छाया / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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मैंने बहुत फाँसियाँ देखी हैं उन्हें देखने का आदी-सा हो गया हूँ। जब मेरी ड्यूटी फाँसी पर लगती है, तब मुझे घबराहट नहीं होती, मेरा जी नहीं मिचलता। अपना काम पूरा करता हूँ। और खुशी-खुशी चला आता हूँ, दूसरी बार मुझे उसका ख़याल भी नहीं होता। जैसा कहानियों में होता है, चलते-चलते ठिठक जाऊँ, खाना खाते-खाते चौंककर देखने लगूँ कि हाथों में खून तो नहीं लगा है, सोते-सोते स्वप्न में चिल्ला उठूँ, यह सब मुझे न होता है न कभी हुआ है। हाँ, उस एक फाँसी की याद मेरा भी दिल हिला देती है। इसलिए नहीं कि उसमें कोई खास बात थी। नहीं, वह भी और फाँसियों की तरह एकदम मामूली फाँसी थी... पर उसके पहले और बाद की एक-दो घटनाएँ ऐसी थीं, और वह क़ैदी जो उस दिन फाँसी देखने के लिए भेजा गया था, उसके मुँह के भाव शायद और फाँसियों की तरह मैं उस फाँसी को भूल जाता, लेकिन उस कैदी की याद एकदम फाँसी की याद दिला देती है... कैदी की फाँसी की और उन एक-दो घटनाओं की कहानी एक-दूसरे से ऐसी जुड़ी हुई है कि एक का ध्यान आते ही सारी कहानियाँ आँखों के सामने फिर जाती हैं -और उस लड़की के पत्र की, उस बेंत लगने के नज़ारे की, और उस क़ैदी के गाने की याद मेरे आगे नाच उठती हैः

आसन तलेर माटिर परै लूटिए र’ब।

तोमार चरण धूलाय धूलाय धूसर ह’ब!

बाईस साल से जेल में वार्डरी करता हूँ, लेकिन ऐसी बात कभी नहीं देखी थी। और बार्डरों की तरह मैंने भी सब बदमाशियाँ की हैं, कैदियों को सिगरेट, तम्बाकू, सुलफा, गुड़, सब कुछ लाकर देता हूँ, चिट्ठी भी अन्दर-बाहर पहुँचा देता हूँ, मशक्कत में भी गड़बड़कर देता हूँ। नब्ज देखकर कैदियों की हर तरह से मदद करता हूँ, लेकिन पैसा लेकर। बिना पैस गाँठे कभी किसी को एक बीड़ी तक नहीं दी। लेकिन उसकी आँखों में, आवाज़ में कुछ जादू था-मैं उसका सब काम बिना कुछ लिए कर देता था-और काम भी छोटा-मोटा नहीं, दफ़्तर से चिट्ठियाँ तक चुरा लाता था...

मेरी औरत जेल की मेट्रन है, औरत होने की वजह से वह मुझसे ज्यादा गड़बड़ करती रहती है। लेकिन वह जब मेरी करतूतें सुनती तब घर में रार मच जाती... “इतने बड़े काम, और एक पैसा भी नहीं! किसी दिन फँस जाओगे, तो दोनों को सड़कों पर भूखे भटकना पड़ेगा।” कभी-कभी दस-दस दिनों तक एक-दूसरे से बोलने की नौबत न आती... मैं वायदे करता आगे से कभी ऐसा न करूँगा। लेकिन फिर, जब वह मुझसे कुछ काम कहता, मैं भेड़-बकरी की तरह दुबककर चुपचाप कर देता। जब वह खुश होकर कहता, “मँगतू, तुम्हारा कर्जा कैसे चुकाऊँगा?” तो में निहाल हो जाता, मेरी बाछें खिल जातीं...

उस दिन फिर मेरी और मेरी घरवाली की लड़ाई हो रही थी। उसी वक़्त हेड वार्डर ने आकर बुलाया, “मेट्रन!” हम दोनों बाहर चले आये। मैंने पूछा, “क्या है?”

वह बोला, “एक औरत हवालात में आयी, ख़ून के मामले में। उसे बन्द करना है।”

मेट्रन जेल के भीतर चली गयी। मैंने हेड वार्डर से पूछा “कैसी औरत है?”

“मैंने देखी नहीं। कहते हैं, इन्हीं बमबाज़ों में से है। पिस्तौल से तीन आदमी मार दिये, और चार जख्मी किए, फिर पकड़ी गयी।”

“नाम क्या है?”

“सुसमा या सुषमा, ऐसा ही कुछ है। लेकिन पुलिसवाले कहते हैं कि उसका असली नाम कुछ और है।”

मुझे दिलचस्पी बहुत हुई, लेकिन ज़नाने वार्ड में तो जा नहीं सकता। मैंने सोचा, ‘वह’ वापस आएगी तो उससे पूछूँगा।

पर आठ बज गये, ‘वह’ नहीं आयी। मैं अन्दर अपनी ड्यूटी पर चला गया। मेरी ड्यूटी चक्कियों पर थी। सबसे पहली जो कोठरी थी, उसमें वह क़ैदी रहता था। सारे जेल में वही एक ‘पोलिटिकल’ कैदी था। वैसे तो और भी ‘पोलिटिकल’ बहुत थे, लेकिन वे पिकेटिंग में तीन-तीन, छःछः महीने की सज़ा लेकर आये थे, और दूसरी तरफ बैरकों में रहते थे। वही अकेला था जिसे दस साल की सजा हुई थी। मैंने सुना था, उसने कई ख़ून किये हैं मगर सुल्तानी गवाह के पलट जाने से सबूत नहीं मिला, इसलिए सजा दस ही साल रह गयी। कुछ हो, वह बड़ा शान्त आदमी था, और अपनी धुन में मस्त रहता था। एक बार मैंने उससे पूछा, “अरुण बाबू, ये सब चिट्ठियाँ-विट्ठियाँ जो तुम मँगवाते हो, सो किसलिए?” तो वह हँसकर बोला, “मेरे दस से पन्द्रह साल हो जाएँगे लेकिन एक बार सरकार की नाक में दम कर दूँगा।” मैंने बहुत पूछा, समझाकर कहो, पर वह हँसता ही रहा, और कोई जवाब नहीं दिया...

उसी की कोठरी के बाहर मैं बैठ गया,-वहीं मेरी ड्यूटी थी।

जेल की ड्योढ़ी में नौ बजे तो मैंने सोचा, अभी दो घंटे और बैठना पड़ेगा... इसी सोच से बढ़ता न जाने कहाँ-कहाँ के चक्कर लगा आया, यह नौकरी कैसी बुरी है, अठारह रुपये के लिए सोना तक हराम हो गया है! इससे अच्छा होता, कहीं स्टेशन पर कुलीगीरी करता - पर उसमें भी तो रात की गाड़ियाँ देखनी पड़तीं। कहीं ताँगा चलाया करता - दिन-भर की सैर होती और रात को मज़े से घर आकर सोता... इस नौकरी में ऊपर के आठ-दस मिलते हैं, उसमें भी मिल ही जाते, और इतनी चोरी, ऐसी लुक-छिप न करनी पड़ती। और न जाने ऐसी कितनी अनाप-शनाप बातें सोचता रहा...

एकाएक मैं चौंका। दूर पर कोई औरत गा रही थी-गा क्या रही थी एक बड़ी लम्बी तान लगा रही थी... उस आवाज़ में कितनी मिठास, कितनी कसक थी! मैंने ध्यान से सुना-आवाज़ जनाने वार्ड से आ रही थी-पर पहले तो वहाँ कोई गानेवाली नहीं थी... यह वही सुसमा या सुषमा है... पर उस गाने से मानो आकाश भर गया था-मैं कुछ सोच नहीं सका, चुपचाप सुनने लगा...

