जटायु, खण्ड-1 / अमरेन्द्र

Gadya Kosh से
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पुरवा के झोंका सें आरी के किनारी-किनारी झबरलोॅ निसुआरी के गाछ सिनी हेने झूमी रहलोॅ छेलै, जेना महुआ रोॅ निसांव ओकरोॅ माथा पर चढ़ी गेलोॅ रहेॅॅ। पुरवा जेन्हैं कुछु तेज हुवै कि निसुआरो एक-दूसरा सें लिपटी-लिपटी बाँसुली के सुरोॅ में गीत गावेॅ लागै छेलै। आकि हेने लागै, जेना निसुआरी के बीचोॅ में बैठी कोय बाँसुलिये टेरतें रहेॅ-छिनमान मोहनावाला बाँसुली। सुनत्हैं तन-मन बेसुध करी दै वाला-एकदम चितचोरवा संगीत। पुरवा रुकै तेॅ बाँसुलियो बजबोॅ रुकी जाय, जेना बजवैयां बाँसुली में दुबारा फूँक मारै लेॅ दम खींचते रहेॅॅ आरो एक क्षण वास्तें हठाते सन्नाटा पसरी जाय छेलै।

गोधुली बेला होय में आभी आरो कुछ देरी छेलै। मतरकि भगवान विश्राम लै लेॅ तेजिये-तेजी पच्छिम दिश भागी रहलोॅ छेलै, आपने धुनोॅ में-झपकलोॅ आँखी सें। गाँव के पिछुलका बाँधोॅ परकोॅ, कै पुस्तो सें खाड़ोॅ बुढ़वा बरोॅ के गाछी पर चुनचुन चिरैयाँ के झुंड बंधेॅ लागलोॅ छेलै। जत्तै चिरैया, ओत्तै रँ के आवाज। जेना एक्के साथ हजारो तबलची सब्भे तालो में तबला-डुग्गी ठोकवोॅ शुरू करी देलेॅ रहेॅ। कि तखनिये ताड़ोॅ गाछोॅ के डमोलोॅ एत्है जोरोॅ सें खड़खड़ाय उठलै कि दीपा के तेॅ जेना जाने निकली गेलै। जानोॅ रोॅ मोह आदमी केॅ एकदम प्राकृत अवस्था में लानी दै छै, विवेक-ज्ञान के सब बान्हन केॅ तोड़नें-ताड़नें। आदमी के बनावटी संस्कार तखनी आदमी के दुमड़िये नाँखि अलोपित होय जाय छै। दीपाहौ के कुछ हेने स्थिति तखनी भै गेलोॅ छेलै। हुन्नें डमोलोॅ के खड़खड़ैवोॅ आरो हिन्नें जेना पीपर के भीजलोॅ-कोमल पत्ता उड़ी केॅ दीवाल सें सट्टी गेलोॅ रहेॅॅ, दीपाहौ विधाता सें होन्हैं चिपकी केॅ रही गेलै।

एक बारगिये जेना प्राणोॅ के सब सितार बजी उठलोॅ रहेॅॅ, ठीक होन्हे विधाता केॅ एक क्षण वास्तें लागलोॅ छेलै। ओकरा लागलोॅ छेलै कि ओकरोॅ देहोॅ में कोय अबुझ राग बाजी गेलोॅ रहेॅॅ-अपने आप, जेकरा सुनी ऊ एकदम बेसुध होय गेलोॅ छेलै। कुछ क्षण लेली तेॅ वहू मूर्तीये बनलोॅ रहलै-जानी-बुझी केॅ। आरो फेनू विधातां आपनोॅ बोली केॅ कत्तेॅ कोमल करी दीपा सें कहलेॅ छेलै, "अरे, डमोलोॅ खड़खड़ैलै। यै में डरै के की बात छै। कोय गिद्ध-चिल्ह बेठलोॅ होतै, आरो की।" आरो वैनें रूई वाला स्पर्श सें दीपा केॅ अलग करी देलेॅ छेलै।

