जंगल / सच्चिदानंद राउतराय
इस जंगल का कोई ख़ास नाम नहीं। पूरा इलाका ही करमल कहलाता है। फिर भी स्थानीय लोग पास वाले हिस्से को बेरेणा-लता कहते हैं। नटवर फॉरिस्ट-गॉर्ड बनकर इधर आया है। दो वर्ष में ही यहाँ अच्छी तरह आसन जमाकर बैठ गया है। जंगल के ठेकेदार के साथ उसकी सुलह है। कुचला का ठेका लिया है, लेकिन बड़े-बड़े साल, पी-साल काटकर ट्रक में भर ले जाते हैं। सुना तो यहाँ तक जाता है कि नटिया मोटी रकम लेकर उन्हें छोड़ देता है या फिर जाली चालान दे देता है, यह बात रेंजर बाबू से कई बार कही जा चुकी है। कितनी ही रिपोर्ट ऊपर भेजी गई हैं, लेकिन कुछ नहीं होता। लोगों का कहना है कि नटिया की जेब में हैं ऊपर वाले। हालाँकि जंगल इसी बीच साफ़ होता जा रहा है। कोई उसका बाल बाँका नहीं कर सकता। नटिया रूपास गाँव में चाय की दुकान के आगे बेंच पर बैठा चाय पीते-पीते मूँछों पर ताव देता है - "देखेंगे, कौन साला मेरा क्या बिगाड़ लेगा! इस लट्ठ से खोपड़ा खोल दूँगा।"
उस गाँव का डाकिया भ्रमर पर अधिक नाराज़ है। कभी-कभी सोचता है- पीट-पीटकर मार डालूँ और लाश लेकर जंगल में फेंक आऊँ। किसी को पता भी नहीं चलेगा। थाने में जमादार बाबू के साथ बैठ-उठ है उसकी। एक-दो बार बुलाकर थाना-बाबू ने लकड़ी की चोरी के बारे में पूछताछ की है। नटिया की कैफियत से वे सन्तुष्ट हैं - ।
भ्रमर ने नटिया के दूर के रिश्ते की मौसी की जाएी बहन से ब्याह किया है। सुलोचना को घर लाने की बहुत इच्छा थी। इसके लिए उसने कुछ भी उठा नहीं रखा। शरधा जीजी, केलू बाबा आदि को बीच में रख दामा पुहाण बाबा को बहुत समझाया। लेकिन उसकी वह लफंगाई आदत, उसके बेढ़ंगे स्वभाव को देखकर माँ-बाप या सुलोचना कोई राजी नहीं हुए। फिर भी वह कभी-कभी ठेका या बदले में काम कर लेता है। कोई फॉरिस्ट गार्ड छुट्टी पर जाए तो महीने दो महीने उसकी जगह काम कर लेता है, फिर वही बेकार का बेकार!
नटिया ने उस दिन सुलोचना को पोखर के पास धमकाया था, "देखता हूँ, तुझे कौन ब्याहता है? मैं ठिकाने बिठा दूँगा!" आज तक सुलोचना भूली नहीं है वह बात! नटिया की भंगिमा और आवाज़ कभी-कभी याद आ जाती है तो वह घबरा-सी जाती है।
नटिया बनाम नट, बनाम नटवर की मोटी-मोटी बाघ-जैसी मूँछें, उन पर चिपटी नाक और हड़ीले गाल देखकर कोई भी डर जाएगा। बचापन से ही सुलोचना को उससे कोफ्त रही है। फिर उसकी टेढ़ी-मेढ़ी आदत, कड़ा मिजाज़ और उस पर उसका आगे बढ़कर मामलातकार बनने की आदत - शुरू से ही उसके प्रति मन में घृणा भर चुकी है। अब तो लम्बे-लम्बे बालों और मूँछों की कली के कारण तो एकदम अजीब लगता है।
उस दिन गाँव में यात्रा (मेला) हो रही थी। जखरा ऑपेरा पार्टी 'कंसासुर-वध' स्वांग (एक तरह का नाटकीय प्रदर्शन) रच रही थी। भ्रमर और सुलोचना गाँव में स्वप्नेश्वर महादेव के मन्दिर के प्रांगण में यह स्वांग देख रहे थे। नट भी एक पिक्का सुलगाये हुए यात्रा देख रहा था। बीच-बीच में जब सखी का कोई गाव-गीत आता तो वह अश्लील टिप्पणियाँ करने से नहीं चूकता। यात्रा खत्म होने के बाद धक्कम-धक्की करते सब लोग भीड़ में लौट रहे थे, सुलोचना को लगा, बायीं ओर पीछे से किसी ने हाथ बढ़ाया है। कसकर उसे भींचकर भीड़ में कहीं गायब भी हो गया। चीखती-सी उसने भ्रमर को आवाज़ दी। भ्रमर कुछ कदम पीछे छूट गया था। उसने दौड़कर आगे आकर पूछा, "क्या बात है?"
