छीना-झपटी से भाषा समृद्ध नहीं होती / देवशंकर नवीन
नवभारत टाइम्स, दिल्ली, जून 7, 2017, पृष्ठ 16 के मध्य में कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी के अध्यापक प्रो. अमरनाथ का एक लेख छपा है--मैथिली को हिन्दी में सेंध लगाने का अधिकार क्यों? उस आलेख में उन्होंने एक तरफ तो महाकवि विद्यापति की महत्ता स्वीकार की है, दूसरी तरफ मैथिली भाषा एवं साहत्यि को लेकर निहायत ऊल-जलूल बातें की हैं! प्रो. अमरनाथ हिंदी बचाओ मंच के संयोजक हैं। लेख के अन्त में अखबार लिखता है कि व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। फिर भी अखबार ने इस वाहियात वमन पर पाठकों की राय आमन्त्रित की है।
मिथिला-मैथिली के प्रबल अनुरागी नौजवान श्री अमित आनन्द एवं डॉ. सविता ने यह समाचार मुझे भेजकर राय माँगी। उन्होंने दो सवाल किए--
हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ पूछ रहे हैं कि 'जब मैथिली ने अपना अलग घर बाँट लिया है, तो उसके कवि विद्यापति को हिन्दी वाले क्यों पढ़ें?' इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
वे कहते हैं कि मैथिली फकत चार करोड़ लोगों की भाषा है। सिविल सर्विस की परीक्षा में बीटेक, बीईए, एमबीए, एमबीबीएस की डिग्री लेकर अनेक अभ्यर्थी अपना विषय मैथिली इस आश्वस्ति से लेते हैं कि मैथिली का पाठ्यक्रम सीमित है, उत्तर-पुस्तिका का मूल्यांकन कोई मैथिली के प्रोफेसर ही करेंगे, जो उन्हें अच्छे अंक देंगे। उन्हें इस बात का भी कष्ट है कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार की राशि मैथिली और हिन्दी के साहित्यकारों के लिए समान होती है। इस पर आपकी क्या राय है?
अव्वल तो इस हास्यास्पद धारणा पर विचार ही नहीं होना चाहिए, क्योंकि छीना-झपटी से कोई भाषा महान नहीं होती! वह महान होती है साहित्य की समृद्धि से, भाषा एवं साहित्य के प्रति नागरिक सम्मान से; लोकजीवन में भाषा की उपादेयता, प्रवाह एवं संवर्द्धन से; नीर-क्षीरविवेकी समालोचना और गम्भीर शोध से; वस्तुनिष्ठ अध्यापन से...। पूरी की पूरी हिन्दी पट्टी हस्बेमामूल अंग्रेजी की ओर विदा हो गई है; मान्यता-पुरस्कार -समालोचना में बकायदा गिरोहबाजी और तिजारत का बोलबाला है; वंशवाद और संबंधवाद के सम्पोषण से पूरे देश का हिन्दी अध्यापन त्रस्त है; अराजक अध्यापकीय शैली के मारे पूरा अनुसन्धान-कार्य कचरापेटी बनता जा रहा है...ऐसे कोलाहल में मशगूल विद्वानों की प्राथमिक चिन्ता में ये बातें शामिल नहीं हैं। तुलना जायज हो तो मैं घोषणा करूँ कि मेरी तरह के असंख्य हिन्दी-भक्त इस दुनिया में हैं, जिन्हें इसकी चिन्ता हो रही है; क्योंकि वे इन तथ्यों पर गम्भीरता से सोच रहे हैं; राष्ट्र और राष्ट्रभाषा से उन्हें मोह है; वे निरर्थक प्रलाप नहीं करते; कुतर्क के पीछे लट्ठ लेकर नहीं दौड़ते।...