छिन्नमस्ता / राजकमल चौधरी

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1

स्टोव पर चाय का पानी चढ़ाकर गुणसुन्दरी कमरे में आई। खाली चौकी पर धर्मदास सोया हुआ था अब तक। नींद में बेखबर था। दोनों लड़के काठ के बड़े बक्से पर खड़े होकर मूर्ति को नीचे उतारने की कोशिश कर रहे थे। उमा नहीं थी।

उमा स्नानघर में होती है। सुबह होते ही, ढेर सारे कपड़े लेकर स्नानघर में चली आती है और नहाती-गाती रहती है। धर्मदास बार-बार दरवाजा खटखटाएगा, तब वह बाहर आएगी, नहा-धोकर तैयार, सफेद धुली हुई तर और ताजा।

आलमारी में, सबसे ऊपर वाली दराज में पत्थर की वह छोटी-सी मूर्ति रखी थी। युद्ध और क्षमा की देवी, कालिका की मूर्ति। कांसे की। नीचे सात इंच की लंबाई में सदाशिव भगवान शिव थके हुए, पराजित-से लेटे हैं। ऊपर खड़ी है काली करालवदनी...एक हाथ में दधीचि खड्ग, दूसरे हाथ में श्मशान खप्पर, तीसरे हाथ में रक्ताक्त नरमुंड और चौथा हाथ अभय की क्षमा मुद्रा में उठा हुआ...लेकिन, खुली आलमारी में नंगे फ्रेम में ऊपर की दराज में खड़ी यह मूर्ति छिन्नमस्ता है। शीश-विहीन है यह कालिका-मूर्ति! पूरा धड़ कायम है ऊंचे कंधे और कंधों से लटकी हुई नरमुंड-माला कायम है लेकिन गर्दन से ऊपर का हिस्सा टूट गया है...

2

ज्ञानदास, गुणवन्ती का पति, कुम्हरार-कुसुमपुर के खंडहर से यह मूर्ति उठा लाया था। चोरी से उठा लाया था। उसने किसी किताब में पढ़ा था, छिन्नमस्ता काली की पूजा करने से ही महाकवि को शब्द-विद्या प्राप्त हुई थी। ज्ञानदास शब्दविद्या प्राप्त करना चाहता था, हालांकि पेशे से वह ट्रक ड्राइवर था।

अपनी जमीन रहन में रखकर, ज्ञानदास ने टाटा-मर्सेडीज की एक ट्रक खरीदी थी और माल-असबाब ढोने का काम करता था। उसने लंबी मूंछें रख ली थीं। लेकिन वह शराब नहीं पीता था। कभी उसने कोई ‘एक्सीडेंट‘ नहीं किया। वह सीदा-सादा आदमी था और गुणवन्ती को किसी भी शिकायत का मौका नहीं देता था।

उन दिनों वह कुम्हारर में मिट्टी ढोने का काम कर रहा था। खंडहर की खुदाई हो रही थी। ज्ञानदास ने काली की यह टूटी हुई मूर्ति देखी तो लालच में पड़ गया। जाति का वह ब्राह्मण था। काली उसके परिवार का इष्ट देवी थी। उससे नहीं रहा गया। मूर्ति की चोरी में कोई पाप नहीं है, उसने तय किया। मिट्टी काटनेवाले एक कुली को उसने इशारा किया और वह छिन्नमस्ता काली किसी म्यूजियम या राष्ट्रीय संग्रहालय में जाने के बदले, ज्ञानदास के कमरे में चली आई। नहा-धोकर, मूर्ति के सामने पूजा पर बैठते हुए ज्ञानदास ने अपनी पत्नी से कहा, “अब मां अपने घर आ गई है, तो सब ठीक हो जाएगा।...मां चाहेगी, तो हमारी दुनिया बदल जाएगी।...मां हमारी दयामयी है!”

गुणसुन्दरी ने अपने पति की बात सुनी और श्रद्धा से उसने सिर झुका लिया। वह हमेशा इसी तरह सिर झुका लेती है।

3

‘राजू! क्या करते हो! ...राजू! राजू!!‘ गुणसुन्दरी चीखी और आलमारी की तरफ दौड़ पड़ी। उसे वहां पहुंचने में एक क्षण देर हो जाती तो वह मूर्ति राजू के हाथों से छूटकर फर्श पर आ गिरती। गुणसुन्दरी ने झपटकर, राजू से मूर्ति छीन ली और उसे संभालकर यथास्थान रख दिया। वह गुस्से से थरथराने लगी थी।...पागल होने लगी थी।

