छिन्नमस्ता / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
कथासार / समीक्षा
प्रभा का 'छिन्नमस्ता` तीसरा एवं सबसे अधिक चर्चित उपन्यास है, जो स्त्री के उत्पीड़न एवं सामर्थ्य की कहानी एक साथ बयान करता है। यह उपन्यास सन् १९९३ में राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है। 'छिन्नमस्ता` की नायिका प्रिया की शादी से पहले की कहानी प्रभा स्वयं की कहानी है।
मारवाड़ी परिवार में जन्मी प्रिया का बचपन उपेक्षित, कुंठित और भयभीत सहमी हुई लड़की का बचपन है। नौ वर्ष की उम्र से ही अंदर तक तोड़ देने वाली घटनाओं के कारण प्रिया का मासूम डरा हुआ मन किसी सुरक्षित कोने को खोजता है। कुछ दिनों के लिए पहले शिक्षक तो फिर पति की मजबूत बाहों के घेरे में वह अपने-आप को सुरक्षित महसूस करती भी है परंतु ये भ्रम भी टूटते हैं। वही छलावा, दुत्कार, उपेक्षा, घृणा उसे मिलती है। अंत में उसे सुरक्षा मिलती है लेकिन वह कहीं बाहर नहीं, अपने अंदर, अपने-आप में।
प्यार से प्रिया का विश्वास उठ जाता है। वो प्यार के नाम पर हमेशा छली गई हैं। उसका मन जहां भावनात्मक लगाव खोजता वहां उसको वह नहीं मिल पाता। हां, उसको प्यार मिला भी और वो भी बेहद आत्मीय लगाव के साथ, मगर वो प्यार अपने कहे जाने वाले लोगों से नहीं मिला। उसे तो प्यार बचपन में दाई मां से और बाद में अपने ससुर की रखैल पत्नी 'छोटी मां` से मिला। दोस्तों के उत्साह और प्यार ने प्रिया को जीवन की शक्ति प्रदान की।
उपन्यास की नायिका के जीवन में संघर्ष और सिर्फ संघर्ष नजर आता है। घटनाओं का सिलसिला कभी खत्म नहीं हुआ। लेखिका ने प्रिया के संघर्षमय जीवन को नीचे से ऊपर उठाया है। १२वर्ष के बेटे का त्याग; कितना कष्टमय कदम? मगर आगे खुला आकाश और सपनों का संसार। प्रिया को लगता बेटे को विरासत में सिर्फ बाप की सम्पत्ति ही नहीं मिलती, उसे बाप के गुण भी स्वत: मिल जाते हैं। बेटे संजू को वो अपने पास रखकर भी विरासत के गुणों को नहीं बचा सकेगी। हुआ भी वही। २०वर्ष का संजू मां के लिए पिता से झगड़ सकता है लेकिन छोटी मां और नीना भुआजी को नहीं अपना सकता।
प्रिया ने अपनी मेहनत और पसीने की बूंदों से व्यापार रूपी सपनों का महल खड़ा किया। प्रिया की छोटी-छोटी सफलताओं को देखकर नरेन्द्र न सिर्फ ईर्ष्या ही करता, वह प्रिया से चिढ़ने भी लगता। एक दिन तो सारी हदों को पार कर नरेन्द्र ने कह भी दिया कि यदि वह व्यापार के सिलसिले में आज लंदन गई तो वापस इस घर में नहीं आएगी। ये घर मेरा है, सिर्फ मेरा। पुरुषत्व के अहम् का यह सच! स्त्री को अपने हाथों की कठपुतली मानने की सदियों से विरासत में मिली पुरुष की आदत है।
प्रिया ने न सिर्फ पुरुष के इस भ्रम को तोड़ा कि इस दुनियां में केवल वही कुछ कर सकता है बल्कि उसने तो समाज, परिवार, अपने-परायों द्वारा खड़ी की गई समस्याओं की दीवारों को तोड़कर अपने जीवन को सार्थक बनाया। प्रिया ने ससुर की छोड़ी हुई अधूरी जिम्मेदारियों को भी पूरा किया। छोटी मां की सेवा और ननद की शादी।
स्त्री उत्पीड़न के ईद-गिर्द घूमते इस उपन्यास में एक जगह लेखिका प्रिया के माध्यम से स्त्री के दर्द को व्यक्त करती है-
मेरा मन करता है, मैं किसी आदिम शहर की अकेली यात्रा करूं। उन आदिम गुफाओं में अंकित स्त्री-मूर्तियों से पूछूं- क्या तुमने भी वही दर्द झेला है जो हम झेल रही हैं?``