फिर भी इनको जवाब देना मुनासिब लग रहा है; क्योंकि मनुष्य की स्मरण शक्ति बहुत कमजोर होती है; बल्कि अधिकांश समय में वे अपनी स्मरण शक्ति को जबरन कमजोर बना लेते हैं, अपनी सुविधानुसार प्रसंगों को भूलते-बिसराते रहते हैं। सुधी पाठकों को याद होगा कि दशकों पहले डॉ. रामविलास शर्मा ने मैथिली को बोली साबित करने के लिए, और इसे भाषा का दर्जा नहीं देने की नीयत से एक लेख लिखा था; उसका करारा जवाब बाबा नागार्जुन ने आर्यावर्त अखबार में दिया था। उसके बाद बाबा का वह लेख तो दुबारा कहीं पुनर्मुद्रित नहीं हुआ, लेकिन रामविलासजी वाले लेख को बार-बार छपाकर कुछ षड्यन्त्रकारियों ने सूखे घाव को बार-बार खोदना शुरू कर दिया। उस लेख के हर पुनर्मुद्रण का जवाब यदि बाबा नागार्जुन के उसी लेख के पुनर्मुद्रण से दिया गया होता, सम्भवतः ऐसी बचकानी हरकत दुहराने से लोग बाज आते। रामविलासजी के उस लेख में तो फिर भी एक जिद थी; बेतुका ही सही एक मुहिम थी; यह लेख तो बकवास है। ऐसी बचकानी बात तो कोई पाँचवी जमात का बच्चा भी नहीं कर सकता। फिर एक बात और है; यह हिन्दी बचाओ मंच आखिर है क्या? हिन्दी को ये लोग किससे बचाना चाहते हैं? हँसी आती है कि जिस हिन्दी की अस्मिता को रौंदकर अपना प्रतिपाल कर रहे हैं, वे हिन्दी को बचाने की बात कर रहे हैं! आश्चर्य!
उनका सवाल है कि वे हिन्दी में विद्यापति को क्यों पढ़ें? अब किसी अध्येता को इतनी समझ नहीं है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को मजबूत बनाने और राष्ट्रीय अस्मिता की समझ बनाने के लिए विद्यापति की अहमियत क्या है? तो मत पढ़ें! विद्यापति उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े तो होंगे नहीं कि आप मेरी रचना पढ़ ही लें। शोधार्थियों, अध्येताओं, अध्यापकों एवं सामान्य पाठकों को इस भ्रम से बाहर आ जाना चाहिए और सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी रचनाकार की रचनाओं को पढ़कर वे रचना अथवा रचनाकार का नहीं; स्वयं अपना भला करते हैं। अध्यवसायी की अपनी आत्मिक भव्यता बढ़ती है। सम्बद्ध रचनाकार को वे कुछ भी नहीं देते।
अमरनाथ की इस हास्यास्पद उक्ति से बचने हेतु लोग चाहें सन् 1935 में मिथिला मिहिर के मिथिलांक में प्रकाशित सुनीतिकुमार चटर्जी का आलेख 'मैथिली भाषा और संस्कृति' अवश्य पढें। उन दिनों मिथिला मिहिर में कुछ पृष्ठ हिन्दी में भी रहते थे। सुनीतिकुमार चटर्जी ने स्पष्ट कहा है कि--'मैथिली...भूल से हिन्दी की बोली मान ली जाती है। साहित्यिक हिन्दी कल की भाषा है, इसकी प्रधानता केवल गत शताब्दी में हुई है।