जगन्नाथ पुरी / यशपाल जैन

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बाबा के साथ सुबोध हाबड़ा स्टेशन से जगन्नाथपुरी के लिए रवाना हुआ। वहां से पुरी को सीधी रेल जाती है। गाड़ी में बड़ी भीड़ थी। बाबा ने देखा कि जानेवालों में देश के सभी भागों के लोग है तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होने सुबोध से कहा, 'बेटा, सबके अलग-अलग धरम होते है, अलग-अलग देवी-देवता होते है, फिर यह क्या बात है कि इतने धर्मो के लोग एक ही तीरथ करने जा रहे है?"

सुबोध ने कहा, "बाबा, हमारे तीरथों की यही तो महिमा है। वे दूरी नहीं जानते, न धरमों का फरक मानते है। फिर पुरी तो हमारे चार धामों में से एक है। पुराने लोग बड़े होशियार थे। वे चाहते थे कि हमारे देश का हर आदमी अपने देश को देखें, देश के लोगों को देखें, उन्हें जाने और प्यार करें। सो उन्होनें तीरथ बनायें। वे जानते थे कि हमारे देश में धरमवाले लोग है। तीरथ के नाम पर कहीं से कहीं पहुंच जायंगें। लोग सारे देश में घूम ले, इसलिए उन्होंने चार छोरों पर बड़े तीरथ बनाये। उत्तर में बदरीनाथ (ज्योतिपीठ) दक्षिण में रामेश्वर (श्रृंगेरी पीठ) पश्चिम में द्वारका और पूरब में जगन्नाथ पुरी (गोवर्धन पीठ)"

बातचीत करते रात हो गई तो लोग ऊंघने लगे और इधर-उधर सिर टिकाकर सो गये। घने अंधेरे को चीरती, शोर मचाती, रेल आगे बढ़ती रही।

बड़े तड़के लोगों की आंख खुली तो देखते क्या है कि रेल किसी लम्बे पुल पर से गुजर रही है। सुबोध ने कहा, "उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी महानदी का पुल हम पार कर रहे है।" नदी का पाट काफी चौड़ा था और उसकी धारा बड़ी तेज थी।

आगे गाडी किसी बड़े स्टेशन पर रूकी तो सुबोध ने कहा, "यह कटक है। पहले उड़ीसा की राजधानी यही थी। अब भुवनेश्वर है।"

बाबा बोले, "भुवनेश्वर भी तो बड़ा तीरथ है?"

सुबोध ने कहा, "हां, बाबा, वहां तो मंदिरों की भरमार है। इसीसे लोग उसे 'मंदिरों की नगरी' कहते है। वहां का सबसे बड़ा मंदिर लिंगराज का है।"

किसी ने पूछा, "अब पुरी कितनी दूर रह गई है।"

सूबोध ने कहा, " यहां से खुरदा रोड़ स्टेशन है २९ मील। वहां से पुरी २८ मील रह जाती है। कोई ५७ मील समझों। यहां से पुरी की बसें भी जाती है। हमारे पास रेल का टिकट न होता तो बस से चलते। सड़क के रास्ते पुरी कुल ५३ मील है।"

दोपहर की गाड़ी पुरी स्टेशन पर पहुंची। स्टेशन से शहर मील-भर है। सुबोध और बाबा ने एक तांगा किया और उसमें बैठकर बस्ती में गये। उन्होंनें पता लगा लिया था कि बस्ती में दूधवालों की धरमशाला खुली और साफ-सुथरी है। सीधे वहीं गयें। भीड़ काफी थी, फिर भी उन्हें एक कमरा मिल गया।

कमरे में सामान जमाकर बाबा और पोते समुद्र में स्नान करने चले। बाजार में घूमते, बड़े मन्दिरो को दूर से देखते, मील भर का रास्ता तय करके वे समुद्र पर पहुंचे। किसी ने बताया, इस स्थान को 'स्वर्गद्वार' कहते हैं।

