जटायु, खण्ड-19 / अमरेन्द्र
दीपा आरो विधाता के निकली गेला के बाद, रुपसा गाँव के जना भाग्ये भंगटी गेलोॅ रहेॅ। सबके मुहोॅ पर घुमाय-फिराय केॅ एक्के बात...एत्तेॅ बड़ोॅ आबादी के एत्तेॅ बड़ोॅ गाँव में मुट्ठी भरी लोगें एत्तेॅ बड़ोॅ कुचक्र रची रहलोॅ छै आरो हमरा सिनी चुप छियै...बैर भाव के करेॅ? यही डरें नी? पर कल जखनी यही मुट्ठी भरी लोगें सौंसे रुपसा केॅ मुकियैतै, तखनी? तखनी तेॅ आपनो घरो में शरण नें मिलै वाला छै, हों...हमरा सब मालूम छै। हमरै नें, केकरा ई मालूम नें हुएॅ लागलोॅ छै कि शनिचरा के कान्हा पर बन्दूक राखी केॅ के नुकी-छिपी गोली छोड़ी रहलोॅ छै...दिखाय पड़ी रहलोॅ छै खाली शनिच्चर। केकरौ आँख छै तेॅ देखौ, शनिचर के पीछू-पीछू छुपलोॅ सोराजी चौधरी, भैरो चौधरी, सुधीर घोष आरो अरविन्द दत्ता केॅ। अरे मुँहोॅ पर करखी लेपी लेला सें नाक-ठोर-मूँ नें बदली जाय छै...शनिचर केॅ की। अरे ई सिनी तेॅ छौड़ा-नौड़ा छेकै। एकदम कच्चा माँटी. थोपी-थोपी केॅ जोन रूप दै दौ, वही बनी जैत्हौं। पर जेकरोॅ वयस होय चललै, ओकरा की चाहियोॅ? ...तबेॅ दस ठो गाँव के छौड़ा केॅ बरगलाय केॅ जोॅन चाल आनन्दी बाबू, बिरजू का, चमोकन चौधरी आरो सनातनी मेहता चली रहलोॅ छै, ओकरा हम्में जीते जी नैं हुएॅ लेॅ देवै...रुपसा रोॅ आपनोॅ संस्कृति रहलोॅ छै, आपनोॅ कहानी। ई इलाकै भरी केॅ नें, सौंसे देश केॅ ही यैं पढ़लोॅ-लिखलोॅ आदमी देनें छै, ओकरा हेन्हें केॅ धूल में थोड़े मिलै लेॅ देवै...सोचै छै, आग लगाय देवै, अरे एकरोॅ पहिलें हम्में घोॅर-घोॅर, गल्ली-गल्ली में नद्दी बहाय देवै, नद्दी आरो तबेॅ देखवै कि ई सिनी गाँव में केना केॅ आग लगाय छै...लंका बनाय लेॅ चाहै छै आरो यहाँकरोॅ लोगोॅ केॅ राकस। नें होतै, नें...तबेॅ आग लगौं पारेॅ, जों विभीषण घरे में बैठलोॅ-बैठलोॅ राम-नाम जपतें रहतै। सब विभीषण केॅ चौक-चौराहा पर आवै लेॅ लागेॅ। विरोध करै लेॅ, लड़ै लेॅ, कैन्हें कि अबकि राक्षसें हनुमान के भेषोॅ में आपने सोना के लंका में आग लगाय लेॅ तैयार छै ...ई रवि चक्रवर्ती, गंगा राव, जोगी, खुशीलाल आकि प्रसून लतांते सें ही की होयवाला छै; अकवाली सिंह, भुमेसर पांडे, दर्शन ओझा, हाकिम यादव, सब केॅ सामना आवै लेॅ लागतै। ई गाँव के मरजाद के सवाल छेकै, गाँव के मरजाद, माय के मरजाद छेकै, जेकरा जोगना गाँव भरी के कर्तव्य बनै छै। ई एक आदमी के सवाल नें छेकै" ...बरसो पहिलें मुखियागिरी छोड़ै वाला शिवचरण पांडे वसन्त चौधरी केॅ साथ लेनें, आय बीस रोजोॅ सें रुपसा गाँव के टोला-टोला जाय केॅ सबसें यही कहलेॅ फुरी रहलोॅ छै।
