जटायु, खण्ड-15 / अमरेन्द्र

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दीपा के शहर गेला के बादे सें होन्हौ केॅ विधाता लोगोॅ सें कटले-कटले रहै छेलै। साँवली के घटना आरो अफवाह नें तेॅ ओकरा आपने गामोॅ में एकदम्में परदेशी बनाय केॅ राखी देनें छेलै। है कहोॅ कि बोलनै-बाजना छोड़ी देलेॅ छेलै। कोय बहुत टोकै तेॅ बस ज़रा टा मुस्की दै। यहेॅ बहुत आरो आगू बढ़ी जाय। हों, ई बातोॅ सें ओकरोॅ दोस्त सिनी ज़रूर चिन्तित रहै। कहै, "है रँ तेॅ विधाता एकदम्मे पागल होय जैतै...भारी चोट पहुँचलोॅ छै साँवली वाला बातोॅ सें। मीरा भाभियों तेॅ ओकरा कत्तेॅ समझैनें छै-जेना बुतरू केॅ समझैतेॅ रहेॅ-मंदिर-देवता पर काग-चील आसन-निष्ठा करलेॅ फुरै छै, तेॅ कौन मंदिर अपवित्रा होय जाय छै आरो कौन देवता अछूत? ...डरोॅ सें नें बोलै तेॅ नें बोलै, है तेॅ सब्भै केॅ मालूम छै कि ऊ छौड़ी केॅ केकरा सें परेम-पाती छै आरो कौंने शहद-लेमनचूस चटैनें छै...तोंहें तेॅ बेकारे साथ-संगत तजी केॅ मौनी बाबा बनलोॅ फिरै छौ ...यै सें तेॅ उत्पाती केॅ आरो बोलै के मौका मिलतै...लोगें यहेॅ नी कहतै, दोषी छै तेॅ बोलतै की?" मजकि मीरा भाभियो के कोय बातो के असर वैं पर नैं पड़लोॅ छेलै। पहाड़ पर जेना बरसा के पानी पड़ी केॅ सीधे नीचें ससरी जाय छै।

ऊ दिन सें ठिक्के टोला-टोला में काना-फूसी शुरू भै गेलोॅ छेलै, जबेॅ गाँववाला केॅ ई पता चललै कि विधाता महीनो वास्तें गामोॅ सें बाहर चल्लोॅ गेलोॅ छै। नें तेॅ अनिरुद्ध, खुशी आरो जोगी के ई बात केॅ मानै लेॅ कोय मोॅर-मरद तैयार छेलै कि विधाता वृक्ष सम्बंधी नया ज्ञान हासिल करै लेॅ बाहर गेलोॅ छै, आरो नें तेॅ विसपुरियावाली मीरा के कोय बातोॅ केॅ गाँमोॅ के कोय्यो जोॅर-जनानिये। टोला-टोला के बूढ़ी-जवान मौगी में बस एक्के रँ काना-फूसी चलेॅ लागलोॅ छेलै, "कै दिनोॅ ताँय आपनोॅ कारोॅ मूँह ढाँपी केॅ गामोॅ में नुकैलेॅ रहतियै, से शहर भागी गेलै, झरकलोॅ मूँ झांपलै निक्कोॅ...अरे साँवली के की, कहूँ न कहूँ, ठेड़ौॅ मिलिये जैतै, बेटी आरो धरती कहीं परतियो रहलोॅ छै की? की कहीं रानियो-पानियो छुतावै छै। मतरकि विधाता आपनोॅ देखौ...अरे, अमीरोॅ के बिगड़लोॅ गाँव आरो बापोॅ के बिगड़लोॅ नाँव कहीं सुधरै छै, जे विधाता सुधरी जैतियै...कहाँ गाँव के सब मुरूख जोर-जनानी केॅ सुधारै के बात करै छेलै आरो कहाँ साँवलिये के मूँ कारोॅ करै लेॅ तड़-फड़...राम कहोॅ, ई तेॅ ठीक समय पर सबकेॅ पता लागी गेलै, सुअरी के गू-नें नीपै लायक, नें तेॅ पोतै लायक ...ई तेॅ एक दिन होनै छेलै। कलाली में बैठी-बैठी केॅ गीत गावै वाला ई नें करतियै तेॅ की करतियै, कालकोॅ लठैत, आयकोॅ डकैत...ई तेॅ सब्भे केॅ मालूम छै भोतरी माय, हेकरा में अचरज की करभौ...ई तेॅ कहोॅ ठीक कि पहिनें पापोॅ के भेद खुली गेलै आरो ऊ गामोॅ सें चली देलकै, नें तेॅ एक्के नैरानोॅ, लेतियै सौंसे घरैनोॅ।" जत्तेॅ जनानी ओत्ते रँ के बात गाँव-गाँव में चलेॅ लागलोॅ छेलै।

पर गाँव-टोला में हेनो घोॅर कम नें छेलै, जहाँ विधाता के पक्षो में बात उठै, "विधाता मुँहजोर नें छै, तहीं सें नी। कदुआ पर तेॅ सितुओ चीखोॅ होय छै, नें तेॅ हौ परफुलवा, शनिचरा हेनोॅ छौड़ा विधाता सामना में की छै...विधातौ के दोष छै, पंचैत में बात रखतियै तेॅ सब पोल खुली जैतियै, तबेॅ की करभौ-बरे बुढ़लेल्होॅ तेॅ दहेज के लेतै...अरे बनैला पर बरियो में भी टांग होय छै...एखनी देखौ, की रँ शनिचरौ के दुश्मनो शनिचरे के पक्षोॅ में बोलै छै, तेॅ जेकरोॅ मड़वा, तेकरे गीत, यही नी...तेॅ एक दिन सब भेद खुलवे करतै, काठोॅ के हड़िया एक्के बार...देखियौ नी कुटनी घोॅर चल्लोॅ जैतै, सास-पुतहू एक्के होतै...देखने तेॅ छै कि कत्तेॅ दिन भला लोग जाड़ा सें मरै छै आरो गीदड़ें बाँधै छै गाँती।"