वेदी तेरी पर मा, हम क्या शीश नवाएँ!

तेरे चरणों पर मा, हम क्या फूल चढ़ाएँ?

लोह मुकुट है सिर पर

पूजा को ठहरें मा, या समर-क्षेत्र में जाएँ?

लय टूट गयी। मुझे ऐसा मालूम हुआ, मानो धरती एक बार बड़े ज़ोर से काँप कर रुक गयी हो। मैं चुप बैठा रहा, शायद इसी आशा में कि वह फिर गायेगी। और मुझे निराश भी नहीं होना पड़ा। गाना फिर शुरू हुआ, पर पहले और इसमें कितना फ़र्क था! पहला था मानो खुशी से भरा हुआ, उछलता हुआ चला जा रहा हो, और यह-दबे हुए दर्द से, जलन से भरा हुआ... मानो एक गरीब की आह लम्बी-हो-होकर एक तान हो गयी हो...

तन में मेरे चरणों की मैं धूमिल धूलि रमाये,

मन में तेरे सुख की आभा की मैं याद बसाये,

तुझे खोजती कहाँ-कहाँ पर भटकी मारी-मारी,

पर निष्ठुर तू पास न आया मैं रो-रोकर हारी!

मेरी जान तड़प गयी... मैं और सुन नहीं सका, कुछ बोलने को जी चाहा। मैंने पुकारकर कहा, “अरुण बाबू, सुनते हो?” लेकिन कोई जवाब न आया। मैंने समझा, अरुण बाबू सो गये होंगे, चुप होकर बैठा रहा... वह तान फिर आयी, पहले से भी अधिक ऊँची - उफ़्!

आज लगा जब मेरा पिंजरा उसी व्यथा से जलने,

तब तू आया उसी राख को पैरों तले कुचलने!

भूला-भूला रहता, मैं भी समझा लेती मन को-

क्यों बिखराया फिर तूने आ गरीबिनी के धन को?

आह ठंडी हो गयी। मैंने कहा, “अरुण बाबू!” कोई जवाब नहीं आया-आयी कहीं से धीरे-धीरे रोने की आवाज़! मैंने कोठरी के पास जाकर देखा, वह क़ैदी दोनों हाथों से सीखचे पकड़े, उन पर सिर रखे, सिसक-सिसक कर रो रहा था। अचम्भे में आकर कहा, “क्या बात है, अरुण बाबू?”

उसने मुँह फेर लिया। मैंने फिर कहा, “छिः, अरुण बाबू, इतने बड़े होकर रोते हो?”

वह चुप हो गया। पाँच-सात मिनट चुप बैठा रहा। फिर बोला, “मँगतू यह कौन गा रहा था?”

मैंने जवाब दिया, एक नयी औरत आयी है, हवालात में। सुना है उसने तीन पुलिसवालों को गोली से उड़ा दिया है। फिर मैंने जो कुछ उसके बारे में सुना था, सब बता दिया। दो-एक मिनट चुप रहकर वह बोला, “उसका नाम क्या है जानते हो?”

“सुसमा या सुषमा, कुछ ऐसा ही है।”

उसने धीरे से कहा “सुषमा!” और चुप हो गया।

मैंने पूछा, “अरुण बाबू, उसे जानते हो क्या?”

उसने तो कुछ देर जवाब नहीं दिया। फिर बोला, “वह मेरी बहिन है।”

मैंने कहा, “जभी तो!”

जभी तो क्या, इसका जवाब मुझे खुद भी नहीं मालूम था। इतना कह चुकने के बाद मेरी और कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। उसी ने फिर पूछा, “मँगतू, तुम मेट्रन को जानते हो?”

मैंने कुछ हँसकर कहा, “हाँ, क्यों?”

“हँसते क्यों हो?”

“कुछ नहीं, वह मेरी घरवाली ही है।”

“अच्छा! तो मेरा एक काम करोगे?”

“क्या?”

“एक चिट्ठी उसे पहुँचानी होगी।”

मैंने चौंककर कहा, “मेट्रन को?”

“नहीं, उस-सुषमा को।”

इसका जवाब देने के पहले मैं कुछ देर सोचता रहा। उससे जब कहूँगा, चिट्ठी पहुँचा दो, तो वह क्या कहेगी? आगे ही लड़ाई होते-होते बची थी। पर मैं इनकार भी नहीं कर सकता था। मैंने कहा, “काम तो जोख़िम का है।”

“मँगतू, यह काम तुम्हें जरूर करना पड़ेगा। मैं जन्म-भर तुम्हारा उपकार मानूँगा।”

“अच्छा, तुम लिखकर दे दो।”

उसने अँधेरे में ही चक्की के नीचे से एक काग़ज़ का टुकड़ा और एक पेंसिल निकाली और कुछ लिखकर मुझे दे दिया। मैंने चुपके से उससे काग़ज़ लेकर जेब में रखा और अपनी जगह जाकर बैठ गया। सोचता रहा कि कैसे काम करना होगा...

आखिर ग्यारह भी बज गये। दूसरा वार्डर आ गया, मैं उठकर घर पहुँचा। वह चटाई बिछाये बैठी थी, मुझे देखकर बोली, “खाना रखा है, जल्दी से खा लो।” मैंने चुपचाप खाना खाया। फिर जाकर बिस्तर पर बैठ गया और हुक्का पीने लगा। मेरी ओर देखती हुई बोली, “अब सोओगे भी या सारी रात गुड़गुड़ी बजाओगे?”

मैंने कुछ एक ओर सरककर कहा, “यहाँ आओ, तुमसे कुछ बात करनी है।”

वह चारपायी पर मेरे पास आकर बैठ गयी और बोली, “क्या?”

“वह जो नयी हवालातिन आयी है – सुषमा - वह गज़ब का गाती है।”

उसने भवें तानकर कहा, “तुमसे मतलब?”

मैंने देखा, बिस्मिल्ला ही गलत हुआ। बात बदलकर बोला, “यों ही। आज दो रुपये गाँठें हैं।” यह कहकर मैंने धीरे से जेब में रुपये खनका दिये।

देवी कुछ शान्त हुई। बोली, “कैसे?”

“उसी पोलिटिकल ने दिये हैं-एक चिट्ठी पहुँचाने के लिए। पर वह काम तुम्हें करना होगा।”

“क्या?”

“इसी सुषमा को एक चिट्ठी पहुँचानी है।” कहते हुए मैंने चिट्ठी जेब से निकाल ली।

उसने एक बार तीखी नज़र से मेरी ओर देखा, फिर चिट्ठी मेरे हाथ से लेकर पढ़ने लगी।

मैंने कहा, “यह क्या करती हो?” किन्तु टोकते-टोकते मुझे खुद भी पढ़ने की चाह हुई। मैंने झुककर पढ़ा, सिर्फ दो-तीन सतरें लिखी हुई थीं।

“बहिन सुषमा - तुम्हारा गायन सुनकर मुझे कुछ याद हो आया। तुम शारदा को जानती हो - और उस नाव की दुर्घटना को? - अरुण।”

बायीं ओर कोने में लिखा था, “वाहक विश्वस्त है।”

पत्र पढ़कर देवी का कोप कम हो गया। “पहुँचा दूँगी। पर समझ में तो कुछ आया नहीं!”

