जटायु, खण्ड-2 / अमरेन्द्र

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"कल्हे दीपिया केॅ विधतवा के हाथों में हाथ डाली केॅ ऐतें देखलेॅ छियौ।"

"की मलकी-मलकी, झूमी-झूमी केॅ, जेना ऊटोॅ साथें झूल झुलतेॅ रहेॅ।"

"ई विधतवो जन्मे सें साँढ़ जनमलोॅ छै। आबेॅ साँढ़ छेकै तेॅ... ढीवा, प्रफुल्ल, खखरी आरो बम-बम के ठहाका एक्के साथें जेना उधियाय उठलै। कान फाड़ी दै वाला ठहाका। मजकि शनीचर चुप्पे रहलै। ठोर के कोनियो नें हाँसलै। ई देखी केॅ खखरीं दुसरोॅ तीर छोड़लकै," की शनिचर, विधाता के किस्मत पावै के मनौती भगवानोॅ सें करी रहलोॅ छैं? "

"खखरी, बोली-चाली पर लगाम रखें। विधाता के बारे में तोरा जे कहना छौ, कहें, ऊ तोरोॅ दोस्त छेकौं, मजकि दीपा बारे में जे भी बोलना छौ, सोची-समझी केॅ बोलैं। है बात भूलियैं नें कि दीपा के बाबू हमरोॅ बाबू के मित्रा छेलै, वक्त पर खूनो बहाय वाला। हम्मू ई बात केॅ नें भूलै छियै। आरो जहाँ तक मनौती के बात छै खखरी, ऊ तेॅ मनोॅ में छेवे करै। ऊ मनौती छेकै, ई सौंसें इलाका के विधाता बनै के. हमरोॅ नजर छै, ऊ इस्कूली पर, जेकरोॅ प्रिंसिपल विधाता के होवोॅ लगभग-लगभग तय छै। खखरी, कुछ हेनोॅ भी तिरिया चाल चलें कि विधाता प्रिंसिपल नें हुएॅ पारेॅ। जों ऊ होय गेलै, तेॅ वें आपनोॅ बुद्धि-बलोॅ पर केकरो चाल नें चलेॅ देतौ। आरो सुन, है बात के भनक, विधाता केॅ तेॅ की, ई गाँव के हवौ-पानी तक के नें होना चाहियोॅ कि हम्में विधाता लेली हेनोॅ सोचै छियै। आखिर ऊ हमरोॅ दोस्त छेकै। पर है तेॅ राजनीति नी छेकै आरो राजनीति तेॅ छिनार होय छै, जहाँ कोय केकरो नें होय छै। की ढीवा, ठीक कहै छियै नी?"

"हमरोॅ बॉस कभी ग़लत कहेॅ पारेॅ? कभी ग़लत सोच्हौ पारेॅ? एकदम बीछी-बीछी केॅ फिट बात बोलै छै। अरे, संसद में है रँ बात करै वाला नेता होना चाहियोॅ, जे साफ-साफ बोलेॅ सकेॅ, आबेॅ हेनोॅ की, जे वहाँ पहुँची बिलय्ये नाँखि सुकुड़यैलोॅ नुकैलोॅ रहेॅ कि कहीं कोय डेस्को नीचू कुछ पूछी नें देॅ। आरो जबेॅ हेनोॅ सिनी आदमी वहाँ जावेॅ पारेॅ, तेॅ की हमरोॅ शनिच्चर नैं जावेॅ पारेॅ? की कमी छै हमरोॅ शनिचर में। पुरजा लै केॅ नैं, आपनोॅ कुवत सें बी0 ए0 पास करलेॅ छै, एक-दू के नें, हजार-दस हजार लोगोॅ के माथोॅ आपनोॅ भाषण सें घुमाय दियेॅ पारेॅ। तेॅ कथी में कमी छै जे कि हमरोॅ बॉस दिल्ली-पटना सरकार में नें घुसेॅ पारेॅ।"

