छोटे-छोटे ताजमहल / राजेन्द्र यादव

Gadya Kosh से
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वह बात न मीरा ने उठाई, न खुद उसने। मिलने से पहले जरूर लगा था कि कोई बहुत ही जरूरी बात है जिस पर दोनों को बातें कर ही लेनी हैं, लेकिन जैसे हर क्षण उसी की आशंका में उसे टालते रहे। बात गले तक आ-आकर रह गई कि एक बार वह फिर मीरा से पूछे-क्या इस परिचय को स्थायी रूप नहीं दिया जा सकता?-लेकिन कहीं पहले की तरह फिर उसे बुरा लगा तो? उसके बाद दोनों में कितना खिंचाव और दुराव आ गया था!

पता नहीं क्यों, ताजमहल उसे कभी खूबसूरत नहीं लगा। फिर धूप में सफेद संगमरमर का चौंधा लगता था, इसलिए वह उधर पीठ किए बैठा था। लेकिन चौंधा मीरा को भी तो लग सकता है न? हो सकता है, उसे ताज सुंदर ही लगता हो। परछाईं उधर यमुना की तरफ होगी, इधर तो सपाट धूल में झलमल करता संगमरमर है, बस। इस तपते पत्थर पर चलने में तलुओं के झुलसने की कल्पना से उसके सारे शरीर में फुरहरी दौड़ गई।

तीन साल बाद एक-दूसरे को देखा था। देखकर सिर्फ मुसकराए थे, आश्वस्त भाव से-हाँ, दोनों हैं और वैसे ही हैं-मीरा कुछ निखर आई है, और शायद वह...वह पता नहीं कैसा हो गया है! जाने कितने पूरे-के-पूरे वाक्य, सवाल-जवाब उसने मीरा को मन-ही-मन सामने बैठाकर बोले थे, प्रतिक्रियाओं की कल्पना की थी और अब बस, खिसियाने ढंग से मुस्कराकर ही स्वागत किया था। उस क्षण से ही उसे अपने मिलने की व्यर्थता का अहसास होने लगा था, जाने क्यों। क्या ऐसी बातें करेंगे वे, जो अक्सर नहीं कर चुके हैं? साल-छह महीने में एक-दूसरे के कुशल-समाचार जान ही लेते हैं।

उठे हुए घुटनों के पास लॉन की घास पर मीरा का हाथ चुपचाप रखा था। बस, उंगलियां इस तरह उठ-गिर रही थीं, जैसे किसी बहुत नाजुक बाजे पर हल्के-हल्के गूंजते संगीत की ताल को बांध रही हों। मीरा ने लोहे का छल्ला डाल रखा था-शायद शनि का प्रभाव ठीक रखने के लिए। उसने धीरे से उसकी सबसे छोटी उंगली में अपनी उंगली हुक की तरह अटका ली थी, फिर हाथ उठाकर दोनों हथेलियों में दबा लिया था। फिर धीरे-धीरे बातों की धारा फूट पड़ी थी।

विजय का ध्यान गया-बड़ी-बड़ी मूंछों वाला कोई छोटा-सा कीड़ा मीरा की खुली गर्दन और ब्लाउज के किनारे आ गया था। झिझक हुई, खुद झाड़ दे या बता दे। उसने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया-प्रवेश-द्वार की सीढ़ियां झाड़ियों की ओट आ गई थीं, सिर्फ ऊपर का हिस्सा दीख रहा था। हिचकिचाते हुए कैरम का स्ट्राइकर मारने की तरह उसने कीड़ा उंगलियों से परे छिटका दिया, नसों में सनसनाहट उतरती चली गई। उंगलियों से वह जगह यों ही झाड़ दी, मानो गंदी हो गई थी। मीरा उसी तन्मय भाव से अपनी सहेली के विवाह की पार्टी में आए लोगों का वर्णन देती रही-उसने कुछ नहीं कहा। न वहां रखा विजय का हाथ हटाया ही। विजय ने एक बार फिर सशंक निगाहों से इधर-उधर देखा और आगे बढ़कर उसकी दोनों कनपटियों को हथेलियों से दबाकर अपने पास खींच लिया। नहीं, मीरा ने विरोध नहीं किया। मानो वह प्रत्याशा कर रही थी कि यह क्षण आएगा अवश्य। लेकिन पहले उसके माथे पर तीखी रेखाओं की परछाइयां उभरीं और फिर मुग्ध मुस्कराहट की लहरों में बदल गईं...। एक अजीब, बिखरती-सी, सिमटी, धूप-छांहीं मुस्कराहट। विजय का मन हुआ, रेगिस्तान में भटकते प्यासे की तरह दोनों हाथों से सुराही को पकड़कर इस मुस्कराहट की शराब को पागल आवेग में पीता चला जाए...पीता चला जाए...गट...गट और आखिर लड़खड़ाकर गिर पड़े। पतले-पतले होंठों में एक नामालूम-सी फड़कन लरज रही थी। उस रूमानी बेहोशी में भी विजय को खयाल आया कि पहले एक हाथ से मीरा चश्मा उतार ले-टूट न जाए। तब उसने देखा, हरियाले फव्वारों-जैसे मोरपंखियों के दो-तीन पेड़ों के पीछे पूरे-पूरे दो ताजमहल चश्मे के शीशों में उतर आए हैं...दूधिया हाथी दांत के बने-से दो सफेद नन्हे-नन्हे खिलौने...


