जटायु, खण्ड-6 / अमरेन्द्र

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"खखरी, कमरूद्दीनवा के चौधराहट देखलै नीं।"

"से तोहें नें देखलैं की?"

"जे कहै छियौ, चुपचाप सुनलेॅ जो।" अनचोके शनिचर के मुँह-हाथ तनी गेलोॅ छेलै, "ठिक्के, कमरूद्दीन के बातोॅ सें तेॅ यहेॅ लागै छै कि जेना विधाता आरनी केॅ शंका छै कि हमर्है सिनी अखौरी बाबू केॅ भड़कैलेॅ छियै।"

"बातो तेॅ सहिये छेवै नी करै शनिचर।" खखरीं बड़ी नरम बोली में कहलकै।

"अरे मूरख, तेॅ जाय केॅ ई बात विधतवा आरनी केॅ कही आवैं। तोरोॅ जात में सब पढ़ी-लिखी केॅ डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर भै गेलै, मतरकि तोरा आपनोॅ बुद्धि सें कुछ लेना-देना नैं। एकदम नाम नाँखी दिमाग पैलेॅ छैं, एक गंगा छै, तोरे जात नी छेकै रेॅ। एक तोहें छैं। अरे कभियो तेॅ बुद्धि केरोॅ बात करलोॅ करें।"

"तेॅ ले, हम्में चुप होलियौ। तोहें आपनोॅ ग्रामोफोन बजावें आरो हम्में कान पटैलें सुनतें रहवौ, बस।"

"तोहें हमरोॅ ग्रामोफोन सुनें की नें सुनें। जखनी राज खुलतौ आरो कमरूद्दीन के ग्रामोफोन बाजतौ, तखनी गाँव भरी सुनवैय्या मिलतौ। समझलैं नी खखरी।"

"विधतवो केॅ कम नैं समझै, ऊ गूरोॅ छेकै तेॅ कमरूद्दीन मूँ छेकै। हों।"

"से तेॅ ठिक्के कहै छैं खखरी। मतरकि हेकरा सें है तेॅ पता लगवे करै छै कि गूरोॅ के दरद आरो मुँह के चिकरवोॅ-एक दूसरा सें कत्तेॅ जुड़लोॅ छै। हमरोॅ पीड़ा-परेशानी पर कोय आहो करैवाला छै की?"

"की बात करै छैं शनिचर। तोरोॅ चिन्ता के कारण यहेॅ नी छेकौ कि विधाता के प्रतिष्ठा गाँव-जवार में बढ़लोॅ जाय रहलोॅ छै, तेॅ ऊ प्रतिष्ठा केॅ मेटियामेंट करै के भी वेवस्था करी लेलोॅ गेलोॅ छै।"

"ऊ केना खखरी?" शनिचर के चेहरा पर अनचोके एक विचित्रो चमक आवी गेलोॅ छेलै।

"ऊ हेना केॅ...है तेॅ तोरहो मालूम होतौ कि कमरूद्दीन, गंगा, लतांत आरो खुशीं, भीतर-भीतर है मोॅन बनाय ऐलोॅ छै कि चानन के शीशम वाला वनोॅ के बीच विद्यापीठ खोली देलोॅ जाय। मिटिंग-मिटांग फेनू देखलोॅ जैतै, जहिया होतै, होतै। आरो हमरोॅ पलान सुनें। जोन दिनां विद्यापीठ के वैंठा तरी पड़तै, ऊ दिन तेॅ अथितियो सिनी के गल्ला में मालाहौ पड़वे करथै? बोलें हों। वही वक्ती में हम्में बेलिया सें अतिथि साथें विधाताहौ के गल्ला में माला डलवाय देवै।"

"अरे, तेॅ यै में की होय जैतै। तोहें नहिंयो डलवैवें, तहियो डालतै-प्रिंसिपल बनै के नातें।"