बालू का किनारा दूर-दूर तक फैला था और किनारे-किनारे छोटी-बडी बहुत सी इमारतें बनी थीं। वहींके एक आदमी ने कहा, "यह नगर दो भागों में बंटा हुआ है। एक तो शहर की बस्ती है, जिसके उत्तर में माटिया नदी बहती है, पश्चिम में परगना चौबीस कूद है, पूरब में परगना है और दक्खिन मे यह समुद्र है। दूसरा भाग जिस पर हम खड़े है, बालूखण्ड़ कहलाता है। यह पूरब में चक्रतीरथ से शुरू होकर पश्चिम में यहां स्वर्गद्वार तक फैला हुआ है। यहां की अच्छी आबोहवा के कारण बहुत-से लोगों ने समुद्र के किनारे-किनारे अपने मकान बनवा लिए है। राजभवन भी इसी भाग में बना हुआ है।"

दोनों ने स्नान किया। फिर धरमशाला में लौटने पर वे अपने भीगे कपड़े सूखने डाल रहे थे कि एक पंडा आकर उनके पीछे पड गया। बोला, "मैं आपको यहां के सब मन्दिर दिखा दूंगा और पूजा करा दूंगा।"

थोड़ी देर बाद वे लोग सबसे जगन्नाथजी का मन्दिर देखने चले। पंडे ने कहा, "बाबाली, जिनके मन्दिर में हम जा रहे है। इनकी कहानी आपने सुनी है? किसी जमाने में यहां पुरी में जंगल ही जंगल था। बीच में नीलाचल नाम का एक पहाड़ था। उसके ऊवपर कल्पद्रुम था। उसके पश्चिम में रोहिणी कुंड था, जिसके किनारे विष्णु की मूरत थी। वह नीले रंग की थी। इससे उसे नील-माधव कहते थे। एक बार सूर्यवंशी राजा इंद्रद्युम्न को उस मूरत की खबर मिली। यह राजा मालव प्रदेश के अवंती नामक नगर में राज्य करते थे। राजा ने उस मूरत की खोज में चारों और ब्रह्मण भेजे; लेकिन दैवयोग से किसी को भी उसका पता न लगा। उनमें एक ब्रह्मण था विद्यापति। वह पूरब को गया और तीन महीने तक बराबर चलता रहा। चलते-चलते वह शबरो के देश में पहुचा। शबर वहां के मूल निवासी थे। भील समझो। वहां वह विश्व बसु नाम के एक भील के घर में ठहरा।"

"वह भील रोज जंगल में जाया करता था और कुछ फूल और फल इकट्ठे करके चुपचाप कहीं चढ़ा आता था। एक दिन की बात कि उसकी लड़की ने कहा, अपने मेहमान को भी साथ ले आओ। विश्व बासु ने इनकार कर दिया, लेकिन जब लड़की बहुत पीधे पड़ी तो वह इस शर्त पर राजी हो गया कि ब्रह्मण की आंखों पर पट्टी बांधकर ले जायगा, जिससे वह वहां पहुंचकर भगवान के दर्शन तो कर ले, लेकिन उसे यह पता न लगे कि किस रास्ते आया है।

"पर ब्राह्मण बड़ा चतुर था। उसने एक थैली में अपने साथ सरसों ले ली और रास्ते का निशान करने के लिए उसे बिखेरता गया। नीलाचल पर पहुंचकर भील तो फल-फूल इकट्ठे करने चला गया, ब्राह्मण ने नील-माधव के दर्शन किये। उसी समय उसने देखा कि एक कौवा पेड़ पर से गिरा और सीधा स्वर्ग को चला गया ब्राह्मण के मन में आया कि वह ऐसी ही गति प्राप्त करे। यह सोचे जैसे ही उसने पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की कि आकाशवाणी हुई, ओ ब्राह्मण तू यह क्या कर रहा है? अपने काम को भूल गया! जा, पहले अपने राजा को खबर दे कि तूने मूरती का पता लगा लिया है।

