जटायु, खण्ड-7 / अमरेन्द्र
जेठोॅ के पड़पड़िया धूप, खौललोॅ पानी रँ धरती पर गिरी केॅ रुकी गेलोॅ छेलै। पोखर तेॅ पोखर, चानन नद्दी के ठोर-ठोर तांय सूखी गेलोॅ छेलै। कुछ बूंदा-बूंदी होय चुकलोॅ छेलै, यै सें ओकरोॅ पटपरी पड़वोॅ रुकी तेॅ गेलोॅ छेलै आरो जमलोॅ पानी के सूखी गेला के कारण जोॅन-जोॅन पोखरी के पपड़ी-पपड़ी उघड़ी गेलोॅ छेलै, ऊ आषाढ़ के एक अछार सें बैठी तेॅ ज़रूरे गेलोॅ छेलै, मतरकि एक अछार पानी सें तॅ धूप आरो गर्मी के रोआबो आरो बढ़ी गेलोॅ छेलै। धरती पर नें, जेना सीधे आगनी पर बुलतें रहेॅ आदमी, भगवान के थोड़ोॅ टा ऊपर उठला के बादे सें भुइयां हेने भट्ठी बनी जाय छेलै। दिन चुल्हा के धिपलोॅ पुुस्ता आरो खपड़ी के तपलोॅ बालू बनी जाय। बिहाने जे चिड़िया के चुनमुन आरो आदमी के जे शोर होय जाय, वहेॅ भरी। की मजाल छेलै कि आँखी के सामना भगवान के ऐतें-ऐतें कोय घरोॅ सें बाहर निकलै के बातो सोचेॅ पारेॅ। जेकरा मौतें घेरलेॅ रहेॅ-ओकरोॅ बाते अलग छेलै।
विधाता केॅ केन्हौं विश्वास नें छेलै कि हौ घूपोॅ में दीपा एक बहियार पार करतें आपनोॅ घरोॅ सें ओकरोॅ घोॅर चललोॅ ऐतै। हेना केॅ पावो भर जमीन पार नैं करै लेॅ लागै छै, मतरकि है धूपोॅ में चली देवोॅ तेॅ जाने पर खेलवोॅ छेलै। दीपा के दीया लौ रँ चमकै वाला मुँह-धूप के कारणें, ताम्बोॅ रँ लाल होय उठलोॅ छेलै। तमतमैलोॅ। कुछ कारखी लेलें। जेना जलते लाल लकड़ी आपनोॅ ऊपर कारखी जमैतें चललोॅ जैतें रहेॅ। एक क्षण तेॅ दीपा केॅ देखी केॅ विधाता विश्वासे नें करलकै कि ऊ दीपा हुएॅ पारेॅ।
"हेना की ताकी रहलोॅ छौ?" दीपा मुस्कैतें हुएॅ विधाता सें कहनें छेलै। "
"देखी नें रहलोॅ छियौं। हम्में तोरोॅ माथोॅ के बारे में सोची रहलोॅ छियौं। होश-हवास रहलोॅ छों की नें...है आगिन में चली केॅ आवै के की ज़रूरत छेलै।" विधाता के चेहरा पर परेशानी एकबारगिये बढ़ी गेलोॅ छेलै।
"की हमरोॅ ऐवोॅ तोरा अच्छा नें लागलौं? की बैठे लेॅ भी नें कहवौ?" दीपा के चेहरा पर आभियो वहेॅ मुस्कान छेलै।