मैंने कहा, “समझकर क्या करोगी? जिनका काम है वे जानें। पर सवेरे ही पहुँचा देना। शायद जवाब भी-”

सबेरे उठते ही वह भीतर चली गयी, और थोड़ी देर बाद वापस आ गयी। मैंने पूछा, “क्यों?” उसने बिना जवाब दिये वही चिट्ठी लौटा दी। उसके एक कोने में लिखा था - “सुषमा शारदा को जानती है-और उस दुर्घटना को भी। विस्तार फिर।” मैंने काग़ज़ जेब में रख लिया। वह बोली, “दाम के हिसाब से काम तो कुछ भी नहीं था।” मैंने मन-ही-मन हँसकर कहा, “इससे हमें क्या मतलब? हम अपना काम पूरा करते हैं।” कहकर मैं फिर अपनी ड्यूटी पर चला। कोठरियाँ खोलकर कैदियों को बाहर कारखानों में पहुँचाना था।

सब कोठरियाँ खोलकर मैं उसकी कोठरी पर पहुँचा। दरवाज़ा खोलकर मैंने कहा, “अरुण बाबू, चलो कारखाने में।” कहते-कहते मैंने वह चिट्ठी उसके हाथ में दे दी। उसने कहा, “आज तबीयत ठीक नहीं, मैं काम पर नहीं जाऊँगा।”

“तो फिर डॉक्टर को रिपोर्ट करनी होगी।”

“कर दो।”

“वे अभी यहाँ आएँगे।” कहकर मैंने आँख से इशारा किया।

वह बोला, “हाँ-हाँ, आने दो।” और मुस्कराया। मुझे तसल्ली हो गयी कि उसने इशारा समझ लिया है। मैं कोठरी बन्द कर डॉक्टर को बुलाने चला गया।

जब मैं डॉक्टर के साथ वापस आया तब वह कुछ चबा रहा था। हमें देखकर जल्दी से निगल गया। मैंने मन-ही-मन कहा, “ठीक है, चिट्ठी तो गयी।”

डॉक्टर ने कैदी से कहा, “जबान दिखाओ।”

कैदी ने जबान निकाल दी। डॉक्टर उसे देखने को झुका और बहुत धीरे-धीरे बोला, “अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।”

कैदी ने मुस्कराकर उसी तरह धीरे-धीरे उत्तर दिया, “मेरे पास कुछ नहीं है। और होता भी तो...।”

मैं मुँह फेरकर हँसा। डॉक्टर बोला, ‘क़ैदी बीमार नहीं है, बहाना करता है। साहब को रिपोर्ट करो।” कहकर वह चला गया।

मैंने कहा, “अरुण बाबू, तुमने अच्छा नहीं किया।”

उसने हँसकर जवाब दिया, “मुझे अब किसी की परवाह नहीं है।”

आधे घंटे के बाद हेड-वार्डर और डिप्टी के साथ साहब आये। उन्हें देखकर कैदी उठा नहीं, वहीं बैठा रहा। साहब ने पूछा, “काम पर क्यों नहीं जाता?”

उसने शान्त भाव से उत्तर दिया, “तबीयत ठीक नहीं है।”

साहब ने कहा, “ट्वेंटी स्ट्राइप्स!” और चले गये। जाने पर मालूम हुआ कि बीस बेंत का हुक्म दे गये हैं।

हेड-वार्डर उसे उसी वक्त ले गये। मैं सुन्न हुआ अपनी ड्यूटी पर बैठा रहा...

आधे घंटे बाद वह वापस आ गया। शरीर पर सिर्फ एक लंगोट-वह भी लहू से भीग रहा था... हाथ में अपने कपड़े लिये, अकड़ता हुआ आया, और कोठरी में चला गया । हेड-वार्डर ने कहा, “बन्द कर दो।” वह हँसकर बोला, “काम पर तो नहीं गया।” हेड-वार्डर चला गया। मैं अपनी जगह जाकर बैठ गया, आज उससे बात करने की हिम्मत नहीं थी...

ग्यारह बजे ड्यूटी खत्म करके पहुँचा, तो देवी मुँह लटकाए बैठी थीं। मैंने पूछा, “आज उदास क्यों हो?” उसने मानो सुना ही नहीं। बोली, “आज जिसको बेंत लगे हैं, वही हैं अरुण बाबू?”

“हाँ।”

“बड़ा बाँका जवान है।”

मैंने डरते-डरते कहा, “मैं तो सदा से कहता हूँ।”

“लेकिन तुम मर्दों की अक्ल का क्या इतबार?”

मैं चुप रहा। थोड़ी देर बाद मैंने पूछा, ‘तुमने कहाँ देखा?”

“जब बेंत लगाने लाए थे, तब।”

“फिर?”

“साहब आये थे, इसलिए मैं सब औरतों के लिए परेड कराने को अपने वार्ड के बाहर जंगले में खड़ी थी। सामने ही टिकटी खड़ी थी, उसी ओर हम देख रहे थे। इसी वक्त वह लंगोट बाँधे आया और अकड़कर टिकटी पर खड़ा हो गया, वह लड़की सुषमा उसको देखकर काँप गयी, फिर मेरे पास आकर बोली, “यह क्या हो रहा है?”

मैंने कहा, “बेंत लगेंगे।” वह बोली, ‘बेंत!” फिर सींखचों को पकड़कर खड़ी हो गयी। उसका मुँह लाल हो आया, पर वह कुछ बोली नहीं।

“फिर?”

“उसने भी सुषमा को देखा। देखकर चौंका, मुस्कराया, फिर एकटक देखता ही रहा। जितनी देर बेंत लगते रहे, दोनों हिले तक नहीं-वैसे ही एक-दूसरे की ओर देखते रहे। फिर जब वे उसे उतारकर ले गये, तब वह घूमी, ओर “भइया!”

कहकर धरती पर बैठ गयी...”

“फिर?”

“फिर मैंने उसे हिलाया, तब मानो स्वप्न से जागकर उठी, चुपचाप मेरे साथ अन्दर चली आयी। मैंने ढाढ़स देने को कहा, “बहिन, ऐसा होता ही रहता है।”

उसने सिर झुकाए ही कहा, “इस वक़्त जाओ!” मैं चली आयी।”

मैं चुपचाप बैठ गया।

इसके बाद चार-पाँच दिन कुछ भी नहीं हुआ। मैं रोज रात को अपनी ड्यूटी पर जाता और पूरी करके चला आता... सुषमा का गाना रोज़ वहाँ सुनाई पड़ता था-

भूला-भूला रहता, मैं भी समझा लेती मन को-

क्यों बिखराया, फिर तूने आ गरीबिनी के धन को?

मैं चुपचाप सुनता रहता था औैर वह क़ैदी भी। उसके बाद वह कभी रोया नहीं। न मेरी ही हिम्मत पड़ी कि उससे बात करने जाऊँ...

पर पाँचवें दिन वह आयी और बोली - “दीखता है, दो रुपये में बहुत चिट्ठियाँ पहुँचानी पड़ेंगी; पर उस लड़की में कुछ अज़ब गुण हैं, ना करते नहीं बनता।”

मैंने मन-ही-मन कहा, “मुझ ही पर ऐंठती थी। प्रकट बोला, “क्यों-कोई ओर चिट्ठी है क्या?”

“हाँ, यह लो,” कहकर उसने पाँच-छः लिखे हुए काग़ज़ मेरे हाथ पर रख दिए।

मैंने कहा, “यह चिट्ठी नहीं, यह तो चिट्ठा है।”

वह कुछ नहीं बोली, “मैंने चिट्ठी जेब में रख ली।

कौतूहल बड़ी बुरी चीज़ है। जब से चिट्ठी मेरे हाथ में आयी, मैं यही सोचता रहा, कब वह जाए और मैं इसे पढ़ूँ। उसके सामने पढ़ते डर लगता था - अपनी मर्दानी शान भी तो रखनी थी! उस दिन मैंने उसे अरुण की चिट्ठी पढ़ने से टोका था - बाद में खुद पढ़ ली, सो दूसरी बात है, मना तो कर दिया था न...