कृकिन्तु मैथिली कम से कम छह सौ वर्षों से सम्भवतः इससे भी अधिक से संचित होती आई है।' प्रो. अमरनाथ को शायद अनुमान नहीं है कि विद्यापति को भूलेंगे तो उनके पाँव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी! उन्हें सबसे पहले रामचन्द्र शुक्ल को खारिज करना होगा। क्योंकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रवृत्तिगत विशेषता के आधार पर जिन बारह ग्रन्थों को आधार बनाकर हिन्दी साहित्य के आदिकाल का नामकरण 'वीरगाथाकाल' किया; उनमें सर्वाधिक प्रामाणिक दो कृतियाँ कीर्तिलता और कीर्तिपताका विद्यापति की ही थीं; जिन्हें आचार्यश्री ने इतिहास में एक अवतरण की जगह देना भी मुनासिब नहीं समझा। अब वे रामचन्द्र शुक्ल की गलती सुधारें पहले! नाखून कटाकर शहीदी जत्था में नाम लिखवाने के लिए तो आमादा हैं, पर तथ्यों की पड़ताल की कोई लालसा नहीं! मैथिली और विद्यापति पर अपनी राय देते हुए सुनीतिकुमार चटर्जी ने कहा था कि मैथिली कविताओं का प्रभाव अपने पड़ोस की पूर्वी बहिनों पर अर्थात् बंगला, आसामी और कुछ दूर तक उड़िया भाषाओं पर बहुत पड़ा। आधुनिक भारतीय साहित्य में विद्यापति सबसे बड़े कवियों में गिने जाते हैं। ये उस श्रेणी के प्रतिभाशाली कवि थे, जिनको बंगाली अपना कवि मानते हैं। और वे अपने प्रान्तीय कवियों की भाँति उनका आदर करते हैं।...दो साहित्यों में ऐसा प्रमुख स्थान पाना अपूर्व प्रतिष्ठा की बात है। ज्ञान और शोध के लिए दरअसल अध्यवसाय की जरूरत होती है, जिससे ऐसे वक्तव्यवीरों का सरोकार रह नहीं गया है। शगूफेबाजी के ऐसे पहलवानों का मूल उद्देश्य वस्तुतः हिन्दी-अनुराग नहीं होता; वे तो ऐसे तौर-तरीकों की तलाश चर्चित होने, प्रशस्ति पाने के आखेट में करते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि ऐसी लपक-झपक एवं साम्राज्य-विस्तार की दुर्नीति अपनाने, अन्य भाषा-साहित्य का अपमान करने, या भावुक भाषा-प्रेमियों की संवेदना गुदगुदाकर पक्षधरता जुटाने से आज तक दुनिया की कोई भी भाषा समृद्ध नहीं हुई है।
संस्कृत, अवहट्ट एवं मैथिली--महाकवि विद्यापति की रचनाएँ बेशक तीन ही भाषाओं तक सीमित हैं, किन्तु साहित्य के हर ईमानदार अध्यवसायी इस बात से परिचित हैं कि उनका रचनात्मक सरोकार वैश्विक है; नितान्त मानवीय। जिन महान रचनाकारों के कृतिकर्मों के सहारे भारतवासी दुनिया भर में अपनी गरदन ऊँची किए रहते हैं; उनमें विद्यापति का नाम प्राथमिक पंक्ति में आता है। साहित्य के अध्येताओं को इतना सेक्टेरिअन (साम्प्रदायिक) होना शोभा नहीं देता। देश भर में मेरे जैसे असंख्य अध्येता होंगे, जिन्हें किशोरावस्था में शरत बाबू की पॉकेट बुक्स में छपी किताबें पढ़ते हुए कभी यह बोध हुआ हो कि वे हिन्दी के लेखक नहीं हैं। उपलब्ध स्रोतों से संकलित महाकवि विद्यापति की कृतियों की सूची इस प्रकार है--
कीर्तिलताः(कीर्तिसिह के शासन-काल में उनके राज्यप्राप्ति के प्रयत्नों पर आधारित अवहट्ट में रचित यशोगाथा)
कीर्तिपताकाः(कीर्तिसिह के प्रेम प्रसंगों पर आधारित अवहट्ट में रचित)
