जंगल में जैसे बांसुरी पड़ी हो / जयप्रकाश चौकसे

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जंगल में जैसे बांसुरी पड़ी हो
प्रकाशन तिथि :28 अप्रैल 2017


भूमि पेंडनेकर इस कदर समर्पित कलाकार हैं कि 'दम लगा के हईशा' के लिए उन्होंने अपना वजन बढ़ाया, क्योंकि फिल्म की कथा एक मोटी लड़की के विवाह में आने वाली परेशानियों से जुड़ी थी। अमृता प्रीतम ने भी एक लंबी लड़की की व्यथा-कथा लिखी है। जैसे युवा कन्याएं सपनों में सफेद घोड़े पर सवार अपने वर को आता हुआ देखती हैं, वैसे युवक भी अपनी पत्नी के स्वप्न सुंदरी होने के सपने देखता है और हमारे अवचेतन में फैंटेसी इस कदर गहरे पैठी हुई है कि इन कपोल कल्पनाओं से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। फिल्म की शूटिंग के बाद भूमि पेंडनेकर ने स्वयं को सामान्य वजन की युवती बना लिया है। अब वे आयुष्मान खुराना के साथ 'शुभ मंगल सावधान' नामक फिल्म में नज़र आएंगी। अत: आमिर खान एकमात्र कलाकार नहीं हैं, जो 'गजनी' और 'दंगल' जैसी फिल्मों के लिए स्वयं को तैयार करते हैं। कलाकारों का जीवन उतना सहज नहीं है,जितना मीडिया ने प्रचारित किया है।

बार-बार भूमिका के अनुरूप वजन घटाने और बढ़ाने से शरीर कभी विद्रोह भी कर सकता है कि यह क्या कि प्रोटीन ठूंस-ठूंसकर मांसपेशियां बनाओं औैर किसी भूमिका के लिए लंबा उपवास करके स्वयं को साधो। कलाकार अपने शरीर को बांसुरी की तरह छिद्रमय बनाते हैं। आजादी के एक दशक पहले का फिल्मी गीत था, 'विरहा ने कलेजा यूं छलनी किया जैसे जंगल में कोई बांसुरी पड़ी हो।' गोयाकि जंगल में प्रवाहित बयार से ही उसमें ध्वनि निकलती है। आम आदमी प्रचार द्वारा बनाए समाज की हवा के अनुरूप अपने बदन की बांसुरी से राजा को सुहाने वाले स्वर निकालता है। हम एक प्रायोजित समाज में राजा की इच्छाओं के अनुरूप जी रहे हैं। हमने 'यथा राजा तथा प्रजा' के गलत मंत्र को अपना लिया है। हम बांसुरी से भी कम विद्रोह करने वाला समाज बन गए हैं।

आयुष्मान खुराना ने 'विकी डोनर' एवं 'जोर लगा के हईशा' जैसी फिल्मों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। वे सुरीले गायक भी हैं तथा धुनें भी बनाते हैं परंतु जाने क्यों उन्हें कभी सितारा दर्जा प्राप्त नहीं हुआ। हमारे फिल्म उद्योग में इस तरह के कलाकारों की परम्परा रही है जैसे फारुख शेख और अमोल पालेकर के साथ भी न्याय नहीं हुआ। बतौर फिल्मकार अमोल पालेकर ने गुणवत्ता वाली फिल्में रची हैं। फारुख शेख तो ऐसे मुखड़े की तरह गूंजे जिसके लिए विधाता ने अंतरे ही नहीं लिखे थे। भरी जवानी में उनकी मृत्यु हुई। सई परांजपे की 'चश्मे बद्‌दूर' अत्यंत मनोरंजक फिल्म थी। इसी तरह साहित्य के क्षेत्र में भी जयशंकर प्रसाद, कीट्स व शैली पूरी तरह उजागर होने के पहले ही असार संसार छोड़कर चले गए। यह विरोधाभास भी देखिए कि अधिक समय जीने वाला कलाकार खुद की ही पैरोडी भी बन जाता है।

हास्य कलाकार भगवान दादा ने उम्रदराज होने पर बहुत दुख भोगे और महल से उन्हें झोपड़पट्‌टी तक की यात्रा करनी पड़ी। फिल्म 'भागमभाग' में उन्होंने जिस शैली में नृत्य किया उसे राज कपूर से लेकर अमिताभ बच्चन तक दोहरा रहे हैं। कुछ लोगों को अमीरी रास ही नहीं आती। आज यह संभव है कि मुकेश अंबानी जैसा सफल व्यक्ति गरीब वर्ग की तरह एक दिन मजे से जी ले परंतु गरीब व्यक्ति एक दिन भी उनके महल में ठीक से जी नहीं पाएगा। वह उनके बाथरूम में लगे गैजेट्स को चला भी नहीं पाएगा और लबरेज बाथटब का पानी शयन कक्ष के ईरानी कालीन को नष्ट कर देगा। इन बातों का यह अर्थ नहीं है कि गरीब अपनी जगह खुश है और उसे अमीर होने का अधिकार नहीं है। बात सिर्फ इतनी-सी है कि सुविधाओं का भोग करना भी आसान नहीं है। कोई व्यक्ति कंगाल या करोड़पति पैदा नहीं होता। सामंतवाद और पूंजीवाद ने गरीबी का उत्पाद भव्य पैमाने पर किया। परिश्रम और प्रतिभा गुल खिलाती है परंतु समान अवसर तो महज एक आदर्श है। यथार्थ अत्यंत निर्मम है।

रूस में जार के आलीशान महल थे, सामंतवादी ऐश्वर्य उपलब्ध था। महान क्रांति के बाद कुछ लोगों को उन महलों में रहने का अवसर मिला और संगमरमरी महलों में बिछे कालीन के नीचे से भ्रष्टाचार के कीटाणु निकले और साम्यवाद जैसा महान विचार ही ध्वस्त हो गया।

हमारा गणतंत्र भी एक तरह से सामंतवाद के द्वारा पहने मुखौटे की तरह काम करता रहा है। भारतीय राजनीति भी जंगल में पड़ी बांसुरी की तरह है परंतु 'हवा' कुछ ऐसी बना दी गई है कि उस बांसुरी से सामंतवाी प्रवृत्तियों के मनभावन सुर ही निकल रहे हैं। अब इंतजार करें कि बांसुरी कभी विद्रोह की मुद्रा अख्तियार कर ले।