जटायु, खण्ड-13 / अमरेन्द्र
आधोॅ भादो जाय रहलोॅ छै। खेती-बारी सें सौसें गाँव निश्चिन्त होय गेलोॅ छै। अबकी विधाता के खेतोॅ में धान के घास गन-गन करी रहलोॅ छै। आरी में हिन्नें-हुन्नें घूमतें विधाता सोची रहलोॅ छै, ई शनिच्चर के हाथोॅ में जादू छै, जेकरा छूवी देॅ, वही सोना बनी जाय। अबकी वैं खेती के भार शनिच्चर पर सौंपी गेलोॅ छेलै। ऐला पर मालूम होलोॅ छेलै कि आपनोॅ रोपनी सें पहनें हमरे खेतोॅ में रोपनी करवैनें छेलै...सब गुण छै, पर ओकरा होय की गेलोॅ छै। राजनीति करतै। बोलै छै, " हमरा नेता बनना छै। है बैलगाड़ी सें चलतें-चलतें कुल्होॅ भसकी गेलोॅ छै, आबेॅ हेलीकॉप्टर-हवाई जहाज पर चलै के इच्छा छै। आरो यै लेली पैसा चाहियोॅ। पैसे सें चुनाव जीतेॅ पारेॅ आरो पैसा की मेहनत सें टपकै छै। पैसा लेॅ ऊ सब करै लेॅ लागै छै जेकरा हमरोॅ पुरखा करै लेॅ हमेशे मना करलेॅ ऐलोॅ छै...सब्भैं जानै छै, शनिच्चर के माथोॅ में जे एक बार अटी गेलोॅ, बस वही टा करवे करतै। कै बार हम्में दीपाहौ केॅ भेजी केॅ ओकरा समझाय के कोशिश करनें छियै, मतरकि होलै की। बड़ी जिद्दी छै। यही जिदपनोॅ के कारण तेॅ वैं एम0 ए0 के पढ़ाय छोड़ी केॅ गाँव पकड़ी लेलकै आरो गाँव पकड़ी लेलकै तेॅ गाँव के कौनें नें समझैनें होतै, पर ऊ केकरो बात मानलेॅ छेलै की? आबेॅ वैं हमरोॅ कहला सें की मानतै...पर यहू बात छौ शनिच्चर कि हम्में ऊ जंगल नें कटै लेॅ देभौ, हम्में कटी जइयौ तेॅ कटी जैइयौ। अबकी तोहरे वाला जिद हम्मू पकड़ी लेनें छियौ...होना केॅ हम्में यहू जानै छियै कि जंगल कटला सें तोरा की लाभ होतौ। लाभ जेकरा होतै, ऊ तेॅ आरो कोय छेकै। हम्में नें जानै छियै कि भैरो का, सोराजी का आरो गोपी का चुप कैन्हें छै। शनिच्चर, दू आना लाभ मिलतौ तेॅ चौदह आना हुन्ने बंदरबांट होतौ। हों सौंसे बदनामी शनिच्चर खाली तोरे मिलै वाला छौ। पाप के भागीदारी में बाँट नें होतौ, हौ तोर्है लै लेॅ लागतौ-विधाता के मनोॅ में ढेर सिनी बात उठी रहलोॅ छेलै।
