छोटा किसान / जयनन्दन
दाहू महतो अपने खेत की मेंड़ पर गुमसुम से खड़े हैं।
करीब सौ डेग पर एक विशाल बूढ़ा बरगद खड़ा है जो इस तरह झकझोरा जा रहा है मानो आज जड़ से उखाड़ दिया जायेगा। साँय-साँय बेढंगी बयार आड़ी-तिरछी बहे जा रही है, जैसे एक साथ पुरवैया, पछिया, उतरंगा और दखिनाहा चारों हवाएँ आपस में धक्का-मुक्की कर रही हों। प्रकृति जैसे अनुशासनहीन हो गयी हो, हवाएँ गर्म इतनी जैसे किसी भट्ठी से निकलकर आ रही हो। भादो महीने में यह हाल! इस साल फिर सुखाड़ तय है। हवा के शोर में उनके बेटों के प्रस्ताव चीखते से उभरने लगे हैं उनके मगज में।
“अब खेती-बाड़ी में हम छोटे किसानों के लिए कुछ नहीं रखा है बाऊ.....घर-खेत बेचकर हमें शहर जाना ही होगा। सोचने-विचारने में हमने बहुत टैम बर्बाद कर दिया।”
उनकी घरवाली भी समर्थन कर रही है बेटों का, “हाँ जी, भले कहते हैं ये लोग। अपने मँझले भाई के बेटों से तो सबक लीजिए।”
“हद हो गयी......सबक लें हम उनसे? इस्क्रीम और फुचका ही तो बेचते हैं तीनों भाई.....कोई बहुत बड़ी साहूकारी तो नहीं करते।”
“कुछ भी बेचते हों, खेत खरीद-खरीद कर बड़े जोतदार तो बन गये न आज!”
अब इस सच्चाई से तो इंकार नहीं किया जा सकता।
बड़का भाई लाछो महतो के हिस्से की सारी जमीनें धीरे-धीरे बाले बाबू ने ही खरीद लीं। तय है कि कचहरी में किरानीगिरी करके उन्होंने इतना नहीं कमाया है। उनके बेटे जब से राउरकेला में आइसक्रीम और फुचका बेचने लगे तब से ही उनकी यह कायापलट होने लगी। लाछो महतो गाँजा-भाँग और ताड़ी की लत के पीछे खेत बेचते चले गये और बाले बाबू खरीदते चले गये। लोग बताते हैं कि इनकी इस लत के पीछे कोई गहरा घाव पैवस्त है। उन्होंेने अपने दोनों छोटे भाइयों की निष्कंटक परवरिश के लिए खुद का ब्याह तक नहीं रचाया। शायद अपने निजी मोह-माया में फँसकर वे कोई दुराव की स्थिति नहीं लाना चाहते थे। उन्हें भरोसा था कि बाले पढ़-लिखकर कोई काबिल आदमी बन जायेगा तो खानदान की माली नस्ल सुधर जायेगी और इसके भरोसे उनका बेड़ा भी आराम से पार हो जायेगा। मगर बाले बाबू ज्योंही बाल-बच्चेदार हुए, उन्हें लगा कि अपनी कमाई अपने ही बाल-बच्चों में सीमित रहती तो वे ज्यादा ठाट-बाट बहाल कर सकते।
बस बंटवारा हो गया।
जिस मेंड़ पर खड़े हैं वे उसका बगलवाला खेता लाछो महतो का था, जो अब बाले बाबू का है। सुखाड़ की हालत में भी ट्यूबवेल से पानी आ रहा है। हल जोत कर कादो तैयार कर रहा है उनका मजूर। कल तक धानरोपनी भी हो जायेगी। इनके लिए कोई सुखाड़ नहीं......कोई मारा नहीं.....कोई अकाल नहीं।
ठीक ही कहते हैं उनके बेटे, आजकल छोटे किसानों के लिए खेती करना माफिक नहीं रह गया है। जो बड़े जोतदार हैं, उनके पास पूँजी है, उनके पास ट्यूबवेल है, खाद-मसाला देने की कूबत है। बिना खाद-दवाई के तो फसल अच्छी उपजती ही नहीं एकदम। पहले ऐसा नहीं था। माल-मवेशियों के गोबर और घर का कूड़ा-कर्कट ही काफी होता था। किसी छिड़काव की भी जरूरत नहीं होती थी। मानसून ठीक समय पर आ जाता था। इधर कई वर्षों से तो समय पर भरपूर वर्षा होती ही नहीं है, होती है तो असमय हो जाती है और खूब हो जाती है, जिससे फायदे की जगह नुकसान ही नुकसान हो उठता है।
