुधा का वर्णन तुमने किया था ! वैसी ही गहरे पिंक कलर की साड़ी, उसी रंग की कलाइयों में ढेर सारी चूड़ियाँ ! और कितने अचरज की बात देवेन, कि पीछे से देखने पर वह पुरुष भी तुमसे मिलता-जुलता था ! हम द्वार से ही लौट आये। उन्हें भान तक न हुआ होगा कि कौन आया और क्यों उलटे पाँव चला गया। शाम को टिफ़िन-टॉप भी गये। देर तक देवदारों में भटकते रहे। ऋचा ने अन्त में वह वृक्ष भी खोज लिया जिस पर वसुधा ने तुम्हारा नाम अंकित किया था। एक-एक अक्षर अब भी उसी तरह ताज़ा था। और उसी तरह खड़ा था वह वृक्ष !
तुमने जैसा बताया था, ठीक उसी तरह उस दिन भी साँझ थी। उसी तरह सूरज डूब रहा था। और उसी तरह पूर्णिमा का चाँद भी लड़िया-काँटा के डाँडे से उझक-उझककर झाँक रहा था। झील पर रंग-बिरंगी छोटी-छोटी पालदार नावें तैर रही थीं। नीचे उतरते समय डाँडी में बैठी एक रुग्णा तरुणी और साथ चलता उसका सहचर। क्यों उस समूची यात्रा में तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होता रहा देवेन ? क्यों रात को पल-भर के लिए भी पलकें न लग पायीं ? क्यों पागलों-सा माल रोड पर भटकता रहा ?
फिर वहाँ कभी भी न जाने की सौगन्ध खाकर लौटा तो चण्डीगढ़ से लिखा हुआ तुम्हारा पत्र पड़ा था। पढ़ते-पढ़ते तुम्हारी वही आकृति सामने आती रही। हाँ वही-जब तुम आये थे : टूटकर, बिखरे-बिखरे, होते भी न हुए जैसे; और एकदम से सोफ़े में धँसकर आँखें मूँदे जड़वत् बैठ गये थे ! किसी तरह तुमने बताया कि अस्थियाँ यमुना में प्रवाहित करने तुमसे जाते न बना। पोटली आले में रखकर यों ही गूँगे-से लौट आये थे। और फिर, फिर पता नहीं किस रौ में क्या-क्या एक साँस सुना गये थे।
उन तमाम टुकड़े-टुकड़े घटनाओं को एक दिन कहानी में पिरोकर ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में दे दिया तो तुम जैसे बौखला गये थे। यहाँ तक लिखा तुमने कि तुम्हारी इन नितान्त अन्तरंग बातों के साथ यह सब क्यों किया मैंने, और करने ही चला तो क्यों वसुधा के बारे में सारी बातें सच-सच नहीं लिखीं-वह तो इससे हज़ार गुना उदार थी ! पर तुम ही बताओ देवेन, मैं यदि सब सच-सच लिख देता तो वह हर किसी को झूठी नहीं लगती-अस्वाभाविक ? आज की दुनिया में ऐसी, माँ और बहिन के लिए अपने को निर्ममता से होम कर देनेवाली वसुधा की कल्पना भी कौन सक सकेगा ? तुम्हारा पत्र उन हज़ारों पाठकों के पत्रों में मिल गया है जो इस उपन्यास के ‘साप्ताहिक’ में आने के बाद मिले। किसी ने लिखा : ‘‘मैं ही वसुधा हूँ। मेरी माँ भी ठीक वैसी ही है जैसी वसुधा की माँ थी। मेरी छोटी बहिन का नाम भी कंची है। आपने मेरी कहानी कहाँ से सुनी ?’’