भूपरिक्रमाः(देवसिंह की आज्ञा से, मिथिला से नैमिषारण्य तक के तीर्थस्थलों का भूगोल-ज्ञानसम्पन्न संस्कृत में रचित ग्रन्थ)
पुरुष परीक्षाः(महाराज शिवसिंह की आज्ञा से रचित नीतिपूर्ण कथाओं का संस्कृत ग्रन्थ)
लिखनावलीः(राजबनौली के राजा पुरादित्य की आज्ञा से रचित अल्पपठित लोगों को पत्रलेखन सिखाने हेतु संस्कृत ग्रन्थ)
शैवसर्वस्वसारः(महाराज पद्मसिह की धर्मपत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से संस्कृत में रचित शैवसिद्धान्तविषयक ग्रन्थ)
शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत संग्रह :(शैवसर्वस्वसार की रचना में उल्लिखित शिवार्चनात्मक प्रमाणों का संग्रह)
गंगावाक्यावलीः(महाराज पद्मसिह की पत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से रचित गंगापूजनादि, एवं हरिद्वार से गंगासागर तक के तीर्थकृत्यों से सम्बद्ध संस्कृत ग्रन्थ)
विभागसारः(महाराज नरसिंहदेव दर्पनारायण की आज्ञा से रचित सम्पत्तिविभाजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ)
दानवाक्यावलीः(महाराज नरसिंहदेव दर्पनारायण की पत्नी धीरमति की आज्ञा से दानविधि वर्णन पर रचित संस्कृत ग्रन्थ)
दुर्गाभक्तितरंगिणीः(धीरसिंह की आज्ञा से रचित दुर्गापूजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ, और विद्यापति की अन्तिम कृति; धीरसिंह का शासन सन् 1459-1480 तक रहा। यद्यपि इस रचना के उपक्रम में दर्ज राजस्तुतिकृ'विश्वेषां हितकाम्यया नृपवरोऽनुज्ञाप्य विद्यापतिं श्री दुर्गोत्सव पद्धतिं वितनुते दृष्ट्वा निबन्धस्थितिम्' (अर्थात् विश्वहित कामनासम्भूत राजज्ञा पर विद्यापति ने दुर्गोत्सवपद्धति निबन्ध लिखा)कृके सहारे सुकुमार सेन का कहना है कि पूर्वकृत रचनाओं की गुणवत्ता के कारण नरसिंहदेव-धीरमति देवी ने इस ग्रन्थ की रचना का आदेश दिया और पुस्तक लिखी गई।)
गोरक्ष विजयः(महाराज शिवसिंह की आज्ञा से रचित मैथिली एकांकी, गद्यभाग संस्कृत एवं प्राकृत में और पद्यभाग मैथिली में)
मणिमंजरि नाटिकाः(संस्कृत में लिखी नाटिका, सम्भवतः इस कृति की रचना कवि ने स्वेच्छा से की)
वर्षकृत्यः(पूरे वर्ष के पर्व-त्यौहारों के विधानविषयक मात्र 96 पृष्ठों की कृति, सम्भवतः)
गयापत्तलकः(जनसाधारण हेतु गया में श्राद्ध करने की पद्धतिविषयक संस्कृत कृति)
पदावलीः(शृंगार एवं भक्तिरस से ओतप्रोत अत्यन्त लोकप्रिय लगभग नौ सौ पदों का संग्रह)
अब अध्येतागण स्वयं सोचें कि वे इस आधार पर विद्यापति को किस भाषा अथवा किस विचारधारा के रचनाकार मानेंगे। या फिर यह भी सोचें कि उनकी कितनी रचनाओं को पढ़कर उन पर फतवा जारी करते हैं। इतिहास गवाह है कि विद्यापति की बिखरी हुई रचनाओं का संकलन समायोजन प्रारम्भिक तौर पर किसी मैथिल ने नहीं, बंगला के शोधवेत्ताओं ने शुरू किया था। यह भी विदित है कि बंगला भाषा के विद्वान विद्यापति के लिए देर तक संघर्ष करते रहे थे।