ये लगातार तीसरा साल है कि जीविका का आधार धान की मुख्य फसल मारी जाने वाली है। रबी की फसल गेहूँ-चना आदि होगी तो बमुश्किल चार महीने खरची चलेगी। फिर ड्योढ़िया-सवाई में अनाज कर्ज लेना होगा। या तो तुलसी साव से या फिर अपने मँझले भाई साहेब बाले बाबू से। सूद की इतनी बड़ी दर, नौ-दस महीने में एक के डेढ़, पर रोक लगाने वाला कोई कानून नहीं.....कोई सरकार नहीं.....कोई हाकिम नहीं। रो-गाकर जो मड़ुआ-मकई, गेहूँ-चना होता है, उसमें से आधा कर्ज भरपाई करने में हर साल निकल जाता है। यह चक्र लगातार चलता रहता है।
आलू और करेले की खेती से जो थोड़ा-मोड़ा नगद हासिल होता है, वह कपड़े-लत्ते, नमक-मसाले और पर्व-त्योहार में ही समा जाता है। पेट चलाने के अलावा अगर कोई दूसरा बड़ा काम आ गया और उसे टालना किसी भी तरह संभव न हुआ तो खेत रेहन रखने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं। खेेत जो एक बार रेहन रखा गया, उसकी मुक्ति का फिर कोई रास्ता नहीं। मुँदरी की शादी में उन्हें दस कट्ठा बेचना पड़ा। पिछले साल एक बैल बुढ़ा गया तो दो कट्ठा रेहन रखना पड़ा। इसी साल बड़कू की टाँग की हड्डी छिटक गयी तो एक कट्ठा हटाना पड़ा।
दाहू महतो को आठ साल से खूनी बबासीर है.....पर वे टालते चले जा रहे हैं। दर्जनों लीटर खून बहा चुके होंगे बेचारे। देह इकहरी हो गयी है एकदम। ज्यादातर मड़ुआ-मकई और बाजरे-ज्वार की रोटी ही नसीब में आती है। शौच इतना कड़ा होता है कि खून रोकते नहीं रुकता। अब कुल दो ही बीघा जमीन बची है। बड़कू बराबर कहने लगा है, “एकाध कट्ठा बेचकर आप अपना ऑपरेशन करा लीजिये बाऊ।”
दाहू महतो मटिया देते हैं, “अरे अभी ठीक है बेटा। चलने दो जैसा चल रहा है। ब्याधि तो कुछ न कुछ रोज घेरती रहेगी....आखिर कितना बेचते रहेंगे खेत!”
बात वाजिब है.....उनकी दोनों आँखें भी मोतियाबिंद की चपेट में आ गयी हैं। महज एक आँख से वे कामचलाऊ देख पाते हैं। मेंड़ पर खड़े-खड़े वे ज्यादा दूर तक निहार तो नहीं पा रहे, पर उनके कानों में आसपास चलनेवाली डीजल पंपसेट की झकझक-फटफट की ध्वनि प्रवेश कर रही है। गाँव में सात किसान हैं पंप वाले, जिन्हें वर्षा होने की काई खास परवाह नहीं। इनके पास ट्यूबवेल का पानी है, परन्तु आँख में पानी नहीं है। छोटे किसानों पर इनकी कोई मुरौव्वत नहीं। उल्टे चाहते हैं ये लोग कि छोटे और भी कर्ज में डूब जाएँ और अपने खेत बेचते चले जाएँ।
बाले बाबू उनके सहोदर भाई हैं, फिर भी कोई रहमोकरम नहीं। कहने से कहेंगे और कई बार कहा भी है, “अपने ही खेतों को पटाना पार नहीं लगता, तुम्हें पानी कहाँ से दें। जिसे डीजल खरीदना पड़ता है, उसे ही मालूम है पानी का मोल। बिजली रहती तो बात और थी।”
एक समय था कि बड़े जोर-शोर से यहाँ बिजली लायी गयी। युद्ध स्तर पर खंभे गाड़े गये.....तार बाँधे गये। एक-डेढ़ साल तक बिजली रही भी......एक सरकारी ट्यूबवेल भी गाड़ा गया। पर सब अकारथ। एक बार बिजली जो नदारद हुई तो आज तक बहुरकर नहीं आयी। तार चोरों द्वारा कबके काट लिये गये.....अब खंभे बिजूके की तरह खड़े हैं।
कहते हैं बिजली ज्यादातर शहर में ही दी जा रही है। बाबू-भैयन के ऐश-मौज के लिए.....कल-कारखाने के चलते रहने के लिए। दाहू महतो को इस समझ पर बड़ी झल्लाहट होती है। हाकिम-हुक्काम यह क्यों नहीं सोचता कि भूखे भजन न होत गोपाला। जब पैदावार नहीं होगी तो ऐश-मौज क्या लोग खाक करेंगे। अन्न के बदले क्या सीमेंट, लोहे, कपड़े और प्लास्टिक खाएँगे?