विधातां आँख उठाय केॅ डमोलोॅ दिश देखलकै, एक गिद्ध आपनोॅ डैना समेटतें एक डमोलोॅ पर बैठे के कोशिश में आभियो इस्थिर नें हुएॅ पारी रहलोॅ छेलै। सायत चिढ़ैय्ये लेली विधातां दीपा सें हँस्सी केॅ कहलेॅ छेलै, "झाँसी के रानी, ज़रा ऊपर देखोॅ, गिद्धे छेकै, तोरो टोला के परसबन्नी में नांगटे नाचै वाली सिंगारी भुत्तिन नैं।"

आपनोॅ इस्थिति आरो विधाता के बातें तेॅ दीपा केॅ एकदम लाजोॅ में गोती केॅ राखी देलकै। ऊ लाजोॅ सें एकदम टुहटुह लाल होय उठलै, जेना एक क्षणोॅ लेली परासो केॅ मात दैलेॅ तैयार भै गेली रहेॅॅ। जे देखी एक क्षण वास्तें विधातौ पत्थल बनी गेलोॅ छेलै। आँख फाटले के फटले रही गेलै। ओकरा हेनोॅ लागलोॅ छेलै, वें एक नें, बल्कि खिललोॅ पलासोॅ के जंगल देखलेॅ रहेॅॅ। विधाता के आँख अपने आप एक क्षण लेली बन्द होय गेलोॅ छेलै। कि तखनिये दीपा के नजर विधाता पर पड़ी गेलोॅ छेलै, "अरे तोर्हौ गिद्धा सें डोॅर लागै छौं?"

आरो दोनों आपनोॅ-आपनोॅ जीत के सवाद चाखतें हँसी पड़लै, जेना पागल पुरवैया के छूला सें निसुआरी सिनी फेनू बाजी उठलोॅ रहेॅ।

कि फेनू वही खड़-खड़। दोबारहै नें, तीन-चार बार खनै-खन में।

"बाप रे बाप, है एत्तेॅ गिद्ध एक ताड़ोॅ पर। की रँ के असगुनिया बोली निकाली रहलोॅ छै।" दीपां सामान्य भेतें कहलेॅ छेलै।

"आभी तेॅ चारे-पाँच नी ऐलोॅ छै। गोधुली आरो गिरेॅ दौ। एक-एक डमोलोॅ पर दू-दू गिद्ध बैठी केॅ आवाज करै छै। कभी तेॅ एक-दू आरो कखनियो सब एक्के साथ। घरोॅ में घुसल्हौ पर थिर नैं रहेॅ देत्हौं।" कहतें-कहतें विधता हठाते गंभीर होय उठलोॅ छेलै।

"ते है यहाँ पर पोसी केॅ राखलोॅ छौ कथी लेॅ?"

ई बात दीपां गंभीरता केॅ तोड़है लेली कहनें छेलै आरो वही भेलै। विधातां हँसते हुएॅ कहनें छेलै, "तेॅ की हमरा सिनी आबेॅ गिद्धै-चिल्हा पोसै छियै? सुग्गा-मैना सें हमरा सिनी केॅ दरेस नें छै की?"

"है सब बात तेॅ ऊपर बैठलोॅ मशानोॅ के मेहमानें बतैथौं।"

"ई मेहमान तेॅ ई गामोॅ में आठ-दस बरसोॅ सें ही दिखाय पड़ेॅ लागलोॅ छै, नें तेॅ यहाँकरोॅ लोगें की एत्तेॅ-एत्तेॅ गिद्ध के बासो जानै छेलै। नैं कल्याणी के समाधि बनतियै, नें ई मशानोॅ के मेहमान यहाँकरोॅ वासिन्दा।"

"कल्याणी के समाधि?" दीपा हठाते चौकी उठलोॅ छेली।

"हौं, है सब बात तेॅ तोरा मालुमो नें होथौं...बीस साल से ज्याद्है के घटना भै गेलोॅ होतै। तोहें तखनी गाँव छोड़ी दैलेॅ छेल्हौ। तखनी तोरोॅ उमिरो की होत्हौं, मुश्किल सें पाँच-छोॅ साल। हम्में समझै छियै कि तोहे बटेसर बाबा केॅ सायत जानत्है होभौ।"

"नें जानै छियै, मतरकि है कल्याणी के खिस्सा?"

