छ: साल नौ महीने बाईस दिन...!-1 / शमशाद इलाही अंसारी
भाग एक हर रोज़ की तरह अमीर आलम की आंख अहले फ़जिर ही खुल गयी थी, सर्दियों की सुबह के उचाट सन्नाटे में दीवार पर टंगी पुरानी घड़ी के कांटों की आवाज़ किसी लोहार के घन के चोट जैसी लगातार बजती हुई, कभी-कभी उसके कानों के इतनी नज़दीक पहुंच जाती कि वह दोनों हाथों से कान बन्द कर लेता।
"कमबख्त़ ये वक्त थमता क्यों नहीं..ये घड़ी मेरे लिये और कितनी दूर चलेगी..उफ़ इसके कांटों की आवाज़.."
अमीर खुद-ब-खुद बुदबुदाता, करवटें बदलता, कल का पुराना अख़बार घसीट कर अपने सिरहाने तक लाता और उन तमाम खबरों को फ़िर-फ़िर पढ़ता जिनका पहला अक्षर पढ़ते ही उसे पूरी ख़बर याद आ जाती। फ़िर उसकी निगाह किसी ऐसी ख़बर की तलाश करती जो उसने पढ़ी न हो। इसी जुस्तजू में वह कभी सो जाता तो कभी उसकी आंख खुल जाती।
ऊपर वाले घर का दरवाज़ा खुला, उसकी आवाज़ से ही अमीर को यह अहसास हो जाता कि दरवाज़ा किसने खोला, कौन ज़ीने से नीचे उतर कर सीघा घर से बाहर गया और कौन अपना रुख मोड़े उसकी तरफ़ आ रहा है। अमीर मुखतलिफ़ कदमों की आवाज़ों को पढ़ने में अब माहिर हो गया था।
सात सितम्बर का दिन, अमीर आलम अपने इसी घर की बैठक से दोपहर का खाना खाने ऊपर ज़ीने में चढ़ा था कि आधे ज़ीने से किसी पत्थर की तरह वापस लुढ़क कर नीचे आ गिरा। अमीर के तीन जवान बेटे और दो बेटियां एकदम टूट पडीं, इस आफ़त को समझ पाते कि हाय तौबा की आवाज़ें सुनकर पास पड़ोस के लोग आए और अमीर को पलंग पर डाल डॉक्टर के पास ले गये। मालूम हुआ कि अमीर को फ़ालिस का दौरा पड़ा है जिसका ज़बर्दस्त असर उसके जिस्म के दाहिने हिस्से पर पडा़ है। बेहोश अमीर को लोकल डॉक्टर ने कुछ ज़रुरी दवाएं देकर जल्द ही एक बड़े डॉक्टर के पास शहर रवाना कर दिया। कोई दस रोज़ बाद जब अमीर को होश आया तो उसकी बीवी तस्नीम ने गरीबों को खाना खिला कर सदका दिया और अल्लाह का शुक्रिया अदा किया। तीन हफ़्ते अस्पताल में इलाज के बाद अमीर को जब घर वापस लाया गया तो वह पूरी तरह मोहताज था। उस दिन से अमीर अपने घर के निचले हिस्से में बनी बैठक में ही महदूद है। उसका पूरा संसार एक पलंग तक सिमट कर रह गया है। वह न उठ सकता है न बिना सहारे बैठ सकता है। चलने की बात तो वह सोच भी नहीं सकता।
लेकिन अमीर खूब चलता है। कस्बे की तमाम मन पसंद जगहों और दोस्तों के घरों पर वह बराबर दस्तक देता है। सब से बातें करता है। लोगों की खुशियों में शामिल होता है तो कभी उनके रंज़ो-ग़म में शुमार होता है और तो और आजकल वह उन तमाम जगहों पर भी जाया करता है जहां गये हुए उसे मुद्दतें हुई थीं। न जाने किस किस के खेत, खलिहानों, बागा़तों, घरों में वो घूमता फ़िरता है। इस आवारागर्दी में बस अगर कोई चीज शामिल नहीं होती तो सिर्फ़ उसका बदन। अमीर आलम अब ये सारे काम अपने ज़हन में करता, चुपचाप..!!