विधाता पक्षोॅ के जोॅर-जनानी के भीड़ विसपुरिया सवासिन मीराहै कन जादा लागै छै, न तेॅ साँझै-बिहाने वसन्त काका के चौपालोॅ पर। बसन्त काका के दुआरी पर बैठैवाला बैठकी में सब रँ के बात होय छै-विधाता के दोष सें लै केॅ ओकरोॅ चिन्ता-चिन्तन तक-गाछ-बिरिछ आरो गामोॅ केॅ बचाय के चिंता ...महिने भरी बाद गामोॅ के मुखिया-चुनाव...टोला-टोला के फूट...अबकी तेॅ बबुआन टोलोॅ, बभन टोली, कुरमी टोला, जादव टोला, सब्भे टोला सें आदमी खाड़ोॅ होलोॅ छै, मुखिया वास्तें। के जीततै, कहना मुश्किल छै। हवा तेॅ यही छै कि वोट आपने-आपने जातोॅ के लोंगे देतै...तबेॅ तेॅ जे जात के लोग सबसें जादा छै, वही जीततै...बसन्त काका कहै छै-हद होय गेलै, अबकी मुखिया वही जात के आदमी बनतै, जेकरोॅ जनसंख्या बढ़ी-चढ़ी केॅ छै, अबकी आदमी केॅ नें, जातोॅ केॅ वोट पड़तै...अच्छे होलै, जे विधाता खाड़ोॅ नें भेलै, नें तेॅ ओकरोॅ गोतिया सिनी बीस घोॅर सें की होतियै...नें-नें, एक अच्छा आदमी लेॅ एक जात, एक टोला नें-सौंसे गाँव, सौंसे दुनिया होय छै...दुख तेॅ यही छै कि अच्छा आदमी कोय खतरा उठाय लेॅ कम तैयार होय छै, साधू-सन्यासी बनी जाय छै, नें तेॅ ई दुनिया एत्तेॅ खराब नें होतियै, जत्तेॅ होय गेलोॅ छै...विधाता लेॅ एक ज़रा बात कोय की उठाय देलकै कि ऊ गामे छोड़ी केॅ चललोॅ गेलै...गाछोॅ के ढेर सिनी बात जानै लेॅ, सच बात तेॅ यही छेकै कि एत्तेॅ बड़ोॅ दोष केॅ विधाता सहै नें पारलकै...आखिर ई गामोॅ केॅ की होलोॅ जाय रहलोॅ छै...विधाता केॅ गाँव सें नें जाना चाहियोॅ, कभियो नें, कोय कीमतो पर नें...ओकरोॅ जाय के मतलब छेकै कि ओकरा हमर्हौ सिनी पर भरोसा नें रही गेलै...से बात नें छै, ओकरोॅ दिमाग, योजना, आरो-बात के ठीक सें कोय समझैवाला छै तेॅ दीपा आरो दीपा परीक्षा दै लेॅ शहर चल्ली गेलोॅ छै। तोहें देखियौ, दीपा के लौटतैं-लौटतैं विधाताहौ गाँव लौटी ऐतै। लब्बोॅ-लब्बोॅ ज्ञान पावी आरो तबेॅ देखियौ। है जे विन्डोवो विधाता के विपच्छोॅ में बही रहलोॅ छै नी, वही ओकरोॅ लेॅ शीतल बयार बनी जैतै। दोनो केॅ आवै लेॅ तेॅ दौ...वसन्त काका, विधाता जत्तेॅ गुमसुम रहै वाला रहौ, संकल्पोॅ के बड़ी पकिया आदमी छेकै। एकदम बापोॅ के पानी लै केॅ जनमलोॅ छै...दूसरोॅ दलसिंह बाबु। " जत्तेॅ लोग, ओत्ते बात। मजकि एतना बात तेॅ ज़रूरे छेलै कि सबकेॅ ई बुझावै कि कोय गाँव सेॅ चल्लोॅ गेलोॅ छै-अनचोके गाँव केॅ एकदम सूनोॅ करी केॅ। ऊ रहै छेलै तेॅ कम-सें-कम साँझ केॅ संगीतमय ज़रूरे करी दै। चाहे खेत सें लौटतें रहेॅ कि नदी दिश सें, विधाता के वही जानलोॅ-पहचानलोॅ गीत ज़रूरे बारी-बहियारी पार करी केॅ टोला-टोला में पसरी जाय।

मैय्यो तोरा बरजो गे लिलिया बापो तोरा समझावौ रे जान
जान छोड़ी रे देहैं, मोहना केरोॅ संगतियो रे जान

आबेॅ शाम होत्हैं सब्भे के कान केॅ एक्के भ्रम हुएॅ लागै छै, जेना बान्ही-बहियारी के रास्ता से चल्लोॅ आवी रहलोॅ विधाता के सुर गूंजेॅ लागलोॅ छै,

जनमो मोरा जैतै गे मैय्यो, परनमो मोरा जैतै रे जान
जान तैहियो नें छोड़वै मोहना केरोॅ पीरितयो रे जान।