जटायु के कटे पंख, खण्ड-10 / मृदुला शुक्ला
सुवास भागलपुर से वापस आया तो खुशियां उसका इंतजार कर रही थीं। उसने न केवल मैट्रिक फर्स्ट डिवीजन से पास किया था, उसे छियासी प्रतिशत अंक मिले थे। उसके मन का एक अँधेरा कोना मानो नई दुनिया की रोशनी में आने को बेचैन था। वर्माजी चाहते थे कि वह साइंस लेकर पढ़े, लेकिन उसने फिर अपने मन को मारकर साइंस में झरिया कॉलेज में नाम लिखा लिया। अब उसे जीतपुर के सिंह चाचा या मोहली चाचा से कोई शिकायत नहीं थी। वह अभ्यस्त हो रहा था इसी माहौल में रहने का।
इंटर में पढ़ाई के साथ उसने 'भागा' के अपने स्कूल के ही दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था। घर में किसी को मालूम नहीं था। एक दिन उसने बादल से बताया कि उसे छोटी-छोटी चीजों के लिए पापा से पैसे मांगना अच्छा नहीं लगता। बादल ने प्रतिवाद किया था-पापा ने तो कभी पैसे देने से इनकार नहीं किया है, मैं भी तो लेता हूँ उनसे पैसे। "
सुवास ने बड़ा बनते हुए बादल के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "तेरी बात और है, तू छोटा है और तेरी पापा से बातचीत भी होती है। मैं तो उनसे ठीक से बात भी नहीं करता।"
बादल ने न समझने की मुद्रा में कंधे झटका दिए. मौसी सदा की तरह तटस्थ बनी रही, उसने भी मौसी से निकटता बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की।
एक दिन कॉलेज से लौट रहा था। घर के करीब बित्तन पंसारी की दुकान के सामने मोहली चाची मिल गई. सुवास ने ही हाल चाल पूछ लिया। मोहली चाची ने कह दिया, "बेटा, संयोग से भेंट हो गई है, नन्हकी की खांसी के लिए मुलेठी और गुड़ लेना था, कुछ पैसे होंगे, जल्दी ही लौटा दूंगी।"
सुवास ने बिना बात आगे बढ़ाए पाकेट से कुछ रुपए निकाल कर उनके हाथों पर रख दिए. उसी समय दूबे चाची अपने घर का कचड़ा फेंकने बाहर निकली थी। उन्होंने देख लिया, क्या समझा, क्या पता लगाया मालूम नहीं, लेकिन बात दूबे जी से होते हुए उसके पापा तक पहुँच गई थी। वर्मा जी नाराज हुए उन्होंने सुवास से इस सम्बंध में पूछा तो सुवास ने सच-सच बता दिया। वर्मा जी ने एक टेढ़ा सवाल पूछ लिया कि उन्होंने तुमसे ही क्यों पैसे मांगे। सुवास ने बिना जवाब दिये वहाँ से हट जाना ही सही समझा, तभी वर्मा जी ने फिर से गंभीर आवाज में पूछा, "ठीक है यह तो बताओ कि तुम्हारे पास पैसे कहाँ से आए?"