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। उसकी सम्पन्नता, भव्यता के बारे में हमें अवश्य सोचना चाहिए। किन्तु इस कारण भाषा-विज्ञान की ज्ञान-पद्धति की कब्र नहीं खोदनी चाहिए। फतवेबाजी और भाषिक साम्प्रदायिकता के जहर से दग्ध होना सदैव ही हानिकारक होता है। इस मामले में हर वास्तविक शिक्षाविद्, साहित्यसेवी, शोधवेत्ता, यथेष्ट उदारता रखते हैं। उनकी दृढ़ राय होती है कि भाषा-विज्ञान की संगति-अवगति हर किसी के लिए गुणकारी होता है, फिर हिन्दी के प्रोफेसर के लिए क्यों नहीं होगा? ज्ञान दुनिया की किसी भी भाषा में उपजे, उसे मनस्थ करने की ललक हर बुद्धिजीवी को होती है। मामूली भाषावैज्ञानिक समझ रखनेवालों को भी यह मालूम है कि जोर-जबर्दस्ती करने पर भी मैथिली, हिन्दी की बोली साबित नहीं हो सकती; क्योंकि दोनों एक परिवार की भाषा ही नहीं है। मैथिली मागधी-प्राकृत-अपभ्रंश भाषा-परिवार की भाषा है, जबकि खड़ीबोली हिन्दी शौरसेनी-प्राकृत भाषा-परिवार की। जिस प्रकाण्ड भाषावैज्ञानिक सुनीतिकुमार चटर्जी के हवाले से प्रो. अमरनाथ ने इतनी मशक्कत कर मैथिली को पूर्वी (हिंदी) या बिहारी (हिंदी) के अंतर्गत एक बोली के रूप में शामिल करने की चेष्टा की है, और सन् 2003 में माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधान मन्त्रीत्व में मैथिली के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने से वे घनघोर दुःख के शिकार हुए हैं; उसी सुनीति कुमार चटर्जी ने यह बात काफी पहले जोर देकर कह दी है। इसके अलावा मैथिली की अपनी लिपि भी है--मिथिलाक्षर, इसे तिरहुता भी कहते हैं। यह नामकरण गुप्तकाल में ही हो गया था। उससे पूर्व बौद्ध-ग्रन्थ 'ललित विस्तर' में इसे वैदेही लिपि कही गई है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसन्धान (सन् 1916) के अनुसार मिथिलाक्षर अथवा तिरहुता-लिपि का प्रमाण आठवीं-नौवीं शताब्दी के सिद्ध-साहित्य के बौद्धगान ओ दोहा के तालपत्र पाण्डुलिपि में मिलता है। तिब्बत में मिले एक तालपत्र के साक्ष्य से राहुल सांकृत्यायन ने भी प्राचीन तिरहुता का अस्तित्व स्वीकारा है। प्रमाण लेना हो तो मिथिला मिहिर में छपे अपने लेख 'मैथिली भाषा और संस्कृति' में प्रकाण्ड भाषाविद् सुनीतिकुमार चटर्जी की राय देखें! वे कहते हैं कि मैथिली कविता का बीज बंगभूमि में एक नए वृक्ष के ही रूप में परिणत हो गया, जो ब्रजबोली साहित्य के नाम से अभिहित हुआ। यह मैथिली और बंगभाषा के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुआ और इसी भाषा में बंगाल के सबसे उत्तम शृंगारिक भक्त कवि तीन सौ वर्षों से भी पहले से अपनी कविता करते आ रहे हैं। यह शैली कवीन्द्र रवीन्द्र के समय तक जारी रही है और इसका प्रवाह हमलोगों के समय तक भी अक्षुण्ण और निर्दोष है।...