"शनिचर, हमरा तेॅ दिमाग नहिंयै छैं, लागै छै तोरो नैं छौ। अरे बेलियां चाहेॅ जोॅन मनोॅ सें विधाता के गल्ला में माला डालेॅ, हम्में आरो प्रफुल्ल यहेॅ सोचलेॅ छियै कि हुन्नें माला पड़तै आरो हिन्नें हल्ला उड़वाय देवै कि बेलियां भरी स्वयंवर में विधाता केॅ वोॅर चुनी लेलकै।"

"तेॅ लोगें मानी लेत्हौ, आरो हेकरा सें हमरा फायदा की होतै-ई तेॅ बताव।"

"बुद्धि होतियौ तेॅ समझी गेलोॅ होतियैं। खैर। देखैं, लोगें है बातोॅ पर मानै छियै कि विश्वास नें करतै, मतरकि ई डोॅर-भय सें गाँववाला आपनोॅ लड़की केॅ तेॅ विद्यापीठ नहिंये जावेॅ देतै। आरो जबेॅ लड़किये नें जैतै, तेॅ विद्यापीठ कहाँ सें। ई स्कूल तेॅ गामोॅ रोॅ अछरकटुवी आरो मुरुख लड़किये केॅ विद्वान बनावै लेली नी खोललोॅ जाय रहलोॅ छै आरो वही नैं, तेॅ इस्कूले की। मानलियै कि बसन्तका हेनोॅ दू-चार नें आपनोॅ बेटी-पुतोहुओ केॅ भेजियै देलकै, तेॅ वहै से विद्यापीठ बनी जैतै की? ऊ तेॅ नदियो-बहियार जाय छै तेॅ आठगो मिलिये केॅ जाय छै।"

"बुद्धि तेॅ लगैनें छैं खखरी। आरो सुन-यैमें हमरा सिनी केॅ केन्हौं केॅ ऊँट आपनोॅ करवट लै केॅ बैठाना छै, जों है नें होय छै, तेॅ है जानी ले-हौ जे शीशमोॅ के वोॅन छै, ओकरोॅ एक्को गाछ भविष्य में हमरा सिनी के नसीबोॅ में नें आवै वाला छौ। इखनी तेॅ गाछोॅ केेॅ काटियो लै जाय छैं, कोय नें जानै छै, कलखनी जबेॅ वांही विद्यापीठ होतै तेॅ कोय-न-कोय आदमियो चौबीसो घंटा रहवे करतै, तखनी गाछ काटवोॅ तेॅ की, दातुन वास्तें टहनियो तोड़वोॅ काल बनेॅ पारेॅ। हम्में नी जानै छियै, विधाता केॅ-अच्छा कामोॅ लेॅ तेॅ ऊ दोस्तियो खराब करी लै छै। आरो फेनू तेॅ ऊ एकदम्में एकबघ्घोॅ होय जाय छै, एकदम सुराहा। कोय बात बोली देलकौ, तेॅ बोलिये देलकौ, फेनू तेॅ रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई."

"फिकिर नोट शनिच्चर। फिकिर नोट। नैं केकरो प्राण जैते, नें केकरो वचन, जैते तेॅ बस विद्यापीठ।"

खखरीं जखनी ई बात कहलकै, तखनी ओकरोॅ दोनों ठोर हाँसै के क्रम में तनतें-तनतें एकदम्में सोझोॅ होय उठलै। जखनी कोय गंभीर चाल सोची केॅ खखरी हाँसै छै, तखनी ओकरोॅ दोनों ठोर हेने होय जाय छै। एक दूसरा सें जेना लट्ठा सें सटलोॅ, तिरैलोॅ, जेकरोॅ नीचें हँसी भीतरे-भीतर दम तोड़ी दै छै। सिसकियो भर बाहर नें निकलेॅ पारै छै। हेनोॅ हाल में ओकरोॅ आँखो अपने-आप बंद हुएॅ लागै छै। एखनियो वहेॅ रँ होय रहलोॅ छेलै।

"खखरी, नीन आवी रहलोॅ छौ की?"