जाते जाते सुवास थम गया और अपनी बात में जोर देकर कहा, "पापा आपसे छोटी-छोटी चीजों के लिए पैसे मांगने में मुझे शर्म लगती है, इसलिए दो घंटे, भागा में ट्यूशन पढ़ाकर पैसों का इंतजाम कर लेता हूँ। मेरी पढ़ाई पर इससे कोई असर नहीं पडे़गा, निश्चिंत रहें।"
वर्मा जी के कंधे धीरे-धीरे झुक गए. इस कॉलोनी में किसी का बेटा ट्यूशन नहीं पढ़ाता था, अपनी हेठी समझता था। वर्मा जी को इससे तकलीफ हुई थी। बाद में एक दिन बातों में ही अपने पड़ोसी से कह रहे थे-थे कि "बेटे का कद जब बाप के बराबर हो जाय तो उसे किसी भी काम के लिए रोकना टोकना सही नहीं होता।"
उस दिन के बाद से सुवास और पापा के बीच जो झिड़की और हिदायतों भरा रिश्ता था, वह भी शिथिल हो गया।
वर्मा जी मुंगेर गए थे। उनके चाचा ने जमीन सम्बंधी कुछ काम से बुलाया था। वर्माजी के दोनों भाई भी आए हुए थे, इसलिए सप्ताह भर लग ही गया। बादल की तबीयत पहले से खराब चल रही थी। वर्मा जी के जाने के बाद और बिगड़ गई. सुवास ने अस्पताल से लाकर दवाई दी थी, लेकिन उससे कुछ लाभ नहीं हुआ। तीसरे दिन सुवास ने देखा मौसी घबराई हुई, घर में दौड़भाग कर रही थी। वह बादल के बिस्तर तक पहुँचकर दवाई उलट पलट रहा था, तभी मौसी बोली, "सारी दवाई खतम हो गई, थोड़ा भी अंतर नहीं आया है, सुबह से आँख ही नहीं खोल रहा, उल्टियां भी नहीं रुक रहीं।" मौसी की आवाज काँप रही थी। सुवास ने बादल के सिर पर हाथ फेरा, ज्वर से तपा जा रहा था। वह जल्दी से अस्पताल की ओर भागा। वहाँ ताला लगा था। इमरजेंसी वार्ड भी बंद था। आसपास रिक्शा मिलता नहीं यह सोचकर वह उल्टे पाँव घर लौटा। धूप कड़ी हो गई थी, बादल अचेत पड़ा था, उसने पल भर सोचा, अपने ट्यूशन के पैसे पाकेट में रखे, वादल को उठाया और चल दिया। जब तक मौसी या सिंह चाचा या दूबे चाची कुछ समझती वह निकल चुका था। बादल उससे डेढ़ साल ही छोटा था, लेकिन पतली हड्डी और सामान्य से कम कद काठी का होने के कारण सुवास से ज़्यादा छोटा लगता था। फिर भी कोलयरी के आड़े टेढ़े रास्ते पर
कंधे पर उठाकर उस कड़ी धूप में चलना तकलीफदेह था। पहले वह डाक्टर मिश्रा के यहाँ पहुँचा। वहाँ मरीजों की भीड़ लगी थी। सुवास ने सोचा, "डाक्टर मिश्रा इंसान नहीं भगवान हैं, घर पर भी रोगियों को देखते हैं।"
डाक्टर साहब के आदमी ने जब फीस मांगी तो उसने कहा, "मैं वर्माजी का लड़का हूँ, कोलयरी इम्पलाय का। ये हमारा कार्ड है।"
"अरे तो फिर हास्पीटल में दिखाना था न, घर क्यों ले आए."
"सुबह अस्पताल भी गया था, डाक्टर सेन ने कहा कि घर पर जाकर रोगी देखना रुल्स के खिलाफ है।" सुवास सामने खड़ा हो गया।
"ठीक ही तो कहा उन्होंने कंपाउंडर उकता रहा था। मैंने बताया कि आप एम्बुलेंस भेज दें, रोगी चलने लायक नहीं है। पता चला एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं है। मैंने मिन्नतें की कि घर जाने से पहले किसी तरह एक बार मेरे भाई को देख लें। वे नहीं माने। फिर मैं भागा-भागा घर गया और भाई को जब तक लाया अस्पताल बंद हो चुका था।"
डा। मिश्रा ने अपने आदमी के कान में कुछ कहा। उसने सुवास के कंधे पर हाथ रखकर कहा, "डा। सेन ड्यूटी में थे तो वहीं चले जाओ, वे ज़रूर देख लेंगे।"
अब सुवास का धीरज चुकने लगे। बादल के ओठ सूख जा रहे थे, आंखें चढ़ी जा रही थीं। सुवास पैर पटक कर बोला, "मेरा भाई, एक मरीज, तकलीफ में है और आप प्राइवेट प्रायक्टिस में लगे हैं, उसे देख नहीं रहे हैं। सुन लीजिए आप भी और अपने डाक्टर साहब को भी सुना दीजिए अगर मेरे भाई को कुछ हुआ तो मैं चुप नहीं बैठूंगा। सारे यूनियन और धनबाद क्षेत्रा के विधायक तक पहुँचूंगा कि आप ग़लत करते हैं। घर में डिस्पेंसरी खोल ली है और कोलयरी से वेतन लेते हैं।"