कल्हे के बात छेकै। विधाता केॅ याद आवै छै...ऊ खेते दिश आवी रहलोॅ छेलै, रास्ते में शनिच्चर मिली गेलोॅ छेलै। नजर पड़त्हैं, मलकी केॅ नगीच आवी गेलोॅ छेलै। "धान की रँ के छौ? खेतोॅ में पानी छौ की नें? खाद डालनें छैं की नें?" पचास गो शनिचरें सवाल करने छेलै आरो सबके संतोष वाला उत्तर पावी केॅ कहनें छेलै, "चल ई अच्छा करलैं...अरे खेतिये नी हमरोॅ सिनी के रीढ़। ई टुटलौ कि रीढ़ टुटलौ।" हम्मी बात बदली केॅ पूछनें छेलियै, "जंगल-गाछ के बचाव बारे में कुच्छु सोचै छैं कि नें शनीचर।" यै पर वैं की रँ तुनकी केॅ कहनें छेलै, "ई सब फालतू बातोॅ सें हमरा कुछु लेना-देना नें...तोहें जंगल बचाव, हुन्नें हजारो आदमी जंगल काटी केॅ बसै के बात सोची रहलोॅ छै...सरकार सें लड़तै, वोॅन बचावै वाला सें लड़तै; तबेॅ हम्में केकरा-केकरा वास्तें लड़भै। तोहीं बोल। तोंहें हमरोॅ मित्रा छेकैं आरो बेघर वाला सिनी हमरा वोट दै वाला। हम्में देखभै तेॅ दोनों केॅ। पर एक बात तेॅ हम्में मानवे करै छियै कि आदमी सें बढ़ी केॅ जंगल-पतार नें हुएॅ पारेॅ...आरो एक बात विधाता, यै मामला में तोहें हमरा सें भविष्य में बात नहिंये करियैं तेॅ ठीक। एक बात आरो कहै छियौ, तोरा जे जंगल-झाड़ लगवाना छौ लगवावें, है सब कामोॅ में दीपा केॅ कथी लेॅ धसीटै छैं...दीपा के बीचोॅ में आय-जाय सें, कै एक बार हम्में जे बात तोरा सें खोली केॅ कहै लेॅ चाहै छियौ, ऊ कहना-करना बड़ी मुश्किल बनाय दै छै तोरोॅ काम जे आसान होय जाव। ...अच्छा होतौ विधाता कि तोहें आपनोॅ है रँ कामोॅ में दीपा केॅ नें घसीटैं।"
आरो नें जानौ कखनी, विधाता के मनोॅ पर उतरी आवै छै दीपा...दीपा...दीपा-सचमुचे में तेॅ दीपा नें ओकरोॅ जिनगी केॅ कत्तेॅ आसान बनाय देनें छै। रूय्ये नाँखि हौलकोॅ...कुछुवे साल भर पहिनें तेॅ ऐलोॅ छै दीपा शहरोॅ सें आरो यही बीचोॅ में ओकरोॅ मनोॅ में कत्तेॅ-कत्तेॅ बात ऐतेॅ रहलोॅ छै-है करी दै के, हौ करी दै के. विधाता सोचै छै-दीपा सच्चे दीपा छेकै, तभिये तेॅ ओकरोॅ नाम दीपा छेकै। ओकरोॅ पास जैत्हैं हमरोॅ जिनगी के सब्भे अन्धकार आपने-आप छटेॅ लागै छै...ऊ आगू बढ़ै के बात सोचै छै आरो दीपा दीप बनी दूर ताँय रास्ता केॅ इंजोर करी दै छै...शनिच्चर नें ठिक्के तेॅ कहलकै कि दीपा हमरोॅ मुश्किल केॅ आसान करी दै छै...विधाता केॅ लागै छै, जेना दीपा के बिना ओकरोॅ कोय वजूदे नें रहेॅ छै...दीपा विधाता केॅ आकाश दै छै-उड़ै लेॅ, ओकरा जमीन दै छै-दौड़ै लेॅ...आरो दीपा के आँखी में कभी-कभी ऊ केन्होॅ बेसुधी उतरी आवै छै कि ऊ देखत्हें हमरोॅ चेतना अलोपित हुएॅ लागै छै...दीपा हमरोॅ जीवन के उमंगे नें, शांतियो छेकै...