पता नहीं क्यों, उसे ताजमहल कभी अच्छा नहीं लगा। ध्यान आया, अवांछित बूढ़े प्रहरी की तरह ताजमहल पीछे खड़ा देख रहा है। बातों के बीच वह उसे कई बार भूल गया था, लेकिन दांतों में अटके तिनके-सा अचानक ही उसे याद आ जाता था कि वे उसकी छाया में बैठे हैं जो महान है, जो विराट् है...जो...? इतनी बड़ी इमारत! इसके समग्र सौंदर्य को एकसाथ वह कभी कल्पना में ला ही नहीं पाया...एक-एक हिस्सा देखने में कभी उसमें कुछ सुंदर लगा नहीं। लोगों के अपने ही मन का काव्य और सौंदर्य रहा होगा जो इसमें आरोपित करके देख लेते हैं। कभी मौका मिलेगा तो वह हवाई जहाज से ताज की सुंदरता के समग्र हो पाने की कोशिश करेगा। कई विहंगम चित्र इस तरह के देखे तो हैं...और तब सारे वातावरण के बीच कोई बात लगी तो है...मगर ये चश्मे के कांचों में झलमलाते, धूप में चमकते ताज...। खिंचाव वहीं थम गया। उसने बड़े बेमालूम-से ढंग से गहरी सांस ली और अपने हाथ हटा लिए, आहिस्ते से।–‘नहीं, यहाँ नहीं। कोई देख लेगा...’ यह उसे क्या हो गया...?

सहसा मीरा सचेत हो आई। उमड़ती लाज छिपाने के लिए सकपकाकर इधर-उधर देखा, कोई भी तो नहीं था। पास वाली लाल-लाल ऊंची दीवार पर अभी-अभी राज-मजदूर-से लगनेवाले मरम्मतिये लोग आपस में हंसी-मजाक करते एक-दूसरे के पीछे भागते गए हैं। बंदर की तरह दीवार पर भाग लेने का अभ्यास है। रविश के पार-पड़ोस के लॉन में दो-तीन माली पाइपों को इधर-उधर घुमाते पानी लगा रहे थे-वे भी अब नहीं हैं। खाना खाने गए होंगे। मीरा ने बगल से साड़ी खींचकर कंधे का पल्ला ठीक कर लिया। फिर विजय ने अनमने भाव से घास का एक फूल तोड़ा और आंखों के आगे उंगलियों में घुमाने लगा। मीरा ने चश्मा उतारकर, मुंह से हल्की-सी भाप दी और साड़ी से कांच पोंछे, बालों की लटों को कानों के पीछे अटकाया और चश्मा लगाकर कलाई की घड़ी देखी।

बड़ा बोझिल मौन आ गया था दोनों के बीच। विजय को लगा, उन्हें कुछ बोलना चाहिए वरना यह चुप्पी का बोझ दोनों के बीच की किसी बहुत कोमल चीज को पीस देगा। हथेली पर यों ही उस तिनके से क्रास और त्रिकोण बनाता वह शब्दों को ठेलकर बोला, ‘‘तो फिर अब चलें...? देर बहुत हो रही है...’’

मीरा ने सिर हिला दिया। लगा, जैसे वह कुछ कहते-कहते रुक गई हो या प्रतीक्षा कर रही हो कि विजय कुछ कहना चाहता है, लेकिन कह नहीं पा रहा। फिर थोड़ी देर चुप्पी रही। कोई नहीं उठा। तब फिर उसने मरे-मरे हाथों से जूतों के फीते कसे, अखबार में रखे संतरे और मूंगफली के छिलके फेंके। बैठने के लिए बिछाए गए रूमाल समेटे गए और दोनों टहलते हुए फाटक की तरफ चले आए।

तीन का समय होगा-हाथ में घड़ी होते हुए भी उसने अंदाजा लगाया। धूप अभी भी बहुत तेज थी। एकाध बार गले और कनपटियों का पसीना पोंछा। आते समय तो बारह बजे थे। उस वक्त उसे हंसी आ रही थी, मिलने का समय भी उन लोगों ने कितना विचित्र रखा है...

जैसे इस समय से बहुत दूर खड़े होकर उसने दुहराया था-बारह...बजे, जून का महीना और ताजमहल का लॉन। वह पहले आ गया था और प्रतीक्षा करता रहा था। उस समय कैसी बेचैनी, कैसी छटपटाहट, कैसी उतावली थी...यह समय बीतता क्यों नहीं है? बहुत दिनों से घड़ी की सफाई नहीं हो पाई, इसलिए शायद सुस्त है। अभी तक नहीं आई। इन लड़कियों की इसी बात से सख्त झुंझलाहट होती है। कभी समय नहीं रखतीं। जाने क्या मजा आता है इंतजार कराने में! वह जान-बूझकर उधर आने वाले रास्ते की ओर से मुंह फेरे था। उम्मीद कर रहा था कि सहसा मुड़कर उधर देखेगा तो पाएगा कि वह आ रही है। लेकिन दो-तीन बार ऐसा कर चुकने के बाद भी वह नहीं आई। जब दूसरी ओर मुंह मोड़े रहकर भी वह कनखियों से उधर ही झांकने की कोशिश करता तो खुद अपने पर हंसी आती। अच्छा, सीढ़ियां उतरकर आने वाले तीन व्यक्तियों को वह और देखेगा और अगर इसमें भी मीरा नहीं हुई तो ध्यान लगाकर किताब पढ़ेगा-जब आना हो, आ जाए। एक-दो-तीन! हो सकता है, अगली वही हो। हिश्, जाए जहन्नुम में नहीं आती तो, हां तो नहीं! अच्छा, आओ, तब तक यही सोचें कि मीरा इन तीन सालों में कैसी हो गई होगी? कैसे कपड़े पहनकर आएगी? एक-दूसरे को देखकर वे क्या करेंगे? हो सकता है आवेश से लिपट जाएं, कुछ बोल न पाएं। उसके साथ ऐसा होता नहीं है, लेकिन कौन जाने, उस आवेश में...।

