छुट्टियाँ / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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रिक्शावाला सामान दरवाज़े पर रखकर चला गया। उसने होल्डाल वहीं बाहर चबूतरे पर पड़ा रहने दिया और बक्स ले कर जीना चढ़ने लगा। मां बाहर छत पर ही खरहरी चारपाई पर बैठी थीं। उन्होंने उसकी ओर देखा। पहचाना या नहीं, वह जान नहीं सका। वह इतना जानता है कि मां को अब बहुत कम दिखाई देता है। उसने बक्स वहीं फर्श पर रख दिया और झुककर मां के पैर छू लिए।

‘‘आ गए?’’ मां ने कहा।

‘‘हां,’’ उसने कहा। एक क्षण रुका, तब नीचे होल्डाल लेने चला आया।

होल्डाल ला कर उसे भी उसने वहीं छत पर पटक दिया और चारपाई पर बैठ कर हांफने-सा लगा। होल्डाल खासा वजनी था। उसे ले कर सीढ़ी चढ़ने से वह थक-सा गया था। सतीश, उसका छोटा भाई, अंदर कमरे से निकल कर आया और झुककर उसके पैर छुए। उसने कुछ कहा नहीं। बस, पैर समेट कर एक अन्यमनस्कता-सी व्यक्त की, जैसे उसे यह सब पसंद न हो। सतीश भी कुछ बोला नहीं। सीने पर हाथ बांध कर चुपचाप वहीं खड़ा हो गया।

उसने देखा, मां के चेहरे पर विचित्र-सी गम्भीरता थी। तीन महीने उसे घर छोड़े हुए थे। परंतु इन्हीं तीन महीनों में जाने क्या हो गया था कि अपना ही घर उसे पराया लगने लगा था। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा-पाइप के पास वाली दीवार पर काई जमी थी। आंगन के जंगले के किनारे वाला सरिया टूट कर मगर के मुंह की तरह ऊपर उठ आया था। छत की मुंडेर की ईंटें अभी भी टूटी हुई थीं। कमरे की खिड़की का दरवाजा आधा टूटा था। पाइप के ऊपर वाली दुछत्ती में चैले भरे थे। हां, जीने के सामने बरोठे के एक कोने में लकड़ी के बुरादे का ढेर था, जो पहले नहीं था। कुछ विशेष तो नहीं बदला था, फिर उसे अपना ही घर पराया क्यों लगने लगा था, वह सोचने लगा। शायद अधिक दिनों एक चीज़ को न देखने से ऐसा ही होता हो।

‘‘नीचे किरायेदार हैं क्या?’’ उसने मां से पूछा।

‘‘आजकल घर गएं हैं।’’

‘‘कौन हैं?’’

‘‘कोई गुप्ता हैं।’’

‘‘कहां काम करते हैं?’’

‘‘पी. डब्ल्यू. डी. में।’’ छोटे भाई ने उत्तर दिया।

वह चुप हो गया।

कुछ देर सतीश वहीं खड़ा रहा। तब अंदर कमरे में चला गया। एक क्षण बाद उसकी पत्नी सिर पर घूंघट डाले हुए कमरे से निकली और अपने को इस तरह बचाती हुई, जैसे कोई आग की लपट से बचता है, सामने रसोई में जाकर अंगीठी सुलगाने लगी।

उसने जूते खोल दिए और चारपाई पर पीछे खिसककर दीवार का सहारा ले लिया।

‘‘सन्तू पकड़ गए।’’ मां ने कहा।

‘‘क्या हुआ?’’ उसने पूछा। सन्तू उसके सबसे छोटे भाई का नाम था।

‘‘कहीं से अफीम लाए थे’’ मां ने बहुत आहिस्ता से उसके निकट सरकते हुए कहा, ‘‘वही घर से बरामद हुई। पुलिस आई थी। घर से पकड़ कर ले गई।’’

‘‘कहां रखी थी?’’ उसने पूछा। वह सन्तू की आदतों से परिचित था।

‘‘नीचे, जीने वाली दुछत्ती में।’’

‘‘कब हुआ यह?’’

‘‘कल रात में, दो बजे।’’

‘‘दो बजे!’’

‘‘हां, वह बनियों का लड़का है न, मुन्नन! वही कहीं साइकिल-चोरी में पकड़ा गया था। उसी को लेकर पुलिस घर आई थी।’’

‘‘सतीश नहीं थे घर में?’’

‘‘थे’’ मां ने और धीमी आवाज में कहा, ‘‘उनका स्वभाव तुम जानते ही हो। घर से बाहर नहीं निकले।’’

‘‘सतीश!’’ उसने छोटे भाई को आवाज दी।

सतीश ने उसकी आवाज के उत्तर में कुछ कहा नहीं। चुपचाप बाहर चला आया।

‘‘क्या हुआ था?’’ उसने पूछा।

सतीश एक क्षण खामोश रहा। मां की ओर घूर कर देखा। फिर बोला, ‘‘हुआ क्या था! अफीम घर में लाकर रखी थी। वही बरामद हुई।’’

‘‘पुलिस को कैसे मालूम कहां रखी थी? तलाशी ली थी क्या?’’

‘‘मुन्नन को मालूम था। वही पुलिस लेकर आया था।’’

‘‘लेकिन मुन्नन तो संतू का दोस्त है। यह पुलिस लेकर क्यों आएगा?’’

सतीश एक क्षण चुप रहा। बोला, ‘‘साइकिल चुराने में कहीं पकड़ा गया था। पुलिस ने मारा-पीटा होगा। पूछा होगा कि और क्या करते हो तो बता दिया होगा।’’

‘‘तुम्हें ठीक से मालूम है क्या हुआ था?’’

‘‘यही हुआ, जो बता रहा हूं। कोई आज से थोड़े यह धंधा हो रहा है!’’

‘‘कितनी अफीम थी।’’

‘‘रही होगी आधा सेर।’’

‘‘तो संतू कहां है?’’

‘‘जेल में।’’

‘‘पुलिस सीधे जेल कैसे ले जाएगी? पहले मजिस्ट्रेट के यहां पेश करेगी।’’

‘‘पेश किया था।’’

‘‘तुम गए थे?’’

‘‘हां।’’

‘‘तो तुमने जमानत नहीं ली?’’

‘‘जेल के लिए रिमांड हो चुकी थी, जब मैं पहुंचा था।’’

‘‘कितने बजे गए थे तुम?’’

‘‘दो बजे।’’

‘‘दिन में?’’

‘‘हां।’’

‘‘रात में जब उसे पकड़ कर ले गए तब तुम नहीं गए?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘तो आज नहीं कोशिश की जमानत के लिए?’’

‘‘आज कोर्ट बंद है।’’

‘‘छुट्टी में भी तो एक मजिस्ट्रेट बैठता है।’’

‘‘मुझे नहीं मालूम।’’

वह चुप हो गया। सतीश ने मुड़ कर रसोई की ओर देखा। उसकी पत्नी चाय का कप लिए रसोई के द्वार पर खड़ी थी। कप उससे लेकर वह उसे देने लगा। उसने कप ले लिया। कहा, ‘‘अम्मा को भी दो।’’

‘‘दे रहे हैं।’’ सतीश ने कहा और दूसरा कप ला कर मां को दे दिया।

वह चाय पीने लगा।

होली की छुट्टियों में वह घर आया था। इससे पहले वह यहीं था। परंतु चार महीने पूर्व उसका ट्रांसफर पटना हो गया था। शुरू में वह अकेला ही गया, फिर एक महीने बाद जब उसे मकान मिल गया, तो पत्नी और बच्चों को भी ले गया। मां उस दिन बहुत रोईं थीं।

‘‘इस घर को क्या होता जा रहा है,’’ उन्होंने कहा था, ‘‘अभी तक तुम थे तो संतू तुम्हारा लिहाज करते थे। अब तो उनको खुली छूट मिल जाएगी। सतीश को तुम जानते ही हो, किसी से कोई मतलब नहीं। पिंकी और गीता थे तो मेरा भी मन बहला रहता था। अब सारा दिन रोते बीता करेगा। कम्मन की वजह से मैं यहां फंसी हूं, नहीं तो मैं भी चली चलती तुम्हारे साथ।’’ और वह गीता और पिंकी को सीने से चिपटा कर रोने लगी थीं।

कम्मन उसका भानजा था। आठ वर्ष का। बहन की हैजे में मृत्यु हो गई थी। तब कम्मन छह महीने का भी न था। मां ने उसे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया था। वह शुरू से ही यहां रहा था और बहुत दिनों तक नानी को ‘‘अम्मा’’ कहा करता था। चौथे में पढ़ रहा था वह।

‘‘कम्मन कहां है?’’ उसने पूछा।

‘‘खेलने गया होगा कहीं,’’ मां ने उत्तर दिया।

तब तक कम्मन आ गया। ‘‘नमस्ते बड़े मामा!’’ उसने कहा और इधर-उधर देखने लगा।

होली पर वह अकेला ही घर आया था। पत्नी बच्चों के साथ अपने मायके चली गई थी। पहले वह उसी कमरे में रहा करता था, जिसमें सतीश रहता है। सतीश तब नीचे रहता था। उसके जाने के बाद नीचे का हिस्सा किराए पर उठा दिया गया। मां और कम्मन रसोई के बगल वाले कमरे में रहते हैं जिसे पूजा वाला कमरा कहा जाता है, क्योंकि उसमें लकड़ी का एक छोटा-सा मंदिर रखा है। जिसमें भगवान की मूर्तियां रखी रहती हैं। मां रोज सबेरे उठ कर पूजा करती हैं।

उसे ध्यान आया कि वह खाली हाथ घर आया है, कम-से-कम कम्मन के लिए कुछ ले कर आना चाहिए था।

‘‘पढ़ाई-वढ़ाई ठीक हो रही है?’’ उसने कम्मन से पूछा।

‘‘जी,’’ कम्मन ने कहा।

‘‘मेरे लिए सिगरेट ला दोगे?’’

