छ: साल नौ महीने बाईस दिन...!-2 / शमशाद इलाही अंसारी
भाग दो जैसा कि आमतौर पर रिवायती घरों, खासकर मुसलमान घरों में होता है कि मियां-बीवी के ताल्लुकात अच्छे हों या न हों, पर बच्चों की आमद पर उसका असर नहीं होता, सो अमीर आलम-तस्नीम के भी पांच बच्चे हुए। तीन बेटे, दो बेटियां। दरअसल अमीर की अपनी कोई मोहब्बत थी जिसे वह हासिल न कर सका। एक दिन अचानक उनके वालिद हाजी राशिद का एक मुख्तसर सी बीमारी के बाद जब इंतकाल हुआ तो दम निकलते वक्त वो अपने दोस्त हाशिम अली का हाथ अपने इकलौते लड़के अमीर आलम के हाथ में थमाते हुये कह गये थे कि इसकी लड़की तस्नीम से शादी कर लेना। हाशिम को मैंने ज़ुबान दी है। अमीर अपने वालिद के हुक्म को भला कैसे टालते लेकिन वो तस्नीम को कभी अपनी मोहब्बत न दे सके...हां उसे बच्चे ज़रूर देते रहे।
अमीर को जुमे की नमाज़ पलंग पर लेटे-लेटे पढ़ाने में तस्नीम ने सहार दे-देकर मदद की, सलाम फ़ेरने का इंतज़ार करती तस्नीम ने पूछा... "चाय पीएंगे..अभी कैसा महसूस कर रहे हैं? "नहीं, चाय अभी नहीं.. तकलीफ़ें हैं। ये कम ही नहीं हो रहीं..." अमीर ने तस्नीम को अपने सिरहाने कुर्सी डाल कर बैठने का इशारा किया, तस्नीम की उंगलियां अमीर के सिर के बालों में गश्त करने लगीं। अमीर ने अचानक तस्नीम का हाथ अपने हाथों में ले लिया, उसके हाथों में अजीब सी जुंबिश थी। "कितना प्यारा रंग है तुम्हारे सूट का, तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो इस गुलाबी रंग में..." तस्नीम अपनी इस तारीफ़ के लिये न तैयार थी और न ही इसकी उसे आदत थी। उसका चेहरा एकदम लाल हो उठा। सकपकाते हुए बोली, "आपने ही तो कल कहा था कि गुलाबी सूट पहनना...सो आज पहन लिया...आप पहले कभी कहते तो मैं तो रोज़ गुलाबी रंग ही पहनती।"
अमीर की आंखें तस्नीम को निहारती हुई अपनी मुठ्ठी में दबे उसके हाथों पर थम गईं। उसकी आवाज़ साफ़ और मज़बूत हो गई थी। "तस्नीम, मुझे माफ़ कर दो, मैं पिछले पांच महीनों से तेरी मोहब्बत का, तेरी तवज्जो, तेरी इबादत, तेरी तीमारदारी का कर्ज़दार हूं...मैं तेरा गुनाहगार हूं.." टूट पड़े लफ़्ज़ों की धारा को फ़िर से जोड़ कर अमीर की निगाह तस्नीम की आंखों में झांक रही थी...जाने वो वह सब बताना चाहती हो जो पिछले 27 सालों में अमीर न कह पाया था। तस्नीम का ज़प्त अब जवाब दे चुका था। वह हाथ छुडाना भी नहीं चाहती थी और अपनी आंखों से गिरते बे-पनाह आंसुओं को भी थामना चाहती थी। "मैंने पिछ्ले सत्ताईस सालों से जो तेरी हकतलफ़ी की है...मैंने तेरी जो बे-हुरमती की है...मैं उसका ख़तावार हूं। मैंने जो भी तुझे दु:ख दिये हैं, मैं उन तमाम ख़ताओं का गुनाहगा़र हूं...तू मुझे माफ़ कर दे तस्नीम...या अल्लाह तू मुझे माफ़ कर दे।"
अमीर एक एक लफ़्ज़ साफ़ बोला था और बोलते वक्त उसकी आंखों से आंसू ऐसे बह रहे थे जैसे कोई बांध टूट गया हो...गालों से बहते हुये आंसुओं ने अमीर का कुर्ता तक गीला कर दिया था। वह अपनी बात कह चुका, तस्नीम के हाथों में उसके हाथ ठंडे पड़ गये...बेजान हाथ...और अमीर की आंखें खुली हुईं लगातार तस्नीम को अपलक देखे जा रही थीं। तस्नीम की आंखों के आंसू अमीर की उन मुठ्ठियों पर झर झर बरस रहे थे, जिनमें उसकी हथेलियां गिरफ़्त थीं। तस्नीम अपने वुजूद में यकायक वापस आई। वह घबरा गई। उसके मुंह से चीख निकली।" आफ़ताब....रुख़्सार....निग़ार...जल्दी से नीचे आओ...तुम्हारे अब्बा को क्या हो गया? वो बोल क्यों नहीं रहे हैं?"