उपाध्याय के बारे में कभी तुमसे चर्चा आयी थी। एक दिन ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ विंग में मिल गये तो घेर लिया : ‘‘यह तो मेरी कहानी है; आप क्यों कर लिख सके ?’’ वाराणसी से तृप्ता का पत्र था : ‘‘ग्यारह बार पढ़ी आपकी यह रचना। रात को स्लीपिंग पिल्स खाकर ही सो पाती थी। एक तरह का मेनिया ही कहेंगे न इसे !’’ एक पत्र बिना हस्ताक्षर का था :‘‘कॉलेज से लौटने पर ‘साप्ताहिक’ के दो-चार पन्ने पलटे कि पूरा उपन्यास पढ़ गयी। तब तक बच्चे स्कूल से लौट आये थे। मेरी आँखों में आँसू देखकर व सहम-से आये। कन्नी कहने लगी : ‘मम्मी, तुम रो क्यों रही हो ?’ मैं क्या जवाब देती। बच्चे भूखे थे। आँच पर पतीली तक चढ़ी न थी..’’
लखनऊ से किसी पाठिका की शिकायत थी : ‘‘आप मुझे नहीं जानते। सचिवालय में काम करती हूँ। ऑफ़िस आकर बैठी ही थी कि पासवाली मेज़ पर ‘साप्ताहिक’ का अंक दिखा। पन्ने पलटते पता नहीं कब उपन्यास शुरू हुआ, कब ख़त्म। जागी तो साथ काम करनेवाली लड़कियाँ अपने-अपने लंच बॉक्स लिए मेरे पास खड़ी थीं। अचरज से देख रही थीं कि मैं रो क्यों रही हूँ। आप कल्पना कीजिए मेरी क्या स्थिति होगी।’’ सच तो, तुम्हारी ही नहीं देवेन, यह अब बहुतों की कहानी बन गयी है। फिर भी तुम्हारा नाराज़ होना अस्वाभाविक न था। त्रुटियाँ भी हुई ही होंगी मुझसे। लेकिन मेरा उद्देश्य तुम्हें कष्ट पहुँचाने का कभी नहीं रहा। वसुधा के जो पत्र नैनीताल से लौटते समय तुम छोड़ गये थे वे सब सुरक्षित हैं। उन्हें भी इन पत्रों के साथ रख दिया है। ये पत्र भी तो एक प्रकार से वसुधा के ही लिए थे, उसी के कारण लिखे गये ! ये सब भी तुम्हारी ही धरोहर हैं। उस घर की ओर अब भी कभी-कभी जाता हूँ-जहाँ वसुधा रहती थी, जो हमारे घर से अधिक दूर नहीं, जहाँ तुम्हारी झलक दिख जाती थी, और जहाँ अब तुम कभी नहीं आओगे। तुम्हारी कहानी अब पुस्तक के रूप में आ रही है। पहली प्रति पर तुम्हारा नाम लिखकर, उसे तुम्हारे पत्रों में रख दूँगा। तुम्हारी धरोहर रहेगी यह भी। -हिमांशु जोशी ‘‘अरे, तुम !’’ वह अचरज से देखती रही। अपनी आँखों पर उसे विश्वास ही न हुआ। ‘‘कब आये ?’’ उसने चहककर कहा। ‘‘बस, चला ही आ रहा हूँ। तार नहीं मिला क्या ?’’ वसुधा ने यों ही मुसकराने का प्रयास किया, ‘‘तार देते तो क्या यहाँ तक नहीं पहुँचता ?’’ ‘‘नहीं, नहीं ! मैंने डाकख़ाने जाकर ख़ुद भेजा, और तुम कहती हो मिला नहीं...! बड़ी ‘स्ट्रेन्ज’ बात है !’’ वसुधा हँस पड़ी, ‘‘इसमें परेशान होने की क्या बात है ? नहीं मिला तो नहीं मिला, बस्स...!’’ अटैची और बैग उठाकर अन्दर रख दिया उसने। ‘‘बोलो, क्या लोगे ? ‘हॉट’ या कोल्ड’ ?’’
