छोटे-छोटे सुख / गिरिराजशरण अग्रवाल
'मनुष्य बहुत ज़्यादा चाहता ही कब है पारुल! वह छोटी-छोटी ख़ुशियाँ लेकर ही संतुष्ट हो जाता है।' पारुल किचन से नाश्ता लेकर आई तो साकेत ने क़लम-काग़ज मेज के एक किनारे पर रखते हुए तनिक गंभीर मुद्रा में कहा, 'मनुष्य में क्षमता ही नहीं है, अपनी हैसियत से ज़्यादा बड़े सुख या दुख को सहन कर पाने की।' ऐसा कहते हुए साकेत की आँखों में दार्शनिकों-जैसी गहराई और गंभीरता आ गई थी।
'मैं समझी नहीं। तुम किस सम्बंध में यह सब कह रहे हो?' पत्नी ने भोलेपन से पूछा।
'हाँ, तुम नहीं समझोगी। अभी थोड़ा और विस्तार में जाना पड़ेगा, तुम्हें समझाने के लिए. बात की पृष्ठभूमि ज्ञात न हो, तो केवल शब्द सुननेवाले को अपने-अपने अर्थों और संदर्भों तक नहीं ले जा पाते हैं।' साकेत ने प्रेमभरी दृष्टि से पारुल की ओर देखा। उसने पास में रखा हुआ अख़बार उठाया और उसे मेज के एक कोने पर रखकर पेपरवेट से दबा दिया। आदमी अनजाने में भी अपनी चीजों को किस तरह व्यवस्थित ढंग से रखने की अज्ञात कोशिश में लगा रहता है! आज का अख़बार पढ़ा जा चुका है, लेकिन साकेत उससे अभी अपना रिश्ता नहीं छोड़ सका है।
सामनेवाले बरामदे में उनका बेटा अनिरुद्ध आँखें मूँदे लेटा है। ऐसा लगता है कि वह जाग गया है, लेकिन जागना नहीं चाहता है। युवा मन ऐसा ही होता है। उम्र के नशीले रस से भरा हुआ। साकेत ने बेटे की तरफ़ से दृष्टि हटा ली है। शब्दों में तो नहीं सोचा कि उसे और सोने दो कितु अवचेतन में ऐसा चाहा अवश्य है।
गर्म हवा का झोंका पारुल के बालों की एक लट को कंपन देता हुआ कहीं दूर चला गया है। पारुल ने बालों की लट सँभालकर फिर अपने कान के पीछे ले जाकर छोड़ दी है।
महिलाएँ अपने संदर्भ में कितनी कांशस होती हैं, कितनी सचेत! साकेत ने पारुल की ओर देखकर सोचा। उनका अंग-अंग सेंसेटिव होता है और शायद जागरूक भी।
साकेत ने उस लेख पर फिर एक नजर डाली है, जो उसने अभी-अभी लिखकर पूरा किया है। वह लेखक है और आदमी तथा उसके जीवन को औरों से बेहतर जानता है।
दोनों ने मेज पर रखा हुआ नाश्ता लेना शुरू कर दिया है। साकेत ने सामने रखे टाइम-पीस पर नजर डाली है। 'साढ़े आठ बज गए.' अचानक उसके मुँह से निकला।
'हाँ, नाश्ता तैयार होने में आज थोड़ी देर हो गई.' पारुल ने एक ऐसे सवाल का उत्तर दिया है, जो उससे पूछा नहीं गया था। उसके स्वर में याचना का भाव है।
'हाँ, ठीक आठ बजे मुझे नाश्ते की इच्छा हुई थी। किचन की तरफ़ देखा, तुम व्यस्त थीं।'
'दूधवाला काफ़ी देर से आया था, आज।' पत्नी ने फिर पूछे बिना विलंब का कारण बताया।