" वही तेॅ बताय लेॅ चाहै छिहौं। कल्याणी हरगौरी बाबा के बेटी रहेॅ -एकलौती बेटी...हौ, हौ-वहाँ देखौ, कुच्छु टीला नाँखि दिखाय रहलोॅ छौं नी, वहेॅ छेकै हरगौरी बाबा के कोठी। एक बीघा वाला कोठी। देखवैया के पँच-पँच थमवैया लागै-बस हेने। राजा-रजवाड़ा सें कम शान नें राखै छेलै बटेसर बाबा।

"पर कहानी तोहें कल्याणी के कही रहलोॅ छेलौ।" दीपा जेना कल्याणी के कथा छोड़ी केॅ कुछ सुनै लेॅ तैयार नें रहेॅ।

"धीरज धरोॅ। कल्याणिये पर जाय रहलोॅ छियौं। कल्याणी दस-बारह के भेलै तेॅ कोठी के सब पूजा-पाठ के भार आपन्है पर लै लेलकी। एकदम पुजारिने भेषोॅ में विहान-शाम। हौ, हौ देखी रहलोॅ छौ नी, छोटोॅ रँ के मठ। कोठिये के ठाकुरबाड़ी छेलै। वाँही कल्याणी भोरे-शाम प्रातकालिक आरो संझवाती वास्तें आवै छेली। आन्हैं छेलै। झोॅड़ पड़ेॅ कि उठेॅ बिन्डोवोॅ। कल्याणी नैं रुकैवाली छेली। आरो एक दिन हेनोॅ भेलै कि बिन्डोॅवो सें कल्याणी नैं बचेॅ पारली।"

"की, बिन्डोवोॅ में ऊ कहीं उड़ियाय-पुड़ियाय दबी-मरी गेलै।"

"बस हेने समझोॅ।" विधाता रोॅ बोली हठाते भारी होय गेलोॅ छेलै।

"साफ-साफ बतावोॅ नी, की भेलै कल्याणी केॅ?"

"कल्याणी उड़ियैतै-पुड़ियैतै की, सबटा ठाकुरवाड़ी के पुरहैत जी के कारणें। कल्याणी केॅ रोज भोर-शाम मंदिर में दीया जरैतें देखी केॅ पुरहैतो के मनोॅ में जोत जरी उठलै। छवारिके रँ तेॅ छेवो करलै पुरहैत। मतरकि यहू बात कोय नैं जानै छेलै कि पुरहैतोॅ मनो में जोत तेॅ बादोॅ में जागलोॅ छेलै, कल्याणी-मनोॅ में वहेॅ जोत, ऊ पुरहैत लेॅ कहिया सें जरी रहलोॅ छेलै। आरो एक दिन दोनोॅ इंजोर एत्है बढ़लै कि मंदिर एकदम अन्हार सें भरी गेलै।"

"ई ते पाप छेकै। समाज-परिवारोॅ के विश्वास के प्रति छल।"

"मजकि ऊ दोनों के नजरियो में की ई पाप पापे छेलै, नैं कहलोॅ जावेॅ सकेॅ। पाप तेॅ मनोॅ केॅ दाबी अपकर्म करै में होय छै। मन खुली गेला पर वही पाप कहाँ रही जाय छै। ओकरा पुण्यो तोहे कहेॅ पारोॅ। प्रेम के प्रकाशन कोय कमजोर मनोॅ के कूवत नैं छेकै। प्रेम केॅ पूर्णता दै वाला ऊ चट्टान नाँखि होय छै, जेकरोॅ सीना सें पानी के सोत बहतें रहेॅ छै आरो आपन्हौं ऊ सोत सें सिहरतें रहेॅ छै।"

"मजकि तबेॅ की भेलै?" पता नैं की बुझी केॅ विधाता के ई बातोॅ के प्रतिवाद करल्हैं बिना दीपां आगू के बात जानै लेॅ पूछलेॅ छेलै।