उनका बड़कू कहता है, “बाऊजी, हमारे पास खेत-घर और मवेशी को लेकर ढाई-तीन लाख की सम्पति है। फिर भी हम कर्ज में डूबे हुए फटेहाल हैं। हमें छह महीने भूखे-सूखे चलाने पड़ते हैं। चलिये, शहर में आपको दिखाते हैं - सिर्फ पचास-साठ हजार की पूँजी लगाकर फुचकावाले, पानवाले, कुल्फीवाले, पकौड़ीवाले हमसे बहुत बढ़िया गुजर-बसर कर लेते हैं। फिर हम क्यों खामखा माटी से अपनी हाड़ तुड़वाते रहें?”
दाहू महतो ने समझाने की कोशिश की, “अगर तुम्हारी तरह सभी खेतिहर मजूर किसान सोचने लग जाएँ तब तो बस खेती की छुट्टी ही हो जायेगी।”
“खेती की छुट्टी हो जाये तो हो जाये......यह सोचना हमारा काम नहीं है, बाऊ। जो हाकिम-हुक्काम हैं, उन्हें इसका इल्म नहीं तो हमें क्यों हो? जिनके पास खेत है, वे खेती नहीं करते और जिनके पास खेत नहीं है, वे खेती कर रहे हैं। दूसरों के खेत में हम अपना करम कूटकर उपज का आधा हिस्सा उन्हें फोकट में दे रहे हैं। कौन देखनेवाला है इस अँधेरगर्दी को? कोई भी नहीं। हमें भी सिर्फ अपना देखना है। मारवाड़ियों को देखिये, पूरे देश में फैलकर धंधा कर रहे हैं और क्या ठाट-बाट की जिंदगी बसर कर रहे हैं। उनके पास खेत होने की जरूरत भी क्या है? अपने ही गाँव में कितने लोग तो हैं जिनके पास खेत नहीं है और वे खेती नहीं करते। फिर भी हमसे लाख गुना अच्छा हैं कि नहीं?”