अक्सर यही होता है। अवसर और एकान्त मिलते ही, राजू और संजू, दोनों भाई आलमारी पर चढ़ाई करने के लिए पहुंच जाते हैं। आलमारी में शीशा नहीं लगा है...और गुणसुन्दरी अपनी ज्यादातर चीजें इसी आलमारी में रखती है...पूजा-पाठ की चीजें, प्रसाद, दही की हाड़ी, प्याले, चीनी का बड़ा डिब्बा...अचार के बंद मटके, शंख, रेजगारियां और यह छिन्नमस्ता मूर्ति! यह नंगी आलमारी दोनों बच्चों के आकर्षण का प्रधान केंद्र है।

राजू दस साल का है, संजू छह साल का। दोनों लड़कों में जरूरत से ज्यादा दोस्ती है और उनकी रग-रग में शैतानियां भरी हुई। अपनी मां से, अर्थात् उमा से राजू-संजू का कोई लगाव नहीं है, धर्मदास से भी नहीं। धर्मदास नौ बजे सोकर उठता है और दस बजे अपनी दुकान पर चला जाता है। फिर, रात में ग्यारह बजे आता है और बारह बजे तक जरूर सो जाता है। चौबीस घंटों में कुल दो घंटे वह घर में होता है। बाकी बाईस घंटे अपनी दुकान में, या नींद में!

धर्मदास के पास नींद की कमी नहीं है। रविवार को वह सारा दिन इसी तरह चौकी पर एक किनारे सोया रहता है। जगी रहती है, दोनों स्त्रियां। ज्ञानदास की स्त्री गुणसुन्दरी और छोटे भाई धर्मदास की स्त्री उमा। राजू-संजू जगे रहते हैं और सारा दिन उत्पात करते रहते हैं...

आंगन में मौलसिरी के छोटे-छोटे दो पेड़ थे। राजू-संजू ने दोनों पेड़ काट डाले। रोज एक न एक तस्वीर या प्याले या गिलास दोनों भाई तोड़ डालते हैं। एक बार जी किया, तो अलगनी पर टंगे हुए कपड़ों में राजू ने आग लगा दी। उमा की एक मात्र रेशमी साड़ी जल गई। घर में आग लगते-लगते बची...

गुणसुन्दरी गुस्से में थरथराने-कांपने लगती है, पागल होने लगती है, फिर, अचानक थम जाती है। फिर, धीमी आवाज में, ताकि धर्मदास की नींद खुल नहीं जाए, कहती है, “जाओ राजू, जाओ...बाहर जाकर खेलो! चलो, भागो यहां से। संजू, जाओ भाई!” राजू बड़ा है और ज्यादा बदमाश है। वह इन्हीं आठ-दस दिनों में, अपनी बड़ी चाची को समझ गया है। बड़ी चाची गुस्सा नहीं करेगी, क्योंकि वह उमा को नाराज करना नहीं चाहती। उमा से बड़ी चाची डरती है! राजू यह बात जानता है और इसीलिए, वह गुणसुन्दरी से जरा भी नहीं डरता है।

बच्चों को आलमारी के पास से हटाकर गुणसुन्दरी बगल के छोटे कमरे में चली जाती है। दो मिनट कहीं बैठकर, वह अपने आपको संभालने की कोशिश करेगी। कोशिश करेगी कि उसे गश नहीं आ जाए। जब भी गुस्सा आता है और वह उसे दबाने की कोशिश करती है, ऐसा ही होता है। चक्कर आने लगता है। हाथ-पांव सुन्न हो जाते हैं। सामने की सम्पूर्ण दृश्यावली कोहरे के बड़े-बड़े धब्बों में बदल जाती है। लंबी-सी एक टाटा-मर्सेडीज ट्रक पहाड़ी सड़क पर चली जा रही है और धीरे-धीरे धूल के बवंडर में खो गई है...लंबी-सी एक टाटा-मर्सेडीज ट्रक!

4

ज्ञानदास को गए हुए, पांच महीने से ज्यादा हो गया है। अकेले नहीं, ज्ञानदास अपने ट्रक और अपनी सारी जमा-पूंजी के साथ चला गया है। अब कभी लौटेगा नहीं।...वह धनबाद में है। वहीं ट्रक चलाता है और कोयले की ठेकेदारी भी करता है।

खबर पाकर धर्मदास उससे मिलने के लिए धनबाद गया था। गुणसुन्दरी दिन-रात रोती रहती है, बोलती कुछ नहीं, बिना खाए-पिए चुपचाप किसी कोने में पड़ी रहती है-छोटे भाई से यह सारी कहानी सुन लेने के बाद, ज्ञानदास ने कहा, “वह जहां भी रहना चाहे, पटना में, या अपने मैके चली जाए...मैं उसे पचास रुपए हर महीने भेजता रहूंगा। गुणसुन्दरी को अब मैं अपने साथ रखूंगा। मैं उसे साथ नहीं रख सकता...”