कुछ देर बाद, तस्नीम की बेटियों का क्रंदन भी अपनी मां की मातमी आवाज़ों में मिल गया। धीरे-धीरे पास पड़ोस के लोग आने शुरू हुये। मौहल्ले के लोगों ने अमीर मियाँ के खेतों पर उनके लडकों को ख़बर भेजी..पूरी गली में सन्नाटा पसर गया। मर्दों की खामोशी के बीच तस्नीम और उसकी बेटियों की चीखें वहां खड़े हर शख़्स को अंदर से छीलती हुई गुज़र रही थीं।
अमीर की मौत के बाद पूरा पास-पड़ोस मातम में डूब गया। यही नहीं अमीर की मौत की ख़बर उसके मवेशियों को भी थी। उनकी आंखों में भी कई दिन तक आंसू देखे गये...अमीर की सबसे प्यारी भूरी भैंस ने खाना पीना छोड़ दिया और तीसरे दिन एक कटिया को जन्म दे कर भूरी ने भी दम तोड़ दिया। तस्नीम की इद्दत पूरी होने के कोई तीन दिन बाद अमीर आलम के दोस्त मुश्ताक भाई ने इशाक के ज़रिये तस्नीम को संदेश भेज कर मिलने कि खवाहिश ज़ाहिर की। मुशताक भाई को बैठक में बैठा कर इशाक ने तस्नीम को बताया, "मुश्ताक चाचा आपसे मिलने आये हैं, कुछ बात करनी है उन्हें।"तस्नीम ने पहले उन्हें चाय नाश्ता कराया फ़िर सिर पर दुपट्टा ठीक करती हुई बैठक में दखिल हुई। सलाम करते हुए बोली, "जी बताइये, मुश्ताक भाई, क्या बात करना चाहते थे आप?"
"भाभी तस्नीम, मुझे यह नहीं मालूम कि आपको अमीर ने इस बाबत कुछ बताया था कि नहीं...पर मेरा यह फ़र्ज़ बनता है कि मैं ये बात आपके इल्म में लाऊं कि अमीर ने मेरी बड़ी लडकी आसमां का हाथ इशाक के लिये मांगा था। अगर आपको यह बात मंज़ूर है तो सिर माथे..वर्ना मैं..." "भाई साहब" तस्नीम ने बात बीच में काटते हुए कहा,"इस घर के बच्चों में अपने बड़ों की बात टालने का रिवाज नहीं है...और जब बात ज़ुबान की हो तो सवाल ही पैदा नहीं होता...मेरी गुजारिश ये है कि आपके पास वक्त बहुत कम है, दो महीने बाद रमजान शुरु हैं और हम ईद का भी इंतज़ार नहीं कर सकते। हमारी ख्वाहिश है कि आसमां रोज़े हमारे साथ ही रखे।"
मुश्ताक भाई ने अपनी रजामंदी का सिर हिलाते हुये रुख्सती ली। जब तस्नीम ये बात करके बैठक से बाहर निकली तो इशाक को ठिठक कर सहन में भागते देखा। अमीर ने इस बात को अपनी मौत से कुछ रोज़ पहले ही तस्नीम को बताया था और यह भी बताया था कि इशाक को ये रिश्ता पसंद भी है। तस्नीम अब एक बेवा थी लेकिन उसमें एक अजीब सी तेजी थी। उसकी चेहरा खिल गया था। सफ़ेद रंग के कपडों में उसकी खूबसूरती और भी निखर उठती। अमीर की मौत के वक्त उसकी सबसे छोटी बेटी निग़ार की उम्र 16 बरस थी। इशाक से लेकर निग़ार तक उसके सब बच्चे शादी लायक थे। तस्नीम ने बिना वक्त बर्बाद किये हर साल अपने एक बच्चे की शादी का लक्ष्य बनाया निग़ार की शादी जब तक हुई तब तक वह इक्कीस वर्ष की हो चुकी थी।
