जटायु, खण्ड-16 / अमरेन्द्र

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दीपां आपनोॅ जिनगी में कभियोॅ एत्तेॅ खुशी के अनुभव नें करलेॅ होतै, जेन्होॅ आय। ओकरा हेने बुझाय रहलोॅ छेलै, जेना ऊ खुद्दे सरोवर बनी गेलोॅ छै, जेकरोॅ किनारी में बैठी दीपा कंकड़ मारी-मारी पानी केॅ थिर नें हुएॅ दै। एक भँवर अभी खतम होतेॅ-होतेॅ बचै कि वैं दुसरोॅ कंकड़ी मारी दै आरो फेनू वही, होने भँवर। ठीक वहेॅ रँ होय गेलोॅ छै दीपा, विधाता के चिट्ठी पावी...बार-बार ओकरा कुछ भ्रम होय जाय छै आरो वें बार-बार चिट्ठी के बांया दिश लिखलोॅ स्थान केॅ पढ़ै छै। हों हजारियेबाग सें लिखलोॅ गेलोॅ छै। एक पल वास्तें ऊ आँख मुनी कुछ सोचै छै, फेनू लिफाफा खोली उकड़ू बैठी केॅ पढ़वोॅ शुरू करी दै छै,

दीपा

ई चिट्ठी हम्में आठ रोज पहिनें लिखतियौं, हजारीबाग पहुँचतैं। मतरकि यहेॅ गुनै में चिट्ठी नें लिखेॅ पारलियौं कि आखिर तोरोॅ नाम के आगू कोॅन विशेषण लिखौं, प्यारी, सुकुमारी, साथी, की-की? फेनू नाम के नीचें की लिखौं स्नेह, आशीष, प्यार, की-की? यहेॅ फैसला नें लियेॅ पारै में आठ रोज उधेड़बुन में गुजरी गेलै। आरो आय बिना कोय विशेषणे के तोरा चिट्ठी लिखी रहलोॅ छियौं, तोरा जे अच्छा लागौं, आपने सें आगू-पीछू विशेषण जोड़ी लियौ0ई हमरोॅ चुप्पी केॅ आवाज दै नाँखि होतै।