"चलोॅ, आगू के बात ठाकुरबाड़ी के नगीचे पहुँची केॅ बतैभौं।" आरो ई कही विधाता दीपा के औंगरी पकड़ी बान्होॅ सें नीचें खेतोॅ के मेढ़ोॅ पर उतरी गेलोॅ छेलै। उतरतें-उतरतें साड़ी में एकदम लटपटाय गेलोॅ छेलै दीपा, मजकि एक वेग रुकियो गेली छेलै।

लाल-लाल तपलोॅ जेठ आबेॅ पझाय पर आवी गेलोॅ छेलै, आषाढ़ के एकदम नगीच। पर आभी बरसा नैं गिरलोॅ छेलै। होना केॅ आषाढ़ के आव-भगत लेली किसानें खेतोॅ के बीचो-बीच, किनारी-किनारी सिरहोरी बनाय देलेॅ छेलै। आरी से उतरी केॅ विधाता वहेॅ सिरहोरी पर चलेॅ लागलोॅ छेलै। चेपोॅ केॅ लाती सें हिन्नें-हुन्नें फेंकी केॅ चलवोॅ विधाता लेली एक अलगे सुख के बात छेकै। कोय कुछ बोलेॅ-बुढ़ैती पर लड़कौरी कहीं सुहाय छै, पर है सिनी बातोॅ के असर विधाता पर होय वाला नैं छेलै। ऊ तेॅ दीपा साथ छेलै, नैं तेॅ सिरहौरी के सब चेपोॅ खेतो में ढनमनाय गेलोॅ रहतियै।

सच्चे में चित्त चंचल करैवाला हेनोॅ पुरवैया बही रहलोॅ छेलै कि केकरो बच्चा बनी जैवोॅ एकदम मामूली बात छेलै। खेतोॅ के बीचोॅ सें दोनों होने आगू बढ़लोॅ जाय रहलोॅ छेलै, जेना नहरी सें छुटलोॅ पानी खेतोॅ आकि काटलोॅ खाड़ोॅ के बीचोॅ सें ससरी केॅ सर्र-सर्र बहै छै। पुरबा तेॅ दोनो लेॅ जेना पंख बनी गेलोॅ छेलै।

"ठहरियोॅ, ऊ गड्ढा दिश नैं उतरियोॅ।"

"से की?" दीपा हठाते रुकतें पूछलेॅ छेली।

" ऊ गड्ढा नैं छेकै। अमृता सरोवर छेकै। देखौ, हौ भेॅ रहलै ठाकुरबाड़ी आरो ठाकुरबाड़ी के सामना-सामनी वहेॅ अमृता सरोवर के बचलोॅ अवशेष छेकै, जै में ऊ पुरहैत केॅ लोगें आखरी दफा वही बिहौती धोती पिन्ही केॅ मतछिमतोॅ नाँखि घुरतें देखलेॅ छेलै आरो फेनू कहियो नैं देखलकै। विश्वास नैं करभौ, विश्वास तेॅ खैर हमरौ नैं होय छै, मतरकि जे आँखी देखनें छै, ओकरोॅ बात केना केॅ काटभौ? बूढ़ोॅ-पुरानोॅ, काकी-दादी, केकरहौ सें पूछोॅ तेॅ बतैथौं कि यहेॅ अमृत सरोवर छेकै, जैमें संझवाती जरला के बाद दोनों नें नहाय केॅ यहे ठाकुड़बाड़ी में एक दूसरा के गल्ला में माला डाली देलेॅ छेलै। कल्याणी हठाते कनियांय बनी गेलोॅ छेली। फेनू जे कुकुआरोॅ-बिन्डोवोॅ गाँव में उठलै, तेॅ यही गाँव की, गाँव के गावँ उधियाय उठलै। ई तेॅ हरगौरी बाबू के रौब-दौब कहौ कि विन्डोवोॅ देखत्हैं-देखत्हैं ठंडैयो गेलै। कल्याणी के माँगो सें सिनूर मेटाय केॅ ओकरोॅ बीहा कलकत्ता के एक छवारिक सें करी देलोॅ गेलै। तेसरे दिन हरगौरी बाबू के आदमी कलकत्ता गेलोॅ छेलै आरो दसवें रोज कल्याणी दोभियो होय गेलोॅ छेली।

"की कल्याणी नें तनियो टा विरोध नैं करलकै?"

