छाया / गुरुदेव सिंह रुपाणा / गुरचरण सिंह

Gadya Kosh से
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बच्चे की रोने की आवांज सुनकर मदन चौंक गया। ऑक की झाड़ियों के पीछे एक छ:-सात महीने का बच्चा औंधे मुँह पडा रो रहा था. वह अपना सिर धरती पर डाल देता था औरकभी ऊपर उठा लेता था. कभी उसके रोने की आवाज धीमीं और कभी तेज सुनाई पडती थी.

मदन ने गाड़ी रोक दी। बच्चे को उठाया और अपनी पगड़ी के पल्ले से उसका मुँह पोंछा। वह लड़की थी। बच्ची उसकी ओर देखने लगी।

पास ही एक सफेद बुर्का इस तरह पड़ा हुआ था जैसे आँधी में उड़कर गया हो।

“कोई माँ छोड़कर भाग गयी बेचारी को।” उसने सोचा, “कैसी निगोड़ी हवा चल रही है. माताओं से अपने बच्चे भी नहीं सँभाले गये।” उसने बच्ची की बाँहें अपनी गर्दन से लपेट लीं।

सामने छोटे-से गङ्ढे में एक आदमी पड़ा हुआ दिखाई दिया। उसने आगे बढ़कर देखा तो वह एक लाश थी। माथे पर चाँद और एक तारा काली स्याही से खुदा हुआ था। चेहरे पर पीड़ा की लकीरें खिंची हुई थीं। इनके कारण चाँद और तारे का आकार बिगड़ गया था। पाँव के पास जमीन खुदी हुई थी। शायद प्राण छोड़ते समय वह बहुत तड़पा होगा।

“हत्यारे ! बाप को मारकर फेंक गये और माँ को उठा ले गये और इस बेचारी को...छोड़ गये...।” इससे पहले जो कुछ हुआ था उसने उसका अंदाजा लगाकर कहा।

बच्ची का नाक-नक्शा उसके पिता से मिलता-जुलता था। फिर भी सफेद बुर्के को देखकर उसे खयाल आ रहा था कि बच्ची की माँ बहुत खूबसूरत होगी। उसकी सुन्दरता ही उसके पति की दुश्मन बन गयी होगी। वह खुद तो धीरे-धीरे किसी के घर को अपना घर और किसी को अपना स्वामी कहने लगेगी। उसके बच्चे भी हो जाएँगे और शायद इस बच्ची को भी भूल जाएगी, परन्तु यदि वे माँ के साथ बच्ची को भी ले जाते तो क्या नुकसान था?

“बच्चे भगवान् का रूप होते हैं. बच्चों के सामने आदमी पाप करने से डरता है।” मदन को माँ की कही हुई बात याद आ गयी।

“...और जो वे करके गये हैंवह कौन-सा पुण्य है?” फिर उसे माँ की कही बात झूठी प्रतीत हुई।

बच्ची फिर रोने लगी।

“दुर्गी भी कहा करती है, परमात्मा मुझे एक लड़की जरूर दे दे जिसको मैं अपना दु:ख-सुख कह सकूँ...लो...परमात्मा ने उसके लिए लड़की भेज दी है...”न यह हिन्दू, न मुसलमान। बिल्लू के साथ खेला करेगी। दोनों बहन और भाई...।

मदन की बीवी को तीन बच्चे हुए थे, तीनों ऑपरेशन से। दो मर गये थे, बिल्लू बच गया था। बिल्लू के जन्म के बाद डाक्टर ने कह दिया था कि दुर्गी फिर गर्भवती हो गयी तो वह नहीं बचेगी। और उसके मन में बेटी की साध अधूरी रह गयी थी।

“क्या तू दुर्गी को माँ बना लेगी?” मदन ने बच्ची को पुचकारते हुए कहा। फिर उसे कुएँ की ओर लेकर चल पड़ा। पानी पिलाकर उसने अपनी पोटली में से गुड़ का टुकड़ा निकाला और बच्ची के मुँह में डाल दिया। उसे गाड़ी में लिटाकर गाड़ी हाँकने लगा।