विधाता केॅ हठाते पौरको साल के बात याद आवी गेलै-ठीक यही रँ भादो के दिन छेलै...बड़ोॅ भाय आरो भाभियो ऊ खेतोॅ दिश निकली गेलोॅ छेलै...यही समैय्यो होतै...बारिश पड़ी केॅ उखैल होय गेलोॅ छेलै...आकाश एकदम काँचे रँ साफ...सिर-सिर हवा सें सौंसे अंग गेंदा-गुलाब बनी-बनी जाय छेलै...दीपा ठीक यही खेतोॅ के ऊ कोना पर बैठली छेलै ...गीत गावै में लीन। हम्में कल्हे-कल्हे ओकरोॅ पीछू आवी केॅ बैठी गेलोॅ छेलियै। दीपा गैले चल्लोॅ जाय रहलोॅ छेलै,
आमेॅ वन बोलै छै कारी कोयलिया, बीजू वन बोलै छै मोर
बाबा-वन बोलै छै पातर पियवा, जियरा सालै छै मोर
तखनी ठिक्के तेॅ हम्में कत्तेॅ बेसुध होय गेलोॅ छेलियै, जेना आमोॅ के वोॅन में कोयल बार-बार कुहु-कुहु करेॅ लागलोॅ छेलै आरो हम्में बेचैन होय गेलोॅ छेलियै, ठीक कोय बच्चे नाँखि। दीपा के सुरोॅ सें? की गीत सें? की गीत के भाव सें? ...हम्में गौर सें दीपा केॅ देखनें छेलियै, कांही हमरोॅ आवै के जानकारी तेॅ नें होय गेलोॅ छै ओकरा? नें, ऊ तेॅ आपने धुनोॅ में डुबलोॅ छेलै...प्रश्न करै में, फेनू ओकरोॅ उत्तर दै में,
कोनी वन बोलै छै कारी रे कोयलिया, कोनी वन बोलै छै मोर
हे कोनी वन बोलै छै पातर पियवा, जियरा सालै छै मोर
तखनी हमरोॅ मनोॅ में यहेॅ होलेॅ छेलै, जेना ओकरोॅ कानी में बोली दियै, दसो अंगुरी सें ओकरोॅ आँखें मुंदतें-तोरे पीछू बोलै छौं...पर की सोची केॅ हम्में ई नें बोलेॅ पारलेॅ छेलियै...हमरोॅ बढ़लोॅ हाथ अनचोके रुकी गेलोॅ छेलै ...की दीपा हमरा ऐतें-बैठतें देखी लेलेॅ छेलै आरो हमरोॅ उपस्थिति केॅ जानियो अनठियैलेॅ होलोॅ छेलै? की...आरो वैं की...हमरोॅ मनोॅ के भाव पढ़ी लेनें छेलै। नैं तेॅ कहनें तुरन्ते गैलेॅ छेलै,
कोन रस माँगै छै काली कोयलिया, कौनें रस माँगौ छै मोर
कौन रस माँगै छै पातर पियवा, जियरा सालै छै मोर
आम-रस माँगै छै काली कोयलिया, मेघरस माँगै छै मोर
जवानी-रस मांगै छै पातर पियवा, जिसरा सालै छै मोर
...जवानी-रस मांगै छै पातर पियवा...की दीपा ई हमरे लेॅ गैलेॅ छेलै? कहलेॅ छेलै? ...