"इसी बीच भील फल-फूल देकर लौट आया। पर जब उसने उन्हें चढ़ाया तो रोज की भॉँति भगवान ने उन्हें ग्रहण नहीं किया। भील बड़ी हैरानी में पड़ा। वह क्या करे! उसी समय उसने एक आवाज सुनी, मैं तुम्हारे फल फूल खाते-खाते तंग आ गया हूं। मुझे पके हुए चावल और मिठाई खिलाओं। आगे से अब मैं तुम्हें नील-माधव के रूप में नहीं, बल्कि जगन्नाथ के रूप में दिखाई दूंगा।

भील ने घर लौटकर ब्राह्मण को अपने घर बहुत दिन तक कैदी बना कर रखा, जिससे वह किसी को भेद न बता दें; लेकिन एक दिन जब उसकी लड़की ने कहा सुना तो उसने जाने की छूट दे दी।

ब्राह्मण अपने राजा के पास आया और उन्हें सारा हाल कह-सुनाया। राजा को बड़ी खुशी हुई और वह अपने साथ बहुत से लोगों को लेकर बड़े अभिमान से नीलाचन की और चला। उसके अहंकार को देखकर भगवान को बड़ा क्रोध आया। उसी समय आकाशवाणी हृई, हे राजा, तू मेरा मन्दिर तो बना देगा, पर उसमें तुझे मेरे दर्शन नहीं होगे। इसके बाद नील-माधव की मूरती वहां से गायब हो गई। राजा बड़ा निराश हुआ। उससे भगवान को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। तब एक दिन आकाशवाणी हुई, मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न हूं। तू किसी दिन विष्णु के दर्शन करेगा, मूरती के रूप में नहीं, काठ के रूप में।

"राजा इन्द्रद्युम्न दर्शनों की आशा में वहीं नीलाचल पर बस गया। अचानक वह देखता क्या है कि समुद्र मे एक बहुत बड़ा काठ बहा आ रहा है। राजा ने उसे निकलवाकर उसकी विष्णुमूर्ति बनवाने का निश्चय किया। उसी समय बूढ़े बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा प्रकट हुए। वह मूर्ति बनाने के लिए राजी हो गये, लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी और वह यह कि जिस घर में वह मूर्ति बनवेंगे, उसका दरवाजा जब तक वह कहें नहीं तब तक न खोला जाय।

इसके बाद काठ को लेकर वह गुंडीचा-मंदिर के स्थान पर एक भवन में बन्द हो गये। काफी दिन निकल गये। एक दिन महारानी ने राजा से कहा, स्वामी, वह बूढ़ा भूख-प्यास से मर गया होगा। जरा दरवाजा खोलकर उसकी हालत देख लेनी चाहिए। राजा नपे रानी की बात मानकर द्वार खुलवाया। बढ़ई वहां नहीं था। जगन्नाथ, सुभद्रा की बलराम की अधूरी मूर्तिया थीं। राजा को यह देखकर बड़ा दु:ख हुआ कि वे मूर्तिया पूरी न हो सकी। उसी समय आकाशवाणी हुई, हे राजन, आप चिंता न करें, हम इसी रूप में रहना चाहते है। मूर्तियों पर रंग- रोगन कराके मंदिर में प्रतिष्ठित करा दो। मूर्तियां गुंडीच-मंदिर के पास बनाई गई थीं, इसलिए गुडीचा मंदिर को ब्राह्म-लोक या जनकपुर कहते है। यह है जगन्नाथजी की कहानी।"

इतने में मंदिर आ गया। पंडे ने कहा, "यही यहां का सबसे बड़ा मंदिर है। यह दो परकोटों के भीतर है और इसके चारों और चार बड़े-बड़े द्वार है।"