धर्मदास ने अपने बड़े भाई को समझाने-बुझाने की बहुत कोशिश की। फिर, वह निराश होकर वापस पटना चला गया। उसने अपनी भाभी को बताया, “भैया ने बिहार शरीफ की एक मुसलमान औरत को अपने घर में बसा लिया है। रामजस खलासी मुझे समूचा किस्सा बता रहा था। भैया मुझको अपने घर के अंदर नहीं ले गए। खाना-पीना भी बाहर ही हुआ। मगर, उस औरत की एक झलक मैंने देख ली। सांवली-सी है। पच्चीस-छब्बीस की होगी!”

उमा और धर्मदास अपने दोनों बच्चों के साथ कुनकुनसिंह लेन के एक गंदे-से कमरे में रहते थे। कुल एक कमरा था और रसोई पकाने के लिए नन्हा-सा, बरामदे का टुकड़ा। बरसात में पूरा बरामदा पानी और कीचड़ से भर जाता था। पड़ोस के लोग अच्छी तबीयत के नहीं थे। उमा बरामदे में बैठकर नहाती थी, तो बगल के कन्हाई दत्त बड़ी ही सुरीली आवाज में रस लेकर विद्यापति का एक पद गाने लगता था, ‘कामिनि करय सनाने, हेरितहिं हृदय हनय पंचबाने!‘ एक औरत नहा रही है और मेरे कलेजे में कामदेव के पांचों बान एक साथ...

एक सुबह अपना सारा सामान, अपने ट्रक पर लादकर हफ्ते-भर बाद लौट आने का वादा करके, ज्ञानदास चला गया तो गुणसुन्दरी अकेली रह गई। दो कमरों और बड़े-से आंगनवाले इस मकान में गुणसुन्दरी अकेली रह गई।

अकेले रहने की उसे आदत थी। सुबह-शाम एक नौकरानी आती थी और गुणसुन्दरी की जरूरत की सारी चीजें जुटा देती थी, बाहर की इतनी बड़ी दुनिया और अपने आंगन की पुरानी चारदीवारी में बंधी हुई गुणसुन्दरी के बीच यह नौकरानी संपर्क और विनिमय का एक मात्र अवशिष्ट सूत्र थी।...ज्ञानदास को गए हुए-दो हफ्ते बीत गए। तब धनबाद से, ज्ञानदास ने अपने एक दोस्त के मार्फत गुणसुन्दरी को सूचना भेजी कि वह किसी के साथ अपने मैके चली जाए। ज्ञानदास के दोस्त ने सौ रुपए का एक बड़ा-सा नोट गुणसुन्दरी के हाथ में रख दिया और कहा, “ज्ञानदास ने भेजा है।...कहा है, आप अपने गांव चली जाइए।”

गुणसुन्दरी सौ रुपए का वह नोट हाथ में थामे, उसी तरह, चुपचाप फर्श पर बैठी रह गई, अपने घर के दरवाजे के पास। ज्ञानदास का दोस्त कब वापस चला गया...कब शाम हुई, कब बरामदे में, कमरे में अंधेरा और धुआं-धुआं-सा फैलने लगा... उसे कुछ पता नहीं।...थोड़ी देर बेहोश रहने के बाद वह उठ खड़ी हुई थी। कमरे के अंदर जाकर उसने सौ रुपए का वह नोट छिन्नमस्ता मूर्ति के पास पड़े सिगरेट के खाली टिन में डाल दिया था। गुणसुन्दरी इसी टिन में अपने सारे पैसे रखती है।

दूसरे दिन सुबह में, उसने नौकरानी को कुनकुनसिंह लेने भेजा। शाम को उमा और धर्मदास उसके घर आए। गुणसुन्दरी ने उमा को सारा किस्सा बताया और किस्सा बताकर चुप हो गई। रोई नहीं। रो-रोकर बेहोश नहीं हो गई। मगर, थरथराते हुए स्वर में उसने कहा, “मैं अपना यह काला मुंह और खाली गोद लेकर, मैके नहीं जाऊंगी। यहीं पटने में रहूंगी।...अब तुम लोग जो कहो...।”

5

धर्मदास धनबाद जाकर अपने बड़े भाई से मिल आया। उस मुसलमान औरत की एक झलक भी उसने देख ली, जो अपना घर-बार तोड़कर ज्ञानदास ट्रक-ड्राइवर के साथ भाग आई है।

...उमा ने गुणसुन्दरी से कहा, “ऐसा करते हैं, हम लोग कुनकुनसिंह लेन वाला कमरा छोड़कर यहीं, इसी घर में चले आते हैं!” वे लोग इसी घर में चले आए। गुणसुन्दरी यहां अकेली कैसे रहती!