लगभग दो फर्लांग चला होगा कि उसे दो और लाशें दिखाई पड़ीं। फिर कुछ और लाशें। उसने नज़र उठायी तो सड़क लाशों से पटी पड़ी थी। उसको माँ की कही बात याद आ गयी, “मदन गाड़ी चलाना तेरे बस का काम नहीं है, भेड़ की तरह निंगाह नीची ही रखते हो। नीची नजर से आधी दुनिया दिखाई पड़ती है...” और आज उसे पहली बार अपनी नीचे देखने की आदत पर गुस्सा आया। यदि वह पहले ही सामने देख लेता तो वापस चला जाता। परन्तु जाता कहाँ?कौन उसे अपने घर में रात गुजारने देता? हंसराज ने तो यह कहकर उसे अपनी दुकान से उठा दिया था कि काफिला निकल गया है, अब डरने की कोई बात नहीं। लोग डरे हुए थे। घरों के दरवाजे बन्द थे। सारे बाजार में उसे एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ता था। आज तो चुंगी में रामलाल भी नहीं था। चुंगी बन्द थी। वह होता तो उसके लिए रात बिताने का कोई प्रबंध कर देता।

चारों ओर लाशें ही लाशें देखकर ऊँट डर गया। मदन भी भयभीत हो गया।

“पानी...।” एक आवाज आयी। सड़क के किनारे एक लाश ने उठने का यत्न किया।

मदन उसके पास चला गया।

“पानी...हम मरदाने की जाति के है...बाबा नानक तेरी रक्षा करे।”

उसके सिर में चोट थी। उसके पीछे खून फैला हुआ था। थोड़ा-सा उठकर वह फिर गिर पड़ा।

सड़क पर घर का सारा सामान बिखरा पड़ा था। मिट्टी की परात के टुकड़े बिखरे पड़े थे। एक टूटी हुई सुराही थी, एक चर्खा, उखड़ा हुआ। कुछ सिलवर के बर्तन टेढ़-मेढ़े हुए पड़े थे। पीतल या काँसे का कोई बर्तन वहाँ नहीं था। मदन से सिलवर का एक कटोरा सीधा किया और पानी लाने के लिए पोखरी की ओर चल पड़ा।

कुछ लाशें आधी पोखरी के पानी में थीं और कुछ पूरी। मदन ने गिनीं, कुल तीस लाशें थीं। पानी में खून घुला हुआ था। मदन ने कोई साफ-सी जगह देखने के लिए पोखरी के चारों ओर चक्कर लगाया परन्तु साफ पानी कहीं भी नहीं था। उसने झुककर पानी से कटोरा भर लिया। कटोरे से भरे पानी को देखा,उसमें खून था। पता नहीं उसने क्या सोचा और जल्दी-जल्दी कदम उठाने लगा।

“ले भैया, तेरी उम्र बाकी होगी तो किसी ठिकाने पर पहुँच जाएगा...इस पानी में तेरे जैसों का खून मिला हुआ है।” मदन ने उसका सिर उसकी पगड़ी से कसकर बाँध दिया। आखिरी गाँठ देने से पहले ही वह उसके हाथों में लुढ़क गया। मदन के जिस्म में एक कँपकँपी-सी हुई और वह चल पड़ा।

“पानी...” उसने मुड़कर देखा। सड़क के दूसरे किनारे पर एक और लाश हिल रही थी। मदन ने सड़क पर रखा हुआ पानी का कटोरा उठाया। थोड़ा-सा पानी कटोरे में था। वह आदमी सीधा-सपाट पड़ा हुआ था। उसके घावों से खून बह-बहकर धरती पर जम चुका था। मदन ने उसे बैठाकर घुटने का सहारा दे दिया। जितना पानी उसने पिया सारा बगल से बाहर निकल गया। उसने घाव बाँध देने का इशारा किया।

