जटायु, खण्ड-12 / अमरेन्द्र

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"धीरो, सभा में मौगी-मरद के हौ भीड़। जवान छौड़ा-छौड़ी, अधवैसू बूढ़ोॅ के हौ बाढ़ हम्में सब भूली जाँव, मजकि मंचोॅ पर हौ दिन बेल-बूटा वाली कारोॅ-कारोॅ साड़ी में जे रँ दीपा फवी रहलोॅ छेलै, ऊ हमरोॅ आँखी में घुमतेॅ रहतौ...हम्में कुछु बोलै छियै तेॅ शनिचर डाँटी दै छै, यही लेॅ नैं बोलै छियै, मजकि कुछु कहें, विधाता छै किस्मत के विधाता। है जे शनिचर के आकाशोॅ में ग्रहण लागी गेलोॅ छै नी, एकरोॅ कारणो यहेॅ छेकै कि चाँद-सूरज सामना आवी गेलोॅ छै। दीपा आरो विधाता के एक जग्घोॅ में होवोॅ ही शनिचर केॅ शनिचर के फेरा लगाय देनें छै...खैर जावेॅ दे ई सब बातोॅ केॅ...एखनी शनिचर, परफुलवा, विपना केॅ आवै में देरी छौ आरो ई जग्घोॅ एकदम्में सुनसान छौ...तोंहें कहलें छेलैं नी-जोन दिन कांही सुनसान मिलतौ, ऊ मंत्रा बताय देव्हौ। आय तोंहें ऊ मंत्रा बताय दे। हम्में आपनोॅ काम में जों सफल होलियौ तेॅ जानी ले, ऊ तोरोॅ भौजाय तेॅ बनिये जैतौ, हम्मू तोरोॅ जिनगी भर के गुलाम-मंतर सिखाव, आयकोॅ खैवोॅ-पीवोॅ के खरचा हमरोॅ तरफ सें, बस।" ढीवा नें धीरेन्द्र के दोनो हाथ पकड़लें बड़ी गिड़गिड़ैलोॅ सुरोॅ में कहलकै।

"देख ढीवा, वचन देलेॅ छियौ, यै लेली बताय रहलोॅ छियौ, मतरकि है केकरोॅ बतैय्यैं नें, विद्या तेॅ जैवे करतौ, गुरू-आदेश के उल्लंघन करला सें औरदौ जैतौ। आबेॅ कान लगाय केॅ मंत्रा सुन-ओं क्लीं कामेश्वर रूप आनन आनय वसतां क्लीं...आरो हों; है मंतर-सिद्धि वास्तें तोरा कदम्बे फूल के माला पर जाप करै लेॅ लागतौ, आरो हों, यहेॅ मंतर सें एक हजार होमो करै लेॅ लागतौ...यही मंतर पढ़ी केॅ जबेॅ तोंहें कदम्ब के एक फूल सांवली केॅ दै देभैं, तेॅ बस समझी ले, ऊ जिनगी भर वास्तें तोरोॅ गुलाम बनी जैतौ।" धीरेन्द्रें फुसफुसैतेॅ रँ सब समझैलेॅ छेलै।

शुरू-शुरू में विद्या पावै के क्रम में जे चमक ढीवा के चेहरा पर दिखी रहलोॅ छेलै, ऊ तुरन्ते खतमो होतेॅ दिखलै। बड़ी मरुवैलोॅ सुरोॅ में वैं कहलकै, "तोंही बोलैं, आबेॅ एखनी कदम्ब के फूल कहाँ सें लानवै, महिना भरी तेॅ देर ज़रूरे भै जैतै। कोय हेनोॅ रस्ता बताव कि कल के बदला आइये सें जाप शुरू करी दियै।"

"एक रस्ता आरो छौ।"

"की? जल्दी बताव।" ढीवा के बोली में बड़ी व्यग्रता छेलै।

"औल-बौल नैं हुएँ। स्थिर सें सुन...पैहिनें तेॅ ई मंतर याद रख-ओं घिरि-घिरि काम देवाय तस्मै स्वाहा-याद भेलौ?"