‘‘अभी तो आया ही हूँ। ज़रा साँस लेने दो। फिर ‘हॉट’ भी लूँगा और ‘कोल्ड’ भी !’’ पास ही रखी कुरसी पर बैठकर शरारत से देखने लगा वह। ‘‘बड़ी भीड़ थी कालका-मेल में। कहीं तिल धरने को भी जगह न मिली !’’ जूते के तमसे खोलता हुआ बोला, ‘‘आदमी बोरे की तरह भरे पड़े थे...। कॉलेज के कुछ छोकरों ने किसी महिला को छेड़ा और फिर उसके कपड़े नोच लिये। लोग देखते रहे, लेकिन किसी ने कुछ न कहा। आर.पी.एफ. के जवान भी पास ही खड़े थे। सरकार नाम की कोई चीज़ नहीं रह गयी इस मुल्क में। बस अन्धेर है !’’ वसुधा सोफ़े पर बिखरे कपड़ों को जल्दी-जल्दी उठाने लगी। हैंगर पर टाँगती हुई बोली, ‘‘सरकार नाम की कोई चीज़ रही या नहीं देवेन, लेकिन इतना अब मुझे भी लगने लगा है कि भगवान नाम की कोई वस्तु नहीं है ! होती तो दुनिया में ऐसा अन्धेर न होता।’’
उसने गहरी साँस ली। छोटे-मोटे गन्दे कपड़ों को तौलिये में लपेटकर झट से चारपाई के नीचे डाल दिया। देवेन देखता रहा। फिर हँसता हुआ बोला, ‘‘अरी, ऐसा नहीं कहते ! तुम तो ‘पुजारिन’ हो। सामने तुम्हारे किशन-कन्हाई हैं। सुनेंगे तो क्या कहेंगे !’’ दोनों हँस पड़े, एक साथ। आराम से दूर तक पाँव फैलाकर, गरदन सोफ़े की पीठ पर झुकाकर, छत पर तेजी से घूमते पंखे की ओर देखता रहा वह। ‘‘कंचन कहाँ है ?’’ उसे जैसे सहसा याद आया। ‘‘होगी कहीं मटरगश्ती में ! घर से उसे क्या ? कभी-कभी तो अब रात को भी नहीं लौटती ! माँ उसे कहीं का भी न रख छोड़ेंगी !’’ वसुधा की आकृति में अजब-सी उदासी उभर आयी। देवेन के जूते क़रीने से रखती हुई बोली, ‘‘अन्धेर है देवेन, अन्धेर !’’ देवेन की आँखें मुँदी थीं। रात-भर के सफ़र से वह काफ़ी थका-थका लग रहा था। पलकें नींद से बोझिल थीं। शरीर शिथिल !
वसुधा रसोईघर में घुसकर जल्दी-जल्दी नाश्ता तैयार करने लगी। अँगीठी पर चाय का पानी रखा और स्टोव पर पतीली चढ़ाकर कुछ तलने लगी। वसुधा उन दिनों के बारे में सोचने लगी जब देवेन दिल्ली में था। ‘कृष्णा कमर्शियल एकेडमी’ में दोनों साथ-साथ टाइपिंग सीखा करते थे। एकेडमी का मालिक शर्मा टाइप का अभ्यास कराते समय अनायास उसकी अँगुलियाँ छू लिया करता था। छुट्टी के दिन भी उसे टाइप सिखाने के लिए बुलाता रहा, लेकिन उसका इरादा भाँपकर वही न गयी कभी। च्च ! कैसी भौंड़ी आकृति थी शर्मा की ! चेहरे पर चेचक के भद्दे दाग़ और लाल-लाल आँखें-शराबियों जैसी ! उसकी ओर देखते डर-सा लगता।...ग्रोवर कहती थी मिस विमला से उसके बड़े गहरे ताल्लुक़ात रहे। छुट्टी के दिन वह नियमित आती थी ! कभी-कभी अपनी सहेलियों को भी साथ लाती। शर्मा के दोस्तों की कमी न थी। जिससे जब काम निकालना होता, बुला लेता।....विमला अब ‘फ़ूड मिनिस्टरी’ में स्टेनो है !