"यहेॅ बात के तेॅ दुख छै दीपा कि कल्याणियो नें ठाकुरबाड़ी में आपनोॅ बीहा केॅ बादो में पुरेहतोॅ के जोर-जबर्दस्ती बतैनें छेलै। ई तेॅ पुरहैत-वध के पापे रोॅ डोॅर कहोॅ कि पुरहैत मार खाय्यो सें बची गेलै, नैं तेॅ कोय आन होतियै तेॅ हड्डी-पसली-बोटी बालू, माटी बनाय केॅ राखी देलेॅ रहतियै।"

"आरो पुरहैत यहेॅ डरोॅ सें भागी गेलोॅ होतै।"

"एकदम नैं दीपा, एकदम नैं। मारोॅ डरोॅ सें भागना होतियै तेॅ दूसरे-तीसरे दिन भागतियै, जबेॅ कि पुरहैत के गायब होवोॅ तेॅ कल्याणी के बीहा के तीन साल बादकोॅ बात छेकै, जबेॅ कल्याणी ससुराल सें पहलोॅ दाफी नैहर ऐलोॅ छेली।"

"ई बात तेॅ हमरोॅ समझै में आरो नें आवी रहलोॅ छौं।"

"छै नी माथोॅ चकराय वाला? कारण जानियो लेवा, तहियो विश्वास नैं होत्हौं। जिनगी में कभी-कभी हेनोॅ घटना घटी जाय छै कि ओकरा समझना हजार बुद्धि के बाहर रोॅ बात होय जाय छै। हमरोॅ-तोरोॅ बुद्धि के बात छोड़ोॅ, आपना केॅ बड़का वैज्ञानिक समझै वाला चुप होय जाय छै। हेना केॅ कुच्छु-सें-कुच्छु कारण बताय केॅ केकरो मनोॅ केॅ शांत करी देलोॅ जावेॅ सकै छेॅ, मतरकि कारण बताय वालाहौ सही कारण नैं जानै के कारण मनोॅ सें खुद्दे बेचैन रहै छै। तबेॅ लागै छै, ई दिखाय वाला दुनियाँ सें अलगो शक्तिवान कै कोय दुनियाँ छै ज़रूर-हेनोॅ-हेनोॅ दुनियाँ केॅ व्यवस्था दै में एकेक निमिष एकदम सजग, तभिये तेॅ एत्तेॅ बुद्धि बढ़ी गेला के बादो, हौ नैं दिखैवाला शक्ति बड़का-बड़का पहाड़ केॅ धूल के नम्रता सें भरतें रहेॅ छै। जों है नें होतियै तेॅ पुरहैत आरो कल्याणी के हौ घटना केना होतियै।"