धर्मदास, ज्ञानदास का सगा छोटा भाई था लेकिन उसी का विवाह पहले हुआ था। उमा पहले आई, बहुत बाद में आई गुणसुन्दरी, जबकि ज्ञानदास ने धर्मदास और उमा से लड़ाई-झगड़ा करके उन्हें अपने मकान से निकाल दिया था और वे लोग कुनकुनसिंह लेन में जाकर रहने लगे थे। दरअसल, ज्ञानदास किसी भी दूसरे व्यक्ति के साथ, दूसरे व्यक्ति के परिवार के साथ एक मकान में रहने लायक आदमी नहीं था। न उतना सभ्य और न उतना सहनशील। वह शराब-सिगरेट नहीं करता, लेकिन वाणी और व्यवहार की सारी अश्लीलताएं और आजादी उसमें थी।

अपने घर की दीवारों के अंदर ज्ञानदास नंगा रहता था और गुणसुन्दरी के सिवा दूसरी कोई स्त्री उसके आचार-विचार का नंगापन बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। गुणसुन्दरी नहीं आई थी, तो उमा ही इस घर की मालकिन थी। धर्मदास सुबह दस बजे अपने दुकान चला जाता था। बड़ा भाई ज्ञानदास अपने दोस्तों के साथ बैठकर बाहर सहन में ताश खेलता रहता था, सारा दिन। उन दिनों उसका कारबार रात के वक्त का कारबार था। ट्रक नहीं आया था।

उमा को अब भी उन दिनों की एक-एक छोटी-सी-छोटी बात याद है।...ज्ञानदास आंगन की धूप में बैठा हुआ, घंटों नहाता रहता था और उमा बाल्टी के बाद बाल्टी पानी नल से भरकर लाती रहती थी। धूप में ज्ञानदास की पीठ में रोएं की धारियां चमकती हैं। सोने की बड़ी चट्टान जैसी उसकी पीठ, ...कुन्दन जैसा उसका अंग, उसकी मजबूत और बेदाग काठी। ज्ञानदास ने मूंछें रख ली थीं। तीन पाव चावल और लगभग उतना ही मांस वह अकेले खा जाता था। अक्सर आधा पेट खाकर सारा दिन काट देती थी उमा...

लेकिन एक दिन सुबह-सुबह ज्ञानदास ने अपने छोटे भाई को पास बुलाकर कहा था, “तुम लोग कहीं और डेरा-डंडा खोज लो। यहां हमारे साथ निबाह नहीं होगा। मैं निठल्ला आदमी हूं, मेरे साथी-सहवासी लोग भी लोफर-टाइप के हैं।...हम लोग ट्रक चलाते हैं और जिंदगी की, काूनन की, धरम-नियम की कोई परवाह नहीं करते! कहीं कोई भूल-चूक हो गई, तो...खैर ये सब बातें जाने दो। और भाई, जहां तक जल्दी हो सके...!”

बेगुसराय-मुंगेर के ‘जयलक्ष्मी भोजनालय‘ के मालिक व्योमकेश झा की बेटी गुणसुन्दरी को ब्याह करके ज्ञानदास पटना ले आया, तो उमा अपने बड़े बच्चे राजू के साथ, उसे देखने आई थी। गुणसुन्दरी उम्र में उससे छोटी नहीं है, बेवकूफ भी नहीं। कम बोलती है। लेकिन, जो कुछ भी बोलती है, उसमें अर्थ होता है। उमा ने पहली ही मुलाकात में पूछा था, “इतने बड़े घर में अकेले कैसे रहोगी, दीदी? मैं यहां रह चुकी हूं। अकेले रहने लायक नहीं है यह मुहल्ला...!” गुणसुन्दरी उसकी बात समझ गई थी। मुस्कराने लगी थी। उमा के कान के पास मुंह ले जाकर उसने कह दिया था, “अकेली क्यों रहूंगी, बहन? तुम्हारे भासुर (मैथिली में पति के बड़े भाई को भासुर कहते हैं) मुझे अस्सी कोस से उठाकर यहां ले आए हैं, वे भी तो मेरे साथ रहेंगे।” यह उत्तर सुनकर उमा के होठ सख्त हो गए थे। वह समझ गई थी कि कसे हुए शरीर की यह बुलंद औरत, गुणसुन्दरी, उसके भासुर को वाकई बांध लेगी। ताकत है इस औरत में! बुद्धि भी है!