"कहूँ कमी नें छै ढीवा, कहूँ कमी नें छै। हम्में एत्तेॅ जे कुछ करी रहलोॅ छियै, आखिर कहाँ पहुँचै लेॅ? दिल्लिये-पटना नी?" शनिचर भावपूर्ण मुद्रा में कहनें छेलै। फेनू ढीबा दिश मूँ करी केॅ बोललै, "पहुँचवोॅ एत्तेॅ आसानो तेॅ नें छै। एकरोॅ वास्तें चाहियोॅ, छल-प्रपंच, जोर-जबर्दस्ती, आकि सेवा, विश्वास, प्रेम। मतरकि है सेवा, विश्वास वाला रास्ता सें राजनीति में ऐवोॅ जिनगी बिताय देवोॅ होतै। हमरा तेॅ आयकल में दिल्ली-पटना पहुँचना छै; ढीवा, आयकल में। आरो एकरोॅ वास्तें पहिलके मार्ग आयकल ठीक छै। कै ठो छै-जे दुसरोॅ रास्ता सें आवै छै? ...यही सें नी कहै छियौ तोरासिनी के, या तेॅ है श्रीज्ञान विद्यापीठ खुलवे नें करेॅ, जों खुलेॅ तेॅ विधाता ओकरोॅ प्रिंसिपल नें बनेॅ। देख, जों विद्यापीठ यैं ठां खुललौ तेॅ आदमी के बुद्धि बढ़ेॅ लागतौ आरो बुद्धिवाला तेॅ बात-बात में टांग अड़ायवाला होय छै। कुछु करै लेॅ चाहवैं तेॅ जुलूस निकालतौ, धरना देतौ, सब गुड़-गोबर। हमरा सिनी जे राजनीति करै छियै, ऊ मुर्खे पर चलै वाला छेकै एक बात जानी लेॅ जेकरोॅ जत्तेॅ बुद्धि छोटोॅ होय छै, ऊ ओत्ते आपनोॅ जाति-धरम पर मरै-मिटैवाला होय छै, यही सें कहै छियौ कि केकरो बुद्धि नैं बढ़ेॅ देना छै। परफूल, तोहें छेकैं हमरोॅ ग्रूप के चाणक्य, कुछ हेनोॅ कर कि है विद्यापीठ के प्रिंसिपल तोहें बनी जो। जों हेनोॅ होय जाय छै, तेॅ यहाँ विद्यार्थी नें, हमरोॅ कार्यकर्त्ता रहतै। आखिर हमरा सिनी के मिटिंग-माटिंग करै वास्तें ऑफिस-ऊफिस चाहियोॅ की नें? की हेने बहियारी-बहियारी भेलोॅ फुरवैं?"

सब्भैं शनिचर के बात बड़ी ध्यानोॅ से सुनलेॅ छेलै आरो सब सुनला के बाद बमबमें ठेहुना बलें खाड़ोॅ भै केॅ कहलेॅ छेलै, "शनिचर, तोहें एकदम ठीक कहै छैं। हमरा सिनी केॅ एक जग्घोॅ चाहियोॅ, जहाँ बैठी केॅ मौज-मस्ती बाँटेॅ सकौं। आबेॅ कखनियो खइये, पीयै के मोॅन भै जाय छै तेॅ रोजे-रोज जग्घे के तलाशी करै लेॅ पड़ै छै। ऊ इस्कूली के प्रिंसिपल परफूल होतै तेॅ हमरोॅ कलालियो वाहीं नी होतै। की परफूल?"

"तोरा सिनी चुप रहें। यै में परफूल के की विचार छै, पहलें यही जानना चाहियोॅ।" शनिचरें बमबम केॅ आगू बोलै सें रोकतें कहलेॅ छेलै।

"यै में हमरोॅ की विचार, तोरा सिनी साथ देभैं तेॅ यहू होय जैतै।"

"देख परफुल्ल। हम्में तोरा यै में यै लेली भिड़ाय लेॅ चाहै छियौ कि तोहें भेलैं विधाता के जात। यै सें बात कुछ आरो होव्हो करतै तेॅ दूसरोॅ रँ के होतै। जों हम्में खाड़ोॅ भै छियै तेॅ कल्हे सें कलम-लाठी के झगड़ा खाड़ोॅ होय जैतै। नहियो होतै, तेॅ सब जातें मिली केॅ हेनोॅ बनाय देतै। तोरोॅ खाड़ोॅ भेला सें एकरोॅ बाते कहाँ उठै छै। हम्में तेॅ पीछू सें छेवे करयौ। की?"

"से बात तेॅ ठिक्के छै मतरकि..."

"जाति सें केना लड़भैं, यही नी?"