मैथिली को अन्यान्य भाषाओं की भाँति अपनी खास लिपि भी है, जो हिन्दी से एकदम स्वतन्त्र और कई प्रकार से भिन्न भी है। यद्यपि मैथिली को जानबूझकर मिटा डाला जाए और केवल हिन्दी की ही शिक्षा दी जाए तो भी मैं नहीं सोचता, कितने वर्षों में मैथिलीभाषी जनता को हिन्दीभाषी बनाया जा सकता है। मैं सोचता हूँ कि कई शताब्दियाँ इस काम में लगेंगी...। साहित्येतिहास की कुंजी पढ़कर मुखविलास में लिप्त रहना हो, तो और बात है।
असल में समस्या मैथिलीभाषियों की ही उदारता से शुरू हुई। उन्नीसवीं शताब्दी में जब हिन्दी-उर्दू विवाद जोरों पर था; काशी, प्रयाग और मिथिलांचल के बुद्धिजीवी एवं संस्कृत पण्डित हिन्दी के पुरजोर समर्थन में उतर आए थे। मैथिल विद्वानों ने अपनी लिपि 'मिथिलाक्षर' त्यागकर देवनागरी अपना लिया। हिन्दी-समर्थन में उतर आने तक की बात तो जो हो, किन्तु अपनी लिपि का त्याग सम्भवतः मैथिल विद्वानों की बड़ी भूल थी। मैथिली को उस उदारता का दण्ड सन् 1917 में पटना विश्वविद्यालय में हुए मैथिली-विरोध से लेकर आज तक झेलना पड़ रहा है। मैथिली को हिन्दी की बोली कहनेवाले विद्वानों के मन में आज वही अतीतविहीन कृतघ्न धारणा कौंध रही है। उल्लेखनीय है कि वह दौर स्वाधीनता आन्दोलन का भी था। पूरे देश को भाषिक एकता के सूत्र में बाँधे जाने की जरूरत दिख रही थी। मैथिली के प्रसिद्ध कवि चन्दा झा ने ऐसे ही क्षण में विद्यापति की कृति 'पुरुष परीक्षा' के अपने मैथिली अनुवाद की भूमिका हिन्दी में लिखी। और भी कई मैथिल रचनाकारों ने राष्ट्रीय अस्मिता के समर्थन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। किन्तु आजादी मिलने के बाद वे सब धोखे के शिकार हुए, उसकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक होगी।
राय बनाने की आजादी तो भारत में हर प्राणी को है। किन्तु मैथिली के बारे में राय बनाते हुए जब कोई इसे फकत चार करोड़ लोगों की भाषा कहते हैं, तब हँसी आती है। कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति इतनी आधारहीन बात कैसे करता है! उन्हें यह बात क्यों नहीं मालूम होती कि संख्या किसी भाषा के भाषा बनने का आधार नहीं होती। भाषा का आधार उसके साहित्य-सृजन एवं लिपि की प्राचीनता, साहित्य में व्यक्त राष्ट्रीय अस्मिता की चिन्ता, साहित्यिक उत्कर्ष, साहित्य के जनसरोकार, सृजनात्मक सातत्य, समाज एवं सभ्यता के संवर्द्धन में उसके योगदान, भाषा और साहित्य के प्रति नागरिक-अनुराग, जीवन-यापन और संस्कृति-संरक्षण में भाषा-साहित्य के दखल आदि में ढूँढा जाता है। ढूँढें तो दुनिया में कुछेक ऐसे राष्ट्र भी मिलेंगे, जिनकी पूरी आबादी मैथिलीभाषियों से कम या कि आसपास है। सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपने लेख'मैथिली भाषा और संस्कृति' में इस ओर भी इशारा किया है! इसलिए भाषा के सन्दर्भ में जनसंख्या पर बात करना समीचीन नहीं है।