‘‘जी हां।’’

उसने एक रुपये का नोट जेब से निकाल कर उसे दिया। ‘‘एक पैकेट चारमीनार ले आओ। और बाकी पैसों का अपने लिए कुछ ले लेना।’’

‘‘क्या ले लें?’’

‘‘कुछ ले लेना। जलेबी ले लेना।’’

जलेबियां उसे बहुत पसंद थीं। जब यहां रहता था तो अकसर सुबह दही-जलेबी का नाश्ता करता था।

कम्मन चला गया। वह सामान मां वाले कमरे में उठा लाया और तहमद निकाल कर कपड़े बदलने लगा। उसके पीछे-पीछे मां भी चली आईं।

‘‘मंदिर कहां गया?’’ कमरे में मंदिर न देखकर उसने पूछा।

‘‘शुक्लाइन के घर भिजवा दिया,’’ मां ने कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती। सबेरे उठ कर दो-एक दिन नहा लिया तो सर्दी लग गईं। सतीश की दुल्हिन से कहा था कि वह आरती कर दिया करें सो उन्होंने कह दिया उनसे नहीं होगा।’’

वह चुप हो गया।

‘‘दरवाजे वाला कमरा भी किराएदारों को दे दिया है क्या?’’

‘‘नहीं। वह अपने कब्जे में है। संतू वहीं तो रहते थे।’’

कपड़े बदलकर वह चारपाई पर लेट गया। सामने दीवार पर पिता का चित्र लगा था। छह-सात वर्ष हुए उनका देहांत हुए। उसकी नौकरी तब लगी-लगी ही थी। सतीश उन दिनों ड्राफ्ट्समैन की ट्रेनिंग ले रहा था। संतू नवें में था। काफी कठिन दिन थे वे भी। पिता को रिटायर हुए चार-पांच वर्ष हो चुके थे। फंड का सारा पैसा बहन की शादी में निकल गया था। जैसे-तैसे उसने एम. ए. किया था। पिता ने किसी प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली थी। वह स्वयं पढ़ने के साथ-साथ ट्यूशन करता था। तीन-चार ट्यूशनें करता था एक साथ। उस पर भी घर का खर्च नहीं चलता था।

मां ने बिस्तर लगा दिया था। वह लेट गया और लेटे-लेटे कोई पत्रिका पढ़ने लगा जो उसने रास्ते में खरीदी थी। सफर की थकान उसे महसूस हो रही थी। एक बार उसके मन में आया कि मित्रों से मिल आए। उसने घड़ी देखी। साढ़े सात बजे थे। वह टाल गया। सुबह देखा जाएगा, उसने सोचा।

‘‘द्वारिका मर गए।’’ मां ने कहा।

‘‘कब?’’ उसने पूछा। द्वारिका बाबू मोहल्ले के सबसे पुराने बाशिन्दे थे। उसके पिता के घनिष्ठ मित्रों में से थे। वह उनको चाचा कहा करता था।

‘‘एक महीना हुआ होगा,’’ मां ने उत्तर दिया।

‘‘बीमार थे?’’

‘‘दो-चार दिन बुखार आया होगा।’’

उसके पिता की मृत्यु हो जाने के बाद भी द्वारिका बाबू होली पर हर वर्ष उसके घर आते रहे थे और मांग कर कुछ-न-कुछ खाते थे। पिता थे, तब तो हर वर्ष ठंडाई बनती थी। कभी-कभी एक-दो बोतलें शराब की भी खुल जाती थीं।

‘‘होली का सामान बन गया?’’ उसने पूछा।

मां ने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘‘पापड़ बने हैं।’’ कम्मन ने कहा।

‘‘गुझिया वगैरह नहीं बनीं?’’ उसने पूछा।

‘‘सतीश कहते हैं, उनके पास पैसा नहीं है। खोया छह रुपया सेर बिक रहा है।’’

वह चुप रहा।

‘‘कम्मन!’’ सतीश ने अपने कमरे से आवाज़ दी-‘‘बड़े मामा से पूछो खाना दे जाएं?’’

‘‘ले आओ।’’ उसने कहा।

कम्मन ने एक थाली में परांठे और आलू-बैंगन की सब्जी लेकर चारपाई पर रख दी। चारपाई पर खाने की उसकी पुरानी आदत है। खाना, पढ़ना, शेव-सभी चारपाई पर ही करता है। मां ने गिलास में पानी लाकर नीचे फर्श पर रख दिया। उसने खाना शुरू किया।

‘‘पिंकी साफ़-साफ़ बोलने लगा अब?’’ मां ने पूछा।

‘‘अभी कहां! तुम्हारे सामने जैसा बोलता था, वैसे ही है।’’

‘‘उन लोगों को भी लेते आते। चार महीने हो गए मुझे देखे।’’

वह खाना खाता रहा। ‘‘कम्मन का इम्तिहान हो जाए तो तुम भी वहीं चली चलो। एक-दो महीने रह आओ।’’ उसने कहा।

‘‘देखो, अभी तो दो-ढाई महीने हैं। पराठा और लोगे? दुल्हिन।’’ मां ने सतीश की पत्नी को आवाज दी।

‘‘नहीं-नहीं, बस।’’ उसने कहा।

खाना खाकर उसने हाथ धोए और बिस्तर पर लेटकर सिगरेट पीने लगा। मां उठ कर शायद खाना खाने चली गईं।

वह लेटे-लेटे संतू के बारे में सोचने लगा। उसकी और संतू की उम्र में आठ वर्ष का अंतर था। सतीश उससे पांच वर्ष छोटा था। संतू के बाद फिर मां के कोई संतान नहीं हुई। संतू छह महीने का था, तब मां को टाइफाइड हो गया था। साथ ही संतू को भी हुआ था। छह महीने तक रहा। तीन बार रिलैप्स हुआ। दो-एक बार तो ऐसा हुआ कि मां के प्राण अब निकले, तब निकले। डॉक्टर लहरी का इलाज हो रहा था। कई लोगों ने पिता को डॉक्टर बदलने की राय दी। परन्तु उन्होंने उन्हीं का इलाज चलने दिया। आखिर उन्हीं के इलाज से फायदा भी हुआ। दोनों ठीक हो गए, मां और संतू। परंतु उसका असर यह हुआ कि संतू का स्वास्थ्य हमेशा के लिए बिगड़ गया। शुरू से ही वह दुबला-पतला था। सातवें में पढ़ता था तो एक बार फिर उसे भयंकर किस्म का टायफाइड हुआ। तीन महीने रहा। ठीक होने के बाद डॉक्टरों की राय के अनुसार एक वर्ष के लिए उसका स्कूल जाना बंद करा दिया गया।

वही भूल हो गई। एक वर्ष वह जी भर कर घूमा। संगत भी कुछ खराब हो गई। पिता भी उन्हीं दिनों रिटायर हुए थे। वृद्ध भी हो चले थे। आर्थिक कठिनाइयां भी थीं। वह कुछ देख-सुन नहीं पाते थे। नतीजा यह हुआ कि अगले साल जब दोबारा संतू का स्कूल जाना शुरू कराया गया, तो उसका मन ही नहीं लगा पढ़ने में। अकसर स्कूल जाता ही नहीं। फीस ले कर खर्च कर डालता।

शुरू में तो पता नहीं चला। चार-छह महीने बाद पता चला। कुछ मार-पीट हुई। मगर कोई अन्तर नहीं पड़ा।

वहीं से वह खराब रास्ते पर पड़ गया। वह उन दिनों एम. ए. में पढ़ रहा था। पिता ने उससे कहा कि उसको देखे। मगर वह लापरवाही कर गया। बाद में भी उसने संतू की ओर ध्यान नहीं दिया। नहीं तो कहीं-न-कहीं नौकरी ही लगवा देता। उसके कई मित्रों के पिता अच्छी जगहों पर काम करते थे। अब भी करते हैं। वह कह देता तो वे लोग उसे कहीं-न-कहीं छोटी-मोटी नौकरी पर लगवा सकते थे। परंतु उसने कभी उस ओर सोचा ही नहीं।

