जटायु के कटे पंख, खण्ड-12 / मृदुला शुक्ला

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देखते-देखते निशा की बोर्ड परीक्षा का समय आ गया था। दो साल पहले की निशा अब बिल्कुल बदल चुकी थी। झरने-सी मचलती निशा गंभीर हो चुकी थी। घर के काम तेजी से निपटाती, उसके कपड़े साफ सुथरे होते। न दुपट्टे में हल्दी का दाग लगा होता न, समीज के छोर, भींगे हाथ पोछने से गंदे हुए होते थे। अपनी पढ़ाई में इस तरह डूबी होती कि कई बार उसे न खाने की याद रहती न सोने की। सुवास अपनी मेहनत सफल होते देख आत्मविश्वास से भरा रहता था। उसे पूरा विश्वास हो गया था कि निशा अब अच्छे अंकों से पास कर जाएगी, लेकिन कभी-कभी निशा ही घबराकर सुवास से पूछती, "क्या होगा सर? हम फेल होने से उतना नहीं डरते, जितना यह सोचकर कि लोग कहेंगे, आपने पढ़ाया ही नहीं।"

वैसे समय में सुवास उसे हिम्मत बंधाता था, लेकिन कभी-कभी खुद भी गंभीर हो जाता। परीक्षा चल रही थी, सेंटर धनबाद पड़ा था। दूबे जी ही परीक्षा दिलाने रोज ले जाते थे। उसी समय उनके भांजे का ब्याह पड़ गया ओर वे बक्सर चले गए. दूबे जी की पत्नी ने सुवास को बुलाकर स्थिति बताई और सुवास को ही निशा को परीक्षा दिलाने जाना पड़ा। ट्रेकर से धनबाद उतर कर वे लोग रिक्शा से लक्ष्मी नारायण कन्या विद्यालय पहुँचे। निशा जब तीन घंटे की परीक्षा देकर निकली तब तक सुवास एक ठोंगे में चार समोसे लिए हुए ही उसे लेने आया था।

ठोंगा देखते ही वह खिल गई थी, "आप ले आए सर, अच्छा किया, बहुत भूख लगी थी।"

"परीक्षा कैसी हुई?" चिंतित स्वर में सुवास ने पूछा।

"अचछी हुई, आप पढ़ाएँगे तो अच्छी ही होगी ना।"

"पढ़ा तो तुमने था ना" सुवास ने उसी के सुर में जवाब दिया।

"नहीं नहीं मैंने कुछ नहीं किया, आपने मेरे भूसे भरे दिमाग में विद्या डाल दी। सच ही पढ़ाई कितनी अच्छी चीज होती है।" निशा को मिर्ची लगी थी और वह शी ऽ शी ऽ करके खाती जा रही थी।

"कल भी परीक्षा है" सुवास ने उसका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए ठोंगे वाले हाथ को पीछे खींचा।

"हाँ है न" , वह तीसरे समोसे के लिए हाथ बढ़ाते-बढ़ाते रुक गई

"यह आपके लिए है, आप भी तो भूखे होंगे।"

"नहीं नहीं निशा, मैंने खा लिया है"

निशा ने फिर भी हाथ नहीं बढ़ाया तो सुवास ने एक समोसा हाथ में लेकर उसे ठोंगा पकड़ा दिया।

दोनों समय पर घर पहुँच गए थे। दूब जी की पत्नी ने राहत की साँस लेते हुए, दो दिन और सुवास को ही धनबाद ले जाने का आग्रह किया।

अगले दिन दो घंटे की परीक्षा थी। परीक्षा खतम होने पर सुवास पहुँचा तो निशा ने कहा, "सर एक घंटे का वक्त हम माई से चुरा लेते हैं। उन्हें नहीं पता चलेगा कि आज कितने बजे परीक्षाभवन से निकले।"

"मतलब?" सुवास थोड़ा चौंका।

"मतलब हमलोग धनबाद में ही कहीं एक घंटा घूमते हैं।" सुवास भी यही चाह रहा था। इधर कुछ दिनों से वह अपने आपको निशा की ओर लगातार आकर्षित महसूस करता था, लेकिन उसे समझ नहीं आता कि निशा उसे किस तरह समझती है।

उसने रिक्शा लिया और बैंकमोड़ में चाट खिलाने के बाद उसे लेकर ओल्ड मार्केट, हीरापुर तथा अन्य जगहों में भटकने के बाद आइ.एस.एम (माइनिंग स्कूल) के पास रिक्शा रोक दिया। निशा ने जिज्ञासावश पूछा-'हम अब कहाँ जाएँगे'

"हम अब पैदल चलेंगे" संक्षिप्त-सा जवाब दिया सुवास ने। रिक्शेवाले की उपस्थिति उसे असहज बना रही थी और निशा लगातार कुछ न कुछ बोले जा रही थी। वहाँ से दस गज पर एक गली में वह मुड़ा तो उसे एक छोटा-सा साफ सुथरा संगमरमर का जैन मंदिर नजर आया। यहाँ घनी आबादी नहीं थी, फिर भी दो चार लोग आ जा रहे थे। दोनों उस मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए.