आखिर वह अपनी ड्यूटी पर गयी। मैं चिट्ठी लेकर पढ़ने बैठा। पढ़ते वक़्त मुझे यह ख़याल न था कि मैं अरुण बाबू से धोखा कर रहा हूँ। उनका काम तो इतना ही था कि चिट्ठी पहुँचा दूँ, किसी ग़ैर के हाथ में न पड़े। मैं कोई ग़ैर थोड़े ही था? और फिर जब पढ़कर मैं उसे अपने मन में ही रखता था, किसी से कहता नहीं था, पढ़ने में क्या हर्ज़ था?

ख़ैर, मैंने बैठकर चिट्ठी तो पढ़ डाली। कुछ समझ आयी, कुछ नहीं, पर मैंने एक अक्षर भी न छोड़ा...

सोमवार

‘भइया,

‘उस दिन तुम्हारा पत्र पाकर मुझे कितना विस्मय हुआ, सो मैं ही जानती हूँ शायद तुम्हें मेरे गाने की आवाज़ सुनकर भी इतना विस्मय न हुआ हो। मैं नहीं जानती थी कि तुम इसी जेल में हो-पर तुम तो शायद यह भी नहीं जानते थे कि मैं जीवित हूँ या नहीं...

‘तुम्हें बहुत कौतूहल होगा, इसलिए पहले शारदा की ही कहानी कहूँगी। अपनी कहानी के लिए फिर भी बहुत समय मिलेगा। उस दिन, जब तुम और शारदा नाव में बैठकर झील के किनारे की गुफ़ा में सामान इत्यादि छिपाने के लिए घुसे थे, समुद्र में ज्वार आने से झील का पानी चढ़ गया था - गुफ़ा भर गयी थी... उसके बाद नाव उलट गयी और तुम बाहर आये तो देखा शारदा का कोई पता नहीं है... वह सब मैं यहाँ बैठ स्मृति-पटल पर देख सकती हूँ, उसे दुहारने में कोई लाभ नहीं... पर शारदा डूबी नहीं थी। उसी टूटी नाव के एक तख़्ते पर बहती हुई वहाँ से दस-बारह मील दूर किनारे लगी। दो दिन एक मछुए के झोंपड़े में रही, तीसरे दिन वहाँ से चलकर रात को अपने घर पहुँची। अभी घर के बाहर ही थी कि उसने घर से बहुत-से व्यक्तियों के रोने की आवाज़ सुनी। एका-एक किसी भयंकर आशंका से काँप गयी, कहीं अरुण का भी स्वर सुना, और शान्त होकर सोचने लगी - क्या यह रोना मेरे ही लिए तो नहीं है? कैसी विचित्र दशा थी वह! शारदा जीती-जागती बाहर खड़ी, और अन्दर लोग उसकी मृत्यु पर रो रहे थे!

‘तुम जानते ही हो, शारदा कैसी विचित्र लड़की थी। इस दशा में उसने जो निर्णय किया, उसमें शारदा का व्यक्तित्व साफ झलकता है। उसने सोचा, जो काम आज कर रही हूँ, उसमें किसी-न-किसी दिन घर छोड़ना पड़ेगा-शायद जेल जाना पड़े, शायद मृत्यु का भी सामना करना पड़े। इन सबके लिए वह कितना दुखमय दिन होगा! इससे तो कहीं अच्छा है, आज ही मैं गुम हो जाऊँ। ये तो मुझे मृत समझते ही हैं... अब मेरा व्यक्तित्व कुछ नहीं रहेगा। शारदा का भूत ही सब काम करेगा... लोग पकड़ेंगे तो किसे? वारंट निकालेंगे तो किसके नाम?

“वहाँ खड़ी शारदा ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें सोचती रही। एक बार उसकी इच्छा, हुई भीतर जाकर अरुण से मिलूँ, उसे सारी कथा समझा दूँ। पर फिर और लोग भी देख लेते... और शायद अरुण भी उसकी बात न मानता...

‘फिर, जैसा कि उसकी आदत है, उसने एका-एक निर्णय कर लिया। मुख मोड़कर वहीं से लौट गयी। शायद उसकी आँख में आँसू भी थे - मुझे याद नहीं है।

‘अब उसे एक और चिन्ता हुई। वह जिस क्षेत्र में काम करती थी, उसमें तो सब अरुण के परिचित थे! वहाँ काम करना और अरुण से छिपना असम्भव था! क्षण-भर के लिए शारदा असमंजस में पड़ गयी। फिर उसने कहा, ‘काम में हाथ डालकर छोड़ना शारदा का नियम नहीं है। अब जैसे हो, निभाना पड़ेगा।

‘इसी दृढ़ निश्चय से वह कलकत्ते गयी। वहाँ उसने एक छोटी-सी समिति स्थापित की और काम करने लगी... वह जो मोटर में से एक स्त्री और दो युवकों ने गोली चलाकर तीन-चार पुलिसवालों को घायल किया था, उसकी नेत्री शारदा ही थी। उसके बाद जो कलकत्ते के पास ही एक बम-दुर्घटना हुई थी, उसमें भी शारदा बाल-बाल बच निकली थी। फिर पटने में जो रात में बम गिरा था, वह भी उसी का काम था। पर उसके बाद न जाने कैसे, पुलिस को उसका पता लग गया, उसके वारण्ट निकल गये-दो-तीन विभिन्न नामों से। तब उसको मालूम हुआ कि उससे निर्णय करने के समय एक छोटी-सी भूल हो गयी थी। नाम का भूत होने पर भी उसका शरीर स्थूल था, और उसके काम भूत के नहीं, मानवों के थे। उसके बाद वह एकदम लापता हो गयी। किसी ने उसका नाम नहीं सुना, न उसका काम ही। बस यहीं तक है शारदा की कहानी।

‘अब अपनी कहानी कहूँ। तुम्हारे क्षेत्र में मैं बहुत देर तक काम करती रही। तुम्हारे पकड़े जाने से काम अस्त-व्यस्त हो गया था, इसलिए हमारा काम प्रायः संगठन का ही था। गाँव में छोटी-छोटी समितियाँ बनाकर उनके मुखियाओं को दीक्षा देना, स्कूलों में छोटे-छोटे क्लब और यूनियन बनाकर उन्हें किताबें पढ़ाना, बाहर सैन करने ले जाकर संगठन इत्यादि के सिद्धान्त समझाने, शहर के मुहल्लों में वालंटियर-दल स्थापित करके उन्हें चुपचाप फौजी शिक्षा देना, मोटर और टैक्सी ड्राइवरों की यूनियनें बनाकर उन्हें उनका महत्त्व समझाना, यही हमारा विशेष काम था। मैं स्वयं तो खुल्लम-खुल्ला कर नहीं सकती थी, लेकिन देवदत्त, जयन्त, विश्वनाथ, और उनके साथी बड़े उत्साह से मेरी सहायता करते रहे। (मैंने जो नाम लिखे हैं उनसे किनका आशय है, तुम समझ ही जाओगे।) जो मैं उन्हें बताती, वे उससे भी बढ़कर ही काम करते थे...

