जटायु, खण्ड-23 / अमरेन्द्र
विधाता केॅ है रँ शनिचर के घोॅर ऐवोॅ-जैवोॅ भैरो चौधरी, काली दत्ता, निताय मंडल आरनी केॅ भी कम नें खटकी रहलोॅ छै। कै बार यै सिनी शनिचर सें यै मामला में खुली केॅ पूछलेॅ छै, "आखिर विधाता के है रँ घुरी-घुरी केॅ तोरहेॅ लुग आवै के की मतलब? जों तोरा ओकरे साथ देना छौ, तेॅ फेनू हमरा सिनी केॅ बीचोॅ में फसैला सें की? एक तोरा लेॅ, खाली तोरहेॅ लेॅ हमरा सिनी गाँववाला के नजरी में गाय कटवैय्या रँ बनी गेलोॅ छी...आरो कहीं है तेॅ नें कि तोहें हुन्नें...?" शनिचर्हौं साफ-साफ निताय मंडल, सोराजी चौधरी आरो काली दत्ता केॅ कही देनें छै, "विधाता आरो जे रहेॅ-सेॅ-रहेॅ, ऊ एक जुबान के मर्द छेकै। जे वचन दै देलकै, दै देलकै, आबेॅ सारहो पर सें नें हटै वाला।" एत्तेॅ बड़ोॅ बात कही देला के बाद सोराजी, निताय आरनी केॅ विश्वास होय गेलोॅ रहेॅ, है बात बिल्कुल नें छेलै, पर मनोॅ के शंका केॅ केन्हौ शनिचर के सामना में उजागरो नें हुवै लेॅ देलेॅ छेलै।
चाहे काली दत्ता भैरो चौधरी सें मिलै कि भैरो चौधरी निताय मंडल सें, मिलत्हैं कहै, "ई बात हमरोॅ बुद्धि में केन्हौं नें अंटै छै कि जों शनिचर केॅ विधाता सें कुच्छू भीतरिया बात नें छै, तेॅ ओकरा आपनोॅ दरवाजा पर आवै सें साफ-साफ मना कैन्हें नी करी दै छै? कांही ऊ दूमुंही साँप नाँखि दोनो दिश काटै लेॅ तेॅ नें सोची रहलोॅ छै?"
"अरे नें समझै छैं, आखिर छेकै तेॅ दोनो एक्के चंडाल-चौकड़ी के पट्ठा, आय नी है ससुरमुँहोॅ बनवोॅ छैकै। सूना में यै लेॅ मिलतै होतै कि दोनों आपनोॅ-आपनोॅ कहानी केन्हौ केॅ बचैलेॅ राखियों...ही, ही, ही...आरो यहू बात छै कि हमरा सिनी केॅ ओकरा सिनी के मिलवोॅ-जुलवोॅ सें की लेना। महीना डेढ़ महीना भरी के तेॅ खेला छेकै। हुन्नें मुखिया-चुनाव होतै आरो हिन्नें ही, ही, ही, ही।"
"देख निताय, हमरा एकरोॅ इन्तजारो नें करना छै कि शनिचर मुखिया बनतै। एकरोॅ की गारँटी छै कि शनिचर मुखिया बनवे करतै, अरे मुखिया-चुनाव होली के दस रोज बाद छै आरो होली आय सें पन्द्रहवें रोज पर छै। हमरा सिनी केॅ वही लगारी जे करना छै, करी लेना छै।"
"है विचार एकदम ठीक। मानी लेॅ चुनाव में शनिचर हारी जाय छै तेॅ ओकरोॅ बाद वन की, बेनाठी तक काटवोॅ मुश्किल समझें आरो विधाता के ऐला के बाद तेॅ गाँव के रवैय्यो बदली रहलोॅ छै, वै सें की कहलोॅ जावेॅ सकै छेॅ कि शनिच्चर मुखिया बनिये जैतै। शनिचरा ठिक्के में शनिचर बाबू होय्ये जैतै। देखै नैं छैं, की रँ है दसो ठो छौड़वा-विधतवा, अनिरुधवा, खुशिया, प्रसूनमा, कमरुद्दीनमा, जोगिया, गंगवा, रविया, आरनी जन्नें मोॅन, तन्नें खाड़ोॅ होय जाय छै आरो करेॅ लागलोॅ नौटंकी। कहै छै नुक्कड़ नाटक छेकै।"
"घुर नुक्कड़ नें, है लुक्कड़ नाटक छेकै। जहाँ विधतवा आरो अनिरुधवा हेनोॅ दस ठो लुक्कड़ नुक्कड़ पर जुटलोॅ, देह-हाथ चमकैलकोॅ-वहीं लुक्कड़ आरो नुक्कड़ नाटक...ही...ही...ही...ही...हा...हा...हा...हे...हे...हे।"
"कहै छै नी-लड़का शहर सें पढ़ी केॅ ऐलोॅ-की सिखलकोॅ, तेॅ खड़ाखड़ मूतै लेॅ, वही विधतवा"
हा...हा, हा, हे, हे, हे, ही, ही, ही।
"मतर एकरा में खाली हाँसै वाला बाते नें छै भैरो...नैं ताम, नैं झाम, मतरकि है नाटकोॅ में जे ओकरा सिनी बोलै छै, ऊ आपनोॅ सिनी वाला नाटक के बात नें छेकै...ई नुक्कड़ नाटक हमरोॅ सिनी के कहीं भीतरे-भीतर जोॅड़ खोदै वाला नाटक छेकै...सच पूछें तेॅ वै में जोॅन-जोॅन पात्रा आवै छै, ऊ सब जेना हमरे सिनी के बात-व्यवहार के नकल करतें लागै छै।"
"तेॅ की ऊ सब नाटक हमरै सिनी पर लिखलोॅ जाय रहलोॅ छै, हुएॅ-न-हुएॅ, ई सब अनिरुधवा के चाल छेकौ...अरे समझै नें छैं, ई सब विधतवा के भीतरखेल छेकौ, यहीं राते-रात कमरूद्दीनवा सें है रँ के नाटक लिखवाय छै आरो फेनू दिन भरी है चौबटिया, हौ चौबटिया पर मरद-मौगी सिनी के बीच नौटंकी करवैलेॅ फुरै छै। गूड़ोॅ के गाछ, केतारी छेकै विधतवा। समझी ले। हेकरे व्यवस्था करै लेॅ लागेॅ।"
काली दत्ता आरो भैरो चौधरी एक दूसरा के आँखी में कत्तेॅ-कत्तेॅ सवाल के हल कुछ देर लेली खोजतें रही गेलोॅ छेलै।