इस बार यूनियन और नेताओं की धमकी काम कर गई थी और डाक्टर मिश्रा ने सुवास को अंदर बुलाकर, बादल को दिखाने कहा। बादल को टाइफाइड का लक्षण था। टेम्प्रेचर १ॉ४ डिग्री हो गया था। डॉ। ने तुरंत कोलयरी के अस्पताल को ज़रूरी निर्देश दिए तथा एम्बुलेंस से बादल को अस्पताल भिजवाया। दिनभर के अबजर्बेशन के बाद शाम को उसे घर पहुँचाया गया। सुवास एक जिद्दी बच्चे की तरह वहीं डटा रहा। हालांकि दूबे जी और सिंह जी का साला खाना लेकर आया था। उसने न तो खाया और न ही घर गया। घर लौटकर जब थोड़ा आश्वस्त हुआ तो अकेले में मुस्कुरा पड़ा, "वाह अतुल मामा, छुटपन में आपसे सुने संवादों ने मेरे भाई की जान बचा ली। यहाँं सीधी अंगुली से कभी घी नहीं निकलता।"
पाँच दिन लगातार बादल की देखभाल कर सुवास खुद थोड़ा सुस्त हो गया था, लेकिन बादल का बुखार उतर चुका था और परहेेज वाले भोजन के साथ वह थोड़ा चल फिर रहा था। सुवास ने बादल का कमजोर चेहरा और परीक्षा परिणाम का भय देखकर उसे समझाना चाहा। बादल भाई की गोद में सिर रख रोने लगा। सुवास ने उसे ठीक से लिटा दिया, उसके हाथों को अपने हाथों से गरम करते हुए कहा-आठ दिन बीमार हो जाने से कोई पढ़ाई में पिछड़ नहीं जाता। जिस समय जिस चीज को संभालने की ज़रूरत होती है, हमें उस समय वही करना चाहिए. पहले स्वस्थ हो लो, तुम अच्छे विद्यार्थी हो और रहोगे। मैं तुम्हें पढ़कर सुनाता रहूँगा, तुम समझते रहोगे। सच ही सात दिन तक अपने कॉलेज और ट्यूशन को भूल वह भाई के पास बना रहा। बदन स्पंज करना, कपड़े बदलना, दवाई देना, टेम्प्रेचर लेकर उसे डाक्टर के पास दिखाने जाना। पिता की अनुपस्थिति में वह खुद को बड़ा और जिम्मेवार समझ सब किए जा रहा था। वर्माजी को लौटने में दस दिन लग गए, तब तक बादल ठीक होकर स्कूल जाने की तैयारी में लगा था।
वर्मा जी के आने के साथ घर में एक अजनबीयत फिर से आ गई थी। पापा की नजरों से छिप कर सुवास फिर से किताबों की दुनिया में डूब गया। मौसी ने कितना और क्या बताया था पापा को, पर सुवास को पता था कि यहाँ सभी प्रतिक्रियाएं छिपाने में विश्वास रखते थे। सब कुछ घट गया और वरसा और बादल से सुवास का रिश्ता थोड़ा उजागर होता दिखा, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। कुछ दिन बाद वर्मा जी के किसी मित्रा ने, जो उस दिन डा। मिश्रा के घर मौजूद था, जब बताया कि तपती धूप में भाई को कंधे पर उठाकर आपका लड़का डा। के घर ही नहीं पहुँचा, उसने डा।मिश्रा की खटिया खड़ी कर दी। सच ही आपका लड़का बहुत बोल्ड है। वर्मा जी अचंभित से दोस्त का मुँह देखते हैं, फिर हँस दिए, "नहीं स्वर्णकार बाबु आपको धोखा हुआ होगा, पढ़ने में वह तेज ज़रूर है लेकिन वह तो अपने घर में रोटी भी मांगकर नहीं खाता तो डाक्टर साहब के घर क्या बोलेगा।"
स्वर्णकार बाबु ने कहा, "वर्माजी हमलोग दुनिया जहान की खबर रखते हैं, लेकिन अपने बेटे को ही ठीक से नहीं पहचानते। मैं सहीं कह रहा हूँ, मैं उस दिन वहीं था।"
वर्मा जी चुप हो गए, लेकिन घर आकर भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं पूछा। बस यही किया कि उस दिन बादल के लिए फलों से भरा थैला लाकर वर्षा के हाथ में थमा दिया यह कहते हुए कि "बादल बहुत कमजोर लग रहा है।"
सुवास ने भी कमरे से सुना और मुस्कुरा दिया कि इतने दिनों बाद पापा को बादल की कमजोरी कैसे याद आ गई.