केन्होॅ गुदगुदाय गेलोॅ छेलै ओकरोॅ सौंसे ठो अंग-विधाता ऊ गुदगुदी जेना अभियो आपनोॅ देहोॅ में नुकैनें राखलेॅ छै। वैं आँख मुनी केॅ ऊ गुदगुदी, ऊ सिहरन केॅ याद करै छै आरो हठाते नीचें सें लै केॅ ऊपर ताँय सिहरेॅ लागै छै। एक रस बहतें हवा के झोको सें जेना धान उब-डुब करतें रहेॅ, दीपा के बात याद करी विधातौ के वही हाल होय गेलोॅ छै। आरो फेनू विधाता अनचोके बड़ी विह्वल होय जाय छै, एकदम्मे बेचैन, जेना झरबेरी के झाँटोॅ लगी गेलोॅ रहेॅ। जेना बाँधोॅ के किनारी काटी केॅ राखलोॅ गेलोॅ बबूली के डारी सिनी पर ऊ चलतें-चलतें गिरी गेलोॅ रहेॅ...विधाता यहू पीर सहेॅ पारै छै, मजकि दीपा संग बिना ओकरोॅ जिनगी जे रँ हेरैलोॅ-हेरैलोॅ होतै, ऊ तेॅ एकदम्मे असह्य छै।
आरो फेनू विधाता केॅ खयाल ऐलै...ठीक आय सें पाँचवे रोज राधाष्टमी केॅ दीपा शहर चल्लोॅ जैती...बी0 ए0 के आखरी साल छेकै। कहलेॅ तेॅ यही छै कि-परीक्षा खतम होय के देरी भर छै, हम्में रिजल्ट के आसरा में एक्को पल वहाँ नें ठहरेॅ पारौं। परीक्षा भले दै लेॅ हम्में वहाँ जाय रहलोॅ छी, मतरकि हमरोॅ रिजल्ट तेॅ हमरोॅ गामे छेकै-आखिर है कहै के की मतलब हुएॅ पारेॅ दीपा के...एकरोॅ मानेॅ तेॅ यहू हुएॅ पारेॅ कि दीपाहौं हमरोॅ साथें ई निश्चय करी लेने छै कि दोनों के भाग्य गामे में छै। एकरोॅ आरो की मतलब हुएॅ पारेॅ? ...हों एकटा मतलब आरो निकाललोॅ जावेॅ सकै छेॅ कि परीक्षा देला के बाद हमरौॅ संकल्प के पूर्ति में ओकरोॅ अडिग सहयोग...मजकि नैं, जों यही कहै लेॅ दीपा चाहतियै तेॅ ई बात सोझे-सोझे कहलोॅ जावेॅ सकै छेलै, एत्तेॅ लक्षणा-व्यंजना में बोलै के की ज़रूरत छेलै? ...ई बात तेॅ नें हमरा सें छुपलोॅ छै, नें दीपा सें कि हमरा दोनो एक-दूसरा केॅ कत्तेॅ चाहै छियै, तबेॅ ओकरोॅ रिजल्ट वाला बात के दोसरोॅ-तीसरोॅ मानें लगाना की...आरो ई सोचत्हैं विधाता एकाएक जहाँ-के-तहाँ ठाड़ोॅ भै गेलै, जेना गर्मी सें बेकल कोय आदमी के माथा पर वर्षा के धार छूटी पड़लोॅ रहेॅ आरो ऊ आपनोॅ देह-हाथ एकदम थिर करी रुकी गेलोॅ रहेॅ...भींगेॅ लागलोॅ रहेॅ आपनोॅ दोनों आँख मूनी केॅ। अमृत केॅ जेना रोम-रोम सें पीवी लै लेॅ चाहतें रहेॅ। विधाता केॅ जेना कोय बातोॅ के सुधे नें रही गेलोॅ रहेॅ।
चर्र चों ऽ-ऽ ऽ, चर्र चों ऽ-ऽ ऽ। खुशी लाल के गाड़ी छेलै। गाड़ियो खुशिये लाल हाँकी रहलोॅ छेलै...चर्र चों ऽऽऽ, चर्र चों ऽऽऽ...आरो आँख बन्द करनें खाड़ोॅ विधाता केॅ लागेॅ लागलोॅ छेलै कि ठिक्के बरसा हुएॅ लागलोॅ छै। दीपा में डुबलोॅ विधातां गाड़ी आरो वर्षा के आवाज एक करी लेनें छेलै।