आखिर वह आई तो उसे पास आते देखता रहा था। हर बार वह इधर से निगाहें हटाने की कोशिश करता कि उसे यों न देखे, पास आने पर ही देखे और हठात् मिलने के थ्रिल को महसूस करे। लेकिन वह देखता रहा था और निहायत ही संयत भाव से बोला था, ‘नमस्ते मीरा जी!’ झेंपकर मीरा मुस्करा पड़ी थी। धूप में चेहरा लाल पड़ गया था। फिर दोनों इस लॉन में आ बैठे थे-ऐसे अचंचल, ऐसे आवेशहीन, जैसे रोज मिलते हों।

‘‘मैंने सोचा, तुम शायद न आओ। याद न रहे।’’

‘‘आपने लिखा था तो याद कैसे नहीं रहता? लेकिन टाइम बड़ा अजीब है।’’

‘‘हाँ, शरद-पूर्णिमा की चांदनी रात तो नहीं ही है।’’ अपने मजाक पर वह खुद ही व्यर्थता महसूस करता, गंभीर बनकर बोला, ‘‘इस वक्त यहां जरा एकांत होता है।’’

सचमुच अजीब टाइम था-मीरा के साथ एक-एक कदम लौटते हुए उसने सोचा-‘दोपहर की धूप और...और दो प्यार करते प्राणी!’ ‘प्यार करते प्राणी...’ उसने फिर दुहराया। यह प्यार था? जैसे बरसों बाद मिलने वाले दो मित्र हों, जिनमें बातें करने के विषय चुक गए हों। सफेद संगमरमर पर धूप पड़ रही थी, चौंधा था इसलिए उधर पीठ कर ली थी। रह-रहकर झुंझलाहट आती-किस शाप ने हमारे खून को जमा दिया है? यह हो क्या गया है हमें? कोई गर्मी नहीं, कोई आवेश और कोई उद्वेग नहीं...क्या बदल गया है इसमें? हां, मीरा का रंग कुछ खुल गया है...शरीर निखर आया है...

लौटते समय भी उसकी समझ में नहीं आया कि यह बोझ, यह खिंचाव क्या है...दोनों यों ही घास में काटी हुई लाल पत्थरों की जाली पर कदम-कदम टहलते हुए सीढ़ियों तक जाएंगे...फाटक में बैठे हुए गाइडों और दरबानों की बेधती याचक निगाहों को बलपूर्वक झुठलाते, बजरी पर चरचर-चरचर करते हुए तांगे या रिक्शे में जा बैठेंगे...और एक मोड़ लेते ही सब कुछ पीछे छूट जाएगा।...कल वह लिखेगा-‘मेरी मीरा, कल के मेरे व्यवहार पर तुम्हें आश्चर्य हुआ होगा। हो सकता है, बुरा भी लगा हो...लेकिन...लेकिन...’

और फिर चश्मे के कांचों में झांकता ताजमहल साकार हो आया। ‘तुम्हारी पलकों पर तैरते दो ताजमहल’ कितना सुंदर वाक्य है (यह तो नई कविता हो गई!) टैगोर ने देखा होता तो ‘काल के गालों पर ढुलक आई आंसू की बूंद’ कभी न कहते...। कहते-‘गालों पर ढुलक आए आंसुओं में झांकते ताजमहल की रुपहली मछलियों-सी परछाइयां’...लेकिन मीरा की आंखों में तो उसे नमी का भी आभास नहीं हुआ था। कितने जड़ हो गए हैं हम लोग भी आजकल! वह कल वाले पत्र में लिखेगा-‘हक्सले की नकल नहीं कर रहा, जाने क्यों, मुझे ताजमहल कभी खूबसूरत नहीं लगा। लेकिन पहली बार जब मैंने तुम्हारी पलकों पर ताज की परछाईं देखी तो देखता रह गया...पिछले दिनों की एक अजीब-सी बात मुझे याद हो आई, उस क्षण...’

अरे हां, अब याद आया कि क्यों वह अचानक यों सुस्त हो गया था। उस बात को भी कभी भूला जा सकता है? ‘हाँ, मेरे लिए तो वह बात ही थी...’ वह लिखेगा। उसे लगा, मन-ही-मन वह जिसे ही संबोधित कर रहा है, जिसे पत्र लिख रहा है वह साथ-साथ चलने वाली यह मीरा नहीं है। वह तो कोई और है...कहीं दूर...बहुत दू...र....वही मीरा तो उसकी असली बंधु और सखा है, यह...यह...इससे तो जब-जब मिला है, इसी तरह उदास हो गया है। लेकिन उस मीरा से मिलने का आकर्षण इसके पास खींच लाता है। इसकी तो जाने कितनी बातें हैं, जो उसे कतई पसंद नहीं हैं। जैसे? वह याद करने की कोशिश करने लगा, जैसे उसे क्या-क्या पसंद नहीं है? जैसे इस समय उसे इसी बात पर झुंझलाहट आ रही है कि मीरा नीचे बनी जाली के पत्थरों पर ही पांव रखकर क्यों नहीं चल रही, बीच-बीच में घास पर पांव क्यों रख देती है...