जिस द्वार से वे लोग मंदिर में घुस रहे थे, उसके सामने एक ऊंचा स्तंभ दिखाकर पंडे पने बताया, "यह अरूण स्तंभ है, जोकोणार्क से लाकर यहां स्थापित किया गया है।"

सिंहद्वार से प्रवेश करके तीनों जने पहले परकोट में पहुंचे। द्वार से ही उन्हें जगन्नाथजी की छवि दिखाई दी। पंडे ने कहा, "जो लोग मंदिर में नहीं जा सकते, वे यहीं से जगन्नाथजी के दर्शन कर लेते है।"

आगे उन्हें एक छोटा-सा मंदिर दिखाई दिया। पंडे ने कहा, "इसमें विश्यवनाथ लिंग है। इसकी कहानी यह है कि एक ब्रह्माण काशी जाना चाहता था। जगन्नाथजी ने सपने में उससे कहा कि इस लिंग की पूजा करें। उसे विश्वनाथ के पूजन का फल मिल जायगा।"

इसके बाद उन्हें पच्चीस सीढ़िया चढ़नी पड़ीं। पंडा ने कहा, "ये सीढ़िप्रकृति के पच्चीस विभागों की सूचक मानी जाती है।"

दूसरे परकोटे के दरवाजे में घुसने से पहले दोनों ओर को बाजार-सा लगा था। पंडे ने बताया, "ये भगवान के प्रसाद की दूकानें है। इनपर उबला चावल मिलता है।"

अब वे दूसरे परकोटे के भीतर आये। कितना विशाल था वह मंदिर! कितना सुन्दर। नीचे से ऊपर तक शिखर तक देखकर ऐसा लगता था कि देखते ही रहो! पंडे ने तीन स्थान दिखायें। उनमें पहला अजारनाथ गणेश का था, दूसरा बटेरा महादेव का और तीसरा पटमंगादेवी का। उनके पास ही सत्यनारायण थे। पंडे ने कहा, "इनकी पूजा सारे धर्मो के लोग करते है।"

थोड़ा आगे एक वटबृक्ष मिला, जिले कल्पद्रुम कहते है। तीनों ने उनकी परिक्रमा की ओर उसके नीचे बालमुकंद के दर्शन किये। फिर सिद्वगणेश-मन्दिर देखा। उसके पास ही सर्वमंगला तथा दूसरी देवियों के मंदिर है।

इस परकोटे के भीतर और भी कई स्थान है। जगन्नाथजी के मंदिर के सामने मुक्ति मंडप है, जिसे ब्रह्मासन कहते है। पंडे ने बताया, " किसी समय में यज्ञ के चप्रधान आचार्य स्वंय ब्रह्मा यहां बैठे थे। पर अब विद्वान् ब्राह्माण बैठते है।"

मुक्ति मंडप के पीछे मुक्तिनृसिंह का मंदिर है। उसके पास रोहिणी कुण्ड और विमलादेवी का मंदिर है। यह यहां का शक्तिपीठ है

आगे सरस्वती तथा लक्ष्मी के मंदिर है, जिनके बीच नील-माधव का मंदिर है। उन्हीं के निकट जगन्नाथ जी का छोटा सा मंदिर है। उसके पास भुवनेश्वरी देवी का। पंडे ने कहा, "इन देवी की पूजा इस प्रदेश के शाक्त लोग किया करते है।"

थोड़ा आगे बढ़ते ही एक मंदिर में लक्ष्मी, शंकराचार्य तथा लक्ष्मीनारायण की मूर्तिया है। इस मंदिर में जगमोहन में कथा होती है और शास्त्र पढ़े जाते है।