"अरे ई बात नें छै दीपा। हमरोॅ कहै के मतलब तोहें नें समझलौ। पहिनें यहाँ आवी केॅ बैठोॅ। यै ठां।" विधातां बड़ा प्यार सें ओकरोॅ हाथ पकड़ी केॅ खटिया के सिरहौना दिश बैठाय देलेॅ छेलै, जहाँ नद्दी के किनारी-किनारी पसरलोॅ बँसबिट्टी सें ऐतें हवा सीधे पहुँची रहलोॅ छेलै। शीतल हवा के झोंका लगथै दीपा के आँख कुछ क्षण लेली बंद होय गेलै। दीवाल सें अटकी केॅ आपनेॅ केॅ निढ़ाल छोड़ी देलकै-कुछ क्षण लेली।
"तोहें थोड़ोॅ देर लेली आराम करोॅ। हम्मेें तोरोॅ आवै के खबर भाभी केॅ करी दियै।"
"कैन्हें, हमरा सें असकल्ला में डोॅर लागै छौं।" दीपां आपनोॅ आँख मुनले-मुनले कहलकै।
एक क्षण लेली तेॅ विधाता सोच्है नें पारलकै कि दीपा केॅ की जवाब दै। फेनू बिना कुछु बोलले, ऊ कल्लेॅ-कल्लेॅ दीपा रोॅ एकदम्मे नगीच पहुँची केॅ ओकरोॅ कपार पर बूंद नाँखी बनलोॅ घाम केॅ आपनोॅ कमीज के एक छोर सें उठाय लेलकै। दीपा केॅ लागलै, जेना कोय केकरो सबटा ताप हरी लेलेॅ रहेॅ, जेना केकरो तपासलोॅ कंठ पर हेमाल जल उढ़ेली देलेॅ रहेॅ। ई सब एक क्षणे में होय गेलोॅ रहै। केना, कोय नें जानेॅ पारलकै। पर दीपा बिना कुछ दुसरोॅ भाव देखैले आकि बिना ई बतैले कि आभी कुछु होलोॅ छै, आपनोॅ नींदवासलोॅ हेनोॅ आँखी केॅ खोललकै आरो सिरहानै में आपनोॅ दिश झुकलोॅ विधाता केॅ देखी ओकरोॅ दोनोॅ तरहत्थी आपनोॅ हाथोॅ में लैकेॅ वही में आपनोॅ मूँ छिपाय लेलकै। मतरकि जल्दिये दीपा सचेत होय केॅ फेनू बैठी गेलोॅ छेलै, जेना कांही कुछु नें भेलोॅ रहेॅ।
"कांही भांग खाय केॅ तेॅ नें चललोॅ छौ?"
"खाय केॅ तेॅ नें चललोॅ छियै। मतरकि सोचलेॅ छियै, अबकी होली में वही कलाली में जाय केॅ खूब महुआ पीवै, जहां तोरा सिनी।" आधे बात कही केॅ दीपा कोनराय केॅ बहुते मिललोॅ-जुललोॅ भावो सें विधाता केॅ देखने छेलै।
दीपा के बात सुनत्हैं विधाता खिलखिलाय पड़लै। कहलकै, "पीयै छेलियै, हौ कहौ।" फेनू ओकरोॅ कानोॅ के पास आवी केॅ धीरें सें कहलकै, "कहियो गाँमोॅ सें तोहें जाय केॅ है बात करलौ नी, तेॅ हम्में यही निसांव में वहाँ पहुँची केॅ तोरोॅ नाम लै-लै केॅ तोरोॅ नाम अमर करी देबौं। समझलौ?"
"एखनियै नें करी देलेॅ छौ की?" दीपा नें बड़ी अर्थपूर्ण आँखी सें ओकरा देखनें छेलै, "खैर छोड़ोॅ, हमरोॅ यहाँ आवै के कारण पुछवौ की नें?"