“अब तुम मुझे कीकर के पेड़ के सहारे बैठा दो,” उसने कहा, “मिलिटरी वाले कहीं मुझे जीते जी ही कब्र में न डाल दें।”

मदन जल्दी-जल्दी सारा काम खत्म करके चल पड़ा। दिन खत्म होने को था। वह दिन के उजाले में ही घर पहुँचना चाहता था। अब भी थोड़ा-सा भय उसके मन में था।

उसने गाड़ी चलायी। पन्द्रह-बीस कदम चला होगा कि गाड़ी का एक पहिया एक लाश की टाँग के ऊपर से निकल गया। मदन को गुस्सा आया। उसने गाड़ी से लाठी उठायी और जोर से ऊँट को जड़ दी। ऊँट चिंघाड़ता हुआ दौड़ने लगा। गाड़ी तीन-चार लाशों के ऊपर से निकल गयी। मदन ने उतरकर ऊँट की नकेल पकड़ ली और लाशों को बचा-बचाकर चलने लगा।

बच्ची ने रोना शुरू कर दिया। मदन को अपनी गलती का एहसास हुआ : “मुझे बच्ची के लिए पानी साथ लेकर ही चलना चाहिए था। गाड़ी रोककर उसने बच्ची को गोद में उठा लिया। वह चुप हो गयी। परन्तु अभी भी किसी बच्चे के रोने की आवांज आ रही थी। शीशम के एक पेड़ के नीचे दो-तीन बच्चे बैठे हुए थे। जब वह उनके पास गया तो सबने रोना शुरू कर दिया। एक बड़ा बच्चा एक लाश से लिपट गया।”

“डरो नहीं...मैं मारने वाला नहीं।” उसने कहा, “क्या यह तेरा अब्बा है?” उसने बड़े बच्चे से पूछा।

बच्चे ने सिर हिलाकर 'हाँ' कहा। सभी बच्चे चुप हो गये। मदन सोचता रहा कि वह उनको और क्या कहे? कुछ बच्चे सड़क की दूसरी ओर कीकर के पेड़ के नीचे बैठे थे। कुछ रो रहे थे। एक अपनी मरी हुई माँ की छाती पर सिर रखकर सिसक रहा था। इधर-उधर पड़े हुए कुछ घायल पानी माँग रहे थे। वह उनका क्या करे ? किस-किस को सँभाले ? कहाँ से लाकर पानी पिलाये। वह अकेला ! अपने पीछे लाशों का एक काफिला छोड़कर आया था। उसके आगे इससे भी बड़ा काफिला पड़ा था जिसमें से रास्ता बनाकर उसे घर पहुँचना था दिन ढलने से पहले। पता नहीं यह काफिला कहाँ तक बिछा होगा? सुना था जीवित मनुष्यों का काफिला तो बीस मील लम्बा था।

कुछ देर वह चुपचाप खड़ा रहा। फिर उसने बच्ची को उन बच्चों के पास लिटा दिया और जल्दी-से वहाँ से चल पड़ा कि कहीं फिर उसका दिल बदल नहीं जाए।

वह उसी तरह ऊँट की लगाम पकड़कर लाशों को बचा-बचाकर गाड़ी चलाने लगा। फिर भी किसी के पैर। कभी किसी की टाँग के ऊपर से गाड़ी का पहिया निकल ही जाता था। परन्तु उसे ऊँट पर गुस्सा नहीं आ रहा था। उस बेचारे का क्या कसूर था। उसे तो ज्यादा जोर लगाना पड़ रहा था। एक के बाद दूसरी अड़चन पहिये के आगे आ जाती थी।

आधे रास्ते में आकर उसे महसूस हुआ कि वह थक गया है। जिस बाँह के साथ ऊँट की लगाम कभी इधर कभी उधर अब तक खींच रहा था, वह थक गयी है और अब उससे लगाम का भार नहीं उठाया जाता। अब तक उसने ढाई मील का सफर पूरा किया था। सड़क का इतना ही सफर बाकी था और एक मील कच्चा रास्ता भी तय करना था जो आज पक्की सड़क से भी ज्यादा साफ रास्ता होगा। पुल पर पहुँचकर उसने देखा, नाले का पानी पुल के ऊपर से बह रहा था। नाला लाशों से भरा पड़ा था। उसने गाड़ी रोक दी।