कोय दबलोॅ आरो कोय मुँह खोली केॅ बसन्त चौधरी के पक्षोॅ में छै। खेत-खलिहान आरो चौपाल में आबेॅ एक्के चर्चा चलै छेलै...गाँव के कोय जों गाँव लेली घाती बनी जाय छै, तेॅ ओकरोॅ साथोॅ सबकेॅ कुलघाती नैं बनै लेॅ देलोॅ जैतै...अरे शनिचर तेॅ खाली गूरोॅ के मुंह छेकै। पीव कहाँ-कहाँ छुपलोॅ छै, ऊ तेॅ हम्में नी जानै छियै...शनिच्चर नेक बात मानतियै तेॅ हमरै सिनी मुखिया चुनी लेतियै। पर रावणोॅ केॅ विभीषणे के बात सुहैलोॅ छै। ओकरोॅ सभा में जेन्होॅ-जेन्होॅ राकस जुटलोॅ छै कि रावण रोॅ दसो मुड़ी कटवाय केॅ रहतै। राजनीति में पारँगत होलै सें की, जबेॅ आपनोॅ बुद्धिये नें। रावणें तेॅ वेद पढ़लोॅ पंडित छेलै। जे बुद्धि कैथ-टोली, बभन-टोली के शहरुआ बाबू नेै लगैनें छै, ऊ फलीभूत नें हुवै वाला छै, हों...एक दीपा नैं छै, यही नी...चौधरी घरोॅ के पुतोहू आरो गाँव भरी के बेटी, मीरा बेटी गाँव-गाँव घूमी केॅ जोॅर-जनानी केॅ तैयार करी रहलोॅ छै-गंगा पार के सवासिन छेकी, साँच वास्ते जानो केॅ कुछ नें बुझै वाली...आखिर परिवारोॅ के गुण तेॅ मनोॅ पर पड़नै छेलै। की-की रँ विधाता के पक्ष लै-लै केॅ बोली रहलोॅ छै, जेना अपने टा दियोर रहेॅ...खबर मिललोॅ छै कि विधातौ दस-बीस रोजो में गाँव पहुँचै वाला छै। अनिरुद्धें चिट्ठी लिखनें छै...कहै छै हजारीबाग में कोय संगठन बनैलेॅ छै विधााता। यहू मालूम होलोॅ छै जबेॅ कोय गाछ काटै छै तेॅ ओकरोॅ संगठन के लोग गाछी सें चिपकी जाय छै। कहै छै पहलें हमरा काटोॅ, तबेॅ गाछ। कहै छै नी, होनहार विरवान के होत चिकने पात...बच्चे सें गाछ-बिरिछ के प्रति विधाता केॅ कत्तेॅ मोह रहलोॅ छै। आपने बारी के झबरलोॅ आमी के गाछ केॅ जबेॅ दलसिंह बाबूं कटवाय देनें छेलै, तेॅ यही विधातां तीन रोज खैवोॅ-पीवोॅ छोड़ी देनें छेलै। केकरो मनैला सें नें मानै, जेना देवता रुसी गेलोॅ रहेॅ हो बाबू...आय वही विधाता केॅ देखौ-गाछी सें सट्टी जाय छै, गर्दन कटै तेॅ कटै, गाछ नें कटैतै...आखिर बीर षष्ठी के दिन जनम होलोॅ छै नी...दिन-नक्षत्रा के असर तें जन्मोॅ पर पड़वे नी करै छै...देखोॅ आभी मुखिया के चुनावो में ढेर दिन छै, मुखिया के होतै, के नें आरा एखनिये सें घरउजाड़ू सिनी के गाल देखौ, केन्होॅ बाजी रहलोॅ छै...जंगल में बेघर सबका लब्बोॅ घर उठेगा, पुराना गाछ गिरेगा। सफेदा लगेगा...हिनका सिनी सफेदा नें, गाँवभरी के मुंहोॅ पर चूना लगाय लेॅ चाहै छै, चूना। हों।