"हों-ओं घिरि-घिरि काम देवाय तस्मै स्वाहा।"

"हों। आबेॅ आगू सुन। यही मंतर पढ़ी केॅ कबूतर के एगो पंख मोॅद में पिसी केॅ तोरा साँवली केॅ खिलाय दै लेॅ लगतौ। फेनू तेॅ समझें, ऊ तोरोॅ किंछा के विपरीत जावै नैं पारेॅ। आरो जों यहू नें हुएॅ पारौ तेॅ एक काम करियैं-मरद के खोपड़ी हासिल करी, वहीं में काजल बनाय केॅ केन्हौं ओकरोॅ आँखी में लगाय दियैं, फेनू तेॅ तोहरोॅ चाहल्हौ पर ऊ तोरा सें अलग नैं हुएॅ पारेॅ।"

"सच? सच कहै छैं? ई मंतर कभियो बंकार नैं जावेॅ पारेॅ?" जेना ढीवा केॅ केन्होॅ विश्वासे नें हुएॅ पारी रहलोॅ छेलै कि हेनोॅ सस्ता विधि सें कोय युवती केकरो गुलाम बनी जावेॅ पारेॅ? वें फेनू आपनोॅ विश्वास लेॅ पुछलकै-"की ठिक्के कहै छैं धीरू आकि हमरा फुसलाय रहलोॅ छैं।" कहतें-कहतें ढीवा के मुँहोॅ पर हजार-हजार भाव उतरी ऐलोॅ छेलै।

"ढीवा, जे मंतर आरो विधि बताय देलियौ, ओकरा सें खाली सांवलिये केॅ की, पचास-पचास केॅ मोहित करी केॅ राखै पारैं। ई धीरेन्द्र शर्मा के मंत्रा छेकै, खाली जाब्है नै पारेॅ।"

"की ढीवा, ई कथी के खुशी चेहरा पर छौ, कहीं कुछू मिली गेलोॅ छौ की।" नें जानौ कखनी शनिचरा पीछू सें हुब सना आवी केॅ ऊ दोनो के लगीच खाड़ोॅ भै गेलोॅ छेलै। बेनियो राम साथें छेलै। जेकरोॅ आवाज सुनत्हैं ढीवा आरो धीरो दोनो हड़बड़ाय गेलोॅ छेलै, जेना आपनोॅ घरोॅ के सामना कोय हठाते पर पुरुख खाड़ोॅ देखी केॅ जनानी हड़बड़ाय उठेॅ। हालाँकि डोॅर तेॅ दोनो केॅ यही बातोॅ के छेलै कि वें गुप्त विद्या नैं सुनी लेलेॅ रहेॅ, पर बात के बदलतें आपनोॅ हड़बड़ैवोॅ छुपाय वास्तें ही दोनों एक्के साथें बोली पड़लै, "धुर मरदे, चोरोॅ हेनोॅ आवी केॅ टोकै छैं। प्राणे निकली जाय।" फेनू प्रसंग केॅ एकदम सें बदली दै के ख्यालोॅ सें ढीवां कहनें छेलै, "है महासभा के बाद आबेॅ की सोचलेॅ छैं शनिच्चर? साथें-साथ बैठी केॅ निश्चिन्तोॅ सें यहू बताव कि हमरा सिनी केॅ की करना छै।"

"है तोहें केना सोची लेलैं कि रुपसा में एक्के साथ दस गाँव उमड़ी पड़लै आरो हम्में कुच्छु सोचलेॅ नें होव्है।" शनिचरां बेनी केॅ बैठैतें आरो आपनो बैठतें हुएॅ कहना जारी रखलकै, "जबेॅ बेराजनीति के आदमी विधाता एत्तेॅ बड़ोॅ राजनीति करेॅ पारेॅ, भले कमरूद्दीनमे के चलतें, तेॅ शनिचर तेॅ राजनीतिये के आदमी छेकै...अबकी तेॅ हौ राजनीति करना छै कि विधातौ केॅ जिनगी भर वास्तें सोचै लेॅ होतै।"

"जरा हम्मू सुनियै-ऊ राजनीति छेकै की?" धीरो आरो ढीवा एक्के साथ संभली केॅ बैठतें हुएॅ पुछलकै।