"विधाता।" खुशी लाल के एक जोरदार आवाज नें विधाता केॅ आकाश सें जमीन पर लानी देनें छेलै। आपनोॅ मूड़ी घुमाय केॅ वैनें आँख बाँधी दिश करलकै तेॅ देखलकै, खुशी लाल बैलोॅ के रास जोरोॅ सें खीची केॅ रोकी रहलोॅ छेलै आरो गाड़ी कर्र ऽऽऽऽ के आवाजोॅ के साथें रुकी गेलोॅ छेलै।
"विधाता, तोरा दीपां तुरत बुलैनें छौ...भागलपुरोॅ सें ओकरोॅ कोय सम्बन्धी ऐलोॅ छै, ओकरे साथ शहर चल्लोॅ जैतौ। कल्हे विहानी। हठाते ई प्रोग्राम बनी गेलै। कहनें छौ, जहाँ हुएॅ, तुरत भेजी दै लेॅ...से तेॅ हम्मी पहुँचाय ऐतियै, मजकि बाबा भारती ऐलोॅ होलोॅ छै...आबेॅ इस्कुलिया जिनगी के साथी, केना केॅ लै लेॅ नें जैय्यै, तोंही बोल...सड़क के हौ पार पहुँचतें-पहुँचतें तेॅ रात गिरेॅ लागतै। हम्में चलै छियौ भाय। मतरकि तोंहें दीपा सें ज़रूरे मिली लियैं, बड़ी निहोरा करी केॅ हमरा सें कहनें छौ...हट, हट, हट।" खुशीलाल नें बैलोॅ के पंजराठी पर आपनोॅ एड़ी सें गुदगुदी लगैलकै आरो पैनोॅ सें बैलोॅ के धौनोॅ केॅ हुरकुचवोॅ शुरुओ नें करलेॅ छेलै कि गाड़ी सरपट बांधी पर दौड़ेॅ लागलै।
"तोहें एक्को मिनिट यहाँ रुकियैं नें, तुरत जाय केॅ मिली लियैं।" जैतें-जैतें खुशीलाल हकाय के सुरोॅ में कही गेलोॅ छेलै।
...नें दीपा नैं। हम्में तोरा सें नें मिलेॅ पारौं...पग-पग पर साथ चलैवाला केॅ नजरी सें दूर होतेॅ देखै के सामरथ हमरा में नें छै। यही सें तेॅ लोगें हमरा सिंहोॅ के खाल में हिरण कहै छै। हौ हिरण, जे बन्दूक के आवाजे सें बेहोश होय जाय...हम्में आपना केॅ संभालै नें पारभौं, केन्हौ केॅ...ई सब जानत्हौं कि ई बिछोह महिनो भरी के नें छेकै...फेनू दिवस जात नहीं लागहुं वारा...हों सब कुछ जान्तहौं, मन होय छै-आपनोॅ-आपनोॅ मोॅन, मन के गति सें बन्हलोॅ...जा दीपा, हम्में तोरोॅ लौटी आवै के इन्तजार में रहवौं। यही ठां सें उगते-डुबतें भगवान के साथे-साथ, ताकि ई सुरूज साक्षी रहेॅ। " विधाता ऊ अनजान में बोली गेलोॅ छेलै आरो शायत हामी लै वास्तें ही विधातां सुरूज दिश नजर उठैनें छेलै, पर वहाँ पर सुरूज नें, सुरूज के लाली भर दूर-दूर ताँय पसरलोॅ छेलै। कोय ओढ़िया-ओढ़िया भरी सिन्दूर छिड़काय केॅ आपनोॅ मांग लाल करी लेले छेलै? कि केकरो खून होय गेलोॅ छेलै विधाता मनझमान होय आपनोॅ गोड़ घरोॅ दिश बढ़ैने छेलै, मतरकि ओकरोॅ गोड़ तेॅ एकदम थुम होय गेलोॅ छेलै। केन्हौं केॅ ऊ घसीटलें-घसीटलें आगू बढ़ेॅ पारलेॅ छेलै।