उमा ने गलत समझा था। उमा ने गुणसुन्दरी को गलत समझा था।

6

ज्ञानदास फूल और बेल-पत्रों का दोना हाथों में उठाए हुए, छिन्नमस्ता काली की मूर्ति के सामने खड़ा है।...जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी...दुर्गा क्षमा शिवा धात्री...गुणसुन्दी तुरन्त नहाकर आई है और बाल खोले हुए, नन्दलाल बोस की सद्यःस्नाता दिखती हुई, दरवाजे के फ्रेम में खड़ी है।

हजारीबाग की दिबौर-घाटी में एक किनारे अपना ट्रक रोककर, ज्ञानदास अपनी सीट से कूदकर नीचे उतरता है। पत्थर की एक बड़ी चट्टान पर एक चायखाना है, जिसमें शाम के बाद चावल की बनी कच्ची शराब और पत्थर की बड़ी चट्टान जैसी आदिवासी औरतें बिकती हैं...ज्ञानदास जब भी इधर आता है, अंधेरा होने पर, इसी चायखाने के सामने अपनी ट्रक रोकता है और पुकारता है, “अहमद मियां, अब उतरो भी नीचे!” अहमद मियां दौड़कर एक लंबी बेंच उठा लाता है।...चायखाने में हलचल मच गई है...। चट्टान के पीछे, जंगल के अंधेरे में आदिवासी औरतें ‘हंड़िया‘-शराब पीती हैं और हंसती हैं...जलतरंग बजने लगता है। ज्ञानदास की सात बैटरीवाली बड़ी टार्च की रोशनी में समूचा चायखाना जगमगाने लगता है।

गुणसुन्दरी अपने कमरे में नंगी फर्श पर सोई हुई है। बेखबर! वह सपना देखने लगती है... आलमारी में रखी काली की मूर्ति बड़ी हो रही है। बड़ी और मांसल! वह देख्ती है, छिन्नमस्ता की कटी हुई गर्दन पर किसी अदृश्य हाथ ने बकरे का कटा हुआ सिर जोड़ दिया है, और अब वह सिर अपने बड़े सींग हिला-हिलाकर, उसी को देख रहा है। गुणसुन्दरी नींद में थी। लेकिन वह पसीने-पसीने हो गई।...फिर उसने देखा-नहीं, बकरे का सिर नहीं है, भैंस का सिर है।...काली की मूर्ति के कंधों पर किसी भैंस का सिर! क्या महिषासुर-मर्दिनी ही अब भैंसासुर हो गई है?

गुणसुन्दरी की नींद खुल गई। उसका सीना अब तक धड़क रहा था और वह गर्म हो गई थी। उसे लगा, तेज बुखार चढ़ आया है। वह उठकर बाथरूम चली गई।

ज्ञानदास कहता है, “सारा दिन घर में बैठकर क्या करती हो?...कभी हमारे साथ चलो, तुम्हें रांची-हजारीबाग की सैर करा लाते हैं। मगर अपनी गाड़ी से ही जाना होगा!” गुणसुन्दरी मना कर देती है। वह कहीं नहीं जाएगी। यह घर उसे बहुत पसंद है। फिर, वह भी चली जाएगी तो यहां भगवती की पूजा कौन करेगा? गुणसुन्दरी पड़ोस में भी नहीं जाती। एक नौकरानी है, जो उसकी गिरस्थी का सारा काम संभाल देती है।...गुणसुन्दरी को अब और कुछ नहीं चाहिए, उसे जीवन में जो भी पाना था, वह पा चुकी। भगवती कालिका ने चाहा, तो अंतिम मनोकामना भी पूरी हो सकती है।...संतान-प्राप्ति! यह उसकी अंतिम मनोकामना है। ज्ञानदास ट्रक चलाता है और अपने पीछे धूल का एक बवंडर छोड़ता हुआ आगे चला जाता है। वह चला गया...

7

दोनों बच्चे बाहर सहन में खड़े होकर टिन पीटने लगे। उमा बाथरूम से बाहर आई और पूछने लगी, “आपके देवर जी उठ गए? आज दुकान नहीं जाएंगे क्या?” बच्चे इतनी जोर से टिन का टुकड़ा पीट रहे थे कि गुणसुन्दरी उसकी बात सुन ही नहीं सकी। मगर, वह कमरे से बाहर चली आई। धर्मदास को उठने से पहले एक गिलास चाय जरूर चाहिए। चाय पीकर वह बाथरूम जाएगा। नहा-धोकर रोटी-दाल खाएगा और अपनी दुकान चला जाएगा।

दोपहर में उमा शीतलपाटी बिछाकर सो जाएगी और बच्चे यहां-वहां भागते रहेंगे और गुणसुन्दरी बरामदे में बैठी हुई कोई-न-कोई काम करती रहेगी। करवट फेरकर और सांप की तरह सिर उठाकर उमा कहेगी, “हम लोगों की जिंदगी से तो विधवाओं की जिंदगी अच्छी है।...आपके पतिजी धनबाद में चैन की बंसी बजा रहे हैं। हमारे पतिजी यहां पास में रहते भी हैं, मगर, नहीं रहते हैं! दो मिनट बातचीत की भी फुर्सत नहीं रहती है आपके देवर को...बताइए, ऐसे जीवन से क्या फायदा?”

