जंगल / गोवर्धन यादव
आखिर करें भी तो क्या करें बिसेस्सर। किसे सुनाए अपने दिल का दुखड़ा? अपनी पत्नि को? बच्चों को? अपने मित्रों को या फिर पड़ोसियों को? सब की सब कन्नी काट जाते हैं। सबके पास अपने-अपने बहाने हैं।
वह आखिर चाहता क्या है? किसी को जानने की उत्सुकता नहीं है। वह क्यों, रात जागकर गुजार देता है ? उसके कलेजे में छायी दुःख भरी बदली क्यों गरजते-बरसते रहती है ? किसी के पास फुर्सत हो तब न ! कितना व्यस्त हो गया है आज का आदमी। उसके पास यदि कोई कमी है तो वह समय की कमी है। कितना टोटा हो गया है समय का, आदमी के पास। सामने से आते दोस्त भी उसे आता देखकर, अपना रास्ता बदल लेते हैं। ऐसे कठिन समय में , आखिर करें भी तो क्या करें बिसेस्सर !
एक दिन उसकी पत्नि ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए तथा अपनी नर्म-नाजुक उॅंगलियों से बालों को सहलाते हुए, उसकी पीड़ा को जानने की कोशिश की थी। बड़ा अच्छा लगा था उसे उस वक्त। कोई तो है, उसके दिल का हाल पूछने वाला ष्सोचते हुए वह भावुक हो गया था और उसके सीने से चिपक गया था। उसके कलेजे में, वर्षों से जमें हिमखण्ड पिघल कर बहने लगे थे।
चालीस-बयालिस साल का वह अधेड़, एकदम बच्चा बन गया था, उस समय। अपनी व्यथा-कथा सुनाते हुए वह अपने अतीत की तीस बरस घाटी उतरने लगा था और उसके चारों ओर स्मृतियों का बीहड़ जंगल ऊग आया था।
सारी बातों को गंभीरता से सुन चुकने के बाद उसकी पत्नि ने अफसोस जताते हुए कहा था-ष्तीस बरस का समय कम नहीं होता। यदि वे जीवित होते तो अब तक लौट आते अथवा चिट्ठी-पत्री से अपना कुशलक्षेम लिख भेजते। आदमी इतना पत्थर-दिल नहीं होता कि उसे अपनी जन्मभूमि याद न आए। मेरी मानो तो आप बच्चों को लेकर गयाजी चले जाओ। उनका पिण्ड-दान करा आओ। उनकी आत्मा को शांति मिलेगी और आपकी भी।
पत्नि की सपाट बयानी पर उसे बेहद क्रोध आया था। सुनते ही वह उबलने लगा था। उसका चेहरा तमतमाने लगा था। पैर पटककर यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ था- ष्तुम भी औरों की तरह सोचती हो। मेरा भाई जिंदा है। देखना-एक दिन वह लौट आएगा।
टोह लेने की गरज से एक दिन, अपने दोनों बेटों को बुलाया। पास बिठाया और पूछा कि वे क्या सोचते हैं। बेटे जानते थे कि पिता अपने भाई के बारे में वह सब कुछ सुनना नहीं चाहेंगे, जो वे कहना चाहते हैं। जवाब तो आखिकार उन्हें देना ही था। शब्दों को तौलते हुए बड़े बेटे ने कहा- पिताजी... अतीत को अतीत ही रहने दें और वर्तमान को जिएं। जो पीछे छूट गया, सो छूट गया। अब, हम सबके बारे में सोचिए जो आपका वर्तमान तो है ही और भविय भी। ऐसा कहते हुए उसने अपना नन्हा- सा बेटा उसकी गोद में डाल दिया था।
शब्दों की जादूगरी वह समझ रहा था। वह यह भी समझ रहा था कि उसका मंतव्य क्या है।
निराशा भरी नजरों से उसने अपनी मिचमिचाती आँखों से आसमान को देखा। हमेशा की तरह निर्मल-शांत और अपना नीलापन लिए आसमान एकाएक मटमैला हो गया था। हवा का चलना एकदम बंद हो गया था और आसमान में उड़ रही गिद्ध-चीलें अधर में लटक गए थे।
निराशा और हताशा के बीच की एक पतली सी सुराख के बीच से गुजरते हुए, आखिरकार उसने एक ऐसे व्यक्ति को खोज निकाला जो न तो भाग सकता था, न जिसे भूख सताती है न ही प्यास और न ही वह पेशाब जाने का बहाना बताकर रफुचक्कर हो सकता था।