‘जब हमारा संगठन पर्याप्त हो गया, तब हमने कुछ और अस्त्र मँगाने का विचार किया। इसके लिए धन की आवश्यकता थी, और वही प्राप्त करने के लिए मैं यहाँ आयी थी। पर यहाँ दुर्भाग्य से तुम्हारे ‘चचा’ (किनसे अभिप्राय है समझ लेना) ने मुझे देखा, और न जाने उन्हें क्या सन्देह हो गया... मैं बहुत भागी, पर जाती कहाँ? स्टेशन के पास ही पुलिस से सामना हो गया। मेरे पास दो रिवाल्वर थे और 36 गोलियाँ। मैंने सोचा, आज पुराने अरमान निकाल लूँ। दो-दो बार मैंने रिवाल्वर खाली किए, तीसरी बार भरने का समय ही नहीं मिला... पर मुझे दुख नहीं है, मेरे वार खाली नहीं गये!

“मेरा क्या निर्णय होगा, यह मैं जानती हूँ। झूठी आशाओं से मैं अपने को बेवकूफ़ बनाना नहीं चाहती। तुम भी मेरे विषय में कोई आशा मत बनाए रखना - इससे कोई लाभ नहीं होता। उलके निराश होने पर व्यथा अधिक होती है।

‘बुधवार।’

‘यहाँ तक पत्र लिखकर मैं बहुत देर सोचती रही। कैसे-कैसे विचित्र विचार मन में आते हैं।

‘भइया, क्या यही अच्छा होता अगर मैं किसी और स्थान में पकड़ी जाती और वहीं मेरा निर्णय हो जाता! कोई जान भी न पाता कौन थी, कहाँ से आयी थी... और शारदा-वह भी वहीं झील में डूबी रहती उसे निकलकर फिर लुप्त होना पड़ता। हम दोनों ही इस वर्तमान अतीत में छिपी रहतीं। इस प्रकार दुबारा जीकर तुम्हारे आगे न मरना पड़ता! कैसी सुखद, कैसी शान्तिप्रद मृत्यु होती वह!

‘यहाँ आकर भी सम्भव था कि मैं चुपचाप अपना दण्ड भुगत लेती। किन्तु इस प्रकार, इसी जेल में तुम्हारे होते हुए बिना परिचय दिए मैं मर जाऊँ, इतनी शक्ति मुझमें नहीं है। परिचय के बाद दण्ड पाने पर तुम्हें कितना दुख होगा, इसका कुछ अनुमान कर सकती हूँ। और शायद हम अब फिर मिल भी नहीं सकेंगे। उस दिन भी एक विचित्र संयोग से ही, जिस अवस्था में मैंने तुम्हें देखा था, उसे सौभाग्य कहना सौभाग्य का उपहास करना है। मैं तुम्हें देख पायी थी। अब सुषमा अन्धकार में लुप्त जो जाएगी, और अरुण देख भी न पाएगा।

‘यह सब होते हुए भी मेरा मन कहता है कि तुम्हें मेरे परिचय देने के बाद मरने में जो दुख होगा, वह इनकी अपेक्षा कहीं शान्तिकर होगा कि मेरी मृत्यु के बाद तुम यह जान पाओ कि मैं इसी जेल में रहकर, दण्ड पाकर, मरकर भी अपने को तुमसे छिपाती रही...

‘भइया, मेरे सामने ही तुमने ममता और भावुकता को पीस डाला था और उनकी राख पर खड़े होकर एक महान व्रत धारण किया था... अब तुममें दृढ़ता है, धैर्य है, शान्ति है। तुम इस कहानी को सुनकर दुखित होओगे, पर विचलित नहीं, इसी विश्वास में मैंने पत्र लिखा है। अगर मुझे यह विश्वास न होता तो शायद मैं तुम्हारे पत्र का पहला उत्तर भी न देती...

‘पर माता-पिता में यह धैर्य कहाँ, यह दृढ़ता कहाँ? हमारे दुखों को देखकर उनकी ममता तो बढ़ती ही रहती है। उनके लिए शारदा को डूबी ही रह दे देना, उसे जिलाकर फिर उनकी आँखों के आगे बुझाना मत! और सुषमा-सुषमा तो छाया थी, उसके लिए माता-पिता कहाँ, उसके लिए महत्त्व का भाव किसके हृदय में होगा? वह छाया थी-छाया की तरह किसी दिन छिप जाएगी... उसे कौन रोयेगा, अरुण?”

बस, सितार की टूटी हुई तार की तरह चिट्ठी यहाँ एकदम खत्म हो गयी। चिट्ठी पढ़ने से पहले मुझे जितना कौतूहल था, पढ़कर उससे कहीं बढ़ गया... यह शारदा कौन है, और सुषमा कौन? सुषमा छाया है - इसका क्या मतलब? मैं बैठा-बैठा इसी उलझन को सुलझाने में लगा था इसी बीच में मुझे ख़्याल आया, इस चिट्ठी में तो बड़ी-बड़ी बातें लिखी है... बड़े पते की! अगर...

मेरे मन में जो ख़्याल आया, उससे मेरे तन में बिजली ही दौड़ गयी। अगर मैं यह चिट्ठी पुलिस को दे दूँ... कितना इनाम...

फिर एका-एक उस क़ैदी का मुँह मेरे सामने आ गया - और उस लड़की का गाना मेरे कानों में गूँजने लगा-

आज लगा जब मेरा अन्तर उसी व्यथा से जलने

तब तू आया उसी राख को पैरों-तले कुचलने!

मैं बैठा हुआ था, खड़ा हो गया। खड़े होकर मैंने ज़ोर से कहा, “कमीने! पर जो शर्म का समुद्र एका-एक उमड़ आया था, वह उतरा नहीं। मैंने फिर कहा, “कमीने! दगाबाज़!” तब मन को कुछ शान्ति हुई।

मैं ड्यूटी पर तो चला गया, पर उस क़ैदी के सामने नहीं हुआ। मुझे अभी तक शर्म आ रही थी कि मैंने कमीनी बात सोची थी... वह चिट्ठी मेरी जेब में ही पड़ी रही। पर जब रात को ड्यूटी पर गया, तब मैंने देखा, वह रोज़ की तरह दरवाज़े पर सीखचे पकड़े बैठा है। मैंने धीरे से कहा, “अरुण बाबू, यह लो!” उसने चुपचाप चिट्ठी लेकर दूर की बिजली की धीमी रोशनी में धीरे-धीरे पढ़ी। फिर बिस्तर में रख ली।

थोड़ी देर में चुपचाप खड़ा रहा। फिर न जाने कैसे एका-एक पूछ बैठा, “बाबू, शारदा कौन है?”

पूछकर मैं सहम-सा गया। उसने मेरी ओर देखा और फिर धीरे से कहा मानो अपने-आपसे बातें कर रहा हो, “तुमने मेरी चिट्ठी पढ़ ली?”

मैंने कुछ नहीं कहा, कहता क्या?

उसने आप ही फिर कहा, “ख़ैर, अब छिपाने में क्या रखा है? शारदा मेरी बहिन है!”

मैंने डरते-डरते पूछा, “तो यह-सुषमा?”

उसने बड़ी अजीब निगाह से मेरी ओर देखा। मुझे मालूम हुआ मानो मेरा अन्दर बाहर सब एक ही नज़र में देख गया। फिर उसने बहुत ही धीरे से कहा, “शारदा और सुषमा-एक ही के दो नाम हैं...”

पहले मैं इस बात का पूरा मतलब ही नहीं समझा। फिर धीरे-धीरे जब समझ मैं आने लगा तब मैंने कहा, “अंय!” और उठकर बाहर चला गया। आते-आते जो आवाज़ आयी उससे मैंने जान लिया कि वह चिट्ठी फाड़-फाड़कर खा रहा है...