और इस सबके पार दोनों कान लगाए रहे कि दूसरा कुछ कहे। एक बात सोचकर सहसा वह खुद ही मुस्करा पड़ा-जब वे लोग बहुत बड़े-बड़े हो जाएंगे; समझो चालीस-पचास साल के, तो हंस-हंसकर कैसे दूसरों को अपनी-अपनी बेवकूफियां सुनाया करेंगे-कैसे वे लोग छिप-छिपकर ताजमहल में मिला करते थे!

‘चार-पांच साल हो गए होंगे उस बात को...’ उसके मन के भीतरी स्तरों पर पत्र चलता रहा। यह सब वह उस पत्र में लिखेगा नहीं, वह सिर्फ उस बहाने क्रमबद्ध शब्दों में उस सारी घटना को याद करने की कोशिश कर रहा है...वह, देव, राका जी और मुनमुन इसी तरह तो लौट रहे थे, चुप-चुप, उदास और मनहूस सांझ थी इसलिए परछाइयां खूब लंबी-लंबी चली गई थीं...


अच्छी तरह याद है, सितंबर या अक्टूबर का महीना था। कॉलेज से आकर चाय का कप होंठों से लगाया ही था कि किसी ने बताया, ‘‘आपको कोई साहब बुला रहे हैं।’’ वह अनखाकर उठा-कौन आ गया इस वक्त?

‘‘अरे, आप!’’

‘‘पहचाना या नहीं, आपने?’’

‘‘अरे साहब, खूब, आपको नहीं पहचानूंगा?’’ लेकिन सचमुच उसने पहचाना नहीं था। देखा जरूर है कहीं, शायद कलकत्ता में। ऐसा कई बार हुआ है, लेकिन वह भरसक यह जताने की कोशिश करता है कि पहचान रहा है और बातचीत से परिचय के सूत्र पकड़कर याद करने की कोशिश करता है, ‘‘आइए न भीतर...’’

‘‘नहीं मिस्टर माथुर, बैठूंगा नहीं। गली के बाहर मेरी वाइफ और बच्चा खड़े हैं...’’ उन्होंने क्षमा चाहने के लहजे में कहा, ‘‘आप कुछ कर रहे हैं क्या?...’’

‘‘लेकिन उन्हें वहां...? यहीं बुला लीजिए न...?’’

‘‘नहीं, देखिए, ऐसा है कि हम लोग जरा ताज देखने आए थे। याद आया, आप भी तो यहीं रहते हैं। जगह याद नहीं थी, सो एक-डेढ़ घंटे भटकना पड़ा। खैर, आप मिल गए। अब अगर कुछ काम न हो तो...बात ऐसी है कि हमें आज ही लौट जाना है...’’ वे सीढ़ी पर एक पांव रखे खड़े थे, ‘‘आप किसी तरह के संकोच में न पड़िए, पांवों में चप्पल डालिए और चले आइए।’’

गली के बाहर गाड़ी खड़ी थी। पीछे का दरवाजा खुला था और उसको पकड़े पिछले मडगार्ड से टिकी एक महिला खड़ी थी-गहरी हरी बंगलौरी रेशम की साड़ी, बंगाली ढंग का चौड़ा-चौड़ा जूड़ा और बीचोबीच जगमग करता अठपहलू रुपहला सितारा। मडगार्ड पर छोटा-सा चार-पांच साल का बच्चा फिसलते जूतों को जैसे-तैसे रोके बैठा था। दोनों बांहों से उसे संभाले हुए वे उसकी कलाई पकड़े छोटी-सी उंगली से धूल-लदे मडगार्ड पर लिखा रही थी-टी-ए-जे। जूतों की आवाज से चौंककर मुड़ी और स्वागत में मुस्कराई। बच्चे को संभालकर उतारा, फिर दोनों हाथ जोड़ दिए। फिर खुद ही बोली, ‘‘देखिए, आपसे वायदा किया था कि...’’

‘‘हजरत आ ही नहीं रहे थे...’’ वे बीच में ही बात काटकर बोले। फिर सहसा बोले, ‘‘अच्छा राका, अब बैठो वरना अंधेरा हो जाएगा, तो देखने का मजा भी नहीं रहेगा।’’

राका...राका...हां, कुछ याद तो आ रहा है। ड्राइवर की बगल में बैठकर उसने एकाध बार घूमकर देखा, जैसे यहीं कहीं उनका नाम भी लिखा मिल जाएगा।

‘‘कैसे हैं?-बहुत दिनों बाद मिले हैं। याद है आपको, कलकत्ता में हम लोग मिले थे...?...उस दिन हम लोगों ने आपको कितनी देर कर दी थी’’...सुनहला रंग, कानों में गोल कुंडल, बहुत ही बेमालूम-सी लिपस्टिक। साड़ी का पल्ला साधने के लिए खिड़की पर टिकी हुई कुहनी...