नतीजा यह हुआ कि शुरू में पतंग, गोली, कंचा चला। फिर जुआ, बीड़ी-सिगरेट आदि। और अब यह अफीम और जेल।

मां खाना खा कर आ गई थीं। पानदान खोल कर उन्होंने पान लगाया। एक उसे भी दिया।

‘‘थक गए हो तो कम्मन से पैर दबवा लो।’’ मां ने कहा।

‘‘नहीं, नहीं।’’

मां थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘संतू का क्या होगा? साल भर का त्यौहार है बेटा, किसी तरह उसे छुड़ा लो।’’

‘‘कल कुछ करेंगे, देखो।’’ उसने कहा।

मां चुप हो गईं। फिर अपने आप बोली, ‘‘बड़ा नालायक निकला। आज तक खानदान में कोई जेल नहीं गया था। घर की सारी इज्जत मिट्टी में मिला दी।’’

उसने कुछ कहा नहीं।

‘‘कितने दिन की छुट्ठी लाए हो?’’ मां ने कुछ देर बाद पूछा।

‘‘चार दिन।’’ उसने कहा।

‘‘बत्ती बुझा दें?’’ मां बिस्तर पर लेट गई थीं।

‘‘जलने दो अभी।’’ उसने कहा।

मां ने करवट बदल ली। वह पत्रिका पढ़ता रहा। परन्तु अधिक देर जगा नहीं रह सका वह। उसने उठ कर बत्ती बुझाई और आंखें बंद करके लेट गया।

सोने से पहले उसने सोचा कि सुबह उठ कर खुर्शीद के घर जाएगा। खुर्शीद उसका सहपाठी था। उसके पिता ने कई वर्ष जेल की नौकरी की थी। खुर्शीद जेल वालों को जानता था। उसी के साथ, उसने सोचा, वह जेल जा कर संतू से मिलेगा। फिर देखेगा क्या हो सकता है।

सुबह वह कुछ देर से उठा, जैसी उसकी आदत थी। लेटे-लेटे उसने कम्मन को आवाज दी।

कम्मन आ कर उसकी चारपाई की बगल में खड़ा हो गया।

‘‘अखबार आ गया?’’ उसने पूछा।

कम्मन चला गया। शायद सतीश के कमरे में। लौट कर बोला, ‘‘अखबार नहीं आता अब।’’

‘‘अच्छा’’, वह चुप हो गया।

मां चाय ले आई थीं। वह उठ कर चाय पीने लगा।

‘‘संतू को देखने जाओगे?’’ मां ने पूछा।

‘‘हां,’’ उसने कहा।

‘‘मैं भी चलूं?’’

‘‘तुम क्या करोगी चल कर?’’ उसने कहा। एक क्षण चुप रहा, फिर बोला, ‘‘देखो, आज जमानत का इन्तजाम करूंगा कुछ।’’

प्याला जमीन पर रख कर वह सिगरेट पीने लगा।

‘‘कुछ रुपया हो तो दो-तीन रुपये का खोया मंगा लो।’’ मां ने कहा।

‘‘अच्छा।’’

उठ कर उसने कोट की जेब से दस रुपये का एक नोट निकाल कर मां को दे दिया।

‘‘तुम्हीं कह दो सतीश से। मेरे कहने से वह नहीं जाएंगे।’’

उसने सतीश को आवाज दी। सतीश आ गया।

‘‘लो, यह रुपये लो। कुछ खोया वगैरह ले आओ।’’

‘‘खोया आ गया है,’’ सतीश ने कहा।

‘‘आ गया है?’’

‘‘हां, कल ले आया हूं मैं।’’ उसने मां की ओर संदेहात्मक दृष्टि से देखा।

‘‘मुझको क्या मालूम? मुझे कोई कुछ बताता है!’’ मां ने अपनी सफ़ाई दी।

‘‘इसमें बताने-न-बताने की क्या बात है?’’ सतीश ने कहा।

मां ने कुछ कहा जो वह सुन नहीं सका।

वह बाहर आ कर लैट्रिन जाने के लिए डोंगे में पानी लेने गया। रुपये वह वहीं चारपाई पर छोड़ आया था।

हाथ-मुंह धो कर वह खुर्शीद के यहां जाने की तैयारी करने लगा।

‘‘साइकिल है?’’ उसने सतीश से पूछा।

‘‘नहीं।’’

‘‘क्या हो गई?’’

‘‘संतू कहीं ले गए थे, लौटा कर नहीं लाए।’’

‘‘लौटा कर नहीं लाए? क्या किया?’’

‘‘क्या मालूम क्या किया! बेच दी होगी। नहीं तो कहीं गिरवी रख दी होगी।’’

वह चुप हो गया। कपड़े पहन कर पैदल ही घर से निकल गया।

खुर्शीद जेल के दो-एक अधिकारियों को जानता था। उसी के साथ वह जेल पहुंचा। जेलर ने संतू को वहीं अपने कमरे में बुलवा लिया। संतू आ कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसने देखा, संतू के कपड़े बहुत मैले थे। बाल रूखे थे। चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी थी।

‘‘बैठ जाओ,’’ जेलर ने उससे कहा तो वह कमरे में एक ओर पड़े लकड़ी के एक बक्स पर बैठ गया। वह भी वहीं जा कर उसी बक्स पर बैठ गया। खुर्शीद ने संतू की ओर देखा। फिर सिगरेट जला कर जेलर से बातें करने लगा।

‘‘क्या हुआ था?’’ उसने संतू से पूछा।

‘‘कुछ नहीं।’’

‘‘कुछ हुआ ही नहीं? यों ही तुमको पकड़ लिया?’’

‘‘मुझको नहीं मालूम।’’

‘‘अफीम नहीं निकली थी घर से?’’

‘‘अफीम! नहीं तो। कब निकली थी?’’

‘‘फिर? पुलिस से तुम्हारी कोई दुशमनी है?’’

‘‘मुझको नहीं मालूम।’’

संतू की आदत है, वह ऐसे ही बात करता है। वह चुप हो गया और थैले का सामान निकाल कर उसे देने लगा। डबलरोटी, मक्खन और दाल-मोठ बगैरह। दो पैकेट सिगरेट भी थी। वह जानता था, संतू सिगरेट पीता है हालांकि उसके सामने कभी नहीं पी।

खुर्शीद भी उठ कर वहीं आ गया। ‘‘क्यों भइया, क्यों यह सब काम करते हो? खुद परेशान होते हो और घरवालों को भी परेशान करते हो।’’

संतू ने उसकी ओर देखा। बोला कुछ नहीं। जैसे जताना चाह रहा हो, ‘‘आपसे क्या मतलब है?’’

‘‘सतीश की साइकिल क्या की?’’ उसने पूछा।

‘‘मिल जाएगी।’’

‘‘है कहां?’’

‘‘एक दोस्त के घर पर है।’’

थोड़ी देर बाद वह खुर्शीद के साथ वापस चला आया।

सारी दोपहर उसे वकील और कचहरी करते बीती। बड़ी कठिनाई से चार बजे के करीब जमानत मंजूर हुई। खासा खर्च भी हुआ। उसके पास अधिक रुपये थे नहीं। खुर्शीद के जरिये एक महाजन से सौ रुपये उसने सूद पर उधार लिए। पचीस वकील को दिए। चार-पांच दर्खास्त वगैरह देने में लग गए। पांच पेशकार को दिए। तब उसने दस्ती रिलीज आर्डर बना कर दिया। पांच बजे से पहले ही आर्डर जेल पहुंच जाना चाहिए वरना रिहाई नहीं होती। खुर्शीद उसके साथ-साथ रहा।

उसकी जान-पहचान के कारण पांच बजे के बाद जेल पहुंचने के बावजूद रिहाई हो गई।

खुर्शीद जेल से ही लौट गया। वह संतू के साथ घर आया। रास्ते में उसने संतू से कोई बात नहीं की। संतू के चेहरे से कदापि ऐसा नहीं लगा कि उसे कुछ भी पश्चाताप है।

सात बजने के करीब वह घर पहुंचा। जीना चढ़ कर ऊपर पहुंचते ही कम्मन ने जोर से कहा, ‘‘अम्मा, संतू मामा आ गए।’’

मां शायद अपने कमरे में थीं। वह उठकर बाहर आ गईं। किसी ने किसी से कोई बात नहीं की। मां चारपाई पर बैठ गईं। उसी पर वह भी बैठ गया। संतू दूसरी चारपाई पर बैठ गया। सतीश शायद अपने कमरे में था। वह बाहर नहीं निकला। उसकी पत्नी अंदर रसोई में कुछ कर रही थी।

मां उसकी पीठ पर हाथ फिराने लगी। ‘‘कम्मन, जाओ, बड़े मामा के लिए कुछ खाने को ले आओ। सुबह से कुछ खाया-पिया नहीं बेटे ने।’’ उन्होंने कहा। फिर संतू से बोलीं, ‘‘भइया, कुछ खयाल करो घर-खानदान का। आज यह न होता तो कौन छुड़ाता तुमको?’’