"से बात नें छै शनिचर। जातोॅ में कुछ बरियो होय छै की नें? विधाता ऊ खानदानोॅ के छेकै, जेकरोॅ घरोॅ के बिल्लैयो वेद-पुराण बोलै छै। भर रुपसा गाँमे के बात नें छेकै, ई इलाका भरी में ओकरा सिनी के विद्या-बुद्धि के मुकाबला करै वाला के छै? की है तोंहे नें जानै छैं? हम्में सोचै छेलियै कि ओकरोॅ सामना में भला के गाँववाला हमरा सहतै।"

"सहतै, एकदम सहतै, मुरुख कैथ। तोहें विधाता के ऊ गोतिया सिनी केॅ आपनोॅ पक्ष में पहिलें लान तेॅ, जे विधाता घरोॅ सें भीतरे-भीतर जलै छे, वही तेॅ विधाता केॅ विधवा बनाय देतै। की समझलैं? ...हम्में समझी गेलियै है रँ तोरा समझै में नें ऐतौ, जब ताँय बुद्धि-बूटी के गंध तोरोॅ गल्ला बाँटै दिमागेॅ में नें जैतौ।"

शनिचर के एतना कहना छेलै कि सब्भे के चेहरा एक बारगिये खिली गेलै। बुद्धि-बूटी के सब सरँजाम ढीव्है केॅ करै लेॅ लागै छै, रगड़-घस्स सें लै केॅ पत्थल के चीलम केॅ लाल घंघरी पिन्हैवोॅ ताँय। से ढीवा आपनोॅ कमर सें लत्ता में लपेटलोॅ गांजा निकाली केॅ आपनोॅ बायाँ तलहथी पर दायाँ अंगुठा सें दम दै केॅ रगड़ना शुरू करी देलकै। दम दै केॅ रगड़ै वक्ती ढीवा ठेहुना बलें एड़िया पर ज़रूरे बैठी जाय छै आरो जै बार रगड़ दै छै, तै बार ऊ लगभग ठेहुना तक झुकी आवै छै। झुकै-उठै के बीच ढीवा आपनोॅ आदत मुताबिक वहेॅ फेंकड़ा पढ़ेॅ लागलोॅ छै,

लाल गेहूँ की लचलच पुड़िया आ पुड़िया की ठ्ट्ठ
मैं छाकूँ, तुम खाओ मुसाफिर, तब मचे गहगट
नहीं सुहागिन, यह भी नहीं गहगट, वह भी नहीं गहगट
लाल पलंग पर लाल बिछावन ओ तकियन का ठ्ट्ठ
मैं सोऊँ औ तुम भी मुसाफिर, तब मचे गहगट
नहीं सुहागिन, ये भी नहीं गहगट, वह भी नहीं गहगट
तब हरे बाँस की हरी पत्तियाँ आ चिलमन की ठ्ट्ठ
मैं भरूँ और तुम पीओ मुसाफिर, तब मचे गहगट
हाँ मुसाफिर यह भी रही गहगट, वह भी रही गहगट

ढीवा आखरी तीन पंक्ति तभिये बोलै छै, जबेॅ कली के रगड़ के ज़रूरत नें रही जाय छै, नैं तेॅ ऊपरलके पंक्ति दोहरैतें-तेहरैंते रहेॅ छै। जखनी वें साँस खिंची केॅ आध मिनट तक गहगट बोलथैं रही जाय छै, तबेॅ सब्भै केॅ ई मालूम भै जाय छै कि माल बनी केॅ तैयार होय चुकलोॅ छै।

इखनियो वहेॅ भेलै। चिलम में काटलोॅ कली कस्तुरी के गंध सें गमकी उठलोॅ छेलै आरो देखत्हैं-देखत्हैं चिलम के मुँह कोय राकसे रँ रहि-रहि केॅ फुक-फुक आग उगलेॅ लागलोॅ छेलै, सबके मुँहों से लगी-लगी केॅ।

"ई छोड़ा के हाथोॅ में जादू छै। मंतर मारी-मारी केॅ रगड़ै छै, नें तेॅ दुवे फूँक में आँख केन्होॅ सबके पलाश फूल बनी गेलोॅ छै। शनिचर एक दाफी तहूँ लै केॅ देखैं नी।" खखरीं कहलेॅ छेलै।

"नें खखरी, अभी नैं। देखै छैं, विधाता केॅ पीतेॅ? सब बन्द करी देलेॅ छै, नें गांजा, नें दारू, नैं पुड़िया। एकरोॅ रहस्य हम्में नी समझै छियै। पीत्हौॅ होतै तेॅ खाली नुकैये-चोरैये केॅ। दोस्त तेॅ हम्मू ओकरे छेकियै, मतरकि आबेॅ कहियो देखै छैं, वें हमरोॅ संगत करै छै? नैं तेॅ वही विधाता हमरोॅ साथें महुवा महादेव बनले रहै छेलै। आय ओकरोॅ साथी छेकै-बस कमरूद्दीन, जोगी, रवि चक्रवर्ती आरू खुशीलाल। वैं में लतांत आरो खुशीलाल तेॅ मत पूछैं-यहू भुलाय देलेॅ छै कि दोनों हमरे गोतिया छेकै। तबेॅ जात के दुश्मन जाते होय छै। लकड़ी नें कटतियै जों आरी के पीछू में लकड़ी नें होतियै। जावै लेॅ दैं। जों जोगी, खुशीलाल ओकरोॅ साथ छै, तेॅ प्रफुल्ल आरो बमबम हमरोॅ साथें। जोड़ी बराबर छै, देखना तेॅ आबेॅ यही छै कि ऊँट कोॅन करवट बैठै छै।"