तोंहे गाँव केॅ छोड़ी देलौ। हों, एकरा छोड़वे कहतै, पन्द्रह रोज के बात कही केॅ डेड़हो महीना सें जादा गायब होय जैवोॅ-की कहलोॅ जैतै? ...पहलोॅ दाफी जानलियै कि भीड़ोॅ में रहतेॅ हुएॅ भी आदमी कभी-कभी आपनोॅ एक साथी बिना कत्तेॅ असकल्लोॅ होय जाय छै...आरो फेनू हम्में भीड़ोॅ सें भागी ऐलौं, यहाँ हजारीबाग। सोचलेॅ तेॅ यहेॅ छेलियै कि तोर्हौ यहाँ आवै लेॅ खबर करी दीयौं...जंगल घूमी-घूमी, जंगल के व्यथा-हास सुनना छै...हम्में तभियो ई बात जानै छेलियै आरो आय तेॅ ई बात मालूमे होय रहलोॅ छै कि तोरोॅ बगैर है गाछो-बिरिछ आपनोॅ सुख-दुख के कथो मोॅन खोली केॅ नें कहै वाला छै। बस ओकरोॅ मौन सें ही हम्में जे कुछ समझेॅ पारी रहलोॅ छियै, वही बहुत ...आरो चलतें-चलतें वहाँ भी पहुँची जाय छियै, जे जंगलविहीन बनी गेलोॅ छै ...दीपा, तोहें हमरोॅ साथ होतियौ तेॅ देखतियौ-आपनोॅ पठारी इलाका के फैललोॅ जंगल के दुर्दशा। जेना कसाय नें बकरी-पाठी के देहोॅ सें खलरी उतारै छै, होने केॅ गाछ सिनी उतारी केॅ पहाड़-पठार केॅ नांगटोॅ करी देनें छै। जेना गंजा सिरोॅ पर दू-चार बाल छूटी गेलोॅ रहेॅ। एकरा सें जादा कुछ नैं कहलोॅ जावेॅ सकेॅ आरो कांही-कांही लगैलोॅ नया-नया गाछ, जानै छौ केन्होॅ लागै छै, जेन्होॅ मुड़ैलोॅ माथोॅ सें नीचें कपारोॅ पर सुनहरोॅ रँगोॅ के रोंआ सिनी आरो वहू है नवजात गाछी पर तनलोॅ जंगलखोर के औजार...यहाँ आवी केॅ देखवौ कि गाड़ी के गाड़ी, सवो गाछ के लहास ढोतें सड़कोॅ पर मिली जैतौं। जगह-जगह जंगल काटै के कारखाना आरो कारखाना में गाछोॅ के क्षत-विक्षत लाशोॅ के पहाड़...केकरो आँखोॅ में आंसू नें। केकरो कोय ममता नें...सलाम साहब नें आपनोॅ गाड़ी सें हमरा बिहार-बंगाल के उजाड़ जंगल के देखनें छेलै...बस सड़क के किनारी-किनारी कुछु पेड़ आरो दूर-दूर ताँय कटलोॅ पेड़ के जंगल, जेना आँखी के किनारी-किनारी पिपनी बची गेलोॅ रहेॅ, मतरकि भौंह नोची देलोॅ गेलोॅ रहेॅ। भयानक लागै छै नी, सौन्दर्यहीन? होने आबेॅ लागेॅ लागलोॅ छै ई बिहार-बंगाल के उजाड़ जंगल...यातायात के व्यवस्थौ जंगल केॅ की कम नष्ट करी रहलोॅ छै? एक सड़क जखनी दूर के शहर सें जोड़ै लेॅ बनै छै, तखनी जानै छौ, कत्तेॅ बड़ोॅ जंगल बीचे-बीचे खतम होतेॅ रहेॅ छै। ई देखना छौं तेॅ ई आपनोॅ इलाका आवी केॅ देखौ...समझै में नें आवै छै, जखनी ओतना बड़ोॅ-बड़ोॅ बांध बनैलोॅ गेलोॅ होतै, तखनी कत्तेॅ-कत्तेॅ बड़ोॅ जंगल खतम होय गेलोॅ होतै। लाखो पेड़ एकरोॅ पेटोॅ में तेॅ गेले होतै; फेनू आबादी केॅ बसावै में जंगल के सीना छीललोॅ गेलोॅ होतै। हरा-भरा जंगल केॅ है उजाड़ प्रदेश हेने होय गेलोॅ छै कि देखत्हैं आँख डबडबाय जैथौं। रांची-हजारीबाग के ई पठार, जे कभियो जेठो में हिमालय प्रदेश के आनन्द देतेॅ होतै, आबेॅ तेॅ शिशिर केॅ हंकारोॅ देतेॅ मौसम में भी जाड़ा के अनुभव नें भै रहलोॅ छै, यहेॅ कारण छै कि यहाँकरोॅ लोगोॅ में शायत शीतलता के अभाव बनेॅ लागलोॅ छै...धूल, धुआँ, धूप नें आदमी में गुस्सा, बौखलाहट, आतंक, हत्या के भाव भरेॅ लागलोॅ छै...आय यहांँ आदमी में असन्तोष छै-कभियो नें खतम होय वाला असन्तोष। की यहाँकरोॅ लोग कभियो ई सोचेॅ पारतै, आखिर ओकरोॅ असन्तोष के पीछू के कारण की छेकै? आय यहाँ आदमी के पास एत्तेॅ सुख-समृद्धि होला के बादो शंाति नें छै, घुटन छै, ईर्ष्या छै, अपनत्व नें छै। हमरा ताज्जुब लागै छै, भूमि सें भूमि केॅ अलग करै वास्तें यहाँकरोॅ लोग जुलूस निकाली रहलोॅ छै, सड़क बंद करी रहलोॅ छै, हत्यो करी रहलोॅ छै, मतरकि ओकरोॅ जंगल कटी रहलोॅ छै, ओकरोॅ हृदय निकाललोॅ जाय रहलोॅ छै, जेकरा सें ऊ जिन्दा छै, ई बातोॅ के केकरौ चिन्ता नें छै। यहाँकरोॅ नेतां समृद्धि के मूल स्रोत के प्रति लोगोॅ केॅ उदासीन करी केॅ स्थिति के भयावहता सें ऊ सब केॅ उदासीन करी देनें छै आरो आपनोॅ व्यक्तिगत लाभ-क्षेम वास्तें यहाँकरोॅ संस्कृति, यहाँकरोॅ भौगोलिक पहचान खतम करी रहलोॅ छै। आबेॅ समझै में आवै छै कि मजाके मजाक में कहलोॅ गेलोॅ वसन्त का के बातोॅ में कत्तेॅ दुख, कत्तेॅ व्यंग्य छेलै-भोला नैं विराजतै झारखंड में, बसतै आबेॅ झरिया-खान में ना।

अभी तेॅ दू-तीन महीना हेने यायावरी करै के मोॅन छै। फेनू एक संगठन बनाय केॅ वन-संरक्षण वास्तें कुछ करौ के मौन छै। घरोॅ के कुछ चिन्ता नें छै। काका परिवार सहित चम्पारण सें आवी गेलोॅ छेलै, जखनी हम्में घोॅर छोड़लेॅ छेलियै। हुनी धनकटनिये तक नें, चैताहो अबकी कटैयै केॅ जैतैै। जों ई बीचोॅ में तोहें गाँव लौटी जा तेॅ गाँव भरी के संवाद ज़रूरे दिहौ। जब ताँय दोसरोॅ पता नें भेजी दियौं, हमरोॅ पता छेकै-विधाता, मारफत, अमरेश चन्द्र घोष / बरकाकाना, हजारीबाग, बिहार।

तोंहें कहै छेलौ नी कि रुपसा भरी में हमरोॅ घरोॅ कें ऐंगन हेनोॅ केकरो बड़ोॅ ऐंगन नें छै, आय वही ऐंगन भर तोरा हमरोॅ प्यार।

तोरोॅ विधाता