अरे हां, अब याद आया-इनसे तो मुलाकात बड़े अजीब ढंग से हुई थी। न्यू मार्केट के एक रेस्तरां में बैठा वह शौकिया अपनी-अपनी संगीत-कला का प्रदर्शन करने वालों को देख रहा था। फिर जाने क्या मन में आया कि खुद भी उठकर माउथ-ऑरगन पर देर तक सिनेमा के गीतों की धुनें निकालता रहा। उस छोटे-से मंच से हटकर जिस मेज पर यह बैठा था, उसी पर बैठे थे ये लोग, यह राका जी और मिस्टर...क्या? हाँ, मिस्टर देव।


‘‘सचमुच आपने बहुत ही सुंदर बजाया। बड़ी अच्छी प्रैक्टिस है।’’ देव ने उसके बैठते ही कहा। रूमाल से बाजे को अच्छी तरह पोंछकर जेब में रख ही रहा था कि चौंक गया। राका के चेहरे पर प्रशंसा उतर आई थी और यों ही कप के ऊपर हथेली टेके, वह एकटक मेज को देख रही थी।

‘‘आपकी चाय तो पानी हो गई होगी। और मंगाए देते हैं। बैरा, सुनो इधर...’’

उसके मना करने पर भी चाय और आई। ‘‘छुट्टियों में घूमने आए हैं...? अच्छा, कैसा लगा कलकत्ता आपको...जी हां, गंदा तो है बंबई के मुकाबले...लेकिन एक बार मन लग जाने पर छोड़ना मुश्किल हो जाता है...’’ फिर प्रशंसा, कृतज्ञता का आदान-प्रदान, परिचय और रात देर तक उनके लोअर सर्कुलर रोड के फ्लैट पर बातें, खाना, कॉफी और संगीत। राका को सितार का शौक है। देव किसी विदेशी कंपनी के इंचार्ज मैनेजर की संगति में विदेशी सिंफनियां पसंद करते हैं। उसका माउथ-ऑरगन सुनने के बाद राका जी ने सितार सुनाया था और फिर देव निहायत ही खूबसूरत प्लास्टिक के लिफाफों में बंद अपने विदेशी रिकॉर्ड निकाल लाए थे। एक-एक रिकॉर्ड आध घंटे चलता था और उसमें तीन-तीन कंपोजीशंस थे। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया था, लेकिन वह बैठा लिफाफों पर लिखे हुए परिचय और संगीतज्ञ की तसवीर को जरूर गौर से देखता रहा था। कोई चायकोवस्की या कुछ बेंगर था जिसका नाम वे बार-बार लेते थे। एक-एक रिकॉर्ड चालीस-पचास रुपये का था। बीच-बीच में, ‘‘कभी जरूर आएंगे आगरा। बहुत बचपन में एक बार देखा था, शायद दिमाग में जो नक्शा है उससे मेल ही न खाए। शादी के बाद एक बार देखने का प्रोग्राम बहुत दिनों से बना रहे हैं। ये तो हर छुट्टी में पीछे पड़ जाती हैं। जी नहीं, इन्होंने नहीं देखा...इधर ही रहे इनके फादर वगैरा सब। अब तो गाड़ी पर ही विवेकानंद रोड तक छोड़ने आये ए। रास्ते-भर क्षमा मांगते हुए अपनी सितार की गूंज और सिंफनी की कोई डूबती-सी दर्दीली कराह उसे अभिभूत किए रही...कैसे अजीब ढंग से परिचय हुआ है, कितना सुखी जोड़ा है उसे बहुत ही खुशी हुई थी। बच्चा बाद में आया, नाम है मुनमुन।’’


देव बता रहे थे, ‘‘नुमाइश में हमारा स्टाल आया है न, सो हम लोग भी दिल्ली आए थे। सोचा, इतने पास से, यों बिना देखे लौटना अच्छा नहीं है। आपको यों ही घसीट लाए, कोई काम तो...’’

‘‘नहीं, नहीं...’’ जल्दी से कहा। उसे और तो सब बातें याद आ रही थीं, लेकिन यह याद ही नहीं आ रहा था कि इन मिस्टर देव के आगे-पीछे क्या लगता है। बड़ी बेचैनी थी। कैसे जाने? बस, उस मुलाकात के बाद फिर कभी भेंट नहीं हुई। याददाश्त अच्छी है, इन लोगों की, ‘‘आपने याद खूब रखा...’’ सोचा, उस मुलाकात में ऐसी कोई खास बात भी तो नहीं थी।

‘‘जब भी हम लोग ताज की बात करते, आपकी याद आ जाती। और कोई दिन ऐसा नहीं गया जब ताज की बात न आई हो...’’ फिर राका जी की ओर देखकर खुद ही बोले, ‘‘आज हमारे विवाह को सातवां वर्ष पूरा हुआ है...आपके सामने यह मुनमुन नहीं था...’’

‘‘मुनमुन, तुमने अंकल जी को मत्ते नहीं किया? कहो, अंकल जी, आज हमाले पापा-डैडी के विवाह की सातवीं वर्षगांठ है...’’ राका जी उसके हाथ जुड़वाती बोली, ‘‘बहुत ही शैतान है। मुझे दिन-भर खयाल रखना पड़ता है कि किसी दिन कुछ कर-करा न ले।’’

‘‘तब तो आपको बधाई देनी चाहिए...’’ लेकिन इस सबके पार विजय को लगा, कहीं घुटन है जो अदृश्य कुहरे की तहर गाढ़ी होती हुई छाई है। रहा नहीं गया, पूछा, ‘‘आप कुछ सुस्त हैं। तबियत...’’