पंडे ने कहा, "मैं एक बात बताना भूल गया। हमारे देश में सैकड़ों

साल पहले एक ऋषि हुए थे। उनका नाम शंकराचार्य। उन्होने देश के चारों कोनों पर चार मठ बनाये। एण्क मठ यहां भी बनाया जों गोवर्धन मठ कहलाता है। इसीलिए यहां मन्दिर में शंकराचार्य की मूर्ति है।"

लक्ष्मीजी के मन्दिर के पास ही सूर्य-मन्दिर है। उसमें सूर्य, चन्द्र और चन्द्र की छोटी-छोटी मूर्तिया है। उन्हें दिखाते हुए पंडे ने कहा, "कोणार्क के मंदिर से सूर्य की मूर्ति लाकर यहीं छिपाकर रखी गई है। कोणार्क इस प्रदेश का एक बहुत बड तीर्थ है।

गोवर्धन-मठ

वहां सूर्य भगवान का बहुत पुराना मंदिर है। पैदल समुद्र के किनारे-किनारे जाओ तो वह १८-१९ मील होगा। बस से जाओ तो पचास मील से कुछ ऊपर पड़ता है।"

आगे पातालेश्वर महादेव का मंदिर और उत्तरामणिदेवी की मूरती है। उनके पास ही ईशानेश्वर का मंदिर है। इनको जगन्नाथजी का मामा कहा जाता है। फिर नंदी की मूर्ति है, जिससे 'गुप्तगंगा' की धारा निकलती है।

यहां एक द्वार के सामने खड़े होकर पंडा ने कहा, "लो बाबा, अब हम जगन्नाथजी के मंदिर के सामने आ गये। इस द्वार को बैकुण्ठ-द्वार कहते है। इसके पास वैकुण्ठेश्वर का मंदिर है।"

जय-विजयद्वार में जय-विजय की मूर्तियां है पंड़े ने कहा, "इनके दर्शन करके और इनकी आज्ञा लेकर भीतर जाते है।" इस द्वार के पास जगन्नथजी का भण्डार-घर है।

वे जगमोहन में पहुंचे। वहां उन्हें गरूड़-स्तंभ मिला। पंडा ने बताया कि चैतन्य महाप्रभु यही से जगन्नाथजी के दर्शन करते थे।

अब वे सोलह फुट ऊंची और चार फूट चौड़ी के सामने खड़े थे। पंडे ने कहा, "यह जो सामने आप तीन मूर्तियां देखते है, ये जगन्नाथजी, सुभद्रा तथा बलरामजी है। श्यामवर्ण मूर्ति जगन्नाथजी की है, बीच में सुभद्रा है और इधर बलराम। वेदी पर का छ: फुट लम्बा चक्र सुदर्शन-चक्र है। उसके पास छोटी-छोटी मूर्तियां नील-माधवन, लक्ष्मी और सरस्वती की हैं।"

बाबा ने कहा, "तुमने कहानी में सुनाया था कि बूढ़ा बढ़ई गायब हो गया था और मूर्तियां अधूरी रह गई थीं। यही वे मूर्तियां है क्या?"

पंडा ने जबाब दिया, "हां, बाबा, ये वही मूर्तियां है। इनके हाथ पूरे नहीं है और मुख-मंडल भी अधूरा है।"

वेदी ने तीन ओर परिक्रमा करने के लिए तीन-तीन फुट चौड़ी जबगह थी।

बाहर आकर बाबा ने मुड़कर एक निगाह मंदिर पर डाली तो ठिठक कर रह गये। मंदिर पर बड़ी-छोटी, कई नंगी मूर्तिया थीं। -नंगी ही नहीं, ऐसी कि जिन्हें देखने में शरम आये। बाबा ने पंडी की ओर देखा। पंडा ने कहा, "बाबा, यह नहीं कहा जा सकता कि ये मूर्तिया किसने और कब बनवाई, लेकिन यह बहुत दिनों से है। यहां ही नहीं, और भी बहुत-सी जगहों पर है। कोर्णाक के मंदिर में भी ऐसी सैकड़ों नहीं, हजारों मूर्तिया है। अग्निपुराण और बतसंहिता में लिखा है कि ये मूर्तियां मंदिरों को बिजली, तूफान आदि से बचाने के लिए गई थीं। बहुत से विद्वान भी यही बात कहते ह। बच्चों को नजर लगाने से बचाने के लिए माताएं उनके माथे पर दिठौदा लगा देती है न! ऐसा ही कुछ यह किया गया है।"