"की होलै?" दीपा के बेचैनियौ सीमा तोड़ी देलेॅ छेलै।

"बतैयो देलियौं तेॅ विश्वास नें करभौ। वैमें शहरोॅ के हवा-पानी खैलोॅ-पीलोॅ आदमी केॅ हेनोॅ सिनी बातोॅ पर विश्वास तेॅ आरो नैं होय छै। होना केॅ विश्वास करोॅ कि नैं करोॅ मतरकि है सच छेकै-तीन साल बाद कल्याणी आपनोॅ दुल्हा साथें आपनोॅ नैहर लौटली छेलै, गोदी में आपनोॅ जेठोॅ बच्चा लेलेॅ। समुच्चा गाँव में कल्याणी के आवै के खबर मची गेलोॅ छेलै। कल्याणी ऐलै तेॅ लोगोॅ केॅ पुरहैतो के खयाल ऐलै। सही बात तेॅ यहेॅ छेकै कि कल्याणी के ससुराल गेला के बाद सें ऊ ठाकुड़बाड़ी एकदम्में अछूत बनी केॅ रही गेलोॅ छेलै। कुमारी लड़की तेॅ की, कोय बिहोतियो संझवाती दिखाय लेॅ यहाँ ऐवोॅ बन्द करी देलेॅ छै। हों, जोॅन दिन कल्याणी ऐली छेलै, ऊ दिन दू-चार जोॅर-जनानी संझवाती के बहाना पुरहैत केॅ देखै लेॅ गेली छेलै। ई गाँव के कोय बूढ़ोॅ-पुरानोॅ सें पूछी ला, सब्भैं बतैथौं कि ऊ दिन केना साँझ्है सें ऊ पुरहैत मतछिमतोॅ नाँखि-ई जे सरोवर छौं नी, एकर्हे चारो ओर तिरफेकन दिएॅ लागलोॅ छेलै। कभी ठेहुना भर पानी में ढुकी केॅ बैठी जाय, तेॅ कभी मुड़ी टेढ़ोॅ करी लेरुवे नाँखि छलांग मारी ठाकुरबाड़ी में घुसी जाय रहेॅ। एकदम पगलाय गेलोॅ रहेॅ ऊ...तखनी है रँ परपट नैं छेलै। है ठाकुरबाड़ी के आरो ई सरोवर के हुन्नेें दिश कोॅन-कोॅन रँ के ढकमोरलोॅ गाछ नैं छेलै। कुछ तेॅ हरगौरिये बाबूं, ई ठाकुरबाड़ी सें जी उचाट होला के बादे, कटवाय लेलेॅ छेलै, बाकी गाछ हुनकोॅ पूत-पोतां आरनी। कहै छै, पचासो आदमी गाछी के पीछू सें पुरहैत के तमाशा देखी रहलोॅ छेलै, कोय मजा लूटै लेॅ, कोय ओकरोॅ दुख सें दुखित होय के ...आरो ठीक बारह बजतें होतै रात, देखवैयां देखलकै, ऊ पुरहैत आपनोॅ साथें वहेॅ बिहौती पटौरी लेलेॅ ढेर देरी बादें ठाकुरबाड़ी सें निकललोॅ छेलै आरो यहेॅ पोखरी में नहाय-सुनाय केॅ पटोरी पिन्ही लेनें छेलै, फेनू है जे पत्थर केॅ जोड़ी-जोड़ी बनैलोॅ गेलोॅ टुटलोॅ-फुटलोॅ घाट देखी रहलोॅ छौनी, यांही बैठी केॅ ऊ घंटो कानतें रहलोॅ छेलै, बच्चे नाँखि फूटी-फूटी केॅ। पूछवौ तेॅ मंगरू मामा बतैथौं कि हौ रँ पुरहैत केॅ कानतें देखी केॅ केना सब देखवैयो के कलेजा मुँहोॅ पर आवी गेलोॅ छेलै आरो चुपचाप वैठां सें चली देलेॅ छेलै...सब्भैं यहेॅ नी सोचलेॅ होतै कि रात भरी पुरहैत कानतै, फेनू बिहान होतें-होतें सब शांत होय जैतै ...यहेॅ सोची केॅ सब चललोॅ गेलोॅ होतै। मजकि, ई केकरा मालूम छेलै कि विहानै आवै वाला शांति-मशानो के शांति सें ज़्यादा भयानक भेतै। कनवैयो तक नें होतै...ठीक रात के चार-पाँच बजतें होतै, फरचो होय में कुछुवे देरी रही गेलोॅ होतै कि हौ रातकोॅ सन्नाटा में हेने आवाज भेलोॅ छेलै जेना आकाशोॅ सें पहाड़ धरती पर गिरी गेलोॅ रहेॅॅ। एक्के बारगी सौंसे गाँव जागी गेलोॅ छेलै। बुतरू-बूढ़ोॅ, जोॅर-जनानी, सब। कोय सोचै नैं पारी रहलोॅ छेलै-आखिर ई आवाज केन्होॅ छेलै। आरो जबेॅ हरगौरी बाबू के हवेली दिश सें चिकरै-हँकरै के शोर उठलोॅ छेलै, तबेॅ तेॅ लोगें पहिनें यहेॅ सोचलेॅ छेलै-हुएॅ नें हुएॅ, हौ आवाज बम फूटै के होतै। हरगौरी बाबू के हवेली में डकैती हुएॅ लागलोॅ छै, बस यहेॅ सोची गाँव भरी लाठी-फरसा-भाला लै केॅ हल्ला-गुल्ला करतें हवेली दिश दौड़ी पड़लोॅ छेलै। पर यहाँ तेॅ दुसरे दिरीश छेलै। है जे ईटोॅ-पत्थर के पहाड़ देखै छौ, हरगौरिये बाबू के कभी हवेली छेलै। ...गीत-लाद, भोज-भात के बाद हवेली सुख के नीन सुती रहलोॅ छेलै-एकदम निभोर। गाँववाला यहाँ पहुँची केॅ देखनें छेलै, यहेॅ हवेली-हरगौरी बाबू, हुनकोॅ जनानी, हुनकोॅ बेटी-जमाय आरो नाती वास्तें कब्र बनी गेलोॅ छेलै। हवेली टुटी केॅ पुरानोॅ कब्र नाँखि दिखाय रहलोॅ छेलै, जैमें एक पुस्त के साँस बंद होय गेलोॅ छेलै ...दीपा, तोरा विश्वास नें होत्हौं, जे हवेली केॅ तोड़ै में हजार मजूर केॅ महिनौ लगतियै, से क्षणै में ईटोॅ-माँटी के पहाड़ बनी गेलोॅ छेलै।" कहानी कहतें-कहतें विधाता हठाते रुकी गेलोॅ छेलै, जेना ओकरोॅ मुँहोॅ पर अनचोके कोय हाथ राखी देलेॅ रहेॅ।