बाहर वह गा रही थी-

तुझे खोज़ती कहाँ-कहाँ पर भटकी मारी-मारी-

पर निष्ठुर, तू पास न आया, मैं रो-रोकर हारी!

मेरी ड्यूटी वहाँ से बदलकर एक महीने के लिए ड्योढ़ी में लग गयी। यहाँ से ज़नाना वार्ड बिलकुल पास था। सुषमा का गाना कितना साफ़ सुन पड़ता था! कभी-कभी जेल के क्लर्क भी शाम को आकर बैठ जाते, और वह गाना सुनकर चुपके से चले जाते थे।...

एक दिन मैंने उसको देखा भी... और अब भूलूँगा नहीं-ऐसा सूरत थी वह!

शाम हो रही थी। मैं बैठा सोच रहा था, कब शाम हो और मुझे छुट्टी मिले... इसी वक्त किसी ने कहा, “फाटक खोलो!” मैंने खोल दिया। आठ-दस पुलिस के सिपाही एक लड़की को लेकर अन्दर चले आये... मुझे किसी ने कहा नहीं, पर मैं देखते ही जान गया कि यही सुषमा है...

उसके दोनों हाथों में हथकड़ी लगी थी, पर कितनी शान से चलती थी वह! बाल खुले हुए थे, तन पर चौड़ी लाल किनारी वाली सफ़ेद धोती थी। बड़ी-बड़ी आँखें थीं-एक बार उसने मेरी ओर देखा - ऐसे देखा मानो मैं उसके आगे होऊँ ही न, सिर्फ खाली हवा ही हो! फिर भी मुझे मालूम हुआ कैसे उसने मेरी सब करतूतों - नयी-पुराना, अच्छी-बुरी, सभी-को खुली किताब की तरह पढ़ लिया हो। मुँह पर उसके हल्की-सी हँसी थी, ऐसी मानो कई सालों से वहाँ उसी तरह जमी हुई हो...

वे उसे अन्दर डिप्टी के दफ्तर में ले गये। मैं भी दबकर पीछे खड़ा हो गया। डिप्टी ने वारंट देखकर कहा, “हैं?” फिर कुछ रुककर पूछा, “अपील करोगी?”

उसने हँसकर कहा, “नहीं।”

डिप्टी ने दया से उसकी ओर देखा, फिर कहा, “ले जाओ!”

सिपाही चले गये। थोड़ी दूर बाद मेट्रन के आने पर मैंने मुँह फेर लिया।

मेट्रन ने उससे पूछा, “क्यों सुषमा, क्या हुआ?’

“कुछ नहीं, फाँसी की सजा दी गयी है।”

“हैं!”

मैंने चुपचाप अन्दर का दरवाज़ा खोल दिया... वे दोनों अन्दर चली गयीं... मैंने देखा, मेट्रन की आँखों में भी आँसू हैं...

उस दिन सुषमा का गाना नहीं सुन पड़ा। उसके दूसरे दिन भी नहीं। तो तीसरे दिन... तीसरे दिन उसने नया गाना गाया... गाना क्या था, एक चिनगारी थी...

एक जलता हुआ सन्देश था। न जाने किसको...

दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?

तारें वीणा की टूटेंगी-लय को कहाँ दबाओगे?

फूल कुचल दोगे तो भी सौरभ को कहाँ छिपाओगे?

मैं तो चली चली अब, तुम पर क्यों कर मुझे भुलाओगे?

तारागण के कम्पन में तुम मेरे आँसू देखोगे,

सलिला की कलकल-ध्वनि में तुम मेरा रोना लेखोगे।

पुष्पों में, परिमल समीर में, व्याप्त मुझी को पाओगे-

मैं तो चली चली पर प्रियवर! क्यों कर मुझे भुलाओगे?

इसके बाद वह रोज़ यही गाना गाने लगी... अपील की मियाद के सात दिन पूरे हो गये, उसने अपील नहीं की... फिर एक दिन सुना, मजिस्ट्रेट आकर तारीख दे गये हैं - चौदह दिन बाद फाँसी हो जाएगी...

मेरी डय्टी ड्योढ़ी पर थी - मैं अन्दर नहीं जा पाता था। मेट्रन जाती थी, पर सुषमा ‘कोठीबन्द’ थी, वहाँ वह भी नहीं जा पाती थी ...कई बार जी में होता था, जा कर अरुण को या उसे देख आऊँ, पर ड्योढ़ी की ड्यूटी का एक हफ़्ता-भर बाकी था। मैं जलता, छटपटाता, मन मसोसकर रह जाता...

आखिर मेरी बदली हो ही गयी। मैं धीरे-धीरे टहलने लगा। उसने मुझे देख लिया और पुकारा “मंगतू!”

मैं चुपचाप उसके पास चला आया। उसने पूछा, “कहो, कैसा हाल है?”

उसने फिर पूछा - “उदास क्यों हो?”

मैंने जवाब नहीं दिया।

“उस सुषमा की भी कोई खबर है?”

मैंने फिर कुछ नहीं कहा। “नहीं” कहता तो कैसे और बताता तो क्या? सिर्फ एक बार उसकी ओर देख दिया।

वह मेरे मन की बात समझ गया। बोला, “उसे जो सज़ा हो गयी है, सो मुझे पता है। मैं उसके गाने से समझ गया था। कोई और खबर है?”

मैंने धीरे-धीरे कहा, “हाँ। उसने अपील नहीं की, तारीख लग गयी है।”

“कब?”

“अगले मंगल को।”

“बस छः दिन?”

“हाँ।”

इसके बाद वह बहुत देर चुपचाप रहा। कुछ सोचता रहा। फिर एक लम्बी साँस लेकर बोला, “साहब कब आयेगा?”

सवाल पर मुझे कुछ अचरज-सा हुआ। मैंने कहा, “सोमवार को। क्यों?”

“यों ही। हाँ, एक चिट्ठी पहुँचाओगे?”

“वह कोठीबन्द है, काम मुश्किल है। पर देखो, शायद दाँव लग जाए।”

उसने एक छोटी-सी चिट्ठी दे दी। मैंने उसे जेब में डालते-डालते मन में कहा, “इसको नहीं पढ़ूँगा।”

मैं यह सोचता-सोचता घर पहुँचा कि कैसे कोठरी तक पहुँच पाऊँगा। वहाँ जाकर देखा, चूल्हा नहीं जला है-देवी गुस्से में भरी बैठी हैं। मैंने वर्दी उतारकर टाँगते हुए पूछा,”क्या बात है?”

मैंने डरते-डरते कहा, “अभी उस दिन तो दो रुपये दिये थे, वे क्या हुए?”

ऐसी जगह सीधी बात का सीधा जवाब नहीं मिलता। वह और भी तेज होकर बोली, ‘तुम तो चाहते हो, मैं डायन बनकर रहूँ, हाथ में एक-एक चूड़ी भी न हो! उस दिन आठ आने की चूड़ियाँ ले लीं, - उसका भी हिसाब देना होगा कि क्या हुई! वैसे ही क्यों नहीं कहते डूब मरूँ?”

जी में आया, कह दूँ, जा डूब मर, पर जी की बात जी में रख लेना मर्दों का काम ही है। मैं कुछ नहीं बोला। पर इससे वह शान्त नहीं हुई। बोली, “टुकुर-टुकुर देखते क्या हो? कुछ खाने की सलाह है कि नहीं?”

मैंने कहा, “मेरी जेब में शायद डेढ़ पैसा है - चाहो तो ले लो।”

वह आँखों छोटी करके मेरी ओर देखने लगी। फिर बोली, “अरुण बाबू ने जो दो रुपये दिये थे, वे क्या हुए?”

