छुक छुक करते डिब्बे धक धक करता इंजन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :05 अप्रैल 2016
आर. बाल्की की करीना और अर्जुन कपूर अभिनीत 'की एंड का' में नायक-नायिका के घर के सेट पर एक लघु ट्रेन निरंतर दौड़ती रहती है और खुले डिब्बों में खाने-पीने का सामान आता है। यह लघु ट्रेन बच्चों के खेलने की टॉय ट्रेन का बड़ा स्वरूप है अौर यथार्थ ट्रेन का मिनिएचर है। इस तरह की ट्रेन ग्वालियर राजघराने के मुख्य महल में दशकों पूर्व सजाई गई थी। यह महाराजा ग्वालियर की मौलिक कल्पना थी, जिसे टेक्नोलॉजी ने साकार किया था। राजा, महाराजाओं और नवाबों ने अपने दरबार में गुणवंत लोगों को वजीफे और धन से नवाज़ा था तथा देशज संस्कृति की धरोहर की रक्षा सामंतवाद ने इस तरह की थी। आज का धनाढ्य वर्ग अपनी दावतों में फिल्मी सितारों को बुलाकर स्वयं को गौरवान्वित मानता है। यह फर्क है दो अलग-अलग कालखंड में अकूत धन के उपयोग का। आज का धनाढ्य वर्ग खेलों में धन लगाता है और इस कार्य में भी वे सितारों की भागीदारी प्राप्त करते हैं। धनाढ्य वर्ग घूम-फिरकर खेल-कूद की ओर उसके ग्लैमर के कारण आता है। अपने स्वर्ण-काल में सामंतवादी अपने हुक्मरान अंग्रेजों की जीवन शैली का अनुसरण करना चाहते थे। उनके स्वर्ण-काल में पोलो खेल को गरिमामय माना जाता था और घोड़ों के प्रति सामंतवाद का मोह उन्हें पोलो और घुड़दौड़ के क्षेत्र में भी सक्रिय करता था। मुंबई के महालक्ष्मी रेसकोर्स परिसर में सामंतवादियों के अपने बॉक्स हैं और उनका दास बॉक्स में ही उनके खाने-पीने की व्यवस्था करता है। रेस कोर्स के संविधान में इस तरह के आरक्षित बॉक्स मालिक की मृत्यु पर उसके ज्येष्ठ पुत्र के अधिकार में चले जाते हैं। सामंतवाद की सारी परम्पराएं सिंहासन पर ताजपोशी की परम्परा से जुड़ी हैं। राज कपूर का रेस कोर्स बॉक्स अब उनके ज्येष्ठ पुत्र की मिल्कीयत है। ज्येष्ठ पुत्र की वारिस दो पुत्रियां हैं। अत: वह बॉक्स ऋषि कपूर के पुत्र रणबीर मिलेगा, जिसमें वे दीपिका पादुकोण या अपनी नवीनतम महिला मित्र के साथ विराज सकते हैं। रणबीर ने प्रतिभा दादा राज कपूर से ग्रहण की है और जीवन शैली छोटे दादा शम्मी कपूर से।
अंग्रेजों ने अपने डेढ़ सौ वर्ष के आधिपत्य में जगह-जगह डाक बंगलों की स्थापना की है, जो उनके शिकार के शौक से जुड़ी थी और वे सामान्य मनुष्य की पहुंच से दूर अपने ठिकानों का निर्माण करते थे। यह बताना कठिन है कि मौजूदा सरकारों ने उन डाक बंगलों की कितनी हिफाजत की है परंतु मंत्रियों के दौरों के कारण संभवत: उनकी देखभाल की जाती है। उन डाक बंगलों में खाना बनाने के लिए रसोइये रखे जाते थे और उन्होंने अंग्रेजों के जाने के बाद भी भोजन में अंग्रेज रुचियों का निर्वाह किया है। भारतीय रेल में आज भी कुछ शाही सलून हैं, जिनमें ड्राइंग रूम, बेडरूम और किचन की व्यवस्था है। उन शाही सलून को फूहड़ नेताओं ने विकृत करने का प्रयास किया है। ब्रिटिश परम्परा की रेल के प्रति राज कपूर का मोह ताउम्र कायम रहा। अपने बालपन में उन्हें लगता था कि रेल का ड्राइवर बड़ा शक्तिशाली तथा हुनरमंद है और उनके बालमन के कच्चे आंगन में पहली महत्वाकांक्षा पनपी और वह रेल ड्राइवर बनने की थी। कालांतर में वे फिल्म निर्देशक बने, जिसका संपूर्ण नियंत्रण फिल्म विधा के सारे महकमों पर होता है। आज के फिल्मकार ट्रेन को हरी झंडी दिखाने वाले बाबू मात्र बनकर रह गए हैं। उन्होंने अपने ट्रेन मोह की काव्यमय प्रस्तुती 'जोकर' में की जब कमसिन उम्र का नायक छुटि्टयों में लौट रहे अपने साथियों को फूल देता है। 'जोकर' के ही एक अन्य दृश्य में नायक चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर व्याप्त अंधेरे पर निगाह गड़ाए है और पूछे जाने पर कहता है, 'स्टेज की रोशनियों की चकाचौंध में जो मैं नहीं देख पाया, वह इस अंधेरे में देख रहा हूं।'
राज देश और रेलवे प्रेम की अन्यतम अभिव्यक्ति अपनी फिल्म 'रिश्वत' में करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने मराठी भाषा के नाट्यकार विजय तेंडुलकर के साथ सृजन बैठकें की थीं। राज कपूर का कथा विचार था कि गांव का एक स्कूल शिक्षक सेवानिवृत्त होने पर अपने मंत्री बेटे से मिलने बिना आरक्षित सीट के तृतीय श्रेणी की यात्रा करता है। यात्रा में भारत की विविधता में एकता से मोहित होता है और गन्तव्य पर पहुंचने पर मोह भंग होता है, जब वह अपने मंत्री बेटे को रिश्वत लेते हुए पकड़ता है। वह उसे अपने छाते से पीटते हुए इंडिया गेट तक ले जाता ह और कहता है, 'पढ़ इस पर खुदे शहीदों के नाम जिन्होंने अपने रक्त से धरती सींची थी। क्या थी तेरी विरासत और तू क्या हो गया है।' क्या राज कपूर की इस मोहभंग की कथा को उनके सुपुत्र बनाएंगे या जो बनाएगा वही उनका सांस्कृतिक वारिस कहलाएगा। क्या उनके पोते रणबीर अपने तमाशे से मुक्त होकर अपनी विरासत की ओर देखेंगे?