बाबा ने सुबोध ने उनकी बात सुन तो ली पर जचीं नहीं। पंडा बोला, "जरा मंदिर की सजावट को तो देखो। नीचे से ऊपर तक कैसी कारीगरी की चज बनाई है! यह कोई मामूली बात नहीं है।

बात करते-करते वे लोग मंदिर के घर के बाहर आ गये।

सुबोध बाजार से एक किताब खरीद लाया था। धरमशाला में लौटकर उसने उसे पड़ा और बाबा से बोला, "बाबा, हमारे पुराणो में इस जगह की बड़ी महिमा बताई गई है। इसके कई नाम है। पुरी, नीलाचल, पुरूषोत्तम, श्रीक्षेत्र, शंखक्षेत्र आदि-आदि। अंग्रेजो के जमाने में इसे जगन्नथपुरी कहते थे और यहां के कलक्टर जगन्नाथ के कलक्टर कहलाते थे। स्कन्दपुराण के उत्कल खण्ड में इसका नाम पुरूषोत्तम-क्षेत्र दिया हुआ है। उसमें लिखा है कि बहुत से देवताओं को बिठाकर नैमिषारण्य में विष्णु भगवान ले इस जगह की महिमा का वखान किया था। पांचवी सदी में यहां बोद्धर्म का जोर हुआ; लेकिन बुद्व भगवान के कोई हजार बरस बाद फिर हिंदुओं का भाग्य चेत गया। सातवीं सदी तक क्या हुआ, इसका कोई खास पता नहीं चलता। लेकिन केसरी-वंश का खात्मा होने पर जब गंग-वंश के राजा राज करने लगे तो इस स्थान की बड़ी उन्नति हुई। गंग-वंश भीमदेव ने जो किया, वह भूला नहीं जा सकता।"

बाबा ने पूछा, "क्या किया था उसने भैया?"

सुबोध बोला, "बाबा, उसके हाथो एक ब्राह्मण की हत्या हो गई थी। उसका प्रायश्चित करने के लिए उसने बहुत से मंदिर बनवाये। जगन्नाथजी का यह मंदिर भी उसी के राज में बना। सन् ११९८ में यह पूरा हुआ। पिछले दिनों तक ताम्रपत्र मिला है, तो मंदिर की प्रतिष्ठा में भाग लेनेवाले एक ब्राह्मण को दिया गया था। उसपर जो तारीख दी गई है, उससे मंदिर के बनने की तारीख पक्की होती है।

"बाद के सालो में कई मुसलमान बादशाहों ने इस मंदिर पर हमले किये; पर उनकी जड़ नहीं जम सकीं। फिर जब मराठो का राज हुआ तो उन्होने इसके लिए कुछ आमदनी बांध दी। अंग्रेजो के जमाने में मंदिर के मामले में किसी तरह का दखल न देने की दखल की नीति रखी गई; लेकिन सरकार की यह इच्छा रही कि उसका प्रबंधए अपने हाथ में रखे। इसके लिए मुकदमें-बाजी हुई पर अंत में समझौता हो गया और यहां के प्रबंध की जिम्मेदारी गैर-सरकारी लोगों के हाथी में रही।"

अगले दिन सबेरे ही पंडा आ गया। वह पहले तो उन्हें जगन्नाथजी के मंदिर में ले गया। वहां दर्शन और पूजा करके वे दूसरे तीर्थो को देखने चले। बड़े मंदिर के सामने रास्ते पर कोई मील-डेढ़ चलने पर वे गुंड़ीचा-मंदिर पहुंचे।