‘‘नहीं जी।’’ उन्होंने दोनों हाथ उठाकर एक क्लिप ठीक किया और स्वस्थ ढंग से मुस्कराने का प्रयत्न करके कहा, ‘‘गाड़ी में बैठे-बैठे पांच घंटे हो गए। एक घंटे से तो यह आपको ही खोज रहे हैं...’’

‘‘च्चू, सचमुच बहुत ज्यादती है यह तो आपकी।’’ कृतज्ञ भाव से वह बोला, ‘‘कम-से-कम मुंह-हाथ तो धो ही लेतीं राका जी।’’

‘‘सब ठीक है-लौटना भी तो है न आज ही।’’

फिर सभी ने खूब घूम-घूमकर ताज देखा था। मुनमुन का एक हाथ देव के हाथों में था और एक राका जी के। कभी-कभी तो तीनों आपस में ही ऐसे व्यस्त होकर खो जाते कि विजय को लगता-वह बेकार ही अपनी उपस्थिति से इनके बीच विघ्न बना रहा है। ऊपर इमारत के सफेद-काले चबूतरे पर देव बड़ी देर तक पैसा लुढ़काकर उसके पीछे भागते और बच्चे को खिलाते रहे, और विजय के साथ-साथ राका जी जालियों की बनावट, दरवाजे पर लिखी कुरान की आयतें और बूटों की नक्काशी देखती रहीं। सांझ की पीली-पीली सुहानी धूप थी। लॉनों की नरमी सांवली हो आई थी, मोरपंखी और चौड़े-चौड़े ताड़ जैसे पत्तों के गुंबदाकार कुंज मोमबत्ती की हरी-सुनहली लौ जैसे लगते थे-जैसे आनंद में फूले-फूले कबूतर हों और अभी हुलसकर फुरहरी ले लेंगे तो चिनगारियों की तरह सुर्ख फूल इधर-उधर बिखर पड़ेंगे। वे लोग भी कब्रों के पास अपनी आवाज गुंजाते रहे-कैसी लरजती-सी तैरी चली जाती है। जैसे बहुत ही महीन रेशों का बुना हुआ, घड़ी में लगे बाल-स्प्रिंग की तरह बड़ा-सा वर्तुलाकार कुछ है जो कभी सिकुड़कर सिमट उठता है। देव की आवाज थी, ‘‘राका...रा का-ा...रा ा-ा...’’ एक-दूसरे पर चढ़ते चले जाते शब्द...दूर खोते हुए किन्हीं अनजानी घाटियों की तलहटियों में ‘मुनमुन मु उ-उ न-अ-अ...’ देव देर तक डूबे हुए इस खेल को खेलते रहे थे। लगता था, उनके भीतर है कुछ, जो इस खेल के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहा है। वह राका या मुनमुन का नाम ले देते और देर तक अंधेरे में इन शब्दों को डूबता-खोता देखते रहते-जैसे हाथ बढ़ाकर उन्हें वापस पकड़ लेना चाहते हों। उन्हें कब्रों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बड़ी देर बाद, बहुत मुश्किल से जब वे उस वातावरण से टूटकर बाहर निकले तो बहुत उदास और खोए-खोए थे। विजय के पास से मुनमुन को लेकर जोर से उसे छाती से भींच लिया।

बाहर निकलकर आए तो देखा कि नदी किनारे वाली बुर्जी के पास राका जी चुपचाप दूर शहर और लाल पुल की ओर देखती खड़ी हैं। सिंदूरी आसमान के गहरे सिलेटी बादल नदी के चौखटे में वाश-कलर की तरह फैल गए हैं। बुर्जी से लेकर बीच के मकबरे तक चबूतरे की काली-सफेद शतरंजी को सिमटती धूप ने तिरछा बांट लिया है...हवा में साड़ी उनके शरीर से चिपक गई है और कानों के ऊपर की लटें उच्छृंखल हो आई हैं। देव बहुत देर तक उन्हें यों ही देखते रहे, जैसे उन्हें पहचानते ही न हों। और उस सारे वातावरण में, सफेद पत्थर के उस विराट कैदखाने में जैसे किसी अभिशप्त जलपरी को यों भटकने के लिए छोड़ दिया गया हो...। यह जगह, यह वातावरण है ही कुछ ऐसा। विजय ने अपने-आपसे कहा और जान-बूझकर दूसरी तरफ हट गया। शायद राका जी मुमताज के प्रेम की बात सोच रही हों, अपने मरने के बाद अपनी ऐसी ही यादगार चाहती हों या कुछ भी न सोच रही हों-बस, पुल से गुजरती रेल की खिड़की से झांकती हुई, ताज को देखकर सौंदर्य और कल्पना की स्तब्ध ऊंचाइयों में खो गई हों...

अपनी छाती तक ऊंची पीछे की दीवार से मुनमुन नदी की ओर झांकता हुआ हाथ हिला-हिलाकर नीचे जाते बच्चों को बुला रहा था। कौवे कांव-कांव करने लगे थे। मुनमुन के पास वह संगमरमर की दीवार पर झुककर हथेलियां टेके सामने की धारा और पेड़ों की घनी पांतों को देखता रहा। जाने कब देव भी बराबर ही आ खड़े हुए...काफी देर हटकर उसी तरह बुर्जी के पास झुकी राका जी...हवा में फहरती साड़ी को एक हाथ से पकड़कर रोके हुए...