"हमरा सें मिलवोॅ आरो की।" आंखोॅ सें हँसतें हुएॅ विधातां कहलकै।
"जी नें, यै कामोॅ वास्तें तोरा हमरा कन आवै लेॅ लागतौं। हम्में तेॅ तोरा एक खास बात बताय ले ऐलोॅ छियों। आपना केॅ रोकेॅ नें पारलियै तेॅ ई कड़कड़िया रौद में आवै लेॅ पड़लोॅ। बाते कुछु हेनोॅ छै।"
"ऊ कोनो बात रहेॅॅ दीपा। कत्तोॅ महत्त्वपूर्ण, तोंहें है रँ धूपोॅ में नें निकली गेलोॅ करोॅ। तोरा नें मालूम, तोहें घूपे रँ हमरोॅ जिनगी वास्तें छाँह छेकौ, छाँहे बनलोॅ रहोॅ, छाँहे में चलतें रहोॅ। कभी होलै तेॅ हम्में तोरोॅ घरोॅ सें लैकेॅ आपनोॅ घरोॅ ताँय केला के गाछ लगाय देवै, जेकरोॅ छाँही में चली तोहें यहाँ, हमरोॅ घोॅर ताँय आवेॅ सकोॅ।"
"हम्में तोरोॅ वास्तें छाँह की बनेॅ पारभौं। तोरा याद भी करै छियौं तेॅ हमरा लागै छै, तोहें एक विशाल बोॅर गाछ बनी गेलोॅ छौ, कभी पीपल के झबरलोॅ गाछ आरो हम्में वही नीचू में तोरोॅ छाया के शीतल हवा पावी केॅ कभी बाँसोॅ के आरो कभी पीपरोॅ के पत्ता नाँखि बेसुध डोलतेॅ रहेॅ छी...सोचै छियै-एत्तो भावुकता की ठीक छेकै।" कहतें-कहतें दीपा के आँख झुकी गेलोॅ छेलै।
"दीपा, जे भावुक नें छै, ऊ जीवन केॅ जान्हौं नें पारेॅ। आँखी सें खाली नदी केॅ देखला सें तेॅ नें, ओकरोॅ भीतरिया रेत के पता लागै छै आरो नें तेॅ नदी के शीतलता के. आदमी रोॅ भावुकता तेॅ आदमी के कला छेकै, जीवन केॅ भीतर ताँय झाँकै के यंत्रा। ई भावुकता धरती के आदमी केॅ ईश्वर के सबसें बड़ोॅ भेंट, जे सब्भे केॅ नें मिलेॅ पारेॅ, नें मिलै छै। ईश्वर सें जेकरा ई जत्तेॅ ज़्यादा मिललोॅ छै, ऊ ओत्ते बड़ोॅ कवि, कलाकार, चिंतक बनी गेलोॅ छै। मतरकि तोहें कुछ कहै लेॅ जाय रहलोॅ छेलौ..."
दीपां आपनोॅ मूड़ी दू-तीन दाफी दाँया-बाँया हूँ-हूँ करतें डोलैलकै, जेना कहै वाला बातोॅ केॅ सोझरैतें रहेॅ आरो एक बारगिये कहना शुरू करलकै, 'हों तेॅ तोरोॅ मित्रा शनिचर हमरोॅ लुग ऐलोॅ छेलौं। कही गेलोॅ छौं-अखौरी बाबू केॅ कोय आपत्ति नें छै-जों विधाता हरगौरी बाबू केॅ परपट वाला जमीनोॅ पर विद्यापीछ खोलै लेॅ चाहै छै, तेॅ खोलै। हम्में अखौरी बाबू केॅ सब तरह सें समझाय देनें छियै।' तबेॅ तेॅ हमरोॅ सिनी के सपना पूरा समझोॅ। अरे, ई सुनी केॅ तोरा कोय खुशी नैं भेलौं? "
"बिल्कुल नैं।"
"कैन्हें?"
"कैन्हें कि विद्यापीठ आबेॅ हरगौरी बाबू के जमीनोॅ पर नैं बनतै। जों ई बनतै, तेॅ चानन नद्दी वाला चौॅर में, जेकरोॅ तीनो ओर शीशम के जंगल खाड़ोॅ छै। हों।"
"ई हठाते तोरोॅ निर्णय बदली जाय के हम्में कारण जानेॅ पारौं।"
"एखनी हम्में ठीक-ठीक नें कहेॅ पारौं। मतरकि कल रवि जोर दै केॅ हमरा कही गेलोॅ छै, 'विधाता, विद्यापीठ खुलतै तेॅ चानने वाला जमीनोॅ पर-कुछु बसै, कुछु उजड़ै-है नें होतै। नया कुछु करला सें बेहतर यही होतै कि हमरा सिनी पुरखा रोॅ बनैलोॅ सम्पत्ति-कृति के बचाभौं। यहेॅ पैहनें ज़रूरी छै, ज़रूरिये नें, नया पीढ़ी रोॅ सबसें बड़ोॅ कर्तव्य।' बड़ी गंभीरता सें कही गेलोॅ छै चक्रवर्ती।"
"मतरकि ई बातोॅ के पीछू रहस्य की हुएॅ पारेॅ?"