इशाक, खालिद और आफ़ताब की शादियां करके तस्नीम तीन बहुओं का सुख भोग रही थी। अब वह घर के चुल्हे चौके के काम से फ़ारिग़ हो चुकी थी लेकिन पशुओं की देखभाल, खाने पीने, दवा दारु का काम वह अपने शौक के लिये करती। रुख्सार और निग़ार की शादी कर चुकी तस्नीम को जब भी वक्त मिलता वह अपने पोता-पोतियों के साथ नीचे सहन में खेलती। भूरी भैंस की कटिया अब तक दो कटरे दे चुकी थी। वह जब से तीसरी बार ग्याबन हुई तब से ही तस्नीम ने कटिया-कटिया की रट लगा रखी थी ताकि उसकी नस्ल से आंगन भरा रहे और उसके दूध से उसके पोता-पोती मज़बूत बनें।
"अम्मी..निग़ार के यहां से फ़ोन आया है।", इशाक की बीवी आसमां ने ऊपर से सहन में झांकते हुए आवाज़ दी। जहां तस्नीम अपने पोतों के साथ पलंग पर बैठी थी, तस्नीम फ़ुर्ती से ऊपर गयी और फ़ोन पर बात करने लगी। "आसमां, निग़ार को बेटा हुआ है, इशाक को बोल दो छूछक की तैयारी करे, अगले बुध को छूछक देने चलेंगे।" फ़ोन रखते ही तस्नीम ने सभी घर वालों से मुखातिब हो कर सूचना दी। इस खबर से पूरा घर खुशियों से भर गया, तस्नीम की सबसे छोटी बेटी भी अब मां जो बन गई थी। बुध के रोज़ तस्नीम इशाक के साथ निग़ार की ससुराल वाले शहर गयी और छूछक का सामान निग़ार को अपने हाथ से दिया। अपनी बेटी को, नवासे को बहुत देर तक प्यार किया और बार बार दुआएं देती रही। उनकी लम्बी, सेहतमन्द ज़िन्दगी की दुआ मांगती हुई खुशी खुशी वापस आई। वापस लौट कर अपने घर में तस्नीम ने जैसे ही कदम रखा कि खालिद और आफ़ताब उसे देखते ही बोले," अम्मी, भूरी ने कटिया दी है, आपकी तमन्ना और दुआ इस बार पूरी हो गयी।" यह खबर सुनते ही तस्नीम की खुशियों का जैसे ठिकाना न हो। वह सबसे पहले भूरी के बच्चे को देखने दुबारी में गयी और अल्लाह का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया।
अगले दिन सुबह नहा धो कर तस्नीम नीचे आंगन में आई। सभी पशुओं को देख कर वह बैठक में दाखिल हुई जहां अमीर आलम का मुस्कुराते हुये चेहरे की एक बड़ी से तस्वीर दीवार के बीचोंबीच टंगी थी। तस्नीम कुर्सी पर ठीक उस जगह बैठी जहां से वह बीमार अमीर को बैठी देखेती थी। उसकी निगाह तकिये के बीचोंबीच जैसे किसी चेहरे पर जम गयी हो। गहरी सांसें छोड़ते हुए तस्नीम के मुंह से निकला, "छ: साल नौ महीने बाईस दिन।"
"इशाक के अब्बा, मेरे सारे काम मुक्कम्मिल हो गये।" तस्नीम ने मन ही मन कहा। बाहर आंगन में इशाक, खालिद और आफ़ताब के बच्चे खेल रहे थे। इशाक का बड़ा बेटा ईमान बैठक का दरवाज़ा खुला देख अंदर आया और दादी को कुर्सी पर बैठा देख, भागकर उसकी गोद में बैठने की कोशिश करने में अपना संतुलन खो बैठा। गिरते हुये नन्हें ईमान का हाथ तस्नीम के हाथ में लटकी तस्बीह में उलझा। उसकी दादी कुर्सी से एक तरफ़ लुढ़क गई। गुलाबी जोड़े में एकदम सजी धजी तस्नीम के हाथ की तस्बीह का धागा टूट गया और उसके मोती एक एक कर फ़र्श पर बिखर गये और देर तक फ़र्श के बीचों बीच रक्स करते रहे।
रचनाकाल: अप्रैल १२,२०१०, मिसिसागा, ओन, कनाडा