किसी मिनिस्टरी में नौकरी पाने की तमन्ना वसुधा की भी थी, लेकिन इस तरह नहीं। माँ आये दिन झिड़कती-कड़कती रहती, कभी-कभी गरज भी पड़ती, ‘‘तेरे साथ की सब लड़कियाँ हिल्ले से लग गयीं और तू उम्र-भर टाइपिंग ही सीखती रहेगी ! तुझसे तो कंचो लाख गुना अच्छी। वक़्त को पहचानकर चलती तो है !’’ चलने दो उसे वक़्त के साथ माँ ! मुझे बख़्श। मुझसे नहीं होगा और सब !’’ ‘‘अरी मरजानी, तुझसे कुछ क्यों होगा ? जिसे दो वक़्त पेट में ठूँसने को रोटियाँ मिल जाएँ, वह क्यों करे मेहनत ! देख न, सामने वेद के घर नौ-नौ सौ रुपये महीने आ रहे हैं। तीनों लड़कियाँ हैं, तीनों कमा रही हैं।’’ वसुधा इन बातों का क्या उत्तर देती ! चुपचाप टाल जाती।
शर्मा ने मौक़ा देखकर, एक दिन उसे केबिन में बुलाया। घर की स्थिति के बारे में विस्तार से पूछता रहा, साथ ही हमदर्दी भी जतलाता रहा। तुम्हारे पिता कब से बीमार हैं ? दिल्ली में अच्छे-अच्छे अस्पताल हैं, कहीं इलाज क्यों नहीं करवाया ? उसकी अच्छी जान-पहचान है, वह सहायता कर सकता है। रिश्तेदार तो होंगे बहुत-से, वे कोई हेल्प क्यों नहीं करते ? इन्सान पर गर्दिश आती है तो उसकी मदद करनी चाहिए। यह तो इन्सानियत का फ़र्ज़ है...।’ उस महीने उसने फ़ीस लेने से भी इनकार कर दिया था। जिस तरह यह सब हो रहा था, वसुधा उससे परेशान थी। स्वभाव संकोची था। दो-टूक कहने को आदत न थी। वैसे संस्कार ही न रहे कभी। देवेन तब उसकी बग़ल में बैठता था। एक दिन वस्तु-स्थिति ताड़कर बोला, ‘‘शर्मा की नीयत ठीक नहीं लगती। शाम को चलेंगे। सेण्ट्रल मार्केट में एक और टाइपिंग स्कूल है, वहाँ पूछेंगे।’’ तभी शर्मा ने बुलाया वसुधा को। चाय के साथ-साथ मक्खन-टोस्ट भी खिलाता रहा। अन्त में उसने निर्लज्ज ढंग से जो प्रस्ताव रखा उसे सुनकर वसुधा घबरा गयी।
उस दिन अपनी सीट पर आकर उससे टाइप न हो सका। अँगुलियाँ ग़लत बटनों पर जा पड़तीं। बार-बार कुछ का कुछ टाइप हो जाता। हाथ काँप रहे थे उसकी, अँगुलियाँ काँप रही थीं सारी देह काँप रही थी। जैसे शब्द शर्मा ने कहे, वैसे आज तक कभी उसने सुने न थे। समय से पहले ही उठकर वह चली आयी। अभी फ़ीरोज़ गाँधी रोड के चौराहे तक पहुँची ही थी कि पीछे से देवेन ने पुकारा। वसुधा ठिठक गयी। ‘‘जल्दी क्यों उठ आयी आज ?’’ ‘‘यों ही...’’ देवेन उसके चेहरे की ओर अपलक ताकता रहा, ‘‘तुम्हें क्या हो गया ? घबरायी-घबरायी-सी क्यों हो ?’’ ‘‘कहाँ हूँ !’’ यों ही हँसने का प्रयास किया वसुधा ने। ‘‘तो चलो, सेण्ट्रल मार्केट में पूछ लें अभी !’’ ‘‘नहीं, आज नहीं।’’
वसुधा चली गयी। उस रात वह बहुत रोयी। दूसरे दिन टाइप सीखने न गयी तो शाम को देवेन स्वयं चला आया। वसुधा उदास थी। शायद माँ से भी कुछ कहा-सुनी हो गयी थी। सुबह खाना भी नहीं खाया उसने। चेहरा काफ़ी लटका हुआ था। देवेन चला गया तो वह साँझ देर गये तक पार्क में अकेली बैठी रही। उस दिन देवेन के साथ उसके घर गयी पहली बार। घर में कोई न था। उसकी बिखरी किताबें, उसके इधर-उधर फैले कपड़े-वसुधा ने क़रीने से तहाकर रख दिये थे। सवेरे के जूठे बरतन माँज दिये थे और स्वयं चाय बनाकर उसे पिलायी थी। देवेन की माँ प्रायः गाँव में ही रहा करती थीं। लम्बा-चौड़ा कारोबार था वहाँ। अतः न गाँव को छोड़ पाते, न हमेशा यहाँ रह ही सकते थे वे लोग !
