जटायु, खण्ड-27 / अमरेन्द्र
जेना जेठोॅ के पुआली में अनचोके आग पकड़ी गेलोॅ रहेॅ आरो क्षण्है में होहाय उठलोॅ रहेॅ, वहेॅ रँ गाँव भरी में ई खबर फैली गेेलोॅ रहेॅ कि विधाता शनिच्चर एक भै गेलै, धरती सरँग एक होय गेलै। कोय जल्दी विश्वास करै लेॅ तैयार नें छेलै...तबेॅ तेॅ यही नी कहलोॅ जाय कि सतजुग रोॅ धरती पर गोड़ पड़ी गेलोॅ छै कि छत्तीस तिरसठ भै गेलै...कत्तेॅ घरोॅ सें दुआरी पर आवी-आवी आपनोॅ शंका दूर करनें छेलै, कत्तेॅ टोला-टोला सें आवी केॅ!
दसे-पाँच लोग हेनोॅ होतै जेकरा है खबर सें नें कोय हर्ष होलोॅ छेलै, नें दुख। वैं में विधाता के दोस्त अनिरुद्धो छेलै कमरुद्दीन। रवि, गंगा आरो खुशी केॅ तेॅ नहियें होलोॅ छेलै। नें होलोॅ छेलै तेॅ कारण छेलै-वैं सिनी के ई बातोॅ पर भरोसे नें होय रहलोॅ छेलै कि शनिच्चर रातो-रात केना बदली जैतै। बदलै के ठोस कारण तेॅ आखिर होना चाहियोॅ। आरो जब ताँय ऊ कारण नें मालूम होय जाय छै, तब ताँय ई दोस्ती पर ऊ सिनी केॅ भरोसे नें छै।
"शनिच्चर, चल मीरा भाभी कन।"
"नें, आय नें। हम्में अनिरुद्ध केॅ खबर करनें छेलियै। होतै तेॅ घरे में, मतरकि कहवाय देलकै-बहियार गेलोॅ छै। ई तेॅ होन्हैं छेलै। तोहें असकल्ले जाय केॅ ओकरा समझैय्यैं-सूर्य-चाँद केॅ ग्रहण लागै छै, तेॅ ओकरोॅ अंग गली केॅ गिरी नें जाय छै। ग्रहण लागै छै तेॅ ओकरोॅ शांति वास्तें, निस्तार वास्तें लोगें अनुष्ठान राखै छै, करै छै, की जिनगी भर वास्तें आँख चुरैलेॅ फुरै छै।" शनिचर ई बीचोॅ में कत्तेॅ-कत्तेॅ बात बोली गेलोॅ छैलै, ओकरे नें मालूम। हों जखनी ओकरोॅ धौनोॅ पर विधातां हाथ रखलेॅ छेलै, तखनी ऊ ज़रूरे चौंकी उठलोॅ छेलै।
"तोहें ई बातोॅ लेॅ चिन्ता कथी लेॅ करी रहलोॅ छैं, अरे आय नें ऐलै खुशी आरो अनिरुद्ध तेॅ की? कल ऐतै। रात भरी सोचै लेॅ दैं। कबेॅ ताँय मनमुटाव के ठंडा में घी रँ जमलोॅ रहतै, ज़रा टा सच्चा दोस्ती के आँच लगत्हैं बरकी जैतै।" आरो कुछ हुएॅ-न-हुएॅ, विधाता के दोस्ती के आँच पावी शनिचर एकदम पिघली केॅ रही गेलोॅ छेलै।
"विधाता, एक बात तेॅ तहूँ नै जानतेॅ होब्हैं, अबकी फगुआ तेॅ वही खुशी में मनतै।" हठाते बात केॅ बदलतें शनिचर नें कहलेॅ छेलै।
"ऊ की?"
"महिना भरी पहलें हम्में दीपा कन गेलोॅ छेलियै। देखलियै दीपा के नानी सत्तो काकी पर गरमाय रहली छै। हमर्हौ आचरज भेलै कि आखिर बात की छेकै? कि तखनिये सत्तो काकी बोललै, 'सुनोॅ, है बात की हम्में बोली रहलोॅ छियौं, दीपा आरो विधाता केॅ लै केॅ सौंसे गाँव-टोला में काना-फूसी होय रहलोॅ छौं, धनुकायन दी। ठिक्के कहै छियौं-दीपा केॅ रोकोॅ।' आबेॅ ई सुनना छेलै कि दीपा के नानी तर-ऊपर करै तेॅ लागली आरो वहेॅ लहरोॅ में कहना शुरू करी देलकै, -छोड़ोॅ सत्तो माय, हम्मू जानै छियै, कोॅन-कोॅन टोला में की-की गुप-चुप होय रहलोॅ छै आरो ओकरा लेॅ काँही खुसुर-फुसुर नैं छै। हम्में नाम गिनैय्यौं, एकरा सें यहेॅ भलोॅ होथौं कि मने-मन गिनी ला। जों हम्में अपनी नतनी दीपा के बीहा विधाताहे सें सोचलियै तेॅ बड़का आफत होय गेलै...जोॅन दिन दीपा के माय-बाबू दीपा केॅ हमरोॅ गोदी में सौंपी केॅ स्वर्ग सिधारी गेलै, वहेॅ दिनोॅ सें दीपा हमरे बेटी नी। एकरोॅ जात हमरे जात नी। आरो सुनोॅ सत्तो माय, ठोठोॅ में अँगुरी दै केॅ नैं बोलबावोॅ कि कोॅन बड़ोॅ-बड़ोॅ जात के बेटी छोटका सिनी के घरोॅ में जाय केॅ नै बैठी रहलोॅ छै, इलाका भरी आँख उठाय केॅ देखौ तेॅ पता चलथौं। आरो सुनी लेॅ कान खोली, हम्में विधाता के पितयैनी सें यै लेली बातो मनवाय लेलेॅ छियै, है बात गेठी में बान्ही ला आरो के की कुकह्नारोॅ करै छै, हमरा यै सें कोय्यो मतलब नै..." शनिचर नें विधाता के धौनोॅ दबैतें फेनू कहलेॅ छेलै, "हम्में ई बात केकरौ नै कहलेॅ छेलियै, तोरा सें पहलोॅ दाफी कही रहलोॅ छियौ। बोल, यही बातोॅ पर होली में साथी साथें होलियैवै की नैं?"
विधाता नें फटलोॅ-फटलोॅ आँखी सें शनिचर केॅ देखलेॅ छेलै, जेना ओकरा ई बातोॅ पर विश्वासे नै होलोॅ रहै। फेनू ठोरोॅ पर मुस्की लानतें कहलेॅ छेलै, "तोरोॅ बिना तेॅ जोगीरा के मज्है फीका पड़ी जाय छै शनिचर आरो होली जोगिरा बिना की..." दोनों एक्के साथ ठठाय पड़लोॅ छेलै।