"विधाता के वरमाला पिन्है ताँय आबेॅ हमरा नीन कहाँ। बराती निकालिये केॅ ऐतौ नीन।" अबकी खखरीं नें आपनोॅ चौव्वोॅ में हँसी दाबै के जगह एक अजीबे मुड़यैलोॅ रँ हँसी मुँहोॅ सें बाहर करी देनें छेलै।

"एखनी हाँसै-कानै के समय नें छै खखरी। तबेॅ लागै छै-तोंहे विधाता के व्यक्तित्व सें परिचित नें छैं। है बात तेॅ तहूँ जानी ले, जों नें जानै छैं तेॅ-एक विधाते हेनोॅ छै, जेकरोॅ वास्तें छौड़ियो आपना केॅ बदनाम करै में गौरव महसूस करेॅ पारेॅ। जहाँ देखें, जेकरा देखैं-छोड़ी सिनी ओकरे चर्चा लै केॅ बैठलोॅ छै। ई छौड़ां पढ़ी-लिखी की लेलेॅ छै, सब्भे वास्तें जेना पनसोखा बनी गेलोॅ छै। दिन्हौं, रात्हौ-बारहो मास चमकै वाला...खखरी, ई समझवोॅ तोरोॅ भरमो हुएॅ पारै कि एक यही कारण सें विद्यापीठ चलवोॅ रुकी जैतै।"

"तेॅ एक काम कर शनिच्चर, केन्हौ केॅ ढीवा केॅ वहाँकरोॅ प्रिंसिपल बनाय दैं आरो ऊ प्रिंसिपल होय जाय छै तेॅ विद्यापीठ आपने आप बैठी जैतै। विद्यापीठ में गाँव रोॅ छौड़ी नें, हमरासिनी पहुँचवै...महिना-डेढ़ महीना आरो सालोॅ के बात छोड़, कल्हे खम्बा-खुट्टी वहाँ गाड़। है जेठोॅ के रौद सें तेॅ देहोॅ के पपड़ी उखड़ेॅ लागलोॅ छै। यहाँ गाछो के नीचू झरक सें मुँह जरी जाय छै, वहाँ गाछ सिनी के नीचू पर्णकुटीर होतै आरो कुटीर में हमरा सिनी के होतै सीधे मोक्ष। शनिचर जल्दी विद्यापीठ खुलवाव आरो वहाँकरोॅ प्रिंसिपल ढीबा बनेॅ या हमरा बनाव आकि आपने बनी जो। हौं, तोंही कैन्हें नी बनी जाय छैं। तोरोॅ नामोॅ पर विधाता हामी भी भरी देतै।" खखरी ई कही केॅ अनचोके गंभीर बनी गेलोॅ छेलै।

"सोचलेॅ तेॅ ठिक्के छैं। सोची तेॅ हम्मू यही रहलोॅ छेलियै, कै दिनों सें, मतरकि सपना विधाता के, फेनू ऊ पद के लायक विधाता...हमरा के अपनैतै। तबेॅ जों हम्में आपनोॅ मनोॅ के ई बात विधाता सें कही दियै, तेॅ हमरा टरकावै के कोय हिम्मतो नें करेॅ पारेॅ...आरो हमरा पूरा विश्वास छै-विधाता हमरा प्रिंसिपल बनाय देतै। ओकरा खाली विद्यापीठ चाहियोॅ। मालिक-मुखतार ऊ संस्था के कोय्यो रहेॅ।"

"तबेॅ फेनू बात की छै।"

"कुछुवे नें। खखरी, जबेॅ आपनोॅ सिनी के सब चाल मात करेॅ लागतै नी, तखनी बस यहेॅ करलोॅ जैतै। बस यही। विधाता के किंछा आरो गामोॅ केरी छौड़ी सिनी केॅ साक्षर करै लेली हम्में आपनोॅ हित के होम नें करेॅ पारौं। दुसरोॅ लागै छै कि अखोरी बाबू वाला जग्घा पर विद्यापीठ बनै के विरोध करी केॅ हमरासिनी फँसी गेलोॅ छियै। जों आबेॅ विधाता केॅ कहवो करवै, तेॅ जिदयाहा केॅ हम्में नी जानै छियै-खैर आबेॅ जे हुएॅ।" कहतें-कहतें शनिचर नें हाथ-मुंह एकबारगिये कस्सी लेलेॅ छेलै।