गुणसुन्दरी हंस देती है! चेहरा उसका इतने ही दिनों में बहुत मलीन हो गया है। फिर भी, उसकी आंखें चमकती हैं। अब भी मर नहीं पाई है वह!

8

शाम ढलने लगी थी। गुणसुन्दरी चूल्हा जलाने के लिए रसोईघर में चली गई। उमा पड़ोस में गई, एक प्याला दूध लाने के लिए। बिल्ली दूध पी गई है। उमा शाम को एक प्याला चाय जरूर पीती है।

...राजू और संजू इस बार हिम्मत करके किसी तरह छिन्नमस्ता की वह मूर्ति आलमारी से उठाकर आंगन में ले आए। पिछले कई दिनों से राजू की नजर इस मूर्ति पर थी। वह मूर्ति के गले से नरमुंडों की माला उतारकर पहनना चाहता था। संजू चाहता काली का कृपाण! मगर, आलमारी से आंगन तक लाने में इन लोगों ने मूर्ति को दो बार फर्श पर पटक दिया था। मूर्ति का चौथा हाथ, जो अभय-मुद्रा में ऊपर उठा हुआ था, चिपटा होकर मूर्ति की छाती में चिपक गया...

बिना गर्दन और बिना सिर की यह मूर्ति राजू के लिए सबसे बड़े आश्चर्य की वस्तु थी। वह समझ नहीं पाता था कि उसकी बड़ी चाची इसे क्यों इतना संभालकर ऊपर की दराज में रखती है और इसमें क्यों हर सुबह फूल माला चढ़ाती और हर शाम आरती उतारती है...राजू नौ-दस साल का हो चुका था, लेकिन देवी-देवताओं को श्रद्धा करना, प्रणाम करना और उनकी मूर्तियों से डरना उसे किसी ने सिखाया नहीं था। उमा स्वयं पूजा-पाठ से दूर रहती थी। कभी मंदिर नहीं जाती थी और न ही नहा-धोकर सूर्य देवता को अर्ध्य ही चढ़ाती थी। कहती थी, “व्रत और उपवास करना तो विधवा स्त्रियों का काम है। हम यह सब चक्कर क्यों करें!”

चक्कर वह नहीं करती थी और न कभी स्लेट-पेन्सिल और ‘बाल-पोथी‘ लेकर ही राजू-संजू के पास बैठती थी। राजू स्कूल नहीं जाता है। संजू की तो अभी पढ़ने-लिखने की उम्र ही नहीं हुई है।

इसलिए, दोनों भाई मिलकर छिन्नमस्ता को आंगन में घसीट लाते हैं। उमा पड़ोस की वकील-पत्नी की बगल में, कुर्सी पर बैठकर यहां-वहां की बातें करेगी। वकील-पत्नी हर हफ्ते ‘मैटिनी शो‘ में जाकर कोई-न-कोई फिल्म देख आती है और बाकी छह दिन उसी फिल्म की कहानी और प्रेम-दृश्यों का वर्णन अपनी पड़ोसिनों को सुनाती रहती है। उमा कहानी सुनेगी और सुविधा हुई तो वहीं चाय पी लेगी। गुणसुन्दरी के साथ शाम की चाय पीना उमा को अच्छा नहीं लगता क्योंकि, गुणसुन्दरी चाय नहीं पीती। सिर्फ पान खाती है।

पान खाने की उसे लत है। ज्ञानदास था तो रोज रात में स्टेशन रोड नन्दू पान वाले की दुकान से मगही पान के बीड़े लाता था। मसालेदार पान! फिर, गुणसुन्दरी को आदत हो गई। दिन में दस दफा उसे पान चाहिए। पान और अहमद हुसैन दिलदार हुसैन लखनऊ वाले का काला पत्ती जर्दा। ‘पान जर्दा बिना...मौगी मर्दा बिना...‘ (‘मौगी‘ अथवा ‘मागी‘ बिहार में विवाहित स्त्री के लिए और बंगाल में पतित स्त्री के लिए व्यवहार किया जाता है।)-यह मुहावरा वह जानती है। जर्दे के बगैर पान की, और मर्द के बिना औरत की कोई कीमत और वकत नहीं है।

मगर, जब भी गुणसुन्दरी पनबट्टा लेकर पान लगाने बैठती है, गन्ध पाकर राजू, संजू उसके पास भागे आते हैं और पान के लिए जिद करने लगते हैं। राजू को पान चाहिए और पान के साथ सुपारी और जर्दा भी चाहिए। गुणसुन्दरी उसे जर्दा नहीं देगी। समझाने की कोशिश करेगी कि जर्दा खाने से उसे चक्कर आ जाएगा। राजू होंठ लटकाकर कहेगा, “तुमको चक्कर नहीं आता? तुमको चक्कर नहीं आता, तो हमको क्यों आएगा?”