आगे नटिया जा रहा था। उसे दिखाकर इशारा किया। भ्रमर ने जाकर पीछे से नटिया को धर पकड़ा। नटिया बहाना बनाते हुए बोला, "क्या क्या बात है? किसके बदले किसे पकड़ रहे हो?"
दोनों में तू-तू मैं-मैं हो रही थी - कुछ लोग इकठ्ठा हो गए। आखिर बीच-बचाव हुआ। नटिया और भ्रमर दोनों ने एक दूसरे को कहा - "ठीक है, देख लेंगे!"
तब से सारे गाँव में यह बात फैल गई कि नटिया और भ्रमर में ठन गई है। जल्दी ही कुछ घटेगा!
दो दिन बाद। हाट वाले दिन मदन साहू की दुकान के आगे नटिया ने सबको सुनाकर कहा, "मैं उसका खून पी जाऊँगा।" उधर भ्रमर भी कुछ दूर काँसा-पीतल की दुकान के आगे सना बेहरा को सुनाकर कह उठा, "मैंने उसे खत्म न कर दिया तो मेरा नाम भ्रमर साहू नहीं!"
क्रमश: दिन बीतते गए। लोग-बाग धीरे-धीरे नट-भँवरे के झगड़े-झंझट की बात भूल गए। छह-सात महीने निकल गए इसी तरह। एक दिन भोर तड़के ही सुलोचना जंगल की ओर से दौड़ी-दौड़ी हाँफती-सी आकर घर में घूसते ही अचेत! भँवरा और कुछ युवक उधर पास खड़े बतिया रहे थे। दौड़ आए, किसी तरह सुलोचना को होश में लाए। पूछा, "बात क्या हुई?" सुलोचना ने बताया, "साँझ तक बछिया जब नहीं आई तो ढूँढ़ने मैं जंगल की ओर गई थी। कोई झुरमुटे से निकल अचानक आ झपटा। खींचा-तानी चली। आम के पेड़-तले खींचता ले गया। जान बचाकर किसी तरह भागी गिरती-पड़ती आ गई। बाबरानियाँ काँटों का बोझ लिए जंगल से लौट रही थीं। उन्होंने भी हल्ला मचाया। मगर वह तो अँधेरे में भाग छूटा।'
"कौन था वह?" सबने एक स्वर में पूछा।
"नटभाई!" सुलोचना ने धीरे से कहा।
बस भँवरा के सिर भूत सवार। फरसा लेकर नटिया के घर की ओर तेज़ी से चल पड़ा। साथ ये चार-पाँच छोकरे। हाथ में लाठी लिए ये भी लैस। नटिया पिछवाड़े बाड़ी में से होते हुए जंगल में भाग गया। आठ-दस दिन तक गाँव में दिखाई ही नहीं पड़ा। इसके बाद जब गाँव लौटा तो भँवरा उसकी ताक में रहने लगा।
गाँव में काना-फूसी हुई - बस अब दो में से कोई जाएगा। गाँव के नाले के पुल पर बैठा पैर हिलाते हुए नट कह रहा था - सबको सुना सुनाकर, "अब की देख लँूगा उसे!" भँवरा भी महादेव मन्दिर के आगे सबको सुनाकर कह आया, "उसे जब तक ज़िन्दा न जला दिया, चैन से नहीं बैठूँगा।"
गाँव में कुछ युवकों में चर्चा चली - देखना है, अब पहले कौन किसे खत्म करता है। भगवान ही जानें।