बौद्धिक दारिद्र्य का आलम यह है कि मैथिली के सन्दर्भ में ऐसी बात करनेवाले हिन्दी-प्रेमियों को विद्यापति (सन् 1350-1439) के अलावा कोई और नाम नहीं मालूम। अब उन्हें यह ज्ञान कौन दे कि विद्यापति कोई वंशहीन रचनाकार नहीं हैं। विगत छह सौ बरसों से और उनके पूर्ववर्ती काल में भी मैथिली साहित्य-धारा सदानीरा और ऊध्र्वगामी रही है। उनके पूर्ववर्ती ज्योतिरीश्वर ठाकुर से लेकर आज तक के सैकड़ो रचनाकारों का नाम गिनाना यहाँ नामुमकिन है, गैरमुनासिब भी। फिर भी विद्यापति के प्रमुख समकालीन अमृतकर, दशावधान, भीषम कवि; उनके प्रमुख परवर्ती कंसनारायण, गोविंददास, महिनाथ ठाकुर, लोचन, हर्षनाथ, जगज्योतिर्मल्ल, जगत्प्रकाश मल्ल, रामदास, उमापति, रमापति, रत्नपाणि; जीवन झा, और आधुनिक काल में मनबोध, चंदा झा, लालदास, जनार्दन झा जनसीदन, भुवनेश्वर सिंह भुवन, सीताराम झा, कुमार गंगानन्द सिंह, महावैयाकरण दीनबन्धु झा, डॉ. सुभद्र झा, नरेन्द्रनाथ दास, क्षेमधारी सिंह, म.म. डॉ. सर गंगानाथ झा, तन्त्रनाथ झा, काशीकान्त मिश्र मधुप, कांचीनाथ झा किरण, हरिमोहन झा, बैद्यनाथ मिश्र यात्री, आरसी प्रसाद सिंह, सुरेन्द्र झा सुमन, ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म, राधाकृष्ण बहेड़, रामकृष्ण झा किसुन, चन्द्रनाथ मिश्र अमर, गोविन्द झा, प्रबोध नारायण सिंह, अणिमा सिंह, सुधांशु शेखर चौधरी, ललित, राजकमल चौधरी, मायानन्द मिश्र, फजलुर रहमान हासमी, विलट पासवान विहंगम, गंगेश गुंजन, प्रभास कुमार चौधरी, रामदेव झा, धूमकेतु, जीवकान्त (एक साँस में याद आए कुछेक नाम, जयप्रकाश आन्दोलन के दौर में तैयार पीढ़ी में तो आ भी नहीं सके) के बारे में कितने हिन्दी के अध्येता जानकारी रखते हैं।
असल में इस समय हिन्दी-भक्तों को आत्ममन्थन की बड़ी जरूरत है। हंगामा छोड़कर वस्तुनिष्ठता की ओर बढ़ें, तो हिन्दी के हित में कुछ बात बनेगी। प्रो. अमरनाथ कोशिश करें तो यह जानकारी सहजता से जुटा सकते हैं कि बी.टेक, बी.ई.ए., एम.बी.ए., एम.बी.बी.एस. किए हुए यू.पी.एस.सी. के अभ्यर्थी केवल मैथिली ही नहीं; हिन्दी, इतिहास, एल.एस.डब्ल्यू., पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, बंगला, मराठी आदि विषय भी लेते हैं। तथ्य है कि स्वर्णपदकप्राप्त भौतिक विज्ञान के स्नातक ने भी इतिहास और हिन्दी विषय लेकर यू.पी.एस.सी. की परीक्षा दी है; और सफल भी हुए हैं। जहाँ तक उत्तर-पुस्तिका-मूल्यांकन की पद्धति का सवाल है, मराठी की उत्तर-पुस्तिका तो मराठी के अध्यापक ही जाँचेंगे! इस मामले में वे यू.पी.एस.सी. के विधान पर आस्था रखें, वह हर विषय पर समान रूप से लागू होता है। विश्वविद्यालयों में हिन्दी की उत्तर-पुस्तिका का मूल्यांकन जैसे होता है, पूरा देश जानता है। फिर सारा गुस्सा मैथिली के लिए ही क्यों?