दीपाहौ एकदम चुप होय गेली छेलै, ईटा-माँटी के टील्होॅ के ढेर। एत्तेॅ सालोॅ के बाद वहाँ रहियो की गेलोॅ छेलै। एकदम निरयासी-निरयासी केॅ देखी रहलोॅ छै दीपां। की जानै लेॅ चाहै छेलै। की खोजै लेॅ चाहै छेलै?

"हेना निरयासी टील्हा में की देखी रहलोॅ छौ?"

"कुछुवे नें।"

ओकरोॅ बोली सें लागलोॅ छेलै, जेना-नींदवासलोॅ दीपा केॅ कोय अनचोके झकझोरी केॅ जगाय देनें रहेॅ। फेनू सामान्य होतेॅ हुएॅ वें पूछनें छेलै, "आरो ऊ पुरहैत?"

"ई तेॅ बताय लेॅ भूलिये गेलियौं, ऊ घटना के खबर दैलेॅ कुच्छू लोग ई पोखरी दिश दौड़ी ऐलोॅ छेलै। मजकि पुरहैत यहाँ होतियै, तबेॅ नी। गाँववाला के तेॅ छोड़ोॅ, गाँव के कोय जीव, पशुओ केॅ खबर नें भेलै कि पुरहैत कखनी-केना केॅ ई गाँव छोड़ी केॅ कहाँ चललोॅ गेलोॅ छेलै। ई कत्तेॅ अजुबा बात छेकै कि जोॅन दिन ई ठाकुड़बाड़ी में पुरहैत कल्याणी साथें बीहा रचैनें छेलै, वहू दिन मंगलवारे छेलै आरो जोॅन दिन सब खिस्सा खतम भै गेलै, मंगले के दिन छेलै। की तोहें एकरा खाली एक संयोगे भर कहभौ। जे हुएॅ ओत्तोॅ बड़ोॅ दुर्घटना सें जहाँ हरगौरी बाबू के परिवार लेॅ गाँववाला दुखित छेलै, वहाँ गाँव के सब बच्चा-बुतरू पुरहैतो लेॅ।"