बरसात शुरू हो गई है। बिजली और बादलों की गड़गड़ाहाट से सारा जंगल काँप उठा। मसाशुणी नदी और गाँव में घुटनों तक पानी। उधर जटिया पहाड़ के सिरे से धीरे आकर चारों ओर भर रही है। बाँस का बेड़ा बनाकर लोग आवाजाही कर रहे हैं। गाँव के बीच में ऊँचे टीले पर दाल, चावल, सब्ज़ी लाकर रसोई पका रहे हैं। लोगों के घरों में पानी भर गया है। हर वर्ष कुछ दिन गाँव वालों को यही सब भोगना पड़ता है। सबके घर एक-एक डोंगी बाहर वाली छान से बँधी होती है। गाँव में बाढ़ का पानी घुसने पर लगातार छ:-सात दिन इधर-उधर डोंगी से ही जा-आ पाते हैं - यहाँ तक कि निकट के अड़ोस-पड़ोस में भी। बाढ़ के साथ आती है महामारी, खाँसी-सर्दी, बुखार, हैजा - । टीले पर छोटा-सा स्वास्थ्य-केन्द्र है। कोई-कोई डोंगी में जाकर वहाँ से दवादारू से आता है। कोई मर जाए तो "जै गंगा मैया! तेरी शरण..." कह बहा देते हैं। बरसों के बाद परवल, गोभी, टमाटर, बैंगन आदि खूब होते हैं। परवल तो पच्चीस पैसे किलो हो जाती है। गाँव वाले सब्ज़ी लाकर कटक में डेढ़ रुपए किलो में बेचते हैं। फागुन-चैत में फूलों की महक, आम और बकुल की सुगन्ध से समुचा जंगल बौरा जाता है
सारा जंगल ऐसी बरसा-हवा में दुलक रहा है। रात होते ही अंधेरे में पेड़-पौधे कुछ नहीं दिखते। सब मिलकर अंधेरे का अंश बन जाते हैं। जीवन का जैसे निशान भी नहीं रह जाता। कहीं कोई संकेत नहीं रह जाता।
जंगल में भी बाढ़ का पानी भर गया है। साँप, गीदड़, सियार, हिरण वगैरह पानी की धार में आकर गाँव के किनारे लगते या उस अकूत जल में बह जाते।
बरसा कुछ थम गई थी। नट एक डोंगी में बैठा जंगल की ओर चल पड़ा। साथ लिये है छाता और लालटेन। आज उसकी चेक-गेट पर ड्यूटी है। गेट के पास की गुमटी में वह खिड़की - दरवाज़ा सब बन्द कर बैठ गया है। आँधी-बरसा का मौका देख कंट्राक्टर का ट्रक भी जंगल में घुस आया। बड़े-बड़े साल के पेड़ काटेंगे, लादकर भरा ट्रक लेकर लौटेंगे। नट पेड़ की कटाई की आवाज़ सुन रहा है। लेकिन वह कर भी क्या सकता है इस समय? क्रमश: ट्रक आकर चेक-गेट के पास रुका। ऊपर से बाँस की रुकावट उठाने के लिए हॉर्न बजाया। नट ने अनसुना कर दिया। अचानक दो-तीन कुली उतर आए ट्रक से। नट को घसीट लाए। चाबी माँगी। मगर नट ने चाबी नहीं दी। कहा, "रात में गेट खोलने की इज़ाज़त नहीं है। रेंजर बाबू ने मना कर रखा है, सवेरे आकर चक्कों की लीक देखेंगे - मेरी नौकरी गोल हो जाएगी। बिना 'पास' के मैं गेट नहीं खोल सकता।"
नट की कसकर पिटाई कर दी गयी। बेहोश कर गेट तोड़ ट्रक लेकर भाग निकले। तब रात के दो बज रहे थे। आस-पास कोई लोग-बाग नहीं। जंगल साँय-साँय कर रहा था।
सुबह डोंगी में बैठ भँवरा निकला, गाँव में डाक बाँटने के लिए। फॉरिस्ट रेंजर की डाक अधिक होती है। जाकर चेक-गेट की गुमटी की खिड़की में झाँका। देखा, नट बेहोश पड़ा है! बस, गों-गों कर रहा है! दोनों जबड़े खून में सने हैं। मुँह लाल हो गया है। मक्खियाँ भिनभिना रही हैं।