निशा ने कहा, "कितनी साफ सुथरी जगह है।"

"और शांत भी, जहाँ मन की आवाज सुन सके" सुवास ने दूर आसमान की तरफ देखते हुए कहा।

निशा खिलखिला पड़ी, "आपको अपने ही मन की बात सुनने के लिए यहाँ आना पड़ा सर। आप भी मजाक करते हैं।"

"मन की बात सुनाने के लिए भी यहाँ आना पड़ा निशा" , सुवास की आवाज काँप रही थी, फिर भी जो बात कहना उसके लिए उतना कठिन था, सुवास ने उसे एक झटके में कह दिया, "निशा मैं तुम्हें पसंद करता हूँ, क्या मेरे साथ जीवन बिता सकोगी।"

निशा की हँसी अचानक मानो फ्रीज हो गई, उसके उठे हाथ उठे ही रह गए, थोड़ी देर बाद उसने उन हाथों को सुवास के हाथ में देकर कहा, "क्या ऐसा हो सकता है सर।"

सुवास ने मुट्ठी कस कर बाँध ली और निशा की ओर देखते हुए कहा, "हाँ अगर हम दोनों चाहें तो ज़रूर हो सकता है।"

निशा ने अपनी आँखें झुका ली थीं। सुवास ने फिर उन्हीं सीढ़यों पर बैठे-बैठे ढेरों बातें कीं। बचपन की, कॉलेज की और निशा के साथ बिताए पलों की भी। निशा को नई दुनिया में सब कुछ अनजाना लग रहा था। जहाँ 'सर' उसके दोस्त बन चुके थे और सच ही सर को उसकी ज़रूरत थी। उस दिन एक घंटे की बजाय तीन घंटे चुरा लिए थे दोनों ने अपने-अपने परिवार से। रोड जाम का बहाना काम कर गया था।

सुवास के लिए दिन और रात का मतलब बदल गया था। निशा की परीक्षा के बाद उसके घर जाना छूट गया था। उसकी बीए की परीक्षा भी हो चुकी थी, लेकिन अब उसे अपना भविष्य बनाने की चिंता सता रही थी। कभी-कभी किसी घरेलू काम या कुछ झरिया से सामान मंगाना होता तो दूबे जी की पत्नी बुलवा लेती थी। उसी समय थोड़ी देर को निशा से मिल पाता था। वहाँ रुकने के लिए वह चाय भी मांगकर पीने लगा था। फिर भी निराशा का दौर तो आता ही, जब उसे लगता कि निशा से मिलना बहुत कठिन है। वह जीतपुर के बाज़ार में ही खड़ा था कि बीए के रिजल्ट की खबर लेकर पेपर वाला आया। उसने पेपर लेकर देखा तो फर्स्ट क्लास में दूसरा नाम उसका ही थी। आनर्स के फर्स्ट क्लास के विद्यार्थियों का नाम निकलता था, बाकी के रौल नंबर। सुवास के चेहरे पर खुशी की चमक आई, तब तक दोस्तों ने पेपर झपट लिया, "छोड़ अब इसे, तेरा नाम तो उ$पर आ गया, हमें भी अपना रॉल नम्बर ढूँढने दे।"

इस बार के परीक्षा पीरणाम से उसकी खुशी का अर्थ बदल गया था। उसके जी में आ रहा था निशा को जाकर अपने छपे हुए नाम दिखा कर उसके महत्त्व को भी समझाए. जब भी वह निशा की पढ़ाई के लिए ज़्यादा समय देता तो उसे अपनी पढ़ाई की चिंता सताती कि कहीं उसके साधारण परीक्षा परिणाम का बोझ लोग निशा के सिर पर न डाल दें ओर वह भी तो अपने को नहीं माफ कर सकेगा। अब उसके पास, सुंदर भविष्य बनाने की एक वजह भी थी और सामर्थ्य भी।

दोस्तों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था। घर तक साथ आकर मौसी से भी मिठाई की फर्माइश की थी। इसके पहले उसके दोस्त घर नहीं आते, पर आज तो सबकुछ माफ था।

शाम को बड़ी मुश्किल से वह निशा से मिल पाया। निशा ने ही हिम्मत की थी और उसके घर चली आई थी। दोनों की आँखें मिली थीं और मौसी चाय चढ़ाने रसोई में घुस गई थी। वर्मा जी एक दिन के लिए बाहर गए थे, बादल और वर्षा को खुली छूट थी। निशा ने चाय पीते-पीते मौसी से कहा कि "मौसी परीक्षा हो जाने से खाली हो गई हूँ तो सोचती हूँ पापा का एक स्वेटर शुरू कर दूं, आप ज़रा बता देंगी।"

सुवास मन ही मन मुस्कुरा रहा था कि निशा ऐसे-ऐसे रास्ते कैसे ढूंढ लेती है, जिसके बारे में वह सोच भी नहीं पाता। खैर एक सुकून हुआ। सुवास अपनी जिंदगी, अपने ढंग से जीने का सपना देख रहा था, जहाँ न पापा की बंदिशें थीं न मौसी की खामोशी, न अतीत की कड़वी यादें थीं, न अकेलेपन का दंश जो ज़िन्दगी भर उसका पीछा करता रहा था। निशा सच्चाई को समझते हुए भी अपने से ज़्यादा सुवास के विश्वास के बल पर जी रही थी कि सबकुछ सही हो जाएगा।