'मैं यह नहीं पूछ रहा हूँ पारुल।' साकेत फिर गंभीर हो गया, 'मुझे लगता है, सामनेवाली टाइमपीस की तरह ही कोई टाइमपीस प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में होती है, वर्ना यह कैसे हो जाता है कि सुधबुध भुला देनेवाली व्यस्तता में भी आठ बजते ही मुझे नाश्ता याद आ जाता है। डेढ़ बजे लंच की इच्छा होने लगती है, पाँच बजे शाम की चाय याद आ जाती है।'
'आदत पड़ जाती है न!' पारुल ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
'हाँ, तुम इसे आदत भी कह सकती हो। पर मुझे लगता यही है कि प्रत्येक आदमी के दिमाग़ में एक टाइमपीस लगी होती है, जो उसे प्रत्येक काम का समय बताती रहती है। साथ ही प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में स्वयं को दोषमुक्त बनाए रखने के लिए तर्क भी छिपे रहते हैं, जिनका वह आवश्यकता न होने पर भी प्रयोग करता रहता है।'
'क्या? क्या मतलब? मैं समझी नहीं।' पारुल सरलता से बोली।
'हाँ, तुम इस बात को भी उसी तरह नहीं समझी होगी, जैसे मेरी उस बात को नहीं समझी थीं कि आदमी छोटी-छोटी ख़ुशियों के अलावा और कुछ चाहता ही कब है। किसी बड़े सुख को या दुख को सहन करना उसकी क्षमता से बाहर है।'
'लेकिन साकेत तुमने यह दोषमुक्त बने रहनेवाली बात किस संदर्भ में कही?' पारुल ने पति से पूछा।
'मात्र आदमी के संदर्भ में। तुम तो बस प्रमाण के लिए माध्यम बन गईं, जब तुमने नाश्ते की देरी का कारण बिना पूछे बताया। तुम्हारा बताया कारण सही है, पर सवाल यह है कि तुमने इसे बताने की ज़रूरत क्यों समझी, जबकि इस सम्बंध में कुछ पूछा ही नहीं गया था। —पारुल, हर व्यक्ति यही करता है, हर व्यक्ति—उसे डर लगा रहता है आरोपित होने से—वह अपना बचाव चाहता है, सही ढंग से भी और ग़लत ढंग से भी।'
पारुल ने ब्रैड का पीस मुँह में रखा। चाय का घूँट लिया। 'प्रारंभिक दिनों में तो मुझे तुम्हारी इस प्रकार की बातें बहुत विचित्र लगती थीं। अब नहीं लगतीं। अब तो आनंद-सा आता है इनमें।'
'समझे बिना भी?' साकेत ने पूछा।
'हाँ, समझे बिना भी।' पारुल बोली, 'जब ऐसा लगे कि शब्द कहीं बहुत गहराई से निकल रहे हैं, रहस्यों के रेशम को अपने ऊपर लपेटे हुए, तो अच्छा ही लगता है।'
साकेत ने प्यार से पत्नी का हाथ थाम लिया। सहलाया, बोला, 'तुम तो कई बार बुद्धिजीवियों-जैसी बात करने लगती हो, पारुल। अच्छा लगता है मुझे।'
'आदमी बिना सिखाए भी, दूसरों की संगत में कुछ-न-कुछ सीखता रहता है न।' पारुल ने ब्रैड का पीस पति की ओर बढ़ाते हुए कहा।
'पर आदमी की वे छोटी-छोटी ख़ुशियाँ?'
साकेत ने पारुल का हाथ प्यार से अपनी ओर खींचा। अनिरुद्ध बैड से उठकर बाथरूम में जा चुका था। 'सचमुच तुम बहुत ही अच्छी हो पारुल। सीधी-सुघड़-सुंदर।'
गिनती के ये शब्द सुनकर पारुल फूल की तरह खिल उठी। उसके गालों पर लालिमा उभर आई. बोली, 'लेकिन वे छोटी-छोटी ख़ुशियाँ?'