‘‘भीतर की आवाज और गूंज को सुनकर बड़ी अजीब-सी अनुभूति होती है...होती है न? जैसे जाने किन वीरान जंगलों और पहाड़ों में आपका कोई बहुत ही निकट का आत्मीय खो गया है और आपकी निष्फल पुकारें टूट-टूटकर उसे गुहराती चली जाती हैं...चली जाती हैं और खो जाती हैं...। न वह आत्मीय लौटता है और न आवाजें-जैसे युगों से किसी की भटकती आत्मा उसे पुकारती रही हो और वह है कि गूंजों और झाइयों में ही घुल-घुलकर बिखर जाता है...डूब जाता है...बिलमता है और साकार नहीं हो पाता...’’

नदी में ताज की घनी-घनी परछाईं लहरों में टूट-टूट जाती थी...अनजाने ही देव की आंखों में आंसू भर आए।

‘‘ऐसा ही होता है, ऐसे वातावरण में ऐसा ही होता है।’’ विजय ने अपने-आपसे कहकर मानो स्थिति को शब्द देकर समझना चाहा, ‘‘जब कोई किसी को बहुत प्यार करे, बहुत प्यार करे, और फिर ऐसी खूबसूरत मनहूस जगह आ जाए तो कुछ ऐसी ही अनुभूतियां मन में आती हैं...अभी लॉन पर चलेंगे, मुनमुन के साथ किलकारियां मारेंगे-सब ठीक हो जाएगा...’’

देव ने सुना और गहरी सांस लेकर बड़ी कातर निगाहों से विजय की ओर देखा। कुछ कहते-कहते रुक गए। और दोनों चुपचाप ही टहलते हुए सामने की ओर आ गए...मुनमुन राका जी के पास चला गया था। नीचे की सीढ़ियां उतरते-उतरते सहसा ही देव ने विजय के कंधे पर हाथ रख दिया था। कुछ कहने को होंठ कांपे, ‘‘आपको पता है मिस्टर विजय...!’’ विजय स्वर और मुद्रा से चौंक गया था।

‘‘नहीं...कुछ नहीं...’’ ऊपर हरी साड़ी की झलक दिखी और फिर दोनों सीढ़ियां उतर आए। जूते पहनते हुए बोले... ‘‘आपको ताज्जुब तो बहुत होगा कि हम यों अचानक आपको लिवा लाए...’’

‘‘नहीं तो, इसमें ऐसी क्या बात है?’’ विजय ने शिष्टता से कहा।

‘‘हां, बात कुछ नहीं है, लेकिन बहुत ही बड़ी बात है।’’ फिर गहरी सांस।

अब विजय को लगा कि सचमुच कोई बहुत बड़ी बात है जो देव के भीतर से निकलने के लिए छटपटा रही है। तब पहली बार उसका ध्यान उस स्थिति की विचित्रता की ओर गया। बीच के चबूतरे तक दोनों बिल्कुल चुप रहे...चबूतरे के खूबसूरत कोनों वाले हौज में आग लग गई थी...गहरे सांवले आसमान में लाल-लाल गुलाबी बादलों के बगुले उतर आए थे। उल्टे ताज की परछाईं दम तोड़ते सांप-सी इनके कदमों पर फन पटक-पटककर लहरा रही थी। धूप ऊपर बुर्जियों पर सिमट गई थी। उस पर आंखें टिकाए देव बड़ी देर तक यों ही देखते रहे। सामने मुनमुन को लिए राका जी चली आ रही थीं, लेकिन जैसे कोई किसी को नहीं देख रहा हो-हां, विजय कभी उसे और कभी इसे या मशक लेकर आते भिश्ती को देखता रहा। टप-टप बूंदों की सर्पाकार लाइनें उसकी उंगलियों से टपक रही थीं। बड़े साहस से शब्दों को धकेल-धकेलकर देव बोले, ‘‘यह सारी स्थिति...यह...यह टूट जाने की हद तक आ जाने वाला चरमराता तनाव...मौत के पहले के ये कहकहे औपचारिकता का वह बर्फीला कफन...शायद हममें से कोई इसे अकेला नहीं सह पाता...कोई एक चाहिए था जो इसकी ओर से हमारा ध्यान हटाए रखे...इस समाप्ति का गवाह बन सके।’’

‘‘मैं समझ नहीं सका, मिस्टर देव...’’ घबराकर विजय ने पूछा था।

बूटों के दोनों पंजों पर जरा-सा मचककर देव निहायत ही इतमीनान से धीरे से हंसे। ‘‘आप...आप-विजय साहब, यह हमारी आखिरी संध्या है...’’ और विजय के कुछ पूछने से पहले ही उन्होंने कह डाला। ‘‘मैंने और राका ने निश्चय किया है कि अब हम लोगों को अलग ही हो जाना चाहिए...दोनों तरफ से शायद सहने की हद हो गई है...नसों का यह तनाव मुझे या उसे पागल बना दे, या कोई ऐसी-वैसी बेहदूगी करने पर मजबूर करे, इससे अच्छा हो कि दोनों अलग ही रहें। चाहे तो वह किसी के साथ सैटिल हो जाए। वह मुनमुन को रखना चाहती है, रखे। वैसे जब भी वह उसे बाधक लगे, निस्संकोच मेरे पास भेज दे...’’