अब मैं समझा, मामला क्या है। पर एका-एक कोई बहाना न सूझा। फिर मैंने हिचकिचाकर कहा, “हेड वार्डर ने उधार माँगे थे, मैं इनकार नहीं कर सका।

उसने कुछ जवाब नहीं दिया, पर साफ़ मालूम होता था कि उसे विश्वास नहीं हुआ।

ख़ैर, मैं पानी का लोटा लेकर बाहर मुँह-हाथ धोने लगा। वापस आकर देखा, मेरे कोट की तलाशी हो चुकी है, और वह हाथ में एक काग़ज़ का टुकड़ा लिये खड़ी है।

मैं उस पर कम ही ग़ुस्सा करता हूँ, पर इतनी बेइतबारी मैं नहीं सह सका। मैंने पूछा, “यह क्या कर रही हो तुम?”

औरत की जात अजीब होती है, गलती अपनी और गुस्सा दूसरों पर! बोली, “क्यों जी, यह क्या है?”

मैंने काग़ज़ उसके हाथ से छीनकर पढ़ा - वह चिट्ठी थी।

‘सुषमा!

‘दो दिन के मौन के बाद जब मैंने तुम्हें गाते सुना, तभी मैंने जान लिया था कि निर्णय हो गया है... आज पक्का पता मिल गया...

‘जिस अवस्था में तुम हो, उसमें मैं तुम्हें क्या लिखूँ? क्या सान्त्वना दूँ? हाँ, एक बार, तुम्हें देखने का प्रयत्न करूँगा - शायद सफल होऊँ।

‘याद आता है, बहुत दिन हुए, एक बार तुमसे होड़ की थी कि किसका काम पहले समाप्त होगा। उस समय मुझे पूरी आशा थी कि मेरी जीत होगी। आज मैं सोच रहा हूँ, कौन जीतेगा?

-अरुण।’

पढ़ तो मैं गया, फिर मुझे शर्म आयी और उस पर गुस्सा। पर मैं चिट्ठी लेकर बाहर चला गया - वह न जाने क्या बड़बड़ाती रही।

शाम को मैं भूखा ही ड्यूटी से कुछ पहले अन्दर चला गया। अभी लैम्प नहीं जले थे, पर सूरज डूब गया था। मैंने कोठियों के दो चक्कर लगाये, फिर जल्दी से उसकी कोठरी पर जाकर काग़ज़ दे दिया। उसने लेते ही कहा, “जवाब ले जाना।” मैंने कहा, “लिखो।” और हट गया। कोठियों के फिर तीन-चार चक्कर लगाये और आ गया। उसने एक काग़ज़ मेरे हाथ में दिया और बोली, “जबानी भी कह देना, होड़ के दो दिन बाकी हैं।” मैंने कहा, “अच्छा, नमस्कार!” उसने कुछ अचरज से, पर हँसकर, जवाब दिया, “नमस्कार!” मैं लपककर अपनी ड्यूटी पर चला।

पर काम नहीं बना। कोठियों के वार्डर ने पूछा, “कौन है?” मैं घबरा गया। वह चिट्ठी मेरे हाथ में थी - मैंने जल्दी से मुँह में डाल ली। उसने फिर पूछा, “कौन है?” मैंने कहा, “मैं हूँ मंगतराम बार्डर। यों हीं ज़रा घूमने आ गया था - अब ड्यूटी पर जा रहा हूँ।”

“अच्छा! मैं समझा, कोई क़ैदी है।”

मैंने ड्यूटी पर पहुँचकर ही साँस लिया। मैं वहीं बैठा रहा। जब खूब रात हो गयी, तब अरुण बाबू ने बुलाया, “मंगतू!” मैं अन्दर चला गया। उसने पूछा, “कहो, क्या हुआ?” मैंने कहा, “पहुँचा तो आया।” उसने खुश होकर कहा, “अच्छा।”

मैं वहीं खड़ा रहा, गया नहीं। उसने पूछा, “कुछ और बात है क्या?”

“मैंने कहा, “हाँ।”

“क्या?”

“जो जवाब लाया था-”

“जवाब भी ले आये क्या?”

“सुनो तो। जो जवाब लाया था, वह-”

“उसका क्या हुआ?”

“जब मैं आने लगा तब वार्डन ने देखकर शोर मचा दिया।”

“फिर?”

“फिर मैं वहा काग़ज़ खा गया।”

वह एक फीकी-सी हँसी हँसा। फिर बोली, “मैं तुम्हें कितनी बार खतरे में डाल चुका हूँ। मंगतू!”

मैंने कहा, “वह कोई बात नहीं है, अरुण बाबू। हाँ, एक ज़बानी सन्देशा है।”

“क्या?”

“कहने को कहा था कि अभी होड़ के दो दिन बाकी हैं।”

“अच्छा, जाओ।”

सोमवार को साहब आये, तो उनकी और अरुण बाबू की बहुत देर तक अंग्रेजी में बातें हुई। मैं समझा तो कुछ नहीं, हाँ मालूम होता था कि अरुण बाबू कुछ समझा रहा है और साहब पहले तो आनाकानी करता रहा, फिर अचम्भे में आया, फिर बोला, “आलराइट!” और डिप्टी को अंग्रेजी में कुछ समझाकर चला गया।

जब वे चले गये तो मैंने पूछा, “क्या बात हुई?”

वह बोला, “फाँसी देखने की इज़ाजत मिल गयी।”

रात को कुछ बादल घिर आये। बरसाती नहीं, वैसे ही छोटे-छोटे सफेद टुकड़े... मैं घर में गया और चुपचाप चारपायी पर लेट गया। देवी का कोप अभी खत्म नहीं हुआ था। मुझे इस तरह मुख लेटा देख शायद वह कुछ पिघली। पर रुखाई से बोली, “क्या है?” मैंने जवाब दिया, “कल सुषमा को-” आगे नहीं बोल सका। वह चौंककर बोली, “हैं?” फिर मेरे पास आकर बैठ गयी। बहुत देर तक हम चुप बैठ रहे। मैंने देखा, वह चुपचाप रो रही थी! शायद मेरे भी आँसू आ गये थे।...

मुझे रात-भर नींद नहीं आयी। सुबह पाँच बजे, तो मैं वर्दी पहनकर अन्दर चला गया। थोड़ी देर में साहब, मजिस्ट्रेट, डिप्टी, चीफ़ वार्डर वग़ैरह आ गये और चुपचाप कोठियों की ओर चले। मैं भी पीछे-पीछे चला। उसकी कोठी पर पहुँचे तो वह उठकर बैठी हुई धीरे-धीरे कुछ गा रही थी। साहब ने पूछा, “कुछ वसीयतनामा लिखाओगी?” वह जोर से हँसी और बोली, “मेरे पास दो रिवाल्वर ही थे, वे सरकार ने ज़ब्त कर लिए। अब वसीयत के लिए कुछ नहीं है।”

कोठी खुली, वह बाहर चली आयी। चीफ़ वार्डन ने उसके हाथ पीठ के पीछे बाँध दिये। वह बराबर हँसती जा रही थी!

डिप्टी ने इशारे से मुझे बुलाया। बोला, “उस पोलिटिकल को ले आओ - हथकड़ी लगा करके लाना। समझे?”

मैंने सलाम किया ओर चाबी और हथकड़ी लेकर उधर चल पड़ा।

दूर से मुझे फिर उसके गाने की आवाज़ आयी-

‘दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?’

मैंने अपनी जगह पहुँचकर कहा - “अरुण बाबू! जल्दी चलो!”

