जंगल से गायें नहीं लौटीं / जयप्रकाश चौकसे

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जंगल से गायें नहीं लौटीं
प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2013


सन् १९४७ में स्वतंत्रता के समय जनता के मन में गुलामी से मुक्ति का अपार आनंद था तो देश के विभाजन का अवसाद भी था, गोया कि अलसभोर वाली बात थी। आज ६६ वर्ष पश्चात भी जनता के मन में स्वतंत्र होने का थोड़ा-सा आनंद है और आर्थिक विभाजन तथा क्षेत्रीय विभाजन की संभावनाओं का अवसाद भी है, गोया कि ६६ वर्ष लंबे इस दिन का प्रारंभ अलसभोरनुमा था तो दिनांत भी गोधूली की तरह है, जिसमें धूल के बवंडर हैं और सच तो यह है कि सुख की आकांक्षा की गायें तो जंगल से लौटी नहीं, परंतु गोधूली-सी धुंध वातावरण में है। जिन बच्चों को गायों के लौटने से दूध मिलने की आशा थी, वे निराश हैं कि फिर खाली पेट सूनी आंखों में नींद कैसे आएगी तथा दूसरी ओर आयात किए महंगे डिब्बों से आहारयुक्त दूध पीने वाले बच्चे पिज्जा खाकर अलमस्त हुए जा रहे हैं। इस देश की कुंडली में ही आनंद और अवसाद के ग्रह एक साथ मौजूद हैं।

थोड़े-से लोगों के लिए ६६ वर्षों में बहुत परिवर्तन हुए हैं, परंतु अधिकांश जाने कैसी परिवर्तनहीनता से ग्रसित हैं कि घूरे के भी दिन फिरते हैं, परंतु इन साधनहीन लोगों के लिए समय स्थिर है। आज लाल किले पर झंडा फहराया गया है, परंतु हर भारतीय अपने मन के जलसाघर में झंडा नहीं फहरा पा रहा है। उसके मन में तो डंडा गड़ा है, जिस पर ध्वज ही नहीं है। गौरतलब यह है कि क्या झंडा फहराने वालों के दिल में कोई खुशी है या सिर्फ रस्म-अदायगी हो रही है। आम जनता भी सोचे कि यह डंडा उसके हृदय में किसने गाड़ा है, वह कौन है जो ध्वज चुराकर ले गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह ध्वज किसी लावारिस की लाश पर कफन के रूप में डाला गया है। हर आदमी सोचे कि एक समानता तथा न्याय आधारित स्वतंत्र देश का सपना किसने लूटा, कौन कातिल है? सुविधाजनक जवाब तो यह है कि सारे राजनीतिक दल और नेता जवाबदार हैं, परंतु सच्चाई यह है कि आम आदमी भी कम दोषी नहीं है। उसने भी अवसर मिलने पर देश को लूटा है। भ्रष्टाचार विरोध का झंडा उठाने वालों ने अवसर मिलने पर भ्रष्ट आचरण किया है। यह कितना भयावह है कि केवल मजबूरी में ही आदमी ईमानदार है। हम सब सिर्फ तमाशबीन हैं।

आज हमारे बेटे-बेटी के नन्हें हाथों में छोटे-छोटे ध्वज हैं, जिनमें से कुछ यकीनन चीन में बने हैं, परंतु यह हमें सोचना है कि क्या ये बच्चे उसी तरह के वातावरण में जवां होंगे, जिसे हमने भोगा है? क्या हम इनके बेहतर अवसरों के लिए कुछ नहीं करना चाहते?

आज सब तरफ शोर है कि दीमक लगी व्यवस्था चरमरा गई है, परंतु दीमक केवल नेताओं और अफसरों ने नहीं बनाई है, अवाम की इसमें भागीदारी और मौन स्वीकृति है। आज जो भ्रष्ट व्यक्ति एक हजार की घूस खा रहा है, कल उसके बच्चों को दस हजार चुकाने होंगे। अपनी गंदी कमीज को नेता, अफसर या व्यवस्था की खूंटी पर टांगना आसान और सुविधाजनक है। अपने गुनाह कबूल करके बेहतर इंसान बनना कठिन है। मार्क तुली की नई किताब कहती है कि विकास का मॉडल ही गलत है, क्योंकि कोई इमारत का निर्माण शिखर नहीं, नींव से प्रारंभ किया जाता है। हमारी दोषी शिक्षा प्रणाली का लाभ भी चुनिंदा लोगों को मिला, परंतु शिक्षा गरीब, मजदूर और किसान को मिले, इसकी कभी परवाह नहीं की गई। हमने अपने दिल को जलसाघर बनाया, जबकि ठोस जमीन पर झंडा फहराया जाता है। अब हम डंडों से खेल रहे हैं, ध्वज चोरी चला गया, गायें भी नहीं लौटीं।