बड़कू की तजबीज को दाहू महतो काट नहीं पाते हैं। गाँव में ही ये सारे मिसाल हैं - हरेशर भागकर कलकत्ता चला गया। वहाँ वह चप्पल फैक्टरी में चतड़ा छीलते-छीलते और सुलेशन लगाते-लगाते बन गया चप्पल मिस्त्री। दो हजार रुपया महीना भेजता है घर में। सुखी राम मयूरभंज चला गया। किसी दारू भट्ठी में काम कर रहा है। परिवार खूब बढ़िया खा-पहन रहा है। लुच्चो साव गया में गोलगप्पा का ठेला लगाता है.....चर्चा है कि अब वह वहाँ मेनरोड में कोई दुकान लेनेवाला है। मुसो मिस्त्री धनबाद में कारपेंटरी करता है। कट्ठा-कट्ठा करके उसने दो बीघा जमीन खरीद ली। सोबराती मियाँ विजयवाड़ा में पता नहीं क्या टायर की दुकान चलाने लगा है, गाँव में तो शानदार मकान बन ही गया, बिहारशरीफ में भी एक किता मकान बना लिया है। हर साल एकाध बीघा जमीन भी किन ही लेता है। झुन्नू लोहार नवादा के ही किसी लेथशॉप में झाड़ू लगा-लगाकर काम सीख लिया, अभी बोकारो स्टील में काम कर रहा है। इस तरह के अनेकों प्रमाण हैं आँख के सामने। सचमुच इनकी तुलना में देखें तो सबसे खराब हालत खेतिहर किसान की ही है। खेत जैसे उनके पैर की बेड़ी बन गये हैं।
दाहू महतो सब कुछ देखते-गुनते हुए भी अपने बेटों को सांत्वना देना चाहते हैं, “देखो बेटे, तुमलोग अब मेरी पीठ पर सहारा देने के लिए तैयार हो गये हो। बँटाई पर खेत लगानेवाले इस गाँव में बहुत हैं। हम अपनी हालत अब सुधार लेंगे।”
“बँटाई करके क्या खाक सुधार लेंगे? अपने ही खेत को आबाद करके जरा दिखा तो दीजिये हमें। आज जबकि मौसम का कोई माई-बाप नहीं है.....जमीन की उर्वरा शक्ति की कोई नाप-जोख नहीं है.....खाद और उन्नत बीज खरीदने की हमें औकात नहीं है, तो फिर क्या खाकर करेंगे खेती?” बड़कू किसी भूखे बैल की तरह पगहा तुड़ा बैठा मानो।
“भाई ठीक कहता है बाऊ। अब हम दूसरों की जमीन में अपनी देह गलाकर एक ही जगह गोल-गोल नहीं घूमना चाहते। वही सूखा.....वही मारा.....वही करजा.....वही भुखमरी। जब आप बहुत समंगगर थे तो की तो थी बँटाई.....कितना जमा किया आपने.....कितना जाल-माल बढ़ाया?” छोटकू ने भी अपने तेवर की तुर्शी दिखा दी।
दाहू महतो के पास दोनों का कोई जवाब नहीं है। उन्हें मानना पड़ जाता है कि जमाने के अटपटेपन ने उनके बेटों को उनसे ज्यादा अक्लमंद बना दिया है। मगर वे क्या करें? गाँव की सादगी-सरलता में जीने के अभ्यस्त.....पुरखों की माटी से जुड़ाव....गाँवावासियों से हित-मीत के रिश्ते....अमराई, तड़बन्ना, महुआरी आदि के प्रति रागात्मकता.....इस उम्र में वे इन सबको बिसराना नहीं चाहते। हल जोतते हुए ताजी मिट्टी से जो एक सोंधी खुशबू निकलती है, उससे छाती में मानो एक नयी संजीवनी मिल जाती है। इसका बयान वे अपने बेटों से कैसे करें?
धान, गेहूँ, मकई, मड़ुआ आदि में जब बाली निकल रही होती.....सरसों, रहड़, ज्वार, मकई जब फुला रहे होते तो इन्हें देखने के सुख की भला क्या कहीं बराबरी हो सकती है? पौधों का अँकुराना.....पत्तों का निकलना....धीरे-धीरे इनका बड़ा होना....इन्हें कोड़ना, पटाना, निकाना आदि सभी किसानी धर्म में एक बच्चे को पालने, परवरिश करने जैसी माँ वाली परितृप्ति क्या शहर में दूसरे पेशे में मयस्सर हो सकती है? फसलें जितनी अवस्थाओं से गुजरती हैं, वे सब मानो एक करिश्मा होता है....एक कुदरती जादू। विरासत में उन्हें यही पाठ मिला है कि किसानी कोई धंधा नहीं बल्कि एक शुद्ध-सात्त्विक सेवा है प्रकृति की, ठीक किसी इबादत जैसी। इसमें जो स्वाभिमान है....खुद्दारी है.....सृजन का परितोष है, वह किसी बड़े से बड़ा पेशा में भी मुमकिन नहीं। बेटों को कैसे समझाएँ वे?