संतू ने कुछ कहा नहीं।

‘‘गुझिया ले आएं?’’ कम्मन ने मां से पूछा।

‘‘नहीं, चाय बनवा दो जरा।’’ उसने कहा।

‘‘जाओ, मामी से कहो, चाय बना दें।’’ मां ने कम्मन से कहा। फिर उससे पूछा, ‘‘कुछ खाया-पिया था दिन में?’’ वह अब भी उसकी पीठ पर हाथ रखे थीं।

‘‘हां।’’ उसने उत्तर दिया।

चाय पीकर वह बाहर चला गया। राजीव शायद देहरादून से आया हो, उसने सोचा। राजीव उसका बचपन का दोस्त था। आयल एंड नेचुरल गैस कमीशन में साइंटिफिक असिस्टेंट था। आजकल देहरादून में पोस्टेड था। होली पर हर वर्ष वह घर आता है। उसके मकान से दूर नहीं है।

उसने जा कर राजीव को आवाज दी। राजीव बाहर आया। शायद कहीं जा रहा था। उसने कमरा खोला।

कुछ औपचारिक-सी बातें हुई। तभी यकायक राजीव ने पूछा, ‘‘संतू के बारे में...क्या सच बात है?’’

‘‘हां।’’ उसने कहा।

‘‘जमानत-वमानत नहीं हुई?’’

‘‘हो गई।’’

राजीव फिर खामोश हो गया। उसने फिर घड़ी देखी।

‘‘कहीं जा रहे हो क्या?’’ उसने पूछा।

‘‘हां, जरा भाभी के साथ पिक्चर जाने का प्रोग्राम था।’’

उसने भी घड़ी देखी। नौ बजे थे।

‘‘जाओ फिर। तुम्हें देर हो रही है।’’ वह खड़ा हो गया।

राजीव भी खड़ा हो गया।

‘‘सुबह आऊंगा। घर पर ही रहोगे?’’

‘‘हां-हां।’’

वह बाहर सड़क पर आ गया। चौराहे पर उसने भोला की दूकान से सिगरेट ली।

‘‘नमस्ते, भइया! कब आए?’’ भोला ने पूछा। यहां था तो रोज ऑफिस जाते समय वह साइकिल रोक कर भोला की दुकान पर पान खाता था।

‘‘कल!’’ उसने कहा और सिगरेट जलाने के लिए टीन के डिब्बे से कागज का टुकड़ा उठाने लगा।

‘‘माचिस लो, भइया!’’ भोला ने उसकी ओर माचिस बढ़ा दी।

वह सिगरेट जलाने लगा।

‘‘संतू भइया की जमानत हो गई?’’ भोला ने पूछा।

‘‘हां।’’ उसने माचिस दुकान के तख्ते पर रख दी और अपने मकान की ओर चल दिया।

घर आ रहा था तो उसने देखा, होली पर लकड़ियों का ढेर लगा था। दो-चार लोग वहां खड़े भी थे। वह उधर से न आ कर पार्क के अंदर से होकर निकल आया।

क्या आज ही होली जलेगी, वह सोचने लगा। दिन में एक-दो जगह कुछ बच्चे शीशियों में रंग भरे खेल रहे थे। एक ने उसके कपड़ों पर डाल भी दिया था। परंतु यह तो होली जलने के तीन-चार दिन पहले से होने लगता है। जिस दिन होली जलती है, उस दिन तो खासा रंग चलता था पहले। लेकिन अब तो सभी त्यौहार बदल-से गए हैं। रस्म निभाने की बात रह गई है।

‘‘क्या आज ही होली जलेगी?’’ घर आ कर उसने मां से पूछा।

‘‘हां।’’

‘‘हमारी पिचकारी देखोगे, बड़े मामा?’’ कम्मन उसे पिचकारी दिखाने लगा। टीन की सस्ती-सी पिचकारी थी। ‘‘प्लास्टिक वाली भी है।’’ उसने प्लास्टिक की एक जूतेनुमा बनी पिचकारी भी उसे दिखाई।

‘‘हां, यह तो बढ़िया है।’’ वह उसे हाथ में लेकर देखने लगा।

‘‘यह कह रहे थे, वह बोतल में लगाने वाला फव्वारा लेंगे,’’ मां ने कहा, ‘‘मगर सुना वह बहुत महंगा आता है।’’

‘‘ढाई रुपये का आता है।’’ कम्मन ने कहा।

‘‘अच्छा देखो, कल ले देंगे तुमको।’’ उसने कहा।

‘‘खाना खाओगे?’’ मां ने पूछा।

‘‘हां, लाओ।’’ उसने कहा और कपड़े बदलने लगा।

खाना खाकर वह लेट गया। ‘‘होली तापने जाओगे?’’ मां ने पूछा।

‘‘कितने बजे जलेगी?’’

‘‘सुनते हैं सुबह चार बजे आग लगेगी।’’

‘‘हम नहीं जाएंगे,’’ उसने कहा, ‘‘संतू कहां गए?’’

‘‘बाहर वाले कमरे में नहीं हैं?’’

‘‘बत्ती तो नहीं जल रही थी वहां।’’

‘‘तो कहीं निकल गए होंगे। इतना समझाया लेकिन उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता। अपने साथ ही लेते जाओ इनको, वहीं कहीं कोई नौकरी लगवा दो। शायद सुधर जाएं।’’

उसने कुछ कहा नहीं। चुपचाप लेटा रहा।

दूर कहीं लोग फाग गा रहे थे। ढोलक-मंजीरे के साथ गाने के कुछ अस्पष्ट-से स्वर देर तक उसके कानों में पड़ते रहे।

सुबह वह कोई नौ बजे सो कर उठा। मां ने चाय ला कर दी। उसने सिगरेट सुलगा ली और चाय पीने लगा।

कम्मन नीचे से रंग खेल कर आया तो ऊपर से नीचे तक रंग से सराबोर था। थर-थर कांप रहा था। परंतु बाल्टी में रंग घोले जा रहा था। मुंह पर किसी ने कालिख लगा दी थी।

छोटा भाई छत पर खड़ा उससे हंसी कर रहा था। ‘‘अम्मा के ऊपर भी डाल दो थोड़ा-सा रंग।’’ वह कह रहा था।

‘‘डाल दें, नानी?’’ कम्मन ने पिचकारी भरते हुए पूछा।

‘‘मुझ बूढ़ी के ऊपर क्या डालोगे,’’ मां ने कहा, ‘‘जाओ, बड़े मामा के ऊपर डाल आओ।’’

कम्मन ने मुड़ कर उसके कमरे की ओर देखा। वह चाय पी कर प्याला नीचे रख रहा था। उसने कुछ कहा नहीं। कम्मन चुपचाप बाल्टी लेकर नीचे चला गया।

छोटे भाई की पत्नी रसोई में कचौड़ियां तल रही थी। दूसरे चूल्हे पर गोश्त पक रहा था, खुशबू से उसने अनुमान लगाया। कमरा रसोई के बगल में होने के कारण उसमें धुआं भर रहा था। वह उठ कर छोटे भाई वाले कमरे में आ गया और बालकनी पर खड़े होकर नीचे गली में देखने लगा।

कम्मन बाल्टी लेकर गली के नुक्कड़ पर खड़ा था। गली में कुछ बच्चे एक-दूसरे पर रंग डाल रहे थे। नीच पाइप पर पुत्तन सुनार महरिन से ठिठोली कर रहा था।

‘‘तुम्हारे किसी ने रंग नहीं डाला?’’

‘‘तुम डाल देव न!’’

‘‘सबके सामने कैसे डाल दें?’’

तभी गली में रंग खेलने वालों की टोली ने प्रवेश किया। वह उनमें से कुछ लोगों को जानता था। इससे पहले कि वे वहां तक पहुंचें, वह बालकनी से हटकर कमरे में आ गया और बिस्तर पर लेटकर कम्मन की एक किताब उठा कर पढ़ने लगा।

किताब इतिहास की थी। वह पढ़ने लगा : ‘‘एक समय भारत बड़ा धनी देश था। उसे सोने की चिड़िया कहते थे...’’