उसने एक आदमकद आईना खरीद लिया और अपने शयन-कक्ष में लगा लिया था। वह आईने के पास बैठकर सामने बैठे व्यक्ति से अपनी पीड़ा उजागर कर देता था। जानता है ! वह उसका अक्स है ! उसकी प्रतिच्छाया ! लेकिन कोई तो है उसकी सुनने वाला ! अपनी बात पूरी तरह कह चुकने के बाद वह पूरी तरह, अंदर से खाली हो जाता ! ऐसा करते हुए वह प्रसन्नता से भरने लगता था।
उसे अब भी याद है। भैया रामेस्सर के इस तरह चले जाने के बाद उसके वृद्ध माता-पिता पर क्या गुजरी थी। माँ तो जैसे विक्षिप्त सी हो गई थी। वह कुछ बोलती-बतियाती नहीं थी और हमेशा रोती ही रहती थी। वह अक्सर कहती-मेरे राम-लक्ष्मण की जोड़ी बिछुड़ गई। पिता कहते-मेरी अजोध्या राम के बगैर सूनी हो गई। बावजूद इसके वे माँ को समझाने का प्रयास करते। माँ कहती- कैसे भूल जाऊॅं? कैसे कह दूँ कि वह मेरे शरीर का हिस्सा नहीं था। कैसे भूल जाऊॅं कि मैंने उसे अपनी कोख में नहीं पाला।
कुछ दिन बाद पिता ने अपने आपको एक कमरे में कैद कर लिया था। वियोग के विशधर की फुंसकार से उनका गोरा बदन काला पड़ गया था।
पिता अक्सर यह कहते सुने गए थे शरीर एक बार बिगड़ जाए तो उसे सुधारा जा सकता है। एक से बढ़कर एक डॉक्टर मौजूद हैं इस देश में। अगर मन एक बार दबका खा जाए, तो उसे सुधारना बहुत मुश्किल है। कहते हैं कि इसकी दवा हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी। सबको सीख देने वाले पिता का मन भी दबका खा गया था।
बिसेस्सर जब भी गहरी नींद में होता है, वह तीस साल पुरानी घटना, सपना बनकर आँखों के सामने घूमने लगती है, ठीक सिनेमा की रील की तरह। एक-एक पल, एक-एक क्षण जीवन्त हो उठते हैं। कभी जब वह अचेतन अवस्था में रहता है, तब उसे कुछ भी याद नहीं रहता। यदि नींद खुल गयी तो जागती आँखों से वह सब देखता-सोचता रहता है क्योंकि यही तो वह क्षण होते हैं जब भाई की स्पष्ट छवि देखी जा सकती है।
उसके सपने में उभरता है एक गाँव। गाँव के किनारे बहता चमारनाला, जहाँ उसके पूर्वज मरे ढोरों के शरीर से चमढ़ा उतारा करते थे। उसके परदादा एक कुशल चर्मकार थे। उन्होंने उस समय के तत्कालीन जमींदार को एक ऐसी अनोखी जूती बनाकर दी थी जिसे जरूरत पड़ने पर कागज की तरह मोड़कर जेब में भी रखा जा सकता था। उसकी कलात्मक नक्काशी और बेलबूटे बनाने में पूरे छैः मास लग गए थे।
जमींदार ने ख़ुश होकर चमारनाले से लगी भूमि बक्षीस में देते हुए कहा था कि वह यह देखना चाहता है कि एक कलाकार उस अभिशप्त एवं उजाड़भूमि को अपने कौशल से किस तरह संवारता है। उसके परदादा ने न सिर्फ कड़ी मेहनत की थी, बल्कि अपने परिश्रम से उसे खेती लायक भी बना डाला था। उस समय से वह भूमि उनके अधिकार में थी।
देश आजाद हुआ। गाँव एक औद्योगिक नगर में तब्दील होने लगा। जमीन की कीमत आसमान छूने लगी। अब जमींदार के वंशज लाठी व रूतबे के दम पर वह जमीन हथियाना चाहते थे।