अपने तजुर्बे की गठरी से वे फिर निकालते हैं एक जवाब, “देख बड़कू ! हमें यह नहीं देखना है कि इस गाँव में हमसे कितने लोग सुखी-संपन्न हैं। हमें अगर देखना ही है तो यह देखना है कि हमसे भी लुटे-पिटे बहुत सारे लोग हैं यहाँ। हमारे पास तो फिर भी खरची चलाने के लिए चार-पाँच महीने का अन्न हो जाता है, लेकिन उन्हें भी तो देखो जो एकदम भूमिहीन हैं, जिनकी सारी जमा पूँजी बस उनकी देह है.....उनकी मेहनत है। मुसहरी में बचारे मुसहरों, पासियों, दुसाधों और चमारों में से किसी को यह नहीं मालूम कि कल वे क्या खाएँगे? देखते ही होगे कि वे तब भी कितने खुश और निश्चिंत रह लेते हैं।”
बड़कू-छोटकू दोनों के चेहरों पर इस वक्तव्य के प्रति एक हिकारत उभर आती है। छोटकू खीजते हुए कहता है, “जिस मुश्किल समय से हमलोग गुजर रहे हैं, कल हमारी हालत भी इन्हीं की तरह हो जानेवाली है। भूमिहीन होने की तरफ क्या हम तेजी से बढ़ नहीं रहे?”
दाहू महतो का तरकश फिर खाली हो गया। उन्होंने देखा कि बेटों के चेहरों पर कोई एक निर्णय बहुत ठोस रूप लेता जा रहा है। वे अपने खेतों का निरर्थक भ्रमण कर मायूस लौटने लगे। रास्ते में तुलसी साव से मुलाकात हो गयी। टोक बैठा। यह इसकी बड़ी बुरी आदत है, जहाँ भी भेंटा जाता है, तगादा जरूर कर देता है।
दाहू महतो ने कोई जवाब नहीं दिया, आगे बढ़ गये।
दस कदम चलकर अगली गली में घुसे होंगे कि बाले बाबू मिल गये। उन्हें आशंका हुई कि कहीं ये महाशय भी तगादा न ठोक दें। परिस्थिति जब विपरीत हो जाती है तो ऐसे काईयाँ महाजन ज्यादा ही व्याकुल हो जाते हैं। दस-बारह मन गल्ला इनका भी निकलेगा। दाएँ-बाएँ निगाह फेंककर उन्होंने कन्नी काट लेनी चाही कि आखिर वे पुकार ही लिये गये।
“क्या दाहू, तुम्हारा बड़कू कह रहा था कि तुम खेत बेचनेवाले हो? तुम शहर जा रहे हो, तुम्हें कुछ पूँजी चाहिए।”
“अभी हम इस बारे में कुछ तय नहीं कर पाये हैं।”
“देखना, बेचोगे तो मुझे ही दे देना। अपनी जमीन अपने ही आदमी के पास रहे, कोई गैर क्यों लेगा।” हुँह ! अपना आदमी ! दाहू महतो का मुँह घृणा से फैल गया। गाँव से उजाड़ने में जो तत्परता दिखा रहा है, वह खुद को अपना आदमी कह रहा है!
