छिनार / सौरभ कुमार वाचस्पति

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"तुम तो बाभन हो, और मैं, मैं तो चमैन हूँ चमैन! मुझसे तो तुम्हारी हड्डी छुआ जाएगी। छिः ...। तुम्हारी बिरादरी वाला मुझे अछूत मानता है। फिर मुझसे दोस्ती जोड़ने से तेरी जात नहीं चली जाएगी? "

"मैं जाति - पाती नहीं मानता हूँ रधिया। देख; तेरी चमड़ी कितनी गोरी है। उफ़ ... लगता है भादो की इजोरिया रात की चांदनी छिटक रही है। तुम तो सुन्दर हो सुन्दर। बाभनी से भी सुन्दर। मैं तुम्हे ..... मैं तुम्हे ......”

"बोल रामेसर, रूक क्यों गया? तू मुझे प्यार करता है; यही न। धत्त तेरे की। जिसकी छाही से तुम्हारे मंदिर का भगवान छुआ जाता है, अपवित्तर हो जाता है, नापाक हो जाता है, उसे तू प्यार कैसे करेगा? उसकी देह में कैसे सटेगा? उसके मुँह में चुम्मा कैसे लेगा? क्या अलग से ही प्यार कर लेगा? देख रामेसर; मैं छिनार नहीं हूँ।”

”इसमें छिनार होने की बात ही क्या है रधिया? देख भगवान ने तुम्हें सुन्दर बनाया है तो तुझे अपनी सुन्दरता का उपयोग करना चाहिए। देख, मैं तुझे एक नयी साड़ी दूंगा। तू मेरा दिल खुश कर दे।”

"छिः .. छिः .. छिः ...रामेसर, तू कितना कमीना है रे। बाभन होकर एक चमैन से चक्कर चलाता है। रही बात भगवान की; तो तेरे और मेरे बीच भगवान को मत खींच। भगवान तो तुमलोगों के लिए है। गरीब के लिए, अछूत के लिए, दीन के लिए नहीं। भगवान के नाम पर तो तुम लोग झूठ - सांच की खेती करते हो। अपना पेट भरने के लिए, अपने बाल - बच्चों का, अपनी बीवी का पेट भरने के लिए भगवान का नाम बीच में घसीट कर लोगो को ठगते हो। जिसे अछूत - अछोप कहते हो उसी से दान - दक्षिणा लेकर ठूंस कर खाते हो। तुमलोगों का भगवान मुझे क्यों बनावे? वह तो बाभन राजपूत को ही बनाता है। सच तो यह है की अगर वह मुझे बनाता तो मैं अछूत कैसे होती? मेरी छाही से वह छुआ कैसे जाता? मुझे देखकर उसके मंदिर के किवाड़ बंद कैसे हो जाते? मेरे बनने में भगवान की कोई जरूरत नहीं रामेसर। उसकी बड़ाई मत कर। मुझे तो मेरे बाबु - माई ने बनाया है। मैं अपने बाबु - माई के प्यार की निशानी हूँ। और उस बाप की बेटी हूँ, जो मरे हुए जानवरों की खाल छीलता है। रामेसर, तू तो जानता है रे; मेरी जाति के लोग मरे जानवरों का मांस भी खाते हैं। फिर मुझ जैसी अछूत से तू प्यार करेगा? बोल, एक नयी साड़ी के बदले प्यार का नाच करेगा? छिः कैसा गन्दा विचार है तुम्हारा। “

"देख रधिया; तू कुछ भी कह, लेकिन मैं बाभन होकर भी तुझसे प्यार करना चाहता हूँ यह तुम्हारे लिए बड़े भाग की बात है। तू क्यों ठुकरा रही है? "

"हुंह, करम और भाग के नाम पर ही तो तुमलोग ठगते आए हो। जनम से मरण तक ठगी और धोखेबाजी का धंधा चलाते हो। भोले और बेबूझ लोगों को उलटे छुरे से हलाल करते हो। मैं ऐसे भाग को ठोकर मारती हूँ। तुम्हे शरम आनी चाहिए। या तो तू अभी पी हुए है या तेरा दिमाग ख़राब है। जा; अपने रास्ते जा। मेरे मुँह से ऐसी -तैसी बात निकल गई तो बहुत बुरा होगा।”

"तू तो बात का बतंगड़ बनाने लगी रधिया। तू मेरी परिच्छा ले सकती है, मैं तुम्हे सच्चा प्यार करता हूँ।”

"परिच्छा। हाँ, यह हुई एक बात। तू दो बातों में से एक बात कर।”

"क्या? "

"पहली बात - तू मुझसे ब्याह करले और अपने घर में रख ले। मैं तैयार हूँ।”

"और दूसरी? "

"यदि पहली मंज़ूर न हो तो अपनी बहन से मेरे भाई की शादी कर दे। मैं तेरी रखैल बनकर जी लूंगी।”

"हरामजादी; तू मुझे गाली देती है। चीरकर सूखने दूंगा। तुझे अपनी गोरी चमड़ी पर बड़ा घमंड है। जलाकर राख कर दूंगा मैं तेरे घर को।”

"तू तो भिखमंगा है रे साला। मुझसे प्यार की भीख मांगता है। मेरी देह चाहिए तुझे। मेरी जात नहीं। मेरी अछूत देह को तुम अन्हरिया में चूमोगे। मेरे अछूत गालों को चाटोगे। मेरे पांव पकड़ोगे। मगर दिन में दिखाओगे की तुम बड़े आदमी हो, और मैं अछूत। मेरी छाही से छुआ जाओगे। छिः ...जाति नहीं मानते तो हो तो कर ले मेरे से शादी। सो तो ताक़त नहीं, हिम्मत नहीं। मगर देह चाहते हो प्यार के नाम पर। रंडी - फतुरिया समझ लिया है क्या? अरे मैं दो नयी साड़ियाँ दूँगी तुझे; बदले में तू एक रात के लिए अपनी बहन को मेरे भाई के पास भेज देना। तू मुझे राधा नहीं कह सकता 'रधिया' ही कहेगा। जदी मैं बाभनी होती तो तू मुझे 'राधा जी ' कहता। धिक्कार है तेरी मक्कारी को। मगर सुन ले रामेसर; तू मेरा घर जला दे, मंज़ूर है। मेरे माई - बाबू को घसीट कर मार दे - मंज़ूर है। मेरे भाई को जिंदा दफ़न कर दे मंजूर है। मगर मैं नहीं झुकूंगी। मैं बेसिया नहीं हूँ। साले, तू समझता क्या है? जा; अपने घर जा। अपना दिमाग ठिकाने रख। अभी तो तू पी हुए है, चाहे भांग -चाहे ताड़ी। तेरा मुँह महक रहा है -- भभक रहा है रे। जा-जा, घर जा।”

"देख लूँगा तुझे रधिया।”

"अबे जा साले। देखा लेना, रधिया किस चिड़िया का नाम है।”