तीन-चार दिन हुए राजू ने चाबी से पनबट्टा खोलकर अपने लिए पान बना लिया था। चूना ज्यादा देने के कारण, उसका मुंह कट गया। जीभ छलनी हो गई। तकलीफ से वह रोने-कराहने लगा। गुणसुन्दरी ने कसम खाई, वह पान खाना छोड़ देगी। “पान क्यों छोड़ेगी, बहनजी? यही तो सुहागिनी औरतों की निशानी है। पान, चूड़ी और सिन्दूर जैसी चीजें सुहागिनें नहीं पहनें तो दुनिया क्या कहेगी! सफेद होंठ तो विधवाओं का होता है! है न?” उमा ने हंसते हुए कहा था। गुणसुन्दरी उमा का व्यंग्य समझ गई। मगर, समझ लेने से ही क्या होता है!

समझकर भी इस बात का आखिर वह प्रतिकार क्या कर सकती है कि उसकी गोद में अपना बच्चा नहीं है और उसका पति एक पराई, गैर औरत के साथ शहर में भाग गया है। गुणसुन्दरी प्रतिकार नहीं करती है। नहीं कर पाएगी किसी दिन, शायद! लेकिन, वह रसोईघर से बाहर आई और उसने देखा कि छिन्नमस्ता की मूर्ति आंगन में पड़ी है और संजू मसहरी के टूटे हुए डंडे से उसे तड़ातड़ पीट रहा है।....पीटे जाने से कांसे की मूर्ति ‘टन-टन-टन-टन-टन-टन‘ बोलती है।...राजू ने गुणसुन्दरी को देख लिया और अलग हटकर खड़ा हो गया। डर गया था। उसने गुणसुन्दरी की आंखें देखी थीं और वह डर गया था।

गुणसुन्दरी को लगा, जैसे संजू उस मूर्ति को नहीं, उसी की लाश को कूट रहा है, तड़ तड़ तड़ तड़ तड़। उसकी आंखों में लहू उतर गया। उसकी आंखें उतर आईं...

9

सर्दियों के दिन हैं। ज्ञानदास और उसके दोस्त श्यामलाल पन्सारी के परिवार के साथ अपने ट्रक पर आलू की बोरियों की तरह लदकर गुणसुन्दरी राजगीर गई है, जीवन में पहली बार! बर्मी बौद्धमठ के लंबे दालान में डेरा गिराया गया है। ‘सप्तधारा‘ और ‘सहस्र धारा‘ के गुनगुने गर्म जलप्रपात में नहाने के बाद वह पन्सारी की बड़ी बहू के साथ ‘ब्रह्मकुंड‘ की सीढ़ियां उतरने लगती है।...पांच फीट लंबे और आठ फीट चौड़े कुंड के गधकदार, गर्म उबलते हुए पानी से भाप उठ रही है।...वह एक-एक कदम संभालकर सारी सीढ़ियां उतर जाती है। ‘ब्रह्मकुंड‘ की दीवारों पर चारों ओर पानी की सतह के ऊपर देवी-देवताओं की छोटी-बड़ी मूर्तियां हैं...धनुषधारी राम, तपस्या करती हुई पार्वती, गृद्धकूट पर्वत हाथों में उठाए हुए महावीर हनुमान, पांचों पांडव, इंद्र, वरुण, आठों सिद्धियां...गुणसुन्दरी ने पन्सारी की बहू का हाथ छोड़ दिया और दोनों हथेलियों से अपने कान बंद करके, वह पानी में डूब गई। डूब गई, तो देर तक ऊपर नहीं आई।

गुणसुन्दरी ऊपर आने की कोशिश करती है तो उसके पांव किसी भारी चीज से टकराते हैं, और वह पत्थर हो जाती है। उसे लगता है, पांवों के नीचे पड़े हुए पत्थर के उस टुकड़े से उसके दोनों पांव चिपक गए हैं। अब वह एक कदम आगे बढ़ नहीं सकेगी।...फिर, अचानक उसका माथा झनझनाने लगता है। वह बेहोश हो गई है, अब!

अपनी बेहोशी में वह महसूस करती है और लगभग देख भी लेती है कि उसके पांवों से कुम्हरार कुसुमपुर के खंडहर की छिन्नमस्ता काली लिपट गई है। अपनी बेहोशी में, अपने कलेजे की पूरी ताकत से वह ज्ञानदास का नाम लेकर पुकारती है...मगर, कोई आवाज नहीं! जल के तल में पड़ी हुई गुणसुन्दरी युद्ध और क्षमता की देवी, भगवती कालिका से डरकर, आतंकित होकर, चीख रही है और बेहोश है। वह मर गई है, शायद!