अब आइए उनके साहित्य अकादेमी पुरस्कार की राशि के क्रोध पर। वे चाहें तो अकादेमी से निवेदन कर अपनी इच्छानुसार कोई संशोधन करवा लें। उन्हें समझ बनानी चाहिए कि कोई रचनाकार लिखता है, इसलिए उसे पुरस्कार मिलता है; उसे पुरस्कार मिलना है, इसलिए नहीं लिखता। वैसे विचारणीय अवश्य है कि सभी भाषाओं के लिए यदि एक-एक पुरस्कार है; तो हिन्दी के लिए प्रति वर्ष दो या तीन पुरस्कार अवश्य हो, क्योंकि पूरे देश के सभी राज्यों में हिन्दी के लेखक बसते हैं, उन्हें एक ही पुरस्कार तक सीमित रखना कदाचित नाइन्ससफी हो। कहीं-कहीं ऐसा प्रस्ताव मैंने रखा भी है। पर मेरी बात कोई क्यों सुने। अमरनाथ जी चाहें तो इस दिशा में पहल कर सकते हैं। उन्हें इस प्रयास में सफलता मिलेगी तो उसे मैं अपनी सफलता भी मानूँगा।
कुल मिलाकर मैथिली-हिन्दी के प्रसंग में भाषा-विभाषा का विवाद निरर्थक है। इसमें बहस का कोई मसला ही नहीं दिखता। क्योंकि दोनो ही भाषाएँ अलग-अलग परिवार की हैं। अमरनाथ की यह धारणा अनुचित है कि 'मैथिली ने अपना अलग घर बाँट लिया है'; कोई भाषा अपना घर अलग नहीं करती; उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति को देखकर अध्येता अपनी सुविधा के लिए भाषाओं का परिवारीकरण करते हैं। मैथिली और हिन्दी का यह परिवारीकरण बीसवीं शताब्दी के प्राथमिक चरण में ही हो गया था। यह कोई आज की घटना नहीं है। जिनके पास नष्ट करने के लिए ऊर्जा और समय है, वे करें, कौन रोकेगा, भारत में तो लोकतन्त्र है ही...। माना कि अमरनाथ जी खुद को बहुत बड़े विद्वान मानते हैं, समझदार और बहुपठित भी। वे कहें तो मैं भी उन्हें विद्वान मान लूँगा, किन्तु भारतीय संविधान में शामिल होने के चौदह वर्षों का वनवास झेलकर वे आज क्यों अयोध्या की गद्दी सँभालने को तत्पर हुए, समझ नहीं आता। मुझे लगता है कि किसी आवेश में वे ऐसा लिख गए। वर्ना कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति ऐसी हास्यास्पद बातें तो नहीं कर सकता। उसमें भी अमरनाथ जी जैसे समझदार लोग तो कदापि नहीं करते।
इस समय हम सभी हिन्दी अनुरागियों को इस छीना-झपटी से अलग आकर यह सोचने की जरूरत है, कि ज्ञान एवं अनुसन्धान की विभिन्न शाखाएँ, व्यापार-पर्यटन-संचार-प्रशासन का पूरा तन्त्र हिन्दी की मुट्ठी से फिसलता जा रहा है। भारत की शासकीय एवं न्यायिक व्यवस्था में जिस हिन्दी को प्रथम भाषा का दर्जा मिलना चाहिए, वहाँ हिन्दी अनुवाद की भाषा है। न आने के बावजूद अधिकारी अंग्रेजी में मसौदा तैयार करते हैं, और राजभाषा-नीति के भय में उस सड़ी हुई अंग्रेजी का हिन्दी अनुवाद होता है। मातृभाषा के नाम पर आन्दोलन करते हुए 21 फरवरी 1952 को शहीद हुए ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों एवं अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जज्बा आज कितने हिन्दी अनुरागियों को याद है। इस समय भारतीय भाषाओं के साहित्यानुवाद में लगभग साठ प्रतिशत मामलों में हिन्दी सेतु-भाषा का काम कर रही है; हमें प्रयास करना चाहिए कि यह प्रतिशतता उत्तरोत्तर बढ़े और हिन्दी अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा बने। हिन्दी के कद्रदानों के ऐसे साम्प्रदायिक वक्तव्यों से हिन्दी का बड़ा नुकसान हो रहा है। मुझे नहीं मालूम कि हिन्दी के कितने सिपाही (?) वक्तव्य देने से पहले इन मसलों पर सोचते हैं। नहीं सोचते हैं तो सोचना चाहिए। वैसे उनके नहीं सोचे से भी हिन्दी रहेगी, बाकायदा रहेगी; केवल वे साम्प्रदायिक वक्तव्य न दें तो हिन्दी नुकसान से बच जाएगी।