किवाड़ पर धक्का मारा। नट न हिला न डुला। कुछ उठाया, कुछ घसीटा, फिर डोंगी पर लिटाया। ले चला गाँव के स्वास्थ्य-केन्द्र की ओर - गाँव के बीच वाले टीले के पास। और फिर डॉक्टर बाबू के जिम्मे सौंपकर चल पड़ा चिठ्ठी बाँटने के लिए।
कई घण्टों बाद नट को होश आया। डॉक्टर बाबू से सारी बातें सुनकर उसे कानों पर विश्वास नहीं हुआ। भँवरा का ऋण कैसे उतारूँ? पिछली बातें - झगड़ा-फसाद सब भूल गया।
कुछ दिन बाद की बात है। मोहनी साहू ने भँवर से कहा, "कहना, नटिया आया था। वह तो बस तेरे ही गुण गा रहा था। बोला - 'भँवरा भाई ने मेरी जान बचा ली। जीवन में उसका ऋण कभी नहीं चुका सकूँगा!'
भँवरा का मन खूब नरम हो गया। फिर भी कहीं भेंट हो जाने पर नटिया से बात करने में उसे संकोच होता।
नट भी दिल खोलकर उससे बातचीत नहीं कर पाता। दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर अपने-अपने रास्ते चले जाते।
महीने दो महीने बाद नटिया ने सुना - साइकल वाला समेसर कह रहा है, "भँवरा ने तेरे लिए क्या कुछ नहीं किया। भगवान ने इतनी बड़ी विपद से बचा लिया! जाको रखे साइयाँ, बाल न बाँका होय!"
नट सब सुनता रहता। मगर भँवरा को बुलाकर कुछ कह नहीं पाता। भँवरा भी सब सुनता रहता, मगर नट को कुछ नहीं कह पाता। बस, आमने-सामने पड़ते तो दोनों के चेहरे पर ज़रा-सी मुस्कान खिल उठती।
ऐसे ही कुछ महीने बीत गए। उस दिन नटिया ने बस्ती में सुना - सुलोचना पेट से है। दो महीने बाद वह माँ बन जाएगी!
रेंजर बाबू ने उस दिन हिरन मारा था। नटिया को बुलाकर उसे दो किलो मांस दिया। पता नहीं, उसके सिर में क्या सनक चढ़ी, जाकर भँवरा के दरवाज़े हाजिर! सुलोचना और भँवरा बरामदे में बैठे बतिया रहे थे। नटिया अनायास कह उठा - "भँवरा भैया! सुलू बहन! ये मिरग-मांस तुम रखो। तरकारी बना लेना। मुझे रेंजर बाबू ने दिया है।"
भँवरा और सुलोचना दोनों के होठों पर हल्की-सी मुस्कान बिखर गई - "सारा ही क्यों दे रहे हो?" नटिया ने ठहाका लगाया, " मेरे क्या काम का? मैं तो मुरारी बाबा के होटल का ग्राहक हूँ। मेरे लिए भला कौन पकाएगा?
"भँवरा ने कहा, "नाटिया रे! तुम ऐसा करो आज रात हमारे घर खाना खा लेना। न्योता रहा।" सुलोचना तो लाज में गड़ गई। एक बार नाटिया के चेहरे की ओर देखकर मुँह नीचा कर लिया। नाटिया ने कहा, "ठीक है। बहिन के घर से न्योता मिला है, कोई कैसे मना करेगा? मगर कहाँ, बहिन तो कुछ बोलती नहीं।" सुलोचना तो लाज में सिमिट गई। फिर थोड़ी हँसकर कह उठी - "हाँ-हाँ, तू आज हमारे घर खाना खाएगा नट भैया!"