रंग खेलने वाले लोग नीचे गली में खासा शोर कर रहे थे। वे लोगों को उनके घरों से बुला रहे थे। कुछ लोग शायद भंग पिएं हुए थे और जोर-जोर से हंस रहे थे। उसने सोचा, शायद उसे भी वे लोग बुलाएं। पर वे आगे बढ़ गए।

उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा। जब से उसने होश संभाला, कभी इस तरह रंग नहीं खेला। जाने क्यों, उसे इस तरह रंग खेलना कुछ अजीब फूहड़पन-सा लगता है।

‘‘कोई आया नहीं?’’ उसने मां से पूछा।

हर वर्ष उसके यहां कुछ लोग होली पर आते हैं-जीवन मामा, चौथे साहब, पानदरीबा वाले मौसिया, बच्चू दादा आदि।

‘‘अभी तो कोई आया नहीं,’’ मां ने कहा, ‘‘कुछ खाओ तो ले आऊं।’’

‘‘नहीं,’’ उसने उत्तर दिया।

तभी राजीव ने उसे आवाज दी। वह उठ कर बालकनी पर आ गया।

‘‘क्या कर रहे हो? निकलो बाहर!’’ राजीव ने कहा।

जाना ही पड़ेगा, वह जानता था। उसने कपड़े बदले (होली के लिए एक पुरानी पैंट और कमीज वह साथ लाया था) और नीचे उतर आया। कमरा खोला। राजीव ने उसके गुलाल आदि लगा दिया। उसने भी उसी से गुलाल ले कर उसके माथे पर लगा दिया। छोटा भाई एक थाली में पापड़-गुझिया आदि दे गया।

‘‘चलो, निकलोगे नहीं बाहर?’’ राजीव ने पीक थूक कर पापड़ मुंह में रखते हुए कहा।

‘‘पी आए हो क्या कहीं से?’’ उसने पूछा।

‘‘थोड़ी-सी घर पर ही ले ली थी,’’ उसने कहा, ‘‘चलो, चलें।’’

‘‘कहां चलोगे?’’

‘‘यहां से तो निकलो।’’

वह उठ कर ऊपर आया। मां से बोला, ‘‘अभी आते हैं थोड़ी देर में।’’

‘‘उधर से ही मंझली चाची, बाबू और रमेश के यहां भी हो आना।’’ मां ने कहा।

‘‘अच्छा।’’ वह नीचे उतर आया।

गली से बाहर निकल रहा था तो नुक्कड़ पर खड़े लड़कों ने उसे घेर लिया और उस पर रंग डालने लगे। वह रुक गया। ‘‘बस-बस।’’ उसने घड़ी को पानी से भीगने से बचाने के लिए उसके ऊपर रुमाल बांध लिया।

‘‘पियो तो थोड़ी-सी ले लो चल कर।’’ राजीव ने कहा।

‘‘कहां?’’

‘‘मेरे यहां। एक हाफ लाया था मैं। थोड़ी पी, बाकी रखी है।’’

वह चला गया। राजीव ने अलमारी से बोतल निकाली। ऊपर से गिलास और एक प्लेट में भुना हुआ गोश्त ले आया।

थोड़ी देर वहीं बैठ कर उन लोगों ने थोड़ी-थोड़ी पी। उसने सुबह मंजन भी नहीं किया था, वैसे ही पानी से कुल्ला कर लिया था। उसे हल्का-हल्का नशा चढ़ने लगा।

थोड़ी देर बाद वे बाहर निकल आए। वैसे ही मोहल्ले में इधर-उधर निरुद्देश्य घूमते रहे। परिचितों और मित्रों से होली मिलते रहे।

‘‘मुझे जरा लालबाग जाना था। चलोगे?’’ कोई एक घंटे के बाद राजीव ने कहा।

‘‘किस लिए?’’

‘‘रिश्ते की एक भाभी हैं, उन्हीं के यहां जाना है। पीने को मिलेगी वहां।’’

‘‘तुम हो आओ।’’ उसने कहा।

राजीव चला गया तो वह अकेला रह गया। पान की दुकान से उसने सिगरेट लेकर सुलगाई और एक क्षण खड़ा सोचता रहा कि क्या करे। तभी उसे ध्यान आया, मां ने दो-चार जगह जाने के लिए कहा था।

पहले वह मंझली चाची के यहां गया। मंझली चाची विधवा थीं। काफी दिन हुए चाचा की टी. बी. में मृत्यु हो गई थी। संतान कोई थी नहीं। मकान खासा बड़ा था। उसी में चाची की एक छोटी बहन भी रहती थीं। वह भी विधवा थीं परंतु उनके एक लड़की थी, जिसका विवाह हो चुका था। लड़की-दामाद भी उसी घर में रहते थे।

उसने घर में प्रवेश किया तो आंगन में खासा हुड़दंग मचा था। छोटी चाची की लड़की के अतिरिक्त दो-एक और लड़कियां और कुछ नवयुवक आंगन में रंग खेल रहे थे। किसी ने उसके आने पर ध्यान नहीं दिया।

वह एक क्षण वहीं द्वार पर खड़ा रहा। फिर आगे दालान में बढ़ गया। बगल वाले कमरे में चाची एक खटोले पर बैठी थीं। उसने चाची के पांव छुए और वहीं बैठ गया। ‘‘कौन है?’’ चाची ने अपने मोटे चश्मे से उसकी ओर निहारा।

‘‘मैं हूं-विपिन।’’ वह जानता था कि चाची को साफ़ दिखाई देता है। यह केवल उनकी आदत है।

‘‘विपिन! बैठी, भइया।’’

वह पहले ही बैठ चुका था।

‘‘होली पर आ जाते हो तो देख लेती हूं, नहीं तो मुझको क्या मालूम मेरा भी कोई है।’’ चाची ने कहा।

‘‘मेरा ट्रांसफर हो गया न!’’ उसने उनकी बात में छिपे कटाक्ष की ओर ध्यान नहीं दिया।

‘‘कहां?’’

‘‘पटना।’’

‘‘कब हुआ?’’

‘‘कई महीने हो गए।’’ उसे अच्छी तरह याद था कि पटना जाने से पहले वह उनसे मिलने आया था और अपने ट्रांसफर के बारे में उन्हें बताया भी था।

चाची कुछ देर चुप रहीं। फिर अपने आप बोलीं, ‘‘मैं तो तंग आ गई इस घर से। सबेरे से हुड़दंग मचा रखा है इन लड़किनियों ने। अरे छोटी, सकुन, सबिता! कोई नहीं सुनता।’’

‘‘क्या है?’’ किसी ने कहा।

‘‘अरे, तश्तरी में कुछ दे जाओ। विपिन आए हैं।’’

‘‘कौन विपिन?’’ छोटी चाची ने रसोई से पूछा।

‘‘अरे फत्ते के लड़का।’’

‘‘अच्छा। आती हूं।’’

आंगन अब भी लड़कियों की खिलखिलाहट से गूंज रहा था।

‘‘कौन लोग हैं ये?’’ उसने पूछा।

‘‘छोटी की लड़किनी की सहेली हैं सबे। मेरी तो नाक में दम हो गया है। अरे, मैं कहती हूं अब बस भी करो।’’ वह कुछ हंसीं, फिर बोलीं, ‘‘देवर आया है होली खेलने। वही सबे जुटी हैं।’’

‘‘अच्छा। और लोग भी तो हैं,’’ उसने कहा। ‘‘उसी के दोस्त-वोस्त हैं।’’

तब तक छोटी चाची खाने-पीने का कुछ सामान ले आई थीं। ‘‘अरे, यह तो बहुत है।’’ उसने कहा।

‘‘थोड़ा निकाल लो, ज्यादा हो तो। मुझको तो कुछ दिखाई नहीं देता।’’ चाची ने कहा। तब तक छोटी का दामाद रामप्रकाश आ गया। रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस में काम करता था वह। खासी आमदनी होती थी। उसके साथ उसके दो-एक मित्र भी थे।

‘‘अरे विपिन बाबू! आओ भई, आओ। कब आए पटना से?’’ वह उसे अपने कमरे में बुला ले गया। उसके मित्र भी वहीं बैठ गए। रामप्रकाश छोटे-छोटे गिलासों में शराब उड़ेलने लगा। देसी शराब थी।

‘‘मेरे लिए न दीजिएगा,’’ उसने कहा।

‘‘क्यों? पीते नहीं हो क्या?’’

‘‘वैसे ही कभी पी ली तो पी ली।’’

‘‘कभी-कभी के लिए ही तो है।’’ उसने उसके गिलास में भी उड़ेल दी। उसने आगे इंकार नहीं किया।

‘‘संतू का सब ठीक हो गया न?’’ रामप्रकाश ने पूछा।

‘‘अभी तो नहीं।’’

‘‘अरे, सब ठीक हो जाएगा। इसमें कुछ है नहीं। बिशनसिंह से मैं कह दूंगा।’’

‘‘कौन बिशनसिंह?’’