ज़ीने का दरवाज़ा फिर खुला। पहले दो कदमों की आवाज़ से ही अमीर को मालूम हो गया कि तस्नीम नाश्ता लेकर आ रही है। ये उसका दूसरा चक्कर होता, तस्नीम की पहली आमद सुबह फ़जिर की नमाज़ के बाद एक प्याला चाय के साथ होती। दोनों एक साथ चाय पीते फ़िर तस्नीम और उनका बडा बेटा इशाक, अमीर को रोज़ाना हाजत से फ़ारिग कराने में मदद करते। फ़िर दूसरी आमद कोई आठ बजे नाश्ते के साथ होती। नाश्ते के बाद तस्नीम अमीर को दवाईयां देती और दीगर तेलों से अमीर के फ़ालिस शुदा बदन पर मालिश तब तक करती रहती, जब तक अमीर आलम के दोस्त मुशताक भाई के खांसने की आवाज़ सहन से न आ जाये...उसके बाद फ़िर दिन भर अमीर आलम की बैठक में उनका कोई न कोई दोस्त, मिलने वाला या रिश्तेदार बैठा रहता। अमीर आलम कस्बे के मौतबर आदमियों में शुमार थे। खासकर मुसलमानों में अमीर का अच्छा रसूख़ था और बिरादरी में नाम भी। उनकी बीमारी की ख़बर कस्बे और आसपास के देहात में उनके जानने वालों में एकदम फ़ैल गयी। हर रोज़ कोई न कोई शख़्स अमीर आलम को देखने पहली बार आता, जिसे ख़बर देर से मिलने की शिकायत होती और देर से मिलने का मलाल भी होता। अमीर सबसे आंखों ही आंखों में बात करते और नज़रों की ज़ुबान में अपने गुस्से या खुशी का इजहार करते। उन्हें कुछ पूछना होता तो अपने बेटे इशाक के ज़रिये वो बातचीत करते। अमीर की ज़ुबान पर भी फ़ालिस का असर था। वह ठीक से बोल नहीं सकता था लेकिन उसके बुदबुदाने की आवाज़ का अर्थ इशाक भलिभांति समझ लेता था। पूरे घर में तस्नीम या इशाक से ही अमीर की बातचीत ठीक ठंग से होती। यानी ये दोनों वही सुनते जो अमीर कहता।
दोपहर के वक्त इशाक खाना लेकर आता जिसे अमीर अपने दोस्तों के साथ मिल बांटकर खाता। रात को दस-ग्यारह बजे तक एक बार फ़िर अमीर की बैठक में सन्नाटा पसर जाता। ठण्ड के मौसम में रात जल्दी हो जाती। कुत्तों की एक आध बार भौंकने की आवाज़ों के बाद जब चारों तरफ़ सब आवाज़ें गुम हो जातीं, अमीर दीवार पर टंगी अपने वालिद की निशानी घड़ी से कुछ देर बातें करता और सो जाता। बैठक में अमीर के साथ इशाक भी सोता जिससे हर रोज़ की तरह अमीर की आखिरी बात बाहर घेर में बंधी भैंसों, बैलों और बकरियों की सानी को लेकर होती।
"इशाक, सानी कर दी ढोरों की.."
"जी अब्बा कर दी, और भूरी की भी कर दी।’
अमीर की चहेती मुर्रा भैंस जिसका नाम उन्होंने भूरी रखा था, के साथ अमीर का विशेष लगाव था।
" अच्छा भईय्या, मुझे सुबह को भूरी दिखा देना, बहुत दिन हो गये उसे देखे"
"जी ठीक है, दिखा दूंगा, आप सो जाओ अब। कल जुमा भी है। शब्बा खैर।"
अमीर जुमे और पीर का इंतज़ार बेलाग करता क्योंकि हफ़्ते में इन दो दिनों में ही उसे नहलाया जाता। इशाक ने बढ़ई को बुला कर एक खास पलंग बनवाया था जिस पर अमीर लेटे-लेटे या बैठ कर हाजत कर लें, पेशाब कर लें और नहा धो लें। नीचे लगे बाल्टीनुमा टब को हटा कर साफ़कर दिया जाता और पलंग को बाहर सहन में सूखने के लिये खड़ा कर दिया जाता।
हर रोज़ की तरह चाय नाश्ता होने के बाद, दस बजे से पहले अमीर को नहला दिया गया, बिस्तर की चादर, तकिये और रजाई के गिलाफ़ बदले गये, सफ़ेद कुर्ता पजामा पहना कर अमीर को उसके पलंग लिटा दिया गया। पिछ्ले पांच महीनों से दुआओं और दवाइयों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। हर जुमे के दिन इस्लामिया मदरसे के बच्चे बुलवा कर कुरान खानी करवायी जाती, बीज पढ़वाये जाते, बच्चों को खाना खिलाया जाता, दुआएं मांगी जातीं वगैरह वगैरह...