"देखें ढीवा, हमरोॅ वास्तें ऊ सभा के कोय माने नें छै। मतलब हमरा एक्के बातोॅ सें छै कि जों चानन के ऊ हिस्सा में विद्यापीठ खुली जाय छै, तेॅ है सोची ले कि रातो वहाँ पहरेदारी लागले रहतौ, है कहैं कि लगैलोॅ जैतै, आरो फेनू विधाता-दीपा के भाषण तेॅ सुनभे करलैं कि जंगल काटैवाला केना पकड़लोॅ गेलै। दोनों के भाषण के संकेत हम्में नी समझै छियै...पर विधाता केॅ है मालूम नें छेलै कि ओकरे भाषण शनिचर वास्तें रास्तो बनाय रहलोॅ छै।" ई कहतें-कहतें शनिच्चर जोर-जोर सें हाँसी पड़लै। कुछु देर ताँय ऊ हाँसते रहलोॅ छेलै, ठीक होने, जेहनोॅ कि ऊ भीष्म या रावण के अभिनय में मंचोॅ पर हाँसतेॅ ऐलोॅ छेलै। फेनू अनचोके आपनोॅ हँसी केॅ रोकतें हुएॅ कहना शुरू करनें छेलै, "ढीवा, याद छौ, विधाता की बोललोॅ छेलै-जंगल कैन्हें कटी रहलोॅ छै? यै लेली कि शरणार्थी बसैलोॅ जाय रहलोॅ छै। बस समझी ले विधाता के सब चाल तोड़ी दैके यही होतै एक महामंत्रा! इन्द्रजाल! महाजाल! ओकरे अस्त्रा सें ओकरे व्यूह खत्म।" शनिचर फेनू ठहाका लगैनें छेलै।

"हम्में तोरोॅ बात नें समझेॅ पारलियौ।" ढीवां आचरजोॅ सें कहनें छेलै।

"समझवै कहाँ सें ढीवा। जिनगी भर तेॅ रहलैं मोटोॅ बुद्धि के जातोॅ साथें ...जे जात राजनीति करलकै, पढ़ी-लिखी केॅ पंडित भेलै, ओकरा तेंॅ गालिये देतें कटलोॅ समय। बुद्धि कहाँ सें ऐतौ। आय शनिचर केॅ है जादव-पट्टी, कादर-पट्टी, कोयरी-पट्टी, साहू-पट्टी सें जादा मान-प्रतिष्ठा बभन-पट्टी आरो कैथ-पट्टी आरनी में छै। कैन्हें? कथी लेॅ? आय शनिचर गाली दै केॅ नैं, संगति करी केॅ सब्भे गुण लै लेनें छै...अरे आदमी दोस्तियो करै छै तेॅ बराबरिये सें...अच्छा संगति में रहला आरो सिखल्हैं सें विद्या-बुद्धि बढ़ै छै नूनू ...मजकि राजनीति वास्तें ई सब बातोॅ केॅ भूली जाय लेॅ पड़ै छै। दलदल सें उठी केॅ आपन्हैं जे पथलोॅ पर आवी केॅ खाड़ोॅ भै गेलोॅ छैं, तेॅ वही पर सब्भे केॅ नें उठाय लेॅ, जैसें कि पथले दलदल में धंसी जाय। की समझलैं?"

"सुन शनिचर, ढीवा केॅ कुछ समझना होय छै तेॅ आपनोॅ बुद्धि सें। वें कोय वाभन आरो कैथोॅ के बुद्धि सें नें समझै छै...आपनोॅ हाथ जगन्नाथ।" शनिचर के बातोॅ सें ढीवा केॅ ठिक्के गोस्सा आवी गेलोॅ छेलै।

"अरे तोंहें तेॅ गोस्साय गेलैं ढीवा। मतरकि यै में गोस्साय के कोय बाते नें छै ...संगति करतियैं, तबेॅ नी जानतियैं कि विद्या सीखै लेॅ जों जात-गोत्रा बदली केॅ कर्ण परशुराम लुग जावेॅ पारै, आरो देवता के पुरोहित वृहस्पति के पुत्रा कच-तांय, नाम बदली केॅ दानव पंडित शुक्राचार्य के पास, तबेॅ यहू जानी ले ढीवा, छल सें विद्या पैला के कारण कर्ण आरो कच दोनो शापित होय छै, मतरकि यही लेॅ दोनो चटियाँ गुरु केॅ गरीयावै आकि मूड़ी नें उतारी दै छै...हमरोॅ बातोॅ पर घरोॅ में जाय केॅ ठीक सें सोचियैं...की धीरो, तोहें कुछ नें बोलै छैं बे?" आपनोॅ चेहरा आरो बोली में गंभीरता लानतें शनिचरां कहनें छेलै।