‘‘डी. वाई. एस. पी. सिटी। मेरे यहां तो आते रहते हैं। संतू अभी मिले थे। मैंने उनसे कहा है, मुझको दो-एक दिन में याद दिला दें।’’

वह चुप रहा। आंगन में शोर कम हो गया था। वह थोड़ी देर और बैठा, तब उठकर खड़ा हो गया।

‘‘अच्छा, अब चलूं।’’ उसने कहा।

‘‘चलोगे? अच्छा।’’ रामप्रकाश उसे बाहर तक छोड़ने आया।

आंगन में रंग खेलना बंद हो गया था और एक-दूसरे के मुंह में चमकीले सुनहले पाउडर लगाए जा रहे थे।

‘‘अरे भाई, इनके ऊपर भी रंग डाल दो जरा।’’ रामप्रकाश ने लड़कियों से कहा।

‘‘आप तो, जीजाजी, वहां कमरे में जा कर छिपे गए!’’ किसी लड़की ने उत्तर दिया।

‘‘छिपा नहीं हूं। तुम्हारे साथ रंग खेलने की तैयारी कर रहा हूं।’’

वह चाची के पास आ गया। ‘‘चलता हूं, चाची!’’ उसने कहा।

‘‘अच्छा, भइया। पान ले लिया?’’

‘‘हां।’’ उसने कहा।

‘‘ये संतू के बारे में सुनने में आया कि जेल हो गई।’’

‘‘हां।’’

‘‘छूट गए?’’

‘‘अभी नहीं।’’

‘‘जेल में ही हैं?’’

‘‘नहीं, जमानत हो गई है। अच्छा नमस्ते, चाची!’’

वहां से वह बाबू दादा के यहां आ गया। बाबू दादा उसके चचाज़ाद भाई थे। उससे आयु में काफी बड़े थे। उसे गोद में खिलाया था। उनकी शिक्षा-दीक्षा उसी के घर, उसके पिता की देख-रेख में हुई थी। विवाह भी। परंतु विवाह के चार-पांच वर्ष पश्चात वह अपने परिवार को ले कर अलग हो गए थे। कुछ दिनों दोनों घरों में आना-जाना भी बंद रहा था। काम-काज में एक घर से दूसरे घर में निमंत्रण आता, परंतु शामिल कोई न होता। आखिर काफी दिनों बाद धीरे-धीरे फिर आना-जाना शुरू हो गया।

शुरू में बाबू दादा बड़े गुस्सेवर मिजाज के थे। उनका सारा घर, पत्नी बच्चे-सब उनके आगे थर-थर कांपते थे। परंतु अब वह काफी नर्म पड़ गए हैं।

‘‘आओ, आओ!’’ बाबू दादा ने उससे कहा और उसे कुर्सी पर बिठा कर खुद तख्त पर बैठ गए।

काफी देर उससे-इधर-उधर की बातें करते रहे। पटना शहर के बारे में। अपने ऑफिस के बारे में। अपने और उसके बाबा के बारे में। इस बीच उसे सिगरेट भी पेश की।

उसने आज तक उनके सामने सिगरेट नहीं पी थी। अतः उसने इंकार कर दिया।

‘‘पियो, पियो। अब तुम बड़े हो गए हो। नौकरी करते हो। यह सब कब तक चलेगा?’’ उन्होंने कहा।

उसने सिगरेट जला ली।

उनके कमरे में घर के और किसी व्यक्ति को आने की अनुमति नहीं थी। अतः घर के बच्चे उसे वहां बैठा देख कर द्वार से ही नमस्ते करके चले गए।

‘‘शराब पियोगे?’’ उन्होंने पूछा।

‘‘नहीं-नहीं।’’

‘‘पीते हो?’’

‘‘जी नहीं।’’ उसने सोचा, कहीं उसके मुंह से बू तो नहीं आ रही है।

‘‘पीते हो तो दूं थोड़ी। न पीते हो तो मत पियो।’’ उन्होंने कहा और अपनी लड़की को आवाज़ दी, ‘‘रेखा, चाचा को अंदर ले जाओ। नाश्ता-वाश्ता कराओ।’’

‘‘मैं चला जाता हूं।’’ वह उठकर खड़ा हो गया।

‘‘आओ लालाजी, तुम तो दिखाई ही नहीं देते,’’ उसके अंदर घुसते ही भाभी ने कहा।

‘‘कैसी तबीयत है आपकी?’’ उसने पूछा। भाभी प्रायः बीमार रहती हैं। उनके हाथ-पैर में सूजन आ जाती है। दिल धड़कने की भी बीमारी है।

‘‘आज उठी हूं थोड़ी देर के लिए। त्यौहार में न उठा जाए तो भी काम नहीं बनता। मगर देखो, जरा सा काम किया है पांव फूल आए।’’ वह धोती उठाकर पांव दिखाने लगीं। वह चारपाई पर बैठ गया।

‘‘मुन्ना!’’ भाभी ने लड़के को आवाज दी, ‘‘ला बेटा, जरा लोटे में रंग घोल ला। लालाजी से होली तो खेल लूं। हालांकि नहा चुकी हूं मैं।’’

‘‘नहीं-नहीं, रहने दीजिए। ऐसे ही अबीर लगा देता हूं,’’ उसने थोड़ा-सा अबीर जेब से निकाल कर भाभी के माथे पर लगा दिया।

भाभी ने भी हाथ में अबीर लेकर उसके सारे मुंह पर और बालों में भर दिया। वह चुपचाप खड़ा रहा।

तब तक रेखा थाली में गुझिया-पापड़ आदि ले आई थी।

‘‘सराब पिए हैं चाचा।’’ उसने कहा।

‘‘अच्छा,’’ उसने कहा, ‘‘तुमको कैसे पता?’’

‘‘बाबू पूछ नहीं रहे थे?’’

‘‘चल भाग यहां से!’’ भाभी ने उसे डांटा।

‘‘किस दर्जे में है यह?’’ उसने पूछा।

‘‘तीसरे में नाम लिखाया है इस साल।’’ भाभी ने उत्तर दिया।

वह गुझिया खाता रहा।

‘‘एक पूड़ी ले आएं, लालाजी!’’

‘‘नहीं-नहीं, भाभी!’’

‘‘एक ठो, बस।’’

‘‘नहीं, फिर कभी खाएंगे। बहुत पेट भरा है।’’

‘‘अच्छा, यह गुझिया सब खा डालो।’’ भाभी पान लगाने लगीं। ‘‘जब हमारी शादी हुई थी तो तुम अपने दादा के साथ रंग खेलने आए थे,’’ उन्होंने कहा, ‘‘चार बरस के रहे होगे। जरा-सी पिचकारी लिए थे। तुमको याद नहीं होगा। मैंने तुम्हारे ऊपर रंग डाल दिया था तो तुम रोने लगे थे-ईंऽईंऽ। चुप कराएं, चुप ही न हो। फिर हमारे बाबूजी ने तुमको पांच रुपये का नोट दिया तो तुम चुप हुए। गुझिया तुमको खाने को दी तो तुमने जेब में भर ली थी। याद नहीं होगा तुमको।’’

वह हंसने लगा। ‘‘याद कहां होगा!’’ उसने कहा।

हर वर्ष होली पर भाभी यह बात उसे याद दिलाती हैं। और वह ऐसे सुनता है जैसे पहली बार सुन रहा हो।

चलने लगा तो भाभी ने पूछा, ‘‘छोटे लाला और संतू लाला नहीं आए?’’

‘‘घूम रहे होंगे इधर-उधर।’’

‘‘संतू लाला की कहीं नौकरी लगी?’’

‘‘नौकरी क्या लगेगी! अभी कल तो जेल से छूटकर आएं हैं!’’

‘‘जेल से?’’

‘‘हां, आपने नहीं सुना? पता नहीं कहां से अफीम-वफीम ले आए थे। वही पुलिस पकड़ ले गई थी।’’

‘‘तो अब मुकदमा चलेगा?’’

‘‘हां, चलेगा ही।’’

‘‘राम-राम! यह संतू लाला को क्या हो गया?’’

‘‘दिमाग की खराबी। और क्या कहा जाए?’’

भाभी उसको छोड़ने दहलीज तक आ गईं। दादा कमरे में अकेले बैठे थे।

‘‘सुना’’, भाभी ने उनसे कहा, ‘‘संतू लाला पकड़ गए थे। कल जेल से छूट कर आए हैं।’’

‘‘क्या हुआ?’’ दादा उठकर खड़े हो गए।

उसने संक्षेप में सारी बात बताई।

दादा कहने लगे, ‘‘आजकल के लड़कों की समझ में ही कुछ नहीं आता। हमारे भी तो साहबजादे हैं। इनको भी किसी दिन जेल होगी।’’

मुन्ना वहीं खड़ा था। उसने उनकी ओर देखा। ‘‘अच्छा चलें, दादा!’’ उसने कहा। उसे देर हो रही थी।

‘‘चाची तो अच्छी तरह हैं?’’

‘‘हां।’’

‘‘देखो शायद शाम तक मैं आऊंगा।’’

‘‘अच्छी बात। अच्छा, नमस्ते, दादा! नमस्ते, भाभी!’’