"हमरा लागै छै। चानन के शीशम-जंगल कारण छेकै। पहनें तेॅ एकाध गाछ कांही-कांही कटलोॅ दिखै छेलै, मतरकि पाँच साल के भीतरे की रँ चानन नद्दी के पछियें नांढ़होॅ होय गेलोॅ छै, तहूँ देखले छौ। आखिर हौ गाछी केॅ काटी के रहलोॅ छै? बाहरी वाला के साहस हुएॅ नें पारेॅ, जब ताँय नद्दी के आस-पास वाला साथें गामो के लोगोॅ के यै में हिस्सेदारी नें हुएॅ। कै दफा मिटिंग बैठलै, खोज-खबर लेली। के-के खुली केॅ सामना में ऐलै? यै सें अर्थ निकलै छै, यहूँ गामोॅ के लोग हेकरा में जुटलोॅ छै वन विभाग के अधिकारी तेॅ देखशोभा...दीपा, जंगल के तीन कोना हमरा सिनी के गामोॅ में पड़ै छै, यै लेली एकरोॅ रक्षा के भारो पहिनें हमरै सिनी पर पड़ै छै।"
"तेॅ तोंहें की सोचै छौ? यै में शनिचर दा के साठ-गांठ छै आरो यही लेली हुनी अखोरिये काका केॅ जमीन दै लेॅ मनाय लेलेॅ छै, ताकि विद्यापीठ चानन पट्टी में खुलै के बदला वहीं खुलै?"
"दीपा, यै बारे में हम्में कुछु नें कहेॅ पारौं। मतरकि, शनिच्चर केॅ हम्में जानै छियै। ऊ आपनोॅ दिमाग सें चलै वाला कम, दोसरोॅ के बातोॅ पर रहेॅ वाला अधिक छै। कोय ओकरा मनोॅ सें समझाय तेॅ दौ कि हम्में ओकरोॅ दुश्मन छेकियै, हुएॅ सकै छै, वें यहू मानी लेॅ...तखनी तेॅ ऊ आपनोॅ दिमागोॅ सें कामे लै वाला नैं...हेकर्हौ में कोय अचरज नें कि गामोॅ के दू-चार आदमी लोभोॅ में ओकरा फँसाय लेलेॅ रहेॅ या फेनू फुलाय देलेॅ रहेॅ। शनिचर के गाछी सें की लेना-देना ऊ तेॅ आपने जंगल के मालिक छै, ओकरे गाछ कटी जाय छै तेॅ ओकरा मालूम तक नै होय छै। जेभी हुएॅ, रवि ठिक्के कही गेलोॅ छै, आबेॅ हमरा सिनी पर दोहरा जिम्मेदारी आवी गेलोॅ छै-अमृत बचैय्यो के, अमृत बाँट्हौ के."
आपनोॅ बात कही केॅ विधाता एका-एक एकदम्में खामोश होय उठलै। हुन्नें दीपाहौ कोय चिन्ता में लीन होय गेलोॅ छेलै। शायत अमृत के बात ऐत्हैं दोनों ई सोचेॅ लागलोॅ छेलै कि अमृत सें सूनोॅ होय केॅ आय मन्दार केन्होॅ सूनोॅ होय गेलोॅ छै। कल एकरोॅ पेटोॅ में अमृत बसै छेलै तेॅ देवता-दानव सब्भे एकरा सें सटलोॅ रहै। आय ओकरोॅ अमृत छिनाय गेलोॅ छै तेॅ ओकरा पर देवता सिनी तेॅ की, आदमियो सिनी कभिये काल दिखाय दै छै। मनारे के भूमि पर नी बही रहलोॅ छै ई चानन नद्दी। एकरोॅ अमृत तेॅ सुखिये रहलोॅ छै, एकरोॅ गाछ जे अमृत के कथाहे नाँखि छै, कल ई कथाहौ नें रहतै, तबेॅ? तबेॅ की होतै? ...की होतै तबेॅ? ...दिन सें तमतमैलोॅ धूप के साथें-साथ दोनो के प्रश्न-चिंता-शंका-ऊ धूपोॅ सें कहीं बढ़ी केॅ दोनों के मन-प्राण केॅ बेचैन करत्हैं रहलै, करथैं रही गेलै। घंटो।