सामने थोड़ी ही दूर पर एक आदमी रास्ते में पड़ा हुआ दिखाई पड़ रहा था। दाहू महतो वहाँ लपककर पहुँच गये। लाछो भैया ताड़ी के नशे में धुत होकर ओघड़ाये हुए थे। बगल में ही कै भी की हुई थी। बाले बाबू अभी-अभी यहीं से गुजरे। इन्हें देखकर उनके चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं आयी। जैसे यह गिरा हुआ आदमी सहोदर तो दूर, बल्कि आदमी भी नहीं कोई मरा हुआ कुत्ता हो।
दाहू पूरी निष्ठा से सेवा-सुश्रुषा में भिड़ गये। ताड़ी इन्हें मिल गयी....मतलब घर का फिर कोई सामान आज इन्होंने बेच दिया। खाली पेट में ही ताड़ी चढ़ा ली होगी। कै तो होनी ही थी। तीन-चार दिनों से मुँह फुलाये बैठे थे। रोटी देने गये तो फटकार कर भगा दिया, “जाओ, तुम्हारे घर का अब हमें पानी तक नहीं पीना है। खबरदार जो आज से तुमने मेरी देहरी लाँघी।”
दाहू जानते हैं कि ऐसा वे दर्जनों बार कह चुके हैं। न इन्हें बेप्रीत होकर लड़ते देर.....न इन्हें सगे की तरह मिलते देर। छोटी-छोटी बात पर भड़ककर भिड़ जाने का स्वभाव है इनका। लगे हुए घाव की कोई टीस है जो उनके गुस्से के रूप में झाँक उठती है। घरवाली अगर उनके पैबंद पर पैबंद चढ़े जर्जर गमछे या धोती या कुरते को सिलने में असमर्थता दिखा देगी तो बस भभक पड़ेंगे, “हाँ-हाँ, तुम्हारा सीने का मन नहीं है, यह मालूम है हमें। तुम क्या समझती हो, तुम्हीं एक सुघड़ जनानी हो इस गाँव में? तेरे ऐसी-ऐसी तो मड़ुआ-खेसाड़ी का चार बर बिकती चलती है।”
घरवाली भी एकदम चिढ़ जायेगी। सारा गुस्सा अब दाहू महतो पर उतरेगा।
“खबरदार जो आपने मरे हाथ की पकी रोटी अब इस दीद उल्टे को दी तो ! मरे चाहे खपे, अब हमें घास तक नहीं डालनी है इस करमपीटे पर।”
बड़कू या छोटकू से भी तिल का तेल, बूट का भुंज्जा, आम का अंचार, साबुन की टिकिया, मथपीरी की गोली, गठिये के दर्द का रोगन, एक-दो खिल्ली खैनी जैसी कोई चीज माँग लेंगे.....और अगर उसने कह दिया कि घर में नहीं है तो बस फिर गाली-गलौज, दुरदुराना-कोसना और संबंध खत्म कर लेने का ताना शुरू। बड़कू-छोटकू भी इनकी इस तुनकमिजाजी पर एकदम खार खा लेते हैं। लेकिन दाहू महतो ने इनकी किसी भी बदसलूकी का कोई बुरा कभी नहीं माना। मन में लबालब भरे आदर-सत्कार की सतह किसी भी शिकायत पर कम होने न दी। दुनिया में और है ही कौन इनका, जिनसे वे झगड़ें.....जिनसे वे प्रेम करें? भुखमरी के वक्त भी अपने हिस्से की आधी रोटी इनके लिए बचा लेना उन्होंने हमेशा अपना धर्म समझा। घरवाली और बेटे लाख कुढ़ते रहें।
एक दिन दाहू महतो ने लक्ष्य किया कि बड़कू और छोटकू घर से कहीं गायब हैं और घरवाली की आँखों में कोई भेद तैर रहा है। पूछा तो जवाब सुनकर वे अचम्भित रह गये, “दोनों आज भोर की गाड़ी से गया चले गये हैं। वहीं कोई काम-धंधा करेंगे। घोघरावाला पंचकठवा खेत तुलसी साव के यहाँ रेहन रखकर बीस हजार रुपये अपने साथ लेते गये हैं।”
दाहू महतो बहुत देर तक मानो निष्प्राण से हो गये। तो अब उनसे बिना पूछे खेत बेचे जाने लगे? उनकी सही-दस्तखत की कोई जरूरत नहीं रही। कराहते हुए से पूछा उन्होंने, “तुलसी साव के यहाँ क्यों रखा, मँझले भैया क्या नहीं थे?”