"ऊँट वहेॅ करवट बैठतै, जोन करवट हमरासिनी ओकरा बैठैवै। नें बैठतै तेॅ टांग तोड़ी केॅ बैठैलोॅ जैतै।" भारी निसांव के कारण प्रफुल्लें बड्डी मुश्किल सें एत्तेॅ बात कहेॅ पारलेॅ छेलै आरो वांही एक गाछी सें आपना केॅ साटी साधू-सन्यासी रँ आपनोॅ गोड़-हाथ फैलाय केॅ आँख बंद करी लेलेॅ छेलै।

"बस यहेॅ तेॅ तोरा सिनी में छौ, जहाँ पीलैं कि कोय मरड़ बनै छै, कोय मौनी बाबा। एक अनिरुद्ध-विधाता केरोॅ जोड़ी छै। रातो भर संगति करतै तेॅ रातो भर कुछु करै के ही संकल्प लेतेॅ रहतै। यहाँ तेॅ तोरा सिनी के मुँह में जोरन नैं गेलौ कि जमी केॅ थक्का। हफ्ता भरी बाद मिटिंग छेकै आरो परफुलवा के हाल देखवे करी रैल्होॅ छैं। तोरो सिनी सुतवे करवैं-कोय आगू, कोय पीछू। तोरा सिनी के बल्लोॅ पर प्रिंसिपल पदों सें विधाता के हटैवोॅ फूँक मारी केॅ भट्ठी बुझैवोॅ नाँखिये छेकै।" एतना कही शनिचर गुस्सा में उठलै आरो कमीज-पजामा केॅ जोरोॅ सें झाड़तें पुबारी टोलोॅ दिश चली देलकै-लम्बा-लम्बा डेग मारनें। देखलैं नी चौधरी के मिजाज" प्रफुल्ल ने आपनोॅ मुंदलोॅ आँखी सें बोललै।

"केकरा की कहवैं परफुल्ल, एक चौधरी होतियै तो समझैलोॅ जावेॅ पारेॅ छेलै" खखरी ने आपनोॅ मंुदलोॅ आँखी केॅ बड़ी मुश्किल सें खोलते कहलेॅ छेलै। सौंसे इलाका में हमरो गाव विचित्रा छै-बाभनो चौधरी, ग्वारो चौधरी, कैथो चौधरी, साहुआ चौधरी। ई भेलै सच्चा समाजवाद-बाभन-नौहवा, सब ठाकुरे ठाकुर। पकड़तें रहोॅ के-के जात छेकै। शनिचरो चौधरी, सोराजी का चौधरी, भैरूवो का चौधरी, विधतवो चौधरी आरो नै तेॅ नै खेखरहौ चौधरी। ई गाँव के नाम रुपसा के राखलकै, अरे एकरोॅ नाम तेॅ होना चाहियोॅ-चौधरगाँव। की खखरा? " ढीबां एकदम भारी गल्लोॅ सें कहलेॅ छेलै।

"धुर मरदे, हे कोय नाम भेलै-चौधरगाँव। यहे नाम कलखनी बनी जैतै-चोर गाँव। कहीं जैवैं तेॅ आनगाँव के लोग बोलतौ, चोरगाँव के कुटुम ऐलोॅ छै।"

खखरा के बात सुनी अब तक चुप्पी बमबम नै एत्है जोर सें ठहाका लगैलकै कि जेना छोटोॅ मोटोॅ ठनके-ठनकी गेलोॅ रहै। "चोरगाँव के कुटुम" सब्भे नें एकेक करी केॅ ई बात दोहरैलेॅ छेलै आरो वाँही पर हँसी सें लोटपोट होतें आपनोॅ जग्घा पर पटुआय गेलोॅ छेलै।

शनिचर के जैतें देखी केॅ बमबम, खखरी आरो ढीवो एक लम्बा साँस खींचतें वाँही पर आपने-आपने जग्घा पर आहिस्ता-आहिस्ता ओघराय गेलै।