गर्मी के दिन थे। गेहूँ कटाई के बाद खलिहानों में रख दिया गया था। उड़ानी होनी बाकी थी। खेत खाली थे। बच्चे गिल्ली-डण्डा खेलने में व्यस्त थे। उचित अवसर जान लठैतों ने उसके पिता को घेर लिया और खेत छोड़कर भाग जाने की धमकी दी। बात जब नहीं जमी तो खलिहानों में आग लगा दी गई। लाठियाँ बरसायी जाने लगी। आग की लपटों व चीत्कार की आवाज सबसे पहिले बिसेस्सर ने देखा था। वह इतना ही कह पाया था- भइया... रामेस्सर आग! आग की लपटें अपने विकराल रूप में थी।
रामेस्सर बिसेस्सर से मात्र चार साल बड़ा था लेकिन अल्पवय के बावजूद वह कद्दावर था और बलिष्ठ भी। उसकी चाल में चीते की सी छलांग थी। पलभर में वह वहाँ जा पहुचा था। उसने देखा। जमींदार का पोता उसके पिता को भद्दी-भद्दी गालियाँ देकर लात-जूतों से पीट रहा है। देखते ही उसका खून खौल उठा था। उसने निशाना साधकर एक बड़ा सा पत्थर उसकी ओर उछाल दिया था। पत्थर निशाने पर पड़ा था और वह जमीन पर गिरा तड़प रहा था। शायद उसकी खोपड़ी चटक गई थी। फिर उसने एक लठैत से लाठी छीनकर वार करना शुरू कर दिया था। कुछ तो भाग खड़े हुए थे। कुछ जमीन की धूल चाट रहे थे। इस बीच पुलिस भी आ गई थी। इस बार भी बिसेस्सर चीखा था-भइया पुलिसहूँ और वह भाग खड़ा हुआ था।
स्मृति के बतौर यह वही घटना है, जिसे उसने अपनी आँखों से देखा था और अंतिम बार अपने भाई की सूरत। वह बार स्मृतियों में इस घटना को दोहराता है ताकि भाई की वह छवि देख सके।
एक लम्बे मुकदमे को वह जीत चुका था। आज उस जमीन की वजह से उसके पास आलीषान बंगले-मोटर गाड़ियाँ, बैंक-बैलेंस व नौकर-चाकरों की फौज है। बावजूद इसके नाथ होते हुए भी अनाथ। माँ-बाप को तो वह खो ही चुका था। एक भाई की आस थी। वह भी दुनिया की भीड़ में न जाने कहाँ खो गया था। तीस बरस बीत गए। न तो वह लौटा, न ही उसकी कोई चिट्ठी-पत्री आयी। उसे अब भी विष्वास है कि एक दिन वह लौट आएगा।
एक सुबह! वह जल्दी उठ बैठा और अपने बागीचे में चला आया था। भोर की उजास अभी फैलना बाकी थी।
उसने देखा! एक व्यक्ति लंगड़ता हुआ उसकी ओर आ रहा है। नजदीक आते ही उसने ऊॅंची आवाज में कहा- भइया बिसेस्सर-देख तेरा भाई लौट आया है। हूँ खून ने खून को पहचान लिया था। सपना टूटा और एक धूमिल बिम्ब स्पष्ट होता जा रहा था।
वह लौट आया था।
दोनों भाई एक-दूसरे में लिपटे रहे। आँसुओं की धारा बहती रही और मौन संवाद चलता रहा।
आशाओं का मृतप्रायः जंगल लहलहाने लगा था तथा मधुमास की मादक गंध फैलने लगी थी। चौदह साल से दो गुणा वनवास काट कर राम, अपनी अजोध्या में लौट आए थे। परिवार का हर छोटा-बडा प्राणी, अपने दादाजी के चरणों में नतमस्तक था।
देर रात तक बिसेस्सर अपनी तीस साला कहानी दुहरा रहा था। जमीन के प्रकरण से लेकर अपने माता-पिता के करूण-अंत तक की कहानी, उसने एक सांस में कह सुनायी थी।
अब रामेस्सर की बारी थी। घर छोड़ने से घर बसाने तक की दास्तान उसने कह सुनाया था। सारा कुनबा अपने दादा की बातों को परीलोक की कहानी की भाँति सुन रहा था।
सारी राम-कथा सुनने के बाद बिसेस्सर ने, अपने भाई से कहा कि वह अपनी सीता-सी भाभी व बच्चों को लेकर यहाँ आ जाए। बात आगे बढ़ाते हुए उसने यह भी कहा कि जमीन-जायजाद में आज भी उसका हिस्सा है।
सारी रात दोनों भाई बातें करते रहे और रात मोमबत्ती की तरह सुलगती और पिघलती रही।
आठ-दस दिन कैसे बीत गए। पता ही नहीं चला।