दीपा सें कुछुवे बोललोॅ नें जाय रहलोॅ छेलै, खाली नजर उठाय केॅ विधाता दिश देखलकै। भला बुतरू के उदासी के कारण की होतै? दीपा के बुझलोॅ आँखी में प्रश्न छेलै, जेकरा समझै में विधाताहों देरी नें करलेॅ छेलै, "पुरहैत हर मंगल केॅ गाँव के बच्चा-बुतरू के बीच मिठाय-लमनचूस बाँटै छेलै। आपनोॅ बीहा के यादगारिये में नी बाँटतें होतै आरो नें तेॅ कथी लेॅ बाँटतियै। से बच्चा-बुतरू के तेॅ हर मंगलवार दिन पुरहैत लुग भीड़ लगी जाय छेलै। जबेॅ बुतरू सिनी केॅ मालूम भेलै कि पुरहैत जी गाँव सें राते-रात चली देलेॅ छै, तेॅ दू-तीन दिन ताँय ऊ सिनी बच्चा टूअर नाँखि ई ठाकुरबाड़ी के हिन्नें-हुन्नें टौव्वैतें रहै। पर दुःख केकरोॅ स्थाई रहेॅ पारलोॅ छै, चाहे दुःख केकरो लेॅ रहेॅ। समय मेटी-माटी केेॅ सब साफ करी दै छै, जेना सिलोटी पर लिखलोॅ अक्षर केॅ कोय बुतरूं। पुरहैत केॅ बुतरूओ भुलाय गेलै आरो धीरें-धीरें तेॅ बड़को सिनी हिन्नें आवै सें डरेॅ लागलै। जोर-जनानी, बच्चा-बुतरू तेॅ ई मानिये लेलेॅ छै कि यहाँ ढेर सिनी आत्मा बिचरै छै। हम्में समझै छियै, बाटो-बटोही हिन्ने से नें टपतेॅ होतै।"

"आरो तोहें यहाँ पर विद्यापीठ खोलै लेॅ चाहै छौ, की?"

"होेेेेें, ई जमीन एकदम खाली छै। हम्में समझै छियै, हरगौरी बाबू के गोतिया ई जमीन विद्यापीठ के नामें लिखै में कटियो टा देर नैं करतै। आदमी बसतै तेॅ भूत-प्रेतोॅ के वासोॅ कहाँ रहतै, बस यही सोची केॅ।"

"से तेॅ ठीक छै, मजकि है तोरोॅ विद्यापीठ में कैटा बच्चा-बुतरू पढ़ै लेॅ ऐत्हौं। के माय-बाप आपनोॅ जवान लड़का-लड़की केॅ पढ़ै लेॅ भेजत्हौं। केकरा आपनोॅ सन्तानोॅ के मोह नैं घेरै छै, खैर है सब तेॅ बादकोॅ बात छेकै। पहनें यहाँ सें लौटोॅ।"

"भूत-प्रेत के बात सुनी देह भौआय गेलौं की? डरी गेल्हौ की?"

"हों डोॅर लागेॅ लागलै-मरलोॅ भूतोॅ के डोॅर नें छै, जीत्तोॅ आदमी के डोॅर ओकराहौ सें कहीं ज़्यादा बढ़ी केॅ होय छै। यै भूतोॅ के तेॅ झाड़-फूँक छेवो करै मतरकि हौ भूतोॅ पर कोय मंतर नें चलत्हौं। आरो मशानोॅ में जे रँ हमरा सिनी खाड़ोॅ छोॅ, यहाँ जीत्तोॅ भूत के आँख हमरा सिनी केॅ ज़रूरे घूरतें होत्हौं। नें आपनेॅ बचेॅ पारभा, नें हमराहै बचावे पारभौ? चलोॅ लौटोॅ।"

जखनी दोनों लौटी रहलोॅ छेलै, सुरूज भगवान चानन नदी के हौ पार डूबै के धड़पड़ी में छेलै। खेत पार करी दीपा गाँववाला बाँध चढ़लै, वांही सें दोनों केॅ दू दिश बँटी जाना छेलै। हुन्नें माघ-पूस के सूरजे नाँखि सूरज डूबै में मस्त छेलै आरो हिन्ने दीपा-विधाता अलग-अलग दिशा में जेठ-बैशाखोॅ के सुरूज नाँखि ठहरलोॅ-ठहरलोॅ बड़ी रहलोॅ छेलै, जेना गोड़ोॅ के गति रुकी-रुकी जैतें रहेॅ।