"तोंहे तेॅ ऐत्है उस्सट रँ के बात छेड़ी देलैं कि मूडे बिगाड़ी केॅ राखी देलैं ...मानलियौ कि तोरोॅ बातोॅ में दम छौ, मतरकि बेमौका के बेबात केकर्हौ अच्छा नें लागै छै, नें लागेॅ पारै।" धीरेन्द्र नें शनिचर आरो ढीवा के बीच जेना बीच-बचाव करतें हुएॅ कहनें छेलै, "आरो हेकरा में मुँह फुलाय के तेॅ कोय बाते नें छेलै कि तोहें मुँह फुलाय लेलैं ढीवा...अरे, आदमी तेॅ एत्तेॅ भयभीत रहेॅ लागलोॅ छै कि आन लोगो सें कांही कुछु नें बोलै छै। आबेॅ दोस्तो-मोहिन के बीच खुली केॅ नें बोलतै, तेॅ कहाँ बोलतै, तोहीं बोलैं? ...है फुलटुस्सा रँ करभैं तेॅ कुरूक्षेत्रा में साथ की देवैं मरदे।"

धीरेन्द्र के बातोॅ सें ढीवा के घाव शायत भरी गेलोॅ छेलै। भरिये गेलोॅ होतै, नैं तेॅ आपनोॅ मुँहोॅ पर हँसी लानतें हुएॅ वैं है नें कहतियै, "वहेॅ तेॅ हम्मू कहै लेॅ चाहै छेलियै धीरो कि कुरूक्षेत्रा लड़ै वास्तें की सोचनें छैं? कि कुरूक्षेत्रा आभी दूरे छै, यै तेॅ पहिनें सें गीता बाँचवोॅ शुरू करी देलकै।"

"अरे तखनी कुरूक्षेत्रा एक बार होलोॅ छेलै, यै लेली गीता एक्के बार कहलोॅ गेलै। एखनी डेगे-डेग पर कुरूक्षेत्रा छै, यै लेली डेगे-डेग पर गीता पढ़ै लेॅ लागै छै। आबेॅ तोरोॅ रँ के अर्जुन जखनी-जखनी निराश होतै, तखनी-तखनी हमरा गीता पढ़ै लेॅ लागेॅ।" शनिच्चर बोललोॅ छेलै।

बात कन्नें-सें-कन्नें चल्लोॅ गेलोॅ छेलै, मतरकि सब्भे मिली केॅ वातावरण एकदम हौलकोॅ करी देनें छेलै। एत्तेॅ हौलकोॅ कि ढीवां फेनू बात शुरू करनें छेलै, "तेॅ बोल, ऊ महासभा के बाद आबेॅ की सोचनें छै-करै लेॅ?"

"है होलै नी।" शनिचर पालथी मारी केॅ बैठी गेलै आरो आपनोॅ मूड़ी आजू-बाजू घुमाय-उमाय केॅ, ढीवा, बेनी सें कहेॅ लागलै, "हम्में महामंत्रा के बात करी रहलोॅ छेलियौ। ऊ महामंत्रा की छेकै, सुन-विधातां कहनें छेलै कि जंगल काटी केॅ शरणार्थी बसैलोॅ जाय रहलोॅ छै? कहैं-हों।"

सब्भे एक्के साथ कहनें छेलै, "हों।"

"आरो कहनें छेलै कि यै सें जंगल कटी रहलोॅ छै। जंगल पर आफत आवी रहलोॅ छै? कहैं-हों।"

" हों। ' सबनें फेनू सें एक बार कहनें छेलै।

"बस ढीवा, हमरोॅ राजनीति यहीं सें शुरू होतै। तोरा सिनी गाँव-गाँव जो, वहाँ ताँय जो, जहांकरोॅ आदमी सभा में नें ऐलोॅ छेलै आरो वहाँकरोॅ हेनोॅ लोगोॅ केॅ पकड़, जेकरा राजनीति करै के हूब छै, साथे-साथ वै सिनी केॅ पहिलें, जेकरा रहेॅ के घोॅर-द्वार नें छै, ऊ बेघर सिनी केॅ कहैं कि ओकरा सिनी केॅ चानन के जंगल वाला हिस्सा में घोॅर देलोॅ जैतै। गाछ काटी केॅ ओकरा बसाय के बात सोचलोॅ जाय रहलोॅ छै, लकड़ी के घोॅर बनतै ओकरोॅ सिनी के. मतरकि सावधान, यै में हमरोॅ नाम कांही सें नें आवेॅ।"

"मतरकि एकरा सें होतै की? मानी ले हेनोॅ होय्ये गेलै तेॅ एकरा में हमरा सिनी केॅ की लाभ होतै?" धीरो टोकनें छेलै।