रामेस्सर अब लौट जाना चाहता था। उसे अपनी-बीवी और बच्चों की याद सताने लगी थी। वह तो उतावली में बिना बताए ही घर से निकल गया था। उसके भाई ने उसके बिछोह में तीस साल कैसे बिताए होंगे ? कल्पना मात्र से वह सिहर उठा था। चूंकि वह मर्द था, आघात सहता रहा लेकिन एक औरत अपने पति के वियोग में तो तत्काल जान ही दे देगी। बच्चों का क्या होगा ? रामेस्सर के मन में एक विचित्र आँधी सक्रिय होने लगी थी। वह हर हाल में लौट जाना चाहता था।
बिसेस्सर जिद लगाए बैठा था कि अब वह किसी भी कीमत पर उसे जाने नहीं देगा। उसने कोर्ट से स्टॉम्प-पेपर खरीद लाया था और चाहता था कि भाई को उसका हिस्सा सौंप कर, शेश जीवन निःश्चिन्तता से बिताएगा।
रात का सन्नाटा पसरा पड़ा था। रामेस्सर खर्राटें भर कर सो रहा था। बिसेस्सर के बड़े बेटे ने धीरे से बगल में सोते अपने पिता को जगाया और कमरे में ले आया, जहाँ उसकी माँ-छोटा भाई व बहुएं पहले से ही बैठे हुए थे।
बिसेस्सर का दिमाक ठनका था। इतनी रात गए, इस तरह बुलाने का मतलब ? शंका-कुशंका की घनी बेलें उसके शरीर में तेजी से लिपटने लगी थी और चिन्ता की मकड़ी, उसके चेहरे पर जाल बुनने लगी थी।
एक कुर्सी में धंसते हुए उसने धड़कते दिल से पूछा कि इतनी रात गए, इस तरह बुलाने का मतलब ? सभी के म्लान चेहरों पर नजरें घुमाते हुए उसने पूछा था।
बड़े बेटे ने पहल करते हुए कहा। कहते हुए उसके चेहरे पर तनाव की परछाई स्पष्ट देखी जा सकती थी। वह तैश में था। वह तल्खी के साथ बोला था। बोलते समय उसका शरीर कांप भी रहा था।
पिताजी ... यह क्या पागलपन मचा रखा है आपने? क्या जरूरत है उन्हें हिस्सा देने की? लाखों-करोड़ों की जमीन आप मुफ्त में दे देंगे ! इस जमीन को लेकर आपने कितने कष्ट सहे हैं। हफ्तों भुखमरी की मार झेली है। इन्होंने किया ही क्या था? सारी मेहनत तो आपने की है। कोर्ट-कचहरी के चक्कर आपने लगाए हैं और आप इतनी बड़ी जायजाद तश्तरी में रख कर अपने धोखेबाज भाई के चरणों में रखने जा रहे हैं। हम चुप नहीं बैठेंगे। हम अपने जीते-जी ऐसा होने नहीं देंगे।
जली-कटी बातें सुनकर बिसेस्सर को लगा कि असंख्य बर्र-मक्खियों ने उस पर हमला बोल दिया है और दंशों के निशान पूरे शरीर पर उभर आए है। उसे ऐसा भी लगा कि उसके कपड़े जबरिया उतार दिए गए हैं ओर उसे तपती रेत पर लिटा दिया गया है और आसमान से उतरकर चीलें और गिद्ध उसके शरीर से मांस-पिण्ड नोंच रहे हैं।
उसका दम घुटने लगा था। वह वहाँ और ज्यादा देर तक रूक नहीं सका था। तेजी से पलटते हुए वह उस कमरे में चला आया था, जहाँ उसका भाई सो रहा था।
उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। वह हैरान व हतप्रभ था, देखकर कि उस कमरे में उसका भाई मौजूद नहीं है। उसे बिस्तर पर न पाकर उसका कलेजा धौंकनी सा धड़कने लगा था।
उसने बारी-बारी से सभी कमरों की तलाश कर डाला। वह वहाँ नहीं था। पागलों की तरह चीखता हुआ- भैया तुम कहाँ हो?हूँ वह बाहर निकल आया था।
रात्रि अपने अन्तिम पहर की बची-खुची सॉंसें ले रही थी। दुर्गम-गहन अंधकार की परतों से टकरा कर उसकी आवाज लौट आयी थी।
स्वर्ण-नगरी में राम तुम रह भी कैसे सकते थे हूँ बुदबुदाते हुए वह वापिस लौट आया।
स्मृतियों का बीहड़ जंगल, तेजी के साथ फैलता जा रहा था।