बादल सच ही कमजोर हो गया था। लेकिन पूरे घर में वही था जो वर्माजी के जाने के साथ अपनी हँसी और मसखरेपन से सबको छेड़ा करता था। इसी से लगता कि उसके बीमार होने से अभी तक घर किसी तरह बस साँस ले रहा हो। सुवास फिर घर से ज़्यादा बाहर रहने लगा था। स्कूल में जब था वर्मा जी की नजरें उसके समय के घंटों और मिनटों का हिसाब रखती थी। लेकिन अब वह उनकी घूरती नजरों के फोकस से बाहर था। अभी बादल और वर्षा पर वह नियंत्राण दीख जाता था।
वर्मा जी उस दिन घर में ही थे, इसलिए बादल रेडियो को एकदम धीमाकर सुन रहा था, सामने दिखाने के लिए किताबें खुली पड़ी थीं। सुवास कनखी से बादल को देख रहा था और अपनी भी पढ़ाई में लगा था। अचानक बादल एकदम उछल गया, "भैया कमाल हो गया, कपिलदेव ने मैच जिता दिया। अरे इंडिया जीत गया इंडिया जीत गया, बादल दोनों हाथ उछाल कर कूद रहा था, वर्षा बस हँस रही थी और सुवास प्रसन्नता के बाद भी चौकी पर कूदने से बादल को मना कर रहा था, तभी वर्मा जी घर में घुसे। वे जब तक कुछ समझे गली में लड़कों ने पटाखे फोड़ने शुरू कर दिए थे। चोरी पकड़े जाने पर बादल और वर्षा उसी तरह बुत बने खड़े थे। तभी वर्मा ने अपनी हँसी छिपाते हुए कहा-अरे बर्ल्डकप जीत गया तो क्या घर ही तोड़ डालोगे।"
रुकी हुई साँस चलने लगी, बादल चौकी से उतर धीरे से बाहर निकल गया, वर्षा पापा के लिए पानी ले आई तो वर्मा जी वर्षा से पूछा, "तू कितना समझती है क्रिकेट, तू क्यों उछल रही थी।" वर्षा झेंपकर भाग गई. बादल इतनी खुशी मनाने में ही थक चुका था, सुवास ने थोड़ा डाँटते हुए कहा पहले अपनी ताकत तो देख फिर उ$धम मचाना।
सुवास के ट्यूशन पढ़ाने की बात कॉलोनी के और घरों में पहुँची तो अलग-अलग प्रतिक्रिया थी। कुछ लोग जाँचने के बहाने वर्मा जी से अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सुवास के विषय में बात करते। वर्मा जी को बहुत बुरा लगता था, वे सख्ती से मना कर देते थे। कभी सुवास से सीधे भी लोग बात करते लेकिन सुवास एक तो 'जीतपुर' में पढ़ाना नहीं चाहता था, दूसरी बात, उसकी अपनी पढ़ाई की भी थी। उसे अपने लिए भी समय की ज़रूरत थी। पैसे जितने मिलते थे काफी थे।
ऐसे ही बातों-बातों में दूबे जी ने वर्मा जी से अपनी बेटी निशा के बारे में बात की तो वर्मा जी कुछ नहीं बोल पाए. सिर्फ़ इतना कहा कि "पूछ कर देखूंगा, उसे समय भी है या नहीं।" महीनों वर्मा जी ने इसकी कोई चर्चा घर में नहीं की। जब दुबारा दूबे जी ने टोका उन्हें, तब उन्होंने सुवास से बात की। सुवास थोड़ी देर सोचता-सा खड़ा रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या जवाब दे अपने पापा को। एक तो जीतपुर, दूसरे लड़की को पढ़ाना, दोनों ही बात उसे नापसंद थी। यहाँ दोस्तों के बीच जो बातें होंगी, उसे भी झेलना होगा और हर समय अग्निपरीक्षा पर चलना। उसने आखिर पापा से कहा, "अभी तो इंटर की परीक्षा का समय आ रहा है। मेरे पास वक्त कहाँ है कि मैं किसी को भी पढ़ाउ$ँ।"