'वे सब यही तो हैं पारुल।' साकेत ने पत्नी को प्यार-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, 'मैंने तुम्हें सुंदर-सुघड़ कहा, तुम फूल की तरह खिल उठीं। यही क्षणभर का वह सुख है, जो तुम्हें इस समय मिला और ऐसे ही छोटे-छोटे सुखों के बीच हम लोग जीवित रहते हैं। किसी बड़े सुख को सहन करने की क्षमता भी नहीं है, हममें।'
'कैसे?' पारुल ने एक शब्द का प्रश्न किया।
'असाधारण ख़ुशी के पल में आदमी की आँखें आँसुओं से क्यों भर जाती हैं, पारुल? जानती हो?' साकेत ने पूछा और फिर स्वयं ही उत्तर देते हुए कहा, 'असाधारण ख़ुशी के पल सहन ही नहीं हो पाते हैं, आदमी से। वह उन्हें पाता है तो रो उठता है। इन्हीं आँसुओं को ख़ुशी के आँसू कहते हैं न?'
'हाँ!' पारुल ने सहमति व्यक्त की।
साकेत ने बात आगे बढ़ाई, 'अनिरुद्ध नई जींस लेने की माँग कर रहा है, कई दिन से। आज या कल जब यह जींस उसे मिलेगी, तो वह भी प्राप्ति के उस पल में तुम्हारी ही तरह फूल की भाँति खिल उठेगा। यह छोटा-सा चुटकी बराबर सुख उसे आनंदित करता रहेगा, कई दिन तक। ये छोटे-छोटे सुख, छोटी-छोटी ख़ुशियाँ ही हैं, जो आदमी को खिलौने बनकर बहलाती रहती हैं। ये खिलौने नहीं मिलते तो वह रो उठता है।'
पारुल ने केतली से साकेत की प्याली में चाय उँडेली। प्याली उसकी ओर बढ़ाई.
साकेत ने अख़बार की ओर संकेत किया, 'कुख्यात दस्यु केहरीसिह पिछले पंद्रह साल से जेल में है। उस पर हत्या करने और डकैतियाँ डालने के दर्जनों केस हैं। उसकी कहानी आज के अख़बार में छपी है।' साकेत ने पत्नी को सम्बोधित करते हुए कहा, 'जब केहरीसिह गिरफ्ऱतार हुआ था, तब उसकी बेटी पाँच साल की थी। अब बीस साल की हो गई है। अगले महीने उसका विवाह है। केहरीसिह ने बेटी का ब्याह करने के लिए केवल आठ दिन के लिए पैरोल पर रिहा करने की माँग की है, पर यह रिहाई उसे नहीं मिल रही है।'
'क्यों?' पारुल ने सरलभाव से पूछा। '
'ख़तरा है, रिहा होकर वह फिर कोई संगीन बारदात कर बैठेगा।' साकेत ने पारुल को बताया, 'लेकिन सवाल केहरीसिह को पैरोल पर रिहा किए जाने या न किए जाने का नहीं है। मैं बता यह रहा हूँ कि केहरीसिह की एक छोटी-सी ख़ुशी अपने हाथों बेटी का ब्याह संपन्न कराने में है और वह उसे नहीं मिल रही है।'
पारुल चुपचाप पति की बात सुन रही है।
'मुझे यक़ीन है,' साकेत ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, 'केहरीसिह जानता होगा कि यदि वह विवाह के अवसर पर रिहा नहीं किया गया तो विवाह तो तब भी संपन्न हो जाएगा, कोई अंतर नहीं पड़ेगा, उसके होने न होने से, कोई काम किसी के बिना रुका तो रहता नहीं, कितु केहरीसिह यह छोटी-सी ख़ुशी न मिल पाने का दुःख जीवन-भर भोगता रहेगा। क्यों मैं ग़लत कह रहा हूँ पारुल?'
'नहीं, ठीक है।' पारुल ने फिर दो शब्दों का संक्षिप्त उत्तर दिया।
'धन्य हैं वे, जो इन छोटी-छोटी ख़ुशियों के मोह से मुक्त हो जाते हैं।' साकेत ने अपने द्वारा लिखे गए लेख को पढ़ने का प्रयास करते हुए कहा, लेकिन पारुल बाधा बन गई.