वह दरवाज़े के आगे खड़ा आकाश की ओर देख रहा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर आ गया। मैंने कहा, “बाबू, हथकड़ी लगाने का हुक्म हुआ है।” उसने चुपचाप दोनों हाथ बढ़ा दिये।

हम जल्दी-जल्दी फाँसी-घर की ओर चले। वहाँ पहुँचकर देखा, सब लोग एक कोने में खड़े हैं और सुषमा तख्ते पर खड़ी है। हम भी एक कोने में खड़े हो गये। सुषमा ने अरुण को देखा, उसके मुँह पर से ज़रा-सी देर के लिए मुस्कराहट चली गयी-बिजली की तरह दोनों की आँखों ने कुछ कहा, “फिर सुषमा पहले की तरह मुस्कराहट धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी-

‘दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे?”

अरुण का शरीर तन गया, उसने मुट्ठियाँ बड़ी जोर से बन्द कर लीं। फिर न बोला, न हिला-पत्थर की तरह खड़ा रहा...

जल्लाद सुषमा के मुँह पर टोपा पहनने लगा। वह बोली, “यह क्या है? मैं मुँह छिपाकर मरने नहीं आयी हूँ।”

जल्लाद साहब की ओर देखने लगा। साहब ने इशारे से कहा, “मत लगाओ।”

जल्लाद ने रस्सी उठाकर गले में लगा दी और अलग हट कर खड़ा हो गया। सुषमा ने अरुण की ओर देखकर मुँह खोला, मानो कुछ कहने को हो, फिर रुक गयी और मुस्करा दी।

जल्लाद ने साहब की ओर देखा। साहब ने धीरे से एक उँगली उठाकर फिर नीचे झुका दी...

तख्ता हट गया, रस्सी तन गयी...

साहब वग़ैरह जल्दी से वहाँ से हट गये, मानो शर्म से भाग गये हों...

अरुण घुटने टेक कर बैठ गया... आँखें बन्द कर ली... मैं चुपचाप हथकड़ी पकड़े खड़ा रहा।...

आठ-दस मिनट बाद वह उठा, और सीढ़ियाँ उतर कर गड्ढे के अन्दर चला गया...

जल्लाद ने सुषमा का शरीर उतार कर नीचे लिटा दिया था, हाथ खोल दिए थे। उनके अंग नीले होने लगे थे, पर अभी अकड़े नहीं थे...

अरुण झुककर बहुत देर तक उसके मुँह की ओर देखता रहा। फिर बहुत धीमी, काँपती आवाज में बोला, “शारदा, तुम्हारी जीत हुई...”

इसी वक़्त डॉक्टर आया। अरुण को देखकर कुछ झेंप-सा गया, फिर चुपके से सुषमा की नब्ज़ देखने लगा। सिर हिलाकर बोला, “हूँ। इनको दफ़्तर में ले जाओ - पब्लिक लेने आयी है।” यह कहकर चला गया।

अरुण भी मानो सपने में ही खड़ा हो गया। बोला - “शारदा, तुम तो डूब गयी थीं, अब तुम्हारी छाया ही को लेने आयी है पब्लिक!”

उसने हाथ उठाकर एक अंगड़ाई-सी ली, फिर मानो सपने से जाग पड़ा... उसका चेहरा देखते-देखते बदल गया... आँखें बुझ-सी गयीं...

भर्राई हुई आवाज़ में वह बोला, “पब्लिक!”

फिर एक बड़ी डरावनी हँसी हँसा... और बोला, “चलो!”

मैंने ले जाकर उसे कोठरी में बन्द कर दिया...

इसके बाद मुझे उससे बोलने में कुछ डरा-सा लगने लगा। मैं अपनी जगह बैठकर ड्यूटी देता और चला जाता...

एक हफ़्ते बाद एक दिन सवेरे ही चीफ़ वार्डर आया और उससे बोला, “डिप्टी साहब का हुक्म है कि आपको कारखाने में काम पर जाना होगा।”

“काम पर जाए डिप्टी, और भाड़ में जाओ तुम! मैं कोई काम-वाम नहीं करूँगा।”

चीफ़ वार्डर चला गया। थोड़ी देर में डिप्टी आया और दरवाज़ा खुलवा कर अन्दर गया। बोला, “काम पर क्यों नहीं जाते?”

“मेरी मर्ज़ी! मैं कुली नहीं हूँ।”

“तुम क़ैदी हो क़ैदी! कोई बड़े लाट नहीं हो! उस दिन के बेंत भूल गये?”

“नहीं, अच्छी तरह याद हैं। आपको भी बहुत दिन नहीं भूलेंगे!”

“मैं तुम्हारी सारी अकड़ निकाल दूँगा!”

“क्या कर लेंगे? बेंत लगवायेंगे? वह मैं खा चुका हूँ... बेड़ियाँ लगवाएँगे, वे भी छः महीने पहनी हैं... फाँसी दे लीजिएगा? वह मैं देख आयाँ हूँ - उसमें बड़ा मज़ा है। ...बड़ा!”

डिप्टी ने उसका टिकट उठाया और उस पर कुछ लिख चला गया...

मैंने ताला बन्द करते हुए, “अरुण बाबू, यह क्या है?”

उसने हँसकर कहा, “कुछ नहीं, माफी बन्द और जब तक काम न करूँ कोठीबन्द!”

उस दिन से वह कोठरी से बाहर नहीं निकला। कभी-कभी जब मैं उसे समझाता तो वह हँसकर कहता, “मंगतू, अब तो यहीं कटेगी। काम करने की तो मैंने क़सम खा ली!”

अब मैं उससे कुछ-कुछ डरने लगा हूँ। जिस अरुण को मैं पहले जानता था - उसमें और इसमें कितना फ़र्क है... मैं उसकी कोठरी से कुछ दूर ही बैठता हूँ और ड्यूटी पूरी करके चला जाता हूँ... कभी-कभी उसे देख-भर लेता हूँ...

कभी-कभी गाता है। जब मैं उसे उस कोठरी के अन्धेरे में बैठे धीरे-धीरे गाते सुनता हूँ...

भूला-भूला रहता, मैं भी समझा लेती मन को-

क्यों बिखराया फिर तूने आ गरीबिनी के धन को?

तब मेरे दिल में एक धक्का लगता है, मैं सोचने लग जाता हूँ, कितनी कमीनी यह नौकरी है जिसमें मैं फँसा हूँ... और कैसे अज़ीब आदमी हैं ये पोलिटिकल क़ैदी...

पर सबसे तरसानेवाली उसकी शक्ल होती है जब बड़े सवेरे पौ फटने के वक्त वह आकर अपनी कोठरी के दरवाज़े के सीखचे पकड़ कर बैठ जाता है और भूरे आकाश में फटे हुए दूध की तरह छोटे-छोटे सफ़ेद बादल के टुकड़ों की ओर देखता हुआ गाने लगता है-

आसन तलेर माटिर पड़ि लूटिए रोबो,

तोमार चरण धूलस्य धूल धूसर होबो!

उस वक्त उसकी आवाज़ में ऐसी दबी हुई-सी आग होती है कि मेरा कलेजा दहक उठता है? मैं वहाँ से उठकर दूर जा बैठता हूँ कि वह आवाज़ मेरे कानों तक न पहुँचे...

पर उसके शब्दों से, उन गानों से, उस डरावनी हँसी से, उस टिकटी से; उस फाँसी के नज़ारे से, और उस अजीब औरत की हँसती आँखों से हटकर जाने को जगह नहीं है... शारदा की छाया को तो पब्लिक ने फूँक दिया, पर यह सुषमा की छाया जो हर वक़्त मेरे पास रहती है, इससे छुटकारा कहाँ है?...

(दिल्ली जेल, अक्टूबर 1931)