"अरे बुद्धू, ऊ बेघर सिनी तेॅ वहाँ बसै के हल्ला करतै, नारा लगैतै, जुलूस निकालतै, एस0 डी0 ओ, बी0 डी0 ओ0 के घेराव करतै। सरकारो केॅ यै सिनी के आगू झुकै लेॅ पड़तै। फेनू यै सिनी के घरोॅ लेॅ दू-चार गाछ कटतै आरो दस गाछ तोरा सिनी लेॅ। की समझलैं?" शनिचरा के आँखी में कहतें-कहतें एकदम्में बाघ-सिंह वाला चमक आवी गेलोॅ छेलै।

"मानी लेलियौ शनिचर तोरोॅ बुद्धि केॅ।" ढीवां कहलकै।

"आबेॅ आरो आगू सुन नी...जों मानी ले, सरकार वै बेघर सिनी के सामना में नहिंयो झुकै छै, तेॅ वाद-विवाद तेॅ बढ़िये जैतै आरो जबेॅ वाद-विवाद बढ़ी जैतै, तबेॅ विधाता के विद्यापीछ केना खुलतै...सब ठप्प। नें विद्यापीठ खुलतै, नें बेघर बसतै। जबेॅ वहाँ कोय नें होतै तेॅ हमरो सिनी के कामोॅ में कोय बाधा केना पड़तै? बोल केना पड़तै।" किरियैलोॅ आँखी सें शनिचर नें कहनें छेलै।

"हेना कोशिश हेकरे ज़्यादा कर कि बेघर सिनी बसी जाय। फेनू तेॅ वहीं सिनी कुच्छू पैसा में जंगल काटी-काटी केॅ 'जग्घा' पर पहुँचाय ऐतै। आखिर ओकरौ तेॅ रहना छै।"

"बस-बस। होय गेलै शनिच्चर, होय गेलै। आगू कुछु नें बोल। आय तेॅ पंडित धीरेन्द्र शर्मा जी सें हमरा खाली यही पूछना छै कि आय कौन राशि के प्रवेश भेलोॅ छै जे एक्के साथ दू-दू सिद्धि के लाभ होलै।"

पर शनिचर आपनोॅ भविष्य में एतन्है डुबलोॅ छेलै कि ढीवा के दू सिद्धि वाला बाते नें सुनलकै। सच पूछोॅ तेॅ आबेॅ कोय एक-दुसरा केॅ सुनै के तेॅ बाते दूर, यहो शायत नें जानी रहलोॅ छेलै कि आमना-सामना में के छै। बेनी तेॅ शुरुवे सें नें बोली रहलोॅ छेलै, जेना-जे होय गेलोॅ छै, जे होय रहलोॅ छै आरो जे होतै, सब ओकरे इशारा पर होलोॅ छै, होय रहलोॅ छै आरो होतै। खाली बीचोॅ-बीचोॅ में बैठली चिड़िया के डैना नाँखि आपनोॅ दोनों हाथ ऊपर-नीचे करेॅ लागै छेलै आरो आपनोॅ दोनो बंद ठोरोॅ केॅ तीरी केॅ हाँसी दै।

बेघर, शरणार्थी, हड़ताल, जुलूस, धरना-सबके माथोॅ में रही-रही केॅ घूमी रहलोॅ छेलै। सब्भे के कानोॅ में गाछ कटै के आवाज आवी रहलोॅ छेलै-खरर-खर, खरर-खर आरो सब बेसुध होलोॅ जाय रहलोॅ छेलै, जेना संगीत-पारखी के सामना में कोय सिद्ध गायक नें देश राग छेड़ी देनें रहेॅ आरो सुनवैय्या केॅ आपना केॅ संभारना मुश्किल होय गेलोॅ छेलै। हों, वै बेुसुधी में शनिचर नें एतना टा ज़रूरे कहनें छेलै, "आबेॅ शनिच्चर केॅ एक्के काम, केन्हौं केॅ कमरूद्दीन सें मन हटाय केॅ लतांत आरो खुशी केॅ आपनोॅ पक्ष में करी लेना-जात पहनें जात के होतै कि परजात के? खून कत्तोॅ पतला होतै तेॅ पानी सें गाढ़े रहतै। विधाता वास्तें कमरूद्दीन सभा करेॅ पारेॅ तेॅ वैं हमरोॅ वास्तें महासभा करतै" आरो ओकरोॅ चेहरा पर एगो विचित्रा रहस्यपूर्ण मुस्कान फैली गेलोॅ छेलै।