'मुक्त कौन हो पाता है इस मोह से?' पारुल ने चाय का घूँट लेते हुए साकेत से कहा, 'इन छोटी-छोटी खुशियों के बीच ही जीते रहना अच्छा लगता है आदमी को। यह सुख नहीं मिलते तो वह टूट जाता है।'
'जैसे तुम।' साकेत ने बीच में पत्नी को टोकते हुए कहा, 'यदि मैं तुमसे दो बोल प्यार के न बोलूँ तो कितनी जल्दी मन टूट जाएगा तुम्हारा!'
'हाँ, चाहे वे बोल झूठे ही क्यों न हों!' पारुल ने धीमे-से मुस्कराते हुए कहा।
'लेकिन इस मोह से वे मुक्त हो जाते हैं, जो यथार्थ को पा चुके हैं। सत्यता को समझ चुके हैं।'
'लेकिन वे लोग कौन हैं, कहाँ रहते हैं? वे संन्यासी होंगे।' पारुल ने व्यंग्य के लहजे में पति से कहा।
'पहले जब मैं लिखता था और अपनी कोई रचना समाप्त कर लेता था तो मेरा मन सुख के एहसास से भर जाता था। यह छोटी-सी ख़ुशी मुझे कई-कई दिन तक भावविभोर रखती थी।' साकेत ने अपने आज के लेख पर उचटती-सी नजर डालते हुए कहा, 'अब ऐसा नहीं होता है पारुल। अब तो ऐसा लगता है जैसे मैं हूँ और अपना कर्त्तव्य अदा कर रहा हूँ। पहले लिखकर जब कोई और नहीं मिलता था तो तुम्हें सुनाने की इच्छा होती थी, अब वह भी नहीं होती।'
'तुम कठोर होते जा रहे हो क्या? इन साधारण-सी ख़ुशियों से अलग होकर आदमी-आदमी रह जाएगा क्या?' पारुल बोली और धीरे-धीरे नाश्ते के बर्तन समेटने लगी।
तभी अनिरुद्ध कपड़े बदलकर आया और पारुल से नाश्ता माँगते हुए बोला, ' कल जब आप घर पर नहीं थे, तब एक सज्जन आए थे। यह चिट्ठी दे गए थे आपको देने के लिए.
साकेत ने चिट्ठी हाथ में ली, पढ़ा। लिखा था-
'अनुराग' के ताजा अंक में आपकी कहानी पढ़कर मन बहुत प्रभावित हुआ। दर्शन के लिए आया था। दुर्भाग्य से आप नहीं मिले। '
साकेत ने इन दो पंक्तियों को एक बार नहीं, कई बार पढ़ा। फिर चिट्ठी पारुल की ओर बढ़ा दी, 'देखो, कितनी प्रशंसा की है इसने मेरी।'
पारुल ने चिट्ठी हाथ में ली। बोली, 'यही तो सुख का वह पल है साकेत, जो आदमी को टूटने नहीं देता है, यही तो वे छोटी-छोटी ख़ुशियाँ हैं, जो आदमी को बहलाए रखती हैं। तुम भी शायद इससे अलग नहीं हो सकते।'
'हाँ।' साकेत ने उत्तर दिया, 'साधना की एक मंजिल पर पहुँचकर इन छोटी-छोटी ख़ुशियों के मोह से मैं अलग हो जाता तो बात और थी, पर अभी तो लगता है मात्र दिखावेवाला प्रयास कर रहा हूँ मैं।'
'कब समझे?' पारुल ने पूछा।
'अभी—बस अभी-अभी' साकेत ने उत्तर दिया, 'अभी, जब तुमने इस चिट्ठी से मेरी ख़ुशी को देखते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।'
'हाँ-अच्छा लगता है।' पारुल बोली, 'ये छोटे-छोटे सुख न हों तो जीवन नीरस नहीं हो जाएगा क्या?'
'तुम ठीक कहती हो पारुल।' साकेत ने सहमति व्यक्त की, 'पर इन छोटी-छोटी ख़ुशियों की इच्छा को भूख नहीं बनने देना चाहिए, पारुल। ये भूख बनकर ही अपमानित करती हैं।'
अनिरुद्ध मेज पर नाश्ते की प्रतीक्षा कर रहा था और उसने एक बार फिर नई जींस लेने की चर्चा शुरू कर दी थी।