वर्मा जी को अंदर से सुकून हुआ कि बेटा अपनी पढ़ाई को भी गंभीरता से लेता है। उन्होंने दूसरी सुबह ही दूबे जी से सुवास की असमर्थता बता दी थी। दूबे जी भी लेकिन एक ही जीवट के व्यक्ति थे। पीछे पड़ गए, "अरे अभी कभी कभार ही आ जाया करे। परीक्षा के बाद ज़रा लग के हमरी निसबा बेटी को मैट्रिक का परीक्षा पास करवा दे तो वर्मा जी आपका बड़ा एहसान मानेंगे।"
दबाव डालने पर सुवास दूबे जी के घर गया। सोचकर गया कि समय की कमी कहकर जान छुड़ा लेगा। लेकिन वहाँ तो दूबे जी पीछे ही पड़ गए. निखिल के घर से आती फुसफुसाहट से जिस दिन से सुना था कि लड़कियों वाले घर में क्यों बुलाते हो दोस्तों को उस दिन से उसने उस घर की ओर ताकना भी बंद कर दिया था जिस घर में लड़की होती थी।
उसने निशा को अपने घर में ही एक दो बार देखा था। कभी मौसी से स्वेटर का डिजाइन पूछने, कभी सब्जी देने आती थी। फूहड़-सी लड़की, जिसकी सलवार के पायंचे हमेशा गंदे और भींगे रहते थे, धम-धम कर चलती थी, पीछे से उसकी छोटी बहन भी ज़रूर आती थी।
उस दिन दूबे चाची भी बरामदे में जमीन पर बैठी थी और दूबे चाचा ने सुवास को एक कुर्सी पर बैठा कर मानो मान दिया था। अपने साथ लाए थैले से सामान निकाल कर दूबे जी बोलने लगे, "निशा की माँ सभी सामान का दाम बढ़ गया है, तो क्या साला खाना पीना छोड़ देगा। आज एक झोला फल भी लाए हैं। चलो निकाल कर सुवास को भी खिलाओ."
सुवास अजीब धर्मसंकट में फँसा था। उसने मना किया तो दूबे जी जोर-जोर से बोलने लगे, "बेटा तुम लोग तो कायथ हो, मांस मछली भक्षण करते होगे। हमलोग तो फल दूध पर ही खर्चा करते है। सवेरे-सवेरे खटाल जाकर एक किलो दूध लाते हैं। अभी सीजन का फल है, लो तरबूज खाओ."
सुवास ने फिर मना किया तो कहने लगे, "अरे चाय पिलाओ, देखती क्या हो, निसबा को बोलो बनाने, उसके मास्टर साहब आए हैं।"
इधर दूबेजी पत्नी का अलग बखान चल रहा था आत्मप्रशंसा में दोनों एक दूसरे का साथ दे रहे थे। उधर टूटी हुई डंटी वाले कप में चाय लेकर निशा हाजिर हो गई. सुवास उठ खड़ा हुआ, "नहीं चाचा जी मैं चाय नहीं पीता हूँ और मैं अब दूसरे दिन आकर देख लूंगा कि नए कोर्स में क्या-क्या पढ़ना है। मैं अभी तो अपनी परीक्षा में ही व्यस्त रहूँगा, इसलिए अपने से ही पढ़ना होगा।" रुक-रुककर दरवाजे तक आते-आते सुवास ने बात खतम की और जान छुड़ाकर वहाँ से चल दिया।