विजय का सिर भन्ना उठा। वह चुपचाप हौज की गहराई से तड़पती ताज की परछाईं पर निगाहें टिकाए रहा।

‘‘लेकिन आप दोनों...’’ विजय ने कहना चाहा।

देव ने हाथ फैलाकर रोक दिया, ‘‘वह सब हो चुका। सारी स्थितियां खत्म हो गईं। हमने तय किया कि क्यों न अपनी अंतिम संध्या हंसी-खुशी काटें...मित्र बने रहकर ही हंसते-हंसते विदा लें...’’ फिर कुछ देर तक चुप रहकर कहा, ‘‘राका की बड़ी इच्छा थी कि ताज देखे, शादी की पहली रात उसने चाहा था कि हनीमून यहां ही हो...लेकिन...लेकिन...’’ फिर हाथ झटक दिया, ‘‘अजब संयोग है न?-लेकिन...’’

लेकिन विजय को लगा था जैसे किसी डैम की रेलिंग पर झुका खड़ा है और नीचे से लाखों टन पानी धाड़-धाड़ करता गिरता चला जा रहा है...गिरता चला जा रहा है...और उसका सिर चकरा उठा-। नहीं, उससे किसी ने कुछ भी नहीं कहा। यह सब तो सिर्फ वह कल्पना कर रहा है। कहीं ऐसी अविश्वसनीय बात...ध्यान उसका टूटा देव की आवाज से, ‘उसे रोको राका, माली वगैरह मना करेंगे...नहीं मुनमुन!’ स्वर बहुत मुलायम था। और फिर देव ने दौड़कर प्यार से मुनमुन को दोनों बांहों में उठा लिया और उसके पेट में अपना मुंह गड़ा दिया...मुनमुन खिलखिलाकर हंस पड़ा...आंखों में लाड़-भरे राका जी मुस्कराती रहीं। नहीं, अभी जो कुछ उसने सुना था, वह इन लोगों के आपसी संबंधों के बारे में नहीं था-हो नहीं सकता।

बहुत बार विजय ने राका जी का चेहरा चाहा, लेकिन लगा वे इधर-उधर के सारे वातावरण को ही पीने में व्यस्त हैं। चिड़िया चहचहाने लगी थीं...

इन्हीं जालियों पर इसी तरह तो वे लोग चल रहे थे कि पास आकर धीरे से देव ने कहा था, ‘‘राका से कुछ मत पूछिएगा’’

क्या पूछेगा वह राका जी से...?

‘‘सॉरी, आपको यों घसीट लाए हम लोग...’’

और इस बार कातर निगाहों से देखने की बारी विजय की थी...इतना गलत समझते हैं आप...


चार-पांच साल हो गए, लेकिन बात कितनी ताजा हो आई है...वह, देव, राका जी और मुनमुन इसी तरह तो लौट रहे थे, चुपचाप, उदास और मनहूस...सांझ का बजरा रात का किनारा छूने लगा था। जैसे किसी वर्षों की तूफानी यात्रा से वे तीनों लौटकर आ रहे हों। पेड़ों और इमारतों की परछाइयां खूब लंबी-लंबी चौड़ी धारियों की तरह पीछे चली गई थीं...कुंजों और लॉन की हरियालियां अजीब टटकी-टटकी हो उठी थीं...हरियाली के सुरमई धुंधले कांच पर सफेद फूल छिटक आए थे...

मीरा के चश्मे के कांचों में झांकती परछाईं को देखकर, जाने क्यों उसे वही याद ताजा हो गई थी...वही ताज जो उस दिन हौज में मानो आसमानी जार्जेट के पीछे से झांक रहा था और अपने-आपसे लड़ते हुए देव उसे बता रहे थे।...आज अगर देव होते तो क्या जवाब देता...? तो क्या वे भी उसी तरह अलग हो रहे हैं...?


सहसा चौंककर उसने मीरा को देखा। उसे लगा, जैसे उसने कुछ कहा है, ‘‘कुछ कह रही थीं क्या?’’

‘‘मैं?...नहीं तो।’’ फिर वही मौन और घिसटती उदासी का कम्बल।

लगा, जैसे कोई मुर्दा-क्षण है जिसका एक सिरा मीरा पकड़े है और दूसरा वह, और उसे चुपचाप दोनों रात के सन्नाटे में कहीं दफनाने के लिए जा रहे हों...डरते हों कि किसी की निगाहें न पड़ जाएं-कोई जान न ले कि वे हत्यारे हैं...कहीं किसी झाड़ी के पीछे इस लाश को फेंक देंगे और खुशबूदार रूमालों से कसकर खून पोंछते हुए चले जाएंगे...भीड़ में खो जाएंगे...। जैसे एक-दूसरे की ओर से देखने में डर लगता है...कहीं आरोप करती आंखें हत्या स्वीकारने को मजबूर न कर दें...


बाहर वे दोनों तांगा लेंगे...झटके से मोड़ लेता हुआ तांगा ढाल पर दौड़ पड़ेगा और ताजमहल पीछे छूटता जाएगा...और फिर ‘अच्छा, कहकर सूखे होंठों के भरे स्वर पर मुस्कराहट का कफन लपेटकर दोनों एक-दूसरे से विदा लेंगे...।