ऊँट ने कुछ आराम कर लिया तो वह गाड़ी पर चढ़ बैठा और ऊँट की लगाम ढीली छोड़ दी। कभी कोई लाश दिखाई पड़ जाती तो लगाम एक तरफ खींच देता, कभी-कभी गाड़ी ऊपर से निकल जाती थी।

धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ने लगा। अब लाशें दिखाई नहीं पड़ती थीं। जब गाड़ी का पहिया ऊपर उठकर धड़ाम से गिरता, लाश का एहसास उसी समय होता था। ऊँट के पैरों की आवाज ही बताती कि सड़क सूखी है या खून से गीली।

अब उसका डर बिलकुल खत्म हो गया था। उसने धीरे-धीरे गीत गाना शुरू कर दिया था जिसे वह रात को सफर करते समय गाया करता था :

“नी तू माड़ी कीती साहिबा,

नी तू यार दित्ता मरवा नी।”

(साहिबाँ बहुत बुरा किया तुमने, अपना प्रियतम मरवा दिया)

परन्तु आप तो उसे न किसी मिर्जे को तलवारें लगती दिखाई दीं और न खून के परनाले बहते दिखाई दिये। उसको अपना गीत रसहीन लगा और उसने गाना बन्द कर दिया।

पक्की सड़क का सफर खत्म हुआ और कच्चे रास्ते पर आकर ऊँट अपने आप ही रुक गया। कुछ पल रुका ही रहा, फिर वह अपने आप ही चल दिया।

वह अपने घर के दरवाजे के सामने पहुँचा तो कितने ही अड़ोसी-पड़ोसी बोल पड़े, “आ गया। आ गया।”

उसके घर में से रोने की आवाजें और तेज होने लगी। वह पास गया तो एकत्रित पुरुष चुप हो गये। उसने गाड़ी से ऊँट खोलकर आँगन में एक खूँटे से बाँध दिया। एक तरफ बहुत-सी औरतें कुछ बोल-बोलकर रो रही थीं। उनमें से मदन की माँ उठी और उसके गले से लिपटकर दहाड़ मार रोने लगी।

“अरे बेटा! हम लूट गये।”

“क्या बात है माँ?” उसने माँ की बाँहें गले से हटाते हुए पूछा।

“बिल्लू छत से गिरकर गुजर गया।”

वह चुपचाप बैठ गया। कुछ देर तक सब चुप रहे। फिर किसी ने कहा, “उठो मदनलाल, दाह-संस्कार कर आएँ। हम तुम्हारा ही इन्तजार कर रहे थे।”

“थोड़ी देर ठहरो, यह काम भी कर लेते हैं।” मदन ने कहा, “थोड़ा-सा सुस्ता लूँ, बहुत थका हँ, भूख बहुत लगी है।”

माँ ने उसे कन्धों से पकड़ लिया।

“हत्यारे तू इसे काम कहता है, तुझे भूख लगी है...अरे कोई लालटेन लाओ रे...” वह दोनों हाथों से छाती पीटने लगी।

एक आदमी लालटेन ले आया।

“अरे गाँववालो हम लूट गये...मैं छोटे को रो रही थी, बड़े को भी पता नहीं क्या हो गया है...किसी की छाया पड़ गयी है...देखो, कैसे दीदे फाड़-फाड़कर देख रहा है...।”

सब औरतें उठकर चारों तरफ हो गयीं।

“किसी बेगाने की छाया लगती है।”

“कोई ओझा को बुलाकर लाओ।”

बिल्लू की लाश अकेली पड़ी थी, कपड़े से ढकी हुई। मदन इसकी ओर देख रहा था, देखता ही जा रहा था। उसको ऐसे लग रहा था, जैसे एक लाश अन्य लाशों से एक मील के फासले पर पड़ी हुई हो बस।