छोटी-छोटी ख़ुशियाँ / सुदर्शन रत्नाकर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज जब वह मिली तो उसके चेहरे पर एक विशेष आभा थी, प्रसन्नता थी। जब भी वह किसी समारोह में मिलती थी, बुझी बुझी-सी, निराश। हर बार आते ही वह वापस जाने का कार्यक्रम मेरे साथ बनाती और मैं उसे घर तक छोड़ आती। भरे पूरे परिवार से वह सदा अकेली आती थी। कभी ऑटो, कभी रिक्शा से। घर में कार थी, ड्राइवर था पर विवशतावश उसे स्वयं ही गंतव्य तक आना पड़ता था। अपने दिल का ग़ुबार वह मेरे सामने निकालती॥ बच्चे उसकी परवाह नहीं करते। उससे बात नहीं करते। कहीं जाना हो तो न साथ चलते हैं न ही उसे छोड़ने जाते हैं। बेटा अपने परिवार को साथ लेकर चला जाता है और उसे घर की रखवाली के लिए छोड़ जाता है।

उम्र के इस पड़ाव पर जब आदमी अकेले आने-जाने में विवश हो जाता है, कोई साथ न दे, बोले नहीं, उस अकेलेपन की पीड़ा को मैं समझ सकती हूँ। फिर भी वह अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहण कर रही थी।

आज उनकी ख़ुशी का कारण मुझे शीघ्र ही पता चल गया। उसका परिवार आज साथ आया था। वह चहक रही थी। सबसे उनका परिचय करवा रही थी। आज उन्हें मुझे छोड़ देने के लिये कहना भी नहीं पड़ा।

-0-