वह चला आया।

पौने दो बजने वाले थे। रंग चलना लगभग बंद हो गया था। हां, सड़कें अभी तक भीगी थीं। मकानों की दीवारों पर, दुकानों पर, साइनबोर्डों पर हर जगह रंग खेले जाने के निशान थे। यहां तक कि गायों और कुत्तों के ऊपर भी रंग पड़ा था। कुछ लोगों ने सिनेमा के पोस्टरों के साथ भी रंग खेला था।

रमेश के यहां जाए या न जाए, वह सोच रहा था। मां ने कहा था, अतः उसने सोचा, दो मिनट में निपटा ही ले।

रमेश उसकी बुआ का लड़का था। उसी के उम्र का रहा होगा। फूफा तीन-चार वर्ष हुए कहीं तीर्थ करने गए थे। तब से लौट कर हीं नहीं आए। बुआ हैं। रमेश, उसकी पत्नी और उनके चार बच्चे हैं। रमेश का विवाह उसके विवाह से कई वर्ष पहले हो गया था। यद्यपि पत्नी की आयु ज्यादा नहीं है, परंतु चार बच्चे होने के कारण उसका स्वास्थ्य अवश्य गिर गया है।

वह पहुंचा तो रमेश घर में नहीं था। उसकी पत्नी, कुंती, रंग से भीगे कपड़े पहने धूप में बैठी थी।

‘‘बड़ी राह दिखाई आपने,’’ उसने कहा, ‘‘आपकी ही वजह से अभी तक नहाया नहीं मैंने। अम्माजी ने कहा भी, नहा डालो, अब आप नहीं आएंगे। लेकिन मुझे विश्वास था कि आएंगे जरूर।’’

‘‘हां, देर हो गई,’’ उसने कहा और फर्श पर पड़ी चारपाई पर बैठने लगा।

‘‘अब बैठिए नहीं। इधर आ जाइए पहले,’’ उसने कहा। रंग पहले से घुला रखा था। बाल्टियों में। एक में हरा, दूसरे में लाल।

वह उठ कर खड़ा हो गया। कुंती उसका हाथ पकड़कर छत पर जिधर रंग पड़ा था, उधर ले आई और लोटे में रंग लेकर उसके ऊपर डालने लगी।

उसने उसके हाथों से लोटा छीन लिया और रंग ले कर उसके ऊपर डालने लगा। कुंती चुपचाप सीने पर हाथ रख कर खड़ी हो गई। उसने उसके बालों में, ब्लाउज के अंदर, सब कहीं रंग डाला।

‘‘अच्छा, अब आपको चुप बैठना पड़ेगा।’’

‘‘खड़े-खड़े ही डाल लो न,’’ उसने कहा।

‘‘आप लंबे जो पड़ते हैं।’’

‘‘झुका जाता हूं।’’

वह झुक गया। कुंती ने लोटे से उसके ऊपर खूब रंग डाला। और हाथ में रंग ले कर उसके मुंह में लगाने लगी।

‘‘अच्छा, ठीक है, लगा लो।’’ उसने कहा और अपने हाथ में रंग ले कर उसके मुंह में लगाने लगा। उसने बचना चाहा। परंतु उसने उसे पकड़ लिया और मुंह में रंग लगा दिया। उसका मुंह चमकने लगा।

वह वापस चारपाई पर आ कर बैठ गया और धूप में कपड़े सुखाने लगा। कुंती रिश्ते में उसकी भाभी थी, परंतु वह उसे कुछ कहता नहीं था। शायद इसलिए कि वह उम्र में काफी छोटी थी। जब वह एम. ए. में पढ़ता था तो अकसर उसके यहां आया-जाया करता था। घंटों उससे बैठ कर बात किया करता था। कभी-कभी वह उसे पढ़ाया भी करता। उसी के कहने से उसने हाईस्कूल का फार्म भरा था। और शायद उसी की सहायता से पास भी हो गई थी। थर्ड डिवीजन। परंतु उसके बाद धीरे-धीरे आना-जाना कम हो गया।

कुंती अंदर से खाना ले आई। पूरी-सब्जी वगैरह। थाली चारपाई पर रखकर वह बच्चे को गोद में लेकर दूध पिलाने लगी।

‘‘अरे, यह खाना क्यों ले आई हो?’’ उसने कहा।

‘‘खाना ही पड़ेगा आपको।’’

‘‘नहीं भाई, बहुत पेट भरा है। शाम को खा लूंगा।’’

‘‘मैं जानती हूं शाम को आप नहीं आएंगे।’’

‘‘आऊंगा, जरूर आऊंगा।’’

‘‘हमेशा आप ऐसे ही झूठ बोल देते हैं। एक टुकड़ा खा लीजिए अच्छा।’’

उसने थोड़ा-सा खा लिया। ‘‘बुआ कहां हैं?’’ उसने पूछा।

‘‘ऊपर छत पर धूप सेंक रही हैं।’’

वह उठकर उनसे मिलने चला गया।

लौटकर घर आया तो तीन बजने वाले थे। कम्मन नहा-धोकर नए कपड़े पहने इधर-उधर टहल रहा था।

‘‘कोई आया था?’’ उसने मां से पूछा।

‘‘हां, चौथे साहब आए थे।’’

‘‘जीवन मामा नहीं आए?’’

‘‘न।’’

‘‘और पानदरीबा वाले मौसिया?’’

‘‘वह भी नहीं आए। वह तो परसाल भी नहीं आए थे।’’

वह चुप हो गया।

‘‘तुम सब कहीं हो आए?’’ मां ने पूछा।

‘‘हां।’’

‘‘तो अब नहा डालो। पानी गर्म है।’’

वह नहाने बैठ गया। हाथ-पैर का रंग छुड़ा रहा था, तभी उसे ध्यान आया कि जब उसने बाहर कमरे में राजीव को बिठाया था तो कमरा बहुत गंदा था।

‘‘बाहर का कमरा किसी ने साफ़ किया?’’ उसने पूछा।

‘‘कौन साफ़ करेगा?’’ मां ने कहा, ‘‘मैं ही साफ़ करूं तो करूं, सो मुझे अब दिखाई ही नहीं देता।’’

वह नहाने के बीच से उठ पड़ा और कमरा साफ़ करने लगा। कमरा साफ़ करने के बाद उसने स्नान पूरा किया। तौलिये से बदन पोंछ रहा था, तभी संतू आया। आंखें चढ़ी थीं। पैर ठीक नहीं पड़ रहे थे। आकर फर्श पर बैठ गया। फिर वहीं लेटकर आंखें बंद कर लीं।

वह चुपचाप बदन पोंछता रहा। मां भी खामोश रहीं।

थोड़ी देर में संतू उठा और नाली के पास बैठकर उल्टी करने लगा। उल्टी करके फिर लेट गया। मां बाल्टी से पानी लेकर गंदगी बहाने लगीं।

‘‘खाना ले आएं?’’ मां ने उससे पूछा।

‘‘नहीं पेट भरा है,’’ उसने कहा। उसे ध्यान आया, उसने सुबह मंजन नहीं किया था। वह टूथ ब्रश ले कर दांत साफ़ करने लगा।

‘‘विपिन!’’ जीवन मामा सदा जीने पर से ही आवाज देते हैं।

‘‘आइए, मामा!’’ उसने कहा।

‘‘आ जाऊं?’’

‘‘हां-हां, आ जाइए।’’ वह जीने के सामने आ गया।

‘‘लाओ भाई, गोश्त-पूरी खिलाओ!’’ जीवन मामा छत पर निकल आए। हर वर्ष होली पर वह गोश्त खाने आते हैं। उनके यहां सब लोग शाकाहारी हैं, अतः घर में पकता नहीं। वह छत पर पड़ी कुर्सी-मेज ठीक करने लगा।

‘‘इनको क्या हो गया?’’ जीवन मामा ने संतू को छत पर आंखें बंद किए पड़े देखा तो पूछा।

‘‘कहीं से पी-पिला आएं होंगे,’’ उसने कहा।

जीवन मामा चुप हो गए। ‘‘कब आए तुम?’’ उन्होंने पूछा।

‘‘दो-तीन दिन हो गए।’’

‘‘बच्चों को नहीं लाए?’’

‘‘वे अपने नाना के यहां गए हैं।’’

‘‘बहनजी कहां हैं?’’ मामा कुर्सी पर बैठ गए।

‘‘अंदर होंगी,’’ उसने कहा और मां को आवाज देने लगा, ‘‘अम्मा, जीवन मामा आए हैं।’’

मां बाहर छत पर आ गईं।

‘‘नमस्ते, बहनजी!’’ मामा ने कहा।

‘‘नमस्ते,’’ मां ने कहा, ‘‘बैठो।’’

मामा पहले से ही बैठे हुए थे। ‘‘और क्या हाल-चाल है?’’ उन्होंने कहा, ‘‘आपको साफ़ दिखाई नहीं देता?’’

