जंगल का क़ानून / दीपक मशाल
कत्ले-आम के आरोप में बंदी खरगोश कटघरे में खड़ा था।
भेड़िये, लकड़बग्घे, लोमड़ी, सियार उसके खिलाफ अपनी-अपनी गवाही दे चुके थे।
प्रतिवादी वकील ने उनकी गवाही के प्रतिकूल अपना तर्क अदालत के सामने रखा, “योर ओनर! मेरे मवक्किल की बेगुनाही का सबसे बड़ा सबूत यह है कि वह मांसाहारी ही नहीं है। उसके दाँत मेरी इस बात के गवाह हैं।”
लेकिन सरकारी वकील ने उसकी बात काटी,”सवाल शाकाहारी या मांसाहारी होने का है ही नहीं मी लोर्ड! हत्याखोरी का है। मेरे काबिल दोस्त ने इसके दाँतों की बनावट को इसकी बेगुनाही का सबूत बताया है; लेकिन आप इसके पैने नाखून देखिए, क्रूरता से भरे इसकी आँखों के स्थाई लाल डोरे देखिए। पुलिस की आहट से चौकन्ना रहने के अभ्यस्त, हर दिशा में घूम सकने वाले इसके बड़े-बड़े कानों को देखिए; और हादसे को अंजाम देकर पल भर में ही मौका-ए-वारदात से गायब हो सकने में सहायक बला की फुर्ती को देखिए।” यह कहकर सरकारी वकील ने आरोपी को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की सिफारिश अदालत से की।
उसके द्वारा पेश सबूतों और जंगल के प्रभावशाली गवाहों के बयानों पर अदालत ने गम्भीरता से विचार किया। जंगल में अमन-चैन को जारी रखने के मद्देनज़र उसने खरगोश को सज़ा-ए-मौत सुनाई और वहीं पर अपनी कलम तोड़ दी।