रास्तें में मार्कण्डेय-सरोवर, गुंडीचा का मंदिर उसके पास मार्कण्डेश्वर का मंदिर और चंदन तालाब भी देख लिये। गुंडीचा मंदिर पर जाकर पंडा ने कहा, "यहीं पर विश्वकर्मा ने जगन्नाथजी आदि की मूर्तिया बनाई थी। अब इस मंदिर में रथ-यात्रा के समय जगन्नाथजी विराजमान होते है। बाकी समय में कोई मूर्ति नहीं रहती।"

मंदिर के उत्तर पूर्व में इन्द्रद्युम्न-सरोवर है पंडा ने बताया कि यह उन राजा के नाम है, जिन्होने विश्वकर्मा से मूर्ति बनवायी थीं।

जगन्नाथजी के मंदिर के दक्खिन-पश्चिम में कपाल मोचन तीर्थ देखते हुए वे एमारमठ पहुंचे, तो जगन्नाथ के मंदिर के बड़े द्वार के सामने है। पंडा ने कहा, "शंकराचार्य की तरह एक और बड़े संत हमारे देश में हुए है। उनका नाम था रामानुजाचार्य। उनका एक नाम 'एम्बाडीयम्' था। इसी नाम पर इस मठ का नाम पड़ा है। रामानुज यहां आये थे और कुछ दिन इसी जगह पर रहे थे।"

वहां से तीनो की टोली गंभीर-मठ पहुंची। यह मठ बड़े मंदिर से स्वर्ग-द्वार यानी समुद्र जानेवाले रास्ते पर एक गली में पड़ता है। चैतन्य महाप्रभु यहां अठारह साल रहे थे। पहले यह काशी मिश्र का भवन था। चैतन्य के रहने पर गंभीर मठ कहा जाने लगा और अब उसे राधाकांत-मठ कहते है। उसमें घुसते ही राधाकांत-मंदिर है, जिसमें राधा-कृष्ण की बड़ी सुन्दर मूर्ति है। अंदर जाकर गंभीरा मंदिर है। वह कोठरी भी है, जिसमें चैतन्य महाप्रभु अठारह साल रहे थे। उनका चित्र, चरणपादुका, कमण्डलु, गुदड़ी, माला आदि देखकर बाबा का दिल भर आया।

कुछ आगे ले जाकर पंडा ने कहा, "यह सिद्धबकुल है। यहां पहले छाया नहीं थी। चैतन्य महाप्रभु ने यह देखकर यहां बकुल (मौलिश्री) की दातौन गाड़ दी। उसी से यह पेड़ बन गया।"

फिर श्वेत-गंगा-सरोवर और श्वेत केशव मंदिर देखकर वे गोवर्धनपीठ पहुंचे। पंडा ने कहा।, "आपको मैंने बताया था कि शंकराचार्य ने भारत के चार छोरो पर चार मठ बनाये थे। यह उन्हीं में से एक है। देखिये, वह मूर्ति शंकरार्चा की है।"

फिर वे समुद्र की ओर बढे। स्वर्ग द्वार के पास पहुंचकर पंडा ने कहा, "तीरथ संतों को बड़े प्यारे होते है। देखियें, यह पाताल-गंगा नाम का कूप है। यहां आकर कुछ दिन कबीर रहे थे।"

गंभीरा-मठ में चैतन्य प्रभु के खड़ाऊँ, कमण्डल और गूदड़ी

दाहिनी ओर आध मील पर हरिदास की समाधि दिखाते हुए पंडा ने कहा, "यह सब जगह है, जहा चैतन्य महाप्रभु ने स्वामी हरिदास के शरीर को समाधि दी थी।"