पिता सुबह ऑफ़िस चले जाते और रात को ही लौटते। दिन-भर देवेन अकेला रहता। बी.ए. से अधिक वह पढ़ न पाया था। इसी में तीन-चार साल लगा दिये थे। पिता का इरादा उसे टाइपराइटिंग-शार्टहैण्ड सिखाकर कहीं छोटी-मोटी नौकरी में लगा देने का था। उनके एक-दो मित्रों ने आश्वासन भी दिया था। जो कुछ पैसे उसे जेब-ख़र्च के लिए मिलते, उसका आधा वह वसुधा को दे दिया करता था। अस्वस्थता के कारण जब से वसुधा के पिता की नौकरी छूटी, दिन में ही तारे छिटक आये थे। घर की हालत एकदम बिगड़ गयी थी। पिता का आधा अंग बेकार हो गया था, लकवे के कारण। दिन-रात बिस्तर पर पड़े रहते। माँ का उग्र स्वभाव और भी उग्र हो आया था अब। आये दिन घर में महाभारत मचा रहता। सारी बातों के लिए रुग्ण पिता को ही दोषी ठहराया जाता, या फिर वसुधा को।
घर में रहना वसुधा के लिए कठिन हो आया था। पिता की दयनीय स्थिति देखी न जाती, उस पर माँ अकारण झिड़क देती। डबडबायी आँखों से पिता तब छत पर कुछ खोजने लगते, विवश भाव से। यही सब देखते-देखते वसुधा ने पढ़ाई छोड़ दी थी। नौकरी की तलाश में दिनों इधर-उधर भटकती रही थी। लेकिन बिना टाइपिंग पूरी सीखे नौकरी देने भी कौन लगा ! पाँच-छः महीने तो माँ फ़ीस देती रही, लेकिन बाद में वह बन्द हो गयी। देवेन अब सारी व्यवस्था ख़ुद कर देता था, किसी तरह।
एक दिन धोती बिलकुल फट गयी थी। सिलाई करके पहनने लायक़ भी न रह गयी तो टाइप सीखने न जा सकी। तब देवेन ने अपने सूट के कपड़े के लिए मिले पैसों में बचत करके एक कम दाम की धोती उसके लिए ख़रीद दी थी। उसे देखते ही माँ बिफर पड़ी थी, ‘‘अब लायी न यह भिखमंगों जैसी ! ज़िन्दगी में जीने के लिए बस्सो, अकल चाहिए, अकल ! किशन, खन्ना से मिलाने को कहता था, लेकिन तब ऐंठ में रही, न गयी। और अब भुगत अपने हाल !’’ ‘‘मैंने तो तुमसे कोई शिकायत नहीं की चाईजी !’’ न चाहते हुए भी वसुधा को बोलना पड़ा था, ‘‘तीन दिन तक धोती न होने के कारण कमरे से बाहर न निकल पायी; तुममें से पूछा किसी ने ? फ़ीस तक तो देनी बन्द कर दी !...और जब-तब खन्ना की बातें करती हो ! मैं उसके स्टूडियो में तीन बार गयी थी। जानती हो उसने क्या कहा तीनों बार ?’’ वसुधा आवेश में काँपने लगी, ‘‘कहता था-तुम्हें सारे कपड़े उतारकर फ़ोटू खिंचवानी पड़ेगी...।’’ वसुधा रो पड़ी ज़ोर से ! अपनी पराजय स्वीकार करना माँ ने कभी सीखा न था। अतः चुप होने की अपेक्षा और भी उत्तेजित स्वर में फट पड़ी, ‘‘खन्ना ने ये कहा था, खन्ना ने वो कहा था’’, आँखें मटकाकर, हाथ नचाकर बोली, ‘‘खन्ना की बच्ची, और यह सड़ी हुई धोती लायी है, कहाँ से ? बड़ी सावित्तरी बनती है, खसमखानी !’’