नहीं, वह मरी नहीं है। ज्ञानदास और श्यामलाल पन्सारी ने मिलकर उसे ऊपर खींच लिया है। उसे बाहर निकालकर घाट की सीढ़ियों पर ले आए हैं। गुणसुन्दरी बेहोश है। उसके मुंह से नीला फेन निकल रहा है। एक पंडा आकर कहता है, “दुर्बल स्त्रियों को ऐसा हो जाता है।...कोई बात नहीं, ऊपर हवा में ले आइए, किसी पेड़ की छांव में! ठंडी हवा लगेगी तो झट होश आ जाएगा।”

लेकिन, गुणसुन्दरी दुर्बल स्त्री नहीं है। वह दिल की मजबूत और धीरज रखने वाली स्त्री है। जब उसे होश आता है तो पहला सवाल वह ज्ञानदास से यही करती है, “तुम मुझे इसी क्षण पटना पहुंचा दो! वहां भगवती भूखी है! ...मैं कितनी मूर्ख हूं कि उनको फूल-पान चढ़ाए बगैर यहां चली आई!” ज्ञानदास देर नहीं करता है। जल्दी-जल्दी कपड़े बदलकर वह गुणसुन्दरी को ट्रक में, अपनी बगल की सीट पर बिठाता है और श्यामलाल से वादा करता है कि वह चार घंटे बाद हाजिर हो जाएगा।

ज्ञानदास जानता है कि छिन्नमस्ता की पूजा आवश्यक है। वह प्रसन्न हो गई, तो मनचाहा काम कर देगी। वह जो चाहे कर सकती है। छिन्नमस्ता के सिर नहीं है तो क्या हुआ, उसकी चार बांहें हैं। वह खड्ग, मुंड, खप्पर और अभय-मुद्रा धारण करती है। वह चाहेगी, तो...

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गुणसुन्दरी को छिन्नमस्ता के सामने खड़े होकर, अपने इष्टमंत्र का जप करने में शांति मिलती है। वह भूल जाती है, अपना सारा दुख। उसे लगता है, वह स्वयं काली की यह खंडित मूर्ति है...उसका सिर काटकर इस मूर्ति में लगा दिया जाए तो बुरी बात नहीं होगी।

आदमी इसी तरह अपने-आपको किसी-न-किसी मूर्ति या किसी-न-किसी जानवर, चिड़िया, पेड़ पौधे और किताब में स्थापित करता है। वह बंदर और कुत्तों के धड़ में अपना सिर जोड़कर, जंगलों में अंधेरी गलियों में भटकता रहता है।

गुणसुन्दरी ने यह समझ लिया कि वैसे दरअसल उसका अपना कोई चेहरा नहीं है। सिर नहीं है और वह छिन्नमस्ता काली हो गई है...

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गुणसुन्दरी लड़खड़ाती हुई आंगन में चली आई। मूर्ति के पास आकर खड़ी हो गई। संजू ने अपना डंडा आंगन में फेंक दिया और घर से बाहर भागने लगा। चीखता हुआ, अपनी मां का नाम पुकारता हुआ, वह बाहर भाग गया। राजू खड़ा था, वहीं खड़ा रहा। गुणसुन्दरी पथरीली निगाहों से उसी की तरफ ताक रही थी।

शायद अगले मिनट राजू का गला दबोच लेगी और उसे अपने दांतों और पंजों से नोचकर चिथड़े-चिथड़े कर देगी।

ठीक इसी वक्त उमा वापस चली आई। वकील-पत्नी अभी तक ‘मैटिनी-शो‘ देखकर नहीं लौटी है। उमा के हाथ में दूध का प्याला था और वह अपनी बांहों में संजू को संभाले हुए थी। अंदर के बरामदे में पांव रखते ही वह सारा तमाशा समझ गई। उमा बोली कुछ नहीं। लेकिन, संजू को गोद से उतारकर वह आंगन में चली गई और राजू की बगल में जाकर खड़ी हो गई।

गुणसुन्दरी ने निगाहें उठाकर उमा की ओर देखा और बेहद सूखी हंसी में अपने होठ लपेटते हुए उसने कहा, “कल सुबह इस मूर्ति को गंगा नदी में बहा आऊंगी! ...लाओ, दूध का प्याला लाओ, बहन! मैं चाय बना देती हूं। आज एक प्याला चाय मैं भी पिऊंगी!”

12

धनबाद स्टेशन पर, ट्रेन से उतरने के बाद गुणसुन्दरी अपने देवर धर्मदास के साथ प्लेटफार्म से बाहर आई और बोली, “मुझे सीधे उनके घर ले चलो। मैं सीधे घर जाऊंगी और कहीं नहीं।” और इतना कहकर उसने अपना घूंघट खींच लिया। धर्मदास एक रिक्शा बुलाने लगा। धूप उग आई थी।