“उन्हीं से पहले पूछा था, वे बारह हजार से ज्यादा देने को तैयार नहीं थे। अपना आदमी हैं न!”एक लंबी और ठंढी साँस लेकर रह गये दाहू महतो।
बड़कू और छोटकू के खैर-सलाह की चिट्ठी हर महीने आती रही, जिसमें यह जानकारी भी रहती कि वे एक धंधे में भिड़ गये है।
छह महीने बाद दाहू महतो के नाम पाँच सौ रुपये का मनिआर्डर आने लगा। साल भर बाद वह बढ़कर एक हजार हो गया। मतलब दोनों ने जो रास्ता चुना है, वह बिल्कुल सही लीक पर है। वे वहाँ किसी कॉलोनी के बगल में आलू-प्याज एवं हरी सब्जियाँ बेचने लगे थे। निष्कर्ष साफ था कि आलू उगानेवाला उतना नहीं उपार्जन कर सकता, जितना उसकी खरीद-फरोख्त करनेवाला। तो यही कारण है व्यवासायियों की हालत किसानों से लाख गुना बेहतर होने का।
दाहू महतो धीरे-धीरे रेहन रखे खेत छुड़ाने लगे थे। अनाज का कर्ज भी चुकता होने लगा था। उनमें अब यह भरोसा जमने लगा था कि गाँव से उजड़ने की नौबत अब पूरी तरह टल जायेगी। उनके बेटे भी अब चाहेंगे कि यहीं जमीन-जायदाद में बढ़ोतरी की जाये। दाहू महतो में एक नयी स्फूर्ति का संचार होने लगा था। गाँव उन्हें अब पहले से ज्यादा अच्छा लगने लगा था। लाछो भैया की देखभाल के प्रति वे और ज्यादा ध्यान देने लगे थे।
इन्हीं अच्छे लग रहे खुशगवार दिनों में बड़कू की एक चिट्ठी आ गयी कि जमीन रेहन रखकर चालीस हजार रुपये का इंतजाम जल्दी करें। स्थायी दुकान के लिए एक बड़ी उम्दा जगह बिक रही है। इसे हर हाल में हमें खरीदना है। चिंता की बाढ़ फिर दाहू महतो की धमनियों में उपराने लगी। एक कट्ठा जमीन रेहन रखते हुए उनका एक लीटर खून मानो सूख जाता था।
घरवाली ने कहा, “लड़कों ने अपने को सही साबित करके दिखा दिया है, इसलिए उनकी बात माननी होगी।” वे कुछ तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें.....क्या न करें! तभी आकस्मिक रूप से ऐसे हालात बन गये कि सारा कुछ स्वत: ही तय हो गया।
लाछो भैया बाले बाबू के खेत से एक मुट्ठा बूट के पेड़ उखाड़ रहे थे। मन हो गया होगा बेचारी बूढ़ी जीभ को हरे बूट फोंकने का। बाले बाबू का बड़ा लड़का गन्नू गाँव में ही था इन दिनों। उसने अचानक वहाँ धमककर उन्हें दबोच लिया, जैसे एक बड़े शातिर चोर को रंगे हाथ पकड़ने की जाँबाजी कर ली हो।
“अच्छा तो आप ही हैं इस पूरे खेत के आधे बूट को साफ कर देने वाले? बहुत दिनों से हमें आपकी तलाश थी।” उसने उनके हाथ से झँगरी छीन ली और कलाई से घसीटकर गाँव की ओर आने लगा। असहाय लाछो महतो फक्क थे, मानो समझने की कोशिश कर रहे हों कि क्या आजकल दो-चार पेड़ बूट उखाड़ लेना भी एक अपराध है, वह भी अपने सहोदर भाई के खेत से?
रास्ते में ही दाहू महतो इस वाकिये से टकरा गये। ऐसी नृशंस कारगुजारी ! क्या इस दुष्ट-ढीठ लड़के को यह मालूम नहीं कि यह आदमी उसका कौन लगता है? यह आदमी तो उसके बाप की तिजोरी पर भी धावा बोल दे तो कोई गुनाह नहीं होगा। उसके बाप के पालनहार रहे हैं ये। उनसे यह अदृश्य देखा नहीं गया। भैया को उसकी घिनौनी जकड़ से छुड़ाने की कोशिश की तो वह उन्हें भी धकियाकर खबरदार करने लगा। बस उन्हें ताव आ गया और उन्होंने हाथ की छड़ी को गन्नू पर ताबड़तोड़ बरसा दिया। वह इसके लिए तैयार नहीं था। अगर होता भी तो दाहू महतो के पुरानी हडि्डयों वाले लाठीबाज हाथ से पार न पाता।