नहा धो कर पलंग पर लेटकर दाढ़ी पर हाथ फ़ेरते हुए अपनी जहनी दुनिया में खोते उसे देर न लगी...वो ठीक दस बजे अपने घर से बाहर निकल गली पार करके सामने शरीफ़ भाई की हजामत की दुकान पर पहुंच चुका था। शरीफ़ के लड़के आरिफ़ को इशारा करके दुकान के बाहर चबूतरे पर कुर्सी डलवायी, जनवरी की शानदार धूप वाली सुबह का लुत्फ़ लेते हु उन्हें बाल भी कटवाने थे और दाढ़ी भी बनवानी थी, सो अमीर साहब कुर्सी पर सफ़ेद चादर से इर्द-गिर्द ढक दिये गये।
"मियां जी"..शरीफ़ भाई ने अमीर आलम के तिलिस्म को तोड़ते हुए आवाज़ दी। "मियां जी, मैं ठीक टाईम पर आया हूं न ?"
अमीर पलंग पर लेटे-लेटे ही बुदबुदाए," मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था" सिरहाने तकिये लगा कर, उनके सहारे बैठा कर शरीफ़ भाई ने अमीर की दाढ़ी बनाई, तभी इशाक खोर से बंधी भूरी को खोलकर सहन के उस कोण पर लेकर आया जहां से अमीर अपनी प्यारी "भूरी" को देख सके।
"अब्बा, अब देख लो भूरी को.."
अमीर ने निगाह सहन में डाली और भूरी को जोर से आवाज़ देने के बजाये खांसने की कोशिश की। अमीर के खांसने की आवाज़ से भूरी के कानों में फ़ौरन हरकत हुई और उसकी गरदन ठीक उसी तरफ़ मुडी जहां से आवाज़ आयी थी। एक पल के लिये दोनों की आंखों से आंखें मिल गईं। ये नज़ारा शरीफ़ भाई ने भी देखा। वह खुद को रोक नहीं पाये। अपना सामान उठा कर सलाम करके, अपनी आंखें पोछते हुए घर से बाहर निकल गये। अमीर ने इशाक को इशारे करके बुलाया तो वह भूरी को खोर पर बांध कर बैठक में दाखिल हुआ।
"भूरी को ठण्ड हो गयी है, इसे डॉक्टर को दिखा दो और भईय्या इसके खुरैरा फ़ेर के तेल भी मल देना...पूरी खाल खुश्क हुई पड़ी है... बस सात- आठ दिन रह गये हैं इसके ब्याहने में।"
"जी अब्बा, मैं अभी तो खेतों पे खालिद (छोटा भाई) को लेकर जा रहा हूं, आज अपना पानी का वार है..शाम को डॉक्टर को लेता आऊंगा। वह भूरी के साथ और डंगरों को भी देख लेगा।"
जुमे क वक्त हो गया था सो, अमीर की बैठक खाली थी। तस्नीम मौके का फ़ायदा उठाकर मेन गेट पर सांकल लगा कर अमीर के पास आ गयी थी। इन पिछ्ले पांच महीनों के अलावा तस्नीम ने अमीर का मुंह दिन के उजाले में इतनी बार पहले कभी नहीं देखा था। पिछ्ले 27 सालों के वैवाहिक जीवन में अमीर ने भी तस्नीम को निगाह भर कर नहीं देखा और न कभी कोई बातचीत ही की थी, जो मियां-बीवी के दरम्य़ान अक्सर होती है।