‘‘कहां साफ़ दिखाई देता है। जान पड़ता है बस कोई बैठा है। शक्ल नहीं दिखाई देती तुम्हारी साफ़।’’

‘‘भाई साहब के न रहने के बाद से आपकी तन्दुरुस्ती काफी बिगड़ गई।’’

‘‘रह थोड़े ही गया है कुछ शरीर में।’’ मां ने कहा।

‘‘अम्मा, मामा के लिए गोश्त-पूरी ला कर दो।’’ उसने कहा।

‘‘गोश्त तुम परस दो, पूरी मैं निकाल देती हूं।’’ मां ने उठते हुए कहा। वह गोश्त निकालने के लिए प्लेट ढूंढने लगा। जीवन मामा कुर्सी पर बैठे-बैठे संतू को निहारते रहे।

जीवन मामा बहुत दूर के रिश्ते से उसके मामा लगते थे। उसके पिता के घनिष्ठ मित्रों में से थे, हालांकि उम्र में उनसे बहुत छोटे थे। पिता थे तो वह रोज बिला नागा शाम को आते थे। बातचीत का सिलसिला खत्म होने में ही नहीं आता था। पहले, जब स्वतंत्रता नहीं मिली थी, तब जीवन मामा कांग्रेस की बड़ी तारीफ करते थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद अब वह कांग्रेस की बुराई करने लगे हैं। कम्युनिस्टों की तारीफ करते हैं।

पिता थे तो होली पर जीवन मामा के आने पर घर में बोतल खुलती थी। हालांकि दोनों आदमी मुश्किल से एक-एक छटांक पीते थे। परंतु उसके बाद इतनी गर्मागर्म बहस होती थी, कि मां कहने लगती थीं-‘‘पीते तो मैंने सबको देखा, लेकिन पीकर इस तरह झगड़ा करते नहीं देखा किसी को।’’ पिता की मृत्यु के समय जीवन मामा अपने घर गए हुए थे। लौट कर आए तो उसके घर आकर घंटों रोते रहे थे। उसी के बाद से धीरे-धीरे उनका आना-जाना कम हो गया। अब तो होली-दीवाली पर ही आते हैं।

मां पूरी निकाल लाई थीं। वह प्लेट में गोश्त निकाल रहा था तो मामा ने कहा, ‘‘हड्डी वाली बोटी देना, भाई।’’

उसने छांट कर बोटियां निकालीं और प्लेट लाकर मेज पर रख दी। ‘‘तुम नहीं खाओगे?’’ मामा नें पूछा।

‘‘मैं खा चुका।’’ उसने कहा।

मामा खाने लगे। ‘‘गोश्त तो बहुत बढ़िया बना है, भाई!’’ उन्होंने कहा। खाने की तारीफ वह हमेशा करते थे। पिता अकसर इस पर उन्हें टोकते थे-‘‘भई, खाने के बाद तारीफ करते तो मैंने लोगों को सुना है। तुम तो खाते जाते हो, तारीफ करते जाते हो।’’

‘‘इससे खाना और अच्छा लगने लगता है।’’ मामा कहते।

संतू उठ कर बैठ गया था। थोड़ी देर बदहवास-सा बैठा रहा। फिर उठ कर नीचे चला गया। जीवन मामा के चेहरे पर कुछ रेखाएं उभर आईं। उन्होंने खाना रोक दिया।

‘‘च्-च्! बताइए,’’ उन्होंने कहा, ‘‘यह कौन-सा तरीका है। भाई साहब होते आज तो कितना अफसोस होता उनको। ऐसे आदमियों के साथ तो बिल्कुल भी हमदर्दी नहीं करनी चाहिए।’’

‘‘अब क्या बताएं आपको, यह तो पकड़ गए थे।’’ उसने कहा।

‘‘मैंने सब सुना है। तुमने गलती की जो छुड़ा लाए इन्हें।’’

‘‘मैं तो पड़ा रहने देता। सिर्फ़ अम्मा का ख्याल था।’’

‘‘ममता नहीं मानती, भइया!’’ मां ने कहा, ‘‘नहीं तो ऐसे लड़के से बिना लड़का ही भला।’’

‘‘नहीं, बहनजी!’’ जीवन मामा ने कहा ‘‘आप जितनी ममता कीजिएगा, उतने ही यह और खराब होंगे।’’

मां चुप रहीं। जीवन मामा फिर खाने लगे। खाना खाकर मामा जाने लगे तो वह उनको नीचे पहुंचाने गया। द्वार पर था, तभी देखा सतीश कहीं बाहर से आ रहा है।

‘‘कहां गए थे?’’ उसने पूछा।

‘‘ऐसे ही एक दोस्त के यहां गया था।’’

वे जीना चढ़ रह थे।

‘‘तुम बैठोगे कुछ देर दरवाजे?’’

‘‘नहीं,’’ छोटे भाई ने कहा। मां ने पान लगा रखे थे। तश्तरी लेकर वह चुपचाप नीचे उतर आया और दरवाजे का कमरा खोलकर बैठ गया।

गली में होली मिलने वाले लोग आ-जा रहे थे। मशीन की तरह वे उसके कमरे में भी आते, उससे गले मिलते, तश्तरी से पान लेकर खाते, दो-एक बात करते जैसे ‘‘कब आए?’’ ‘‘कब तक रहोगे?’’ आदि-आदि और उठ कर चले जाते। कुछ लोग खड़े-खड़े ही एक मिनट के लिए रुकते। कुछ एक-दो मिनट बैठ जाते। लोग बैठते तो वह भी बैठ जाता। उनके चलते समय फिर उठ कर खड़ा जो जाता। उसे यह सब पसंद नहीं था। मां के ख्याल से ही वह इतनी देर बैठा रहा।

आठ बजे तक लोगों का आना कम हो गया तो उसने दरवाजा बंद किया और ऊपर आ गया। ‘‘अभी आ रहा हूं थोड़ी देर में,’’ उसने मां से कहा और बाहर चला आया। दो-एक मित्रों के यहां गया, परंतु कोई मिला नहीं। कुछ देर वैसे ही इधर-उधर घूमता रहा। कोई दस बजे के करीब लौट आया।

मकान के अंदर घुसा तो मां जीने से थाली में खाना लेकर उतर रही थीं।

‘‘यह खाना कहां ले जा रही हो?’’ उसने पूछा।

‘‘संतू के लिए ले जा रही थी। खाएं, चाहे न खाएं, मुझको क्या करना। पूछ लेती हूं। इनको तो तुम जेल में ही पड़े रहने देते तो अच्छा था।’’ उन्होंने कहा।

वह एक क्षण दहलीज पर रुका रहा। मां ने कमरे के भिड़े हुए किवाड़ खोले तो उसने देखा, संतू तख्त पर पेट के बल लेटा था। अभी तक वह रंग भरे कपड़े पहने था। वह जीना चढ़कर ऊपर आ गया। कम्मन चारपाई पर सो रहा था। छोटे भाई का कमरा बंद था। कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर लेट गया।

थोड़ी देर में मां ऊपर आ गईं।

‘‘खाना खाया संतू ने?’’ उसने पूछा।

‘‘खाना क्या खाएंगे! पिएं पड़े हैं।’’ मां ने कहा। फिर थोड़ी देर बाद बोलीं, ‘‘खाएं चाहे न खाएं। अब मैं नहीं जाऊंगी पूछने। तुमको दूं खाना?’’

मैं नहीं खाऊंगा। दिन भर उल्टा-सीधा खाते-खाते पेट खराब हो गया।’’ उसने कहा।

‘‘थोड़ा-सा खा लो।’’

‘‘नहीं।’’ उसने कहा।

‘‘तुमने खाया ही नहीं कुछ। गुझिया ही खा लो एक-दो। दूं?’’

‘‘नहीं, भूख नहीं है।’’ उसने कहा।

‘‘मां चुप हो गईं।’’

‘‘सतीश कहीं गए हैं क्या?’’ उसने थोड़ी देर बाद पूछा।

‘‘सनीमा गए हैं। दुल्हिन भी तो गई हैं।’’

‘‘अच्छा।’’ उसने कहा।

वह थोड़ी देर लेटा रहा। ‘‘बत्ती बुझा दूं?’’ उसने पूछा।

‘‘बुझा दो। मुझको क्या जरूरत बत्ती की। मेरे लिए तो बत्ती न बत्ती बराबर है।’’ मां ने कहा।

‘‘बाहर के किवाड़ बंद हैं?’’

‘‘हां।’’

उसने उठकर बत्ती का स्विच ऑफ किया तो कमरे में अंधेरा फैल गया।

‘‘कल मैं लौट जाऊंगा।’’ उसने कहा।

‘‘अच्छा।’’ मां ने उसकी ओर करवट ले ली।

अंधेरे में वह उनका चेहरा नहीं देख सका।