फिर वे तीनों मील-भर चलकर तोटा गोपीनाथ पहुंचे। पंडा ने कहा, "यह जो रेत का टीला है, इसे चटकगिरि कहते है। इसी में चैतन्य महाप्रभु को गिरिराज गोवर्धन के और समुद्र में कालिंदी के दर्शन हुए थे। इस गिरि की रेती में ही चैतन्य को गोपीनाथ की मूर्ति मिली थी। कहते है, यह मूर्ति पहले खड़ी थी। वह इतनी ऊंची थी कि उसके सिर पर पाग नहीं बांधी जा सकती थी। इससे पूजा करनेवालों को बड़ा दु:ख होता था। यह देखकर गोपीनाथ जी बैठ गये। भक्तो का कहना है कि चैतन्य महाप्रभु इसी मूर्ति में लीन हो गये। मूर्ति में सोने की रेखा दिखाई देती है, वहीं चैतन्य के लीन होने की निशानी बताई जाती है।"

वहा से आधा मील पर लोकनाथ महादेव का मंदिर और उसके पास शिव-गंगा सरोवर देखते हुए वे माधवेंद्रपुरी के कूप पर पहुंचे। पंडे ने कहा, "इस जगह ही श्री माधवेन्द्रपुरी तथा चैतन्य महाप्रभु करा सत्संग हुआ था।"

रेल के स्टेशन से कोई आधा मील पर उन्होने हनुमानजी के मंदिर के दर्शन किये। हनुमानके पैरो मे बेड़िया पड़ी हुई थी। उनकी और इशारा करते हुए पंडे ने कहा, "कहते है कि समुद्र पुरी के भीतर न बढ़ आये, इसलिए भगवान ने हनुमान को यहां नियुक्त किया था। लेकिन एक बार हनुमानजी रामनौमी का उत्सव देखने अयोध्या चले गये। इस पर भगवान ने उनके पैरों में बेड़िया डाल दीं, जिससे वह फिर कभी नजा सकें।"

बेड़ी हनुमान के मंदिर के सामने ही समुद्र के किनारे पर चक्रनारायण का मंदिर है। कुछ सीढ़िया चढ़कर भगवान के दर्शन होते है। यह मंदिर पुराना लगता है, अब टूट-फूट रहा है। वहीं समुद्र के किनारे चक्रतीर्थ है। पंडे ने कहा, "जगन्नाथ की कहानी सुनकर मैंने आपको बताया था कि एक बड़ा काठ समुद्र में बहकर आया था और उसे निकलवाकर राजा इंद्रधुम्न ने जगन्नाथली की मूर्ति बनवाई थी। यह वही जगह है, जहां वह काठ किनारे आकर लगा था।"

बेड़ी हनुमान मंदिर के पास ही सोनार गोरांग है। इस मंदिर में चैतन्य महाप्रभु की सोने की बड़ी सुन्दर मूरती है।

जगन्नाथजी के मंदिर से कोई आधा मील की दूरी पर हनुमानजी का मंदिर है। पंडे ने कहा, "छोटे-बड़े हर तीर्थ की कोई-न-कोई कहानी है। कहते है, समुद्र के गर्जन से सुभद्रा की नींद भंग होती थी। इसलिए भगवान ने यहां हनुमानजी को नियुक्त किया कि कान लगाकर सुनते रहो कि यहां तक समुद्र की आवाज तो नहीं आती है।"

इसके बाद उन्होंने और कई स्थान देखें। फिर वे महाप्रभु की बैठक पर पहुंचे। पंडे ने कहा, "यहां स्वामी वल्लभाचार्य आये थे।" इसके उपरांत उन्होने नानक-मठ देखा। वहां गुरूनानक पधारे थे।

वे तीन दिन वहां रहे। रोज समुद्र में स्नान करते, बड़े मंदिर में दर्शन और पूजन करते और दिन में वहां के तीर्थ और मंदिर देखते। फिर वे लोग खुश-खुश अपने नगर को लौट आये।