उसका सिर फट गया और जिस्म के कई हिस्से जख्मी हो गये।
इसका उन्हें रत्ती भर मलाल नहीं था। भैया को निरीह और बेबस होने के मनोभाव से उन्होंने उबार लिया था। उनका बेजब्त हो जाना एकदम लाजिमी थी। आज तक इस गाँव में किसी को भी किसी के खेत से दो-चार पेड़ चना उखाड़ लेने, मुट्ठी भर मटर तोड़ लेने या एक अदद गन्ना काट लेने में कोई मनाही नहीं थी। कम से कम अपने गोतिया-दियाद के खेत से तो बिल्कुल नहीं। दो दिन बाद जब सुबह ही सुबह दिशा करके लौट रहे थे दाहू महतो तो थाने के दो सिपाही ने उन्हें घेर लिया और अपने साथ थाना लेकर चले गये। लाछो महतो ने तुलसी साव से कर्ज लेकर दरोगा को भेंट चढ़ायी, दौड-धूप की तब जाकर चौबीस घंटे बाद हाजत से वे छूट पाये।
इतनी सी बात पर उनकी इतनी फजीहत और वह भी अपने सहोदर द्वारा! पैसे की गर्मी और कचहरी के रसूख की यह धमार! अगर बाले बाबू को यह प्रतीति हुई थी कि दाहू ने नाजायज कर दिया है तो वे उम्र में बड़े थे, खुद ही आकर या बुलवाकर जवाबतलब कर लेते....गाली-गलौज कर लेते....मार-पीट कर लेते, उन्हें कोई उज्र नहीं होता। आखिर गन्नू पर दाहू महतो ने हाथ चला दिया तो यह अधिकार समझकर कि उनसे छोटा है और अपने बाप के बाप तुल्य आदमी से बदतमीजी से पेश आ रहा है।
अपना मानना भी उन्हें गवारा नहीं था तो पराया मानकर पंचायत ही बिठा लेते। आज तक तो बड़े से बड़ा मामला पंचायत से ही निपटता रहा है इस गाँव में। हाजत में बंद करवाकर जिंदगी भर की उनकी भलमनसाहत और शराफत को सरेआम मानो जलील करवा दिया। अब रह ही क्या गया इस गाँव में उनके पास? अपना ही आदमी इस तरह सलूक कर सकता है तो और उम्मीद ही कहाँ और किससे रह जाती है। इस पुश्तैनी ठीहे से तो बेहतर है शहर की अनजान-अपरिचित दुनिया।
दाहू महतो ने तय कर लिया कि अब वे बेटों के पास शहर चले जाएँगे। अपने बड़कू को उन्होंने बुलवा लिया। पूरा गाँव यह जानकर सन्न रह गया कि जिस आदमी को अपनी एक धूर जमीन बेचने में भी खून सूखने लगता था, आज वह अपनी पूरी घर-जमीन बेचने का ऐलान कर रहा है। दाहू महतो ने बड़के भैया को भी कह दिया कि वे भी तैयार रहें, उन्हें भी साथ चलना है।
जब सारी तैयारी हो गयी और चलने की घड़ी आयी तो लाछो महतो पता नहीं कहाँ लोप हो गये। ढूंढ़ने पर भी कहीं नहीं मिले। गाँव से एक किसान जिन अनगिनत तारों से बंधा रहता है, उन सबको एकबारगी तोड़ डालना क्या हरेक से संभव है?
बड़कू झल्ला उठा, “आप तो बेकार ही उनके फेर में पड़े हैं। गाँजा-भाँग और ताड़ी का चस्का लगा है उन्हें, इस छोड़कर वे आपके साथ भला क्यों जाएँगे? छोड़िये उनका माया-मोह.....चलिये चुपचाप.....गाड़ी का समय हो गया।”
दाहू महतो चल पड़े। ठीक है, उन्हें नहीं जाना था तो कम से कम अपने पाँव छूने का अवसर तो दे देते। पके हुए आम की उम्र है....पता नहीं पहले कौन टपक जाये ! शहर में पैसे से सब कुछ मिल सकता है पर पिता की तरह लालन-पालन देने वाले भैया के पांव तो नहीं मिलेंगे।
वे अपनी घरवाली और बेटे के साथ गाँव की सरहद से निकलते चले जा रहे हैं.....उदास आँखों से गाँव की भीड़ उन्हें देख रही है। उन्हें लग रहा है जैसे बूढ़ा बरगद आज जड़ से उखड़ गया है और वे उसकी डाल से छिटककर ऊपर बेढंगी हवा में फेंका गये हैं।