वर्मा जी घर लौटे तो उसके पहले ही उन्हें पेपर से सुवास का रिजल्ट पता चल चुका था। अपने दोनों बेटों के रिजल्ट से संतुष्ट अपने आपको सही पिता के रूप में स्थापित पाकर वे आत्मविश्वास से भरे थे। लेकिन दो चार दिन बाद ही उन्हें बादल के व्यवहार से क्षोभ हो गया। बादल ने वर्मा जी से छिपकर 'माइनिंग' का फार्म भर दिया था। चयन प्रक्रिया समाप्त हो गई थी और उसके एडमीशन की तिथि आ गई थी। जीतपुर और चासनाला की दुर्घटना से वर्मा जी एकदम विचलित थे, इसलिए किसी भी कीमत पर बादल के वहाँ एडमीशन के लिए तैयार नहीं थे। बादल ने खाना पीना छोड़ रखा था और पापा ने बात करना बंद कर दिया था। घर में बच्चों के बड़े होने से उठती समस्याओं का लेखा जोखा दिन भर चलता। बादल सुवास से भी नाराज था कि ' जब खुद ट्यूशन का फैसला लिया तो पापा से पूछा भी नहीं, आज उसके फैसले में उसका साथ नहीं दे रहे थे। सुवास चाहता था उसे बताए कि "हर किसी को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है, वह अभी तक लड़ रहा है" लेकिन वह यह नहीं बता सकता था।

लंबी बहस के बाद आखिर वर्मा जी की जीत हुई और बादल को माइनिंग में जाने की जिद छोड़नी पड़ी। लेकिन उसने साफ कह दिया कि इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश नहीं लेगा, हाँ बी.एस.सी कर कम्पटीशन की तैयारी करेगा।

वर्मा जी इससे भी दुखी थे। तभी सुवास ने भी बी.एड में एडमीशन लेने के बारे में अपने फैसले के बारे में बताया तो वे एकदम उखड़ गए. उन्हें मालूम था कि बादल को तो उन्होंने माइनिंग कॉलेज में नाम लिखवाने से रोक लिया लेकिन सुवास तो सिर्फ़ सूचना दे रहा था, वह जो ठान चुका है उसे ज़रूर करेगा। बी.एड करने से वर्मा जी थोड़ा चौंके भी थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतना अच्छा रिजल्ट होने के बाद लेक्चरर के लिए भी नहीं सोच रहा बल्कि सीधे टीचर बनना चाहता था। मौसी ने सुना तो वे रसोई से बर्तन उठाकर धोने को जा रही थी, थोड़ी देर ठमक कर रुक गई. शायद उन्हें कोई वजह समझ में आ रही थी, लेकिन हमेशा की तरह वह जोर-जोर से बर्तन घिसती रही, मुँह बंद किए.

सुवास ने देवघर में बी.एड में एडमीशन ले लिया। दोस्तों ने रांची के भी एक कॉलेज का पता बताया। सुवास ने समझा कि सरकारी कॉलेज का खर्च, प्राइवेट की तुलना में कम होगा, फिर स्कालरशिप भी मिलेगी। इससे उसे पापा से पैसों की मांग ज़्यादा नहीं करनी होगी।

सेशन शुरू होने में अभी देरी थी तभी मैट्रिक का परीक्षा परिणाम भी निकल गया। सुवास ने अखबार दफ्तर की उस भीड़ में जाकर किसी तरह एक अखबार प्राप्त किया। उसकी साँसें वापस लौटीं जब सेकेंड डीविजन में निशा का रौल नंबर देखा। उसी ने जाकर निशा के घर में बताया। पेपर में अपना रौल नंबर देखकर निशा की आँखों में आँसू छलक आए. एक बार उसने सुवास को देखा और पेपर को माई के हाथ में थमा अंदर चली गई. कुछ देर बाद जब माँ ने पुकारा कि "अरे चुन्नू को भेज नंदू के यहाँ से जलेबी तो मंगा" तभी वह बाहर आई, इस बार उसने सुवास की आँखों में झाँका उसने सोचा कि अपनी और मेरी इज्जत बचाने के लिए धन्यवाद। सुवास उस दिन उन आँखों को देख वहाँ रूक ही नहीं पाया। उसे लगा कि निशा की आँखें अब बोलने लगी हैं, जो सबको सब कुछ बता देंगी।

दूसरे दिन पूरे मोहल्ले में लड्डू बँटा। मोहल्ले में पहली बिहारी लड़की थी, जिसने जीतपुर से मैट्रिक पास किया था। गौरव से दूबे जी की पत्नी का सिर उ$ँचा था। सोलह कमरे का मकान और अथाह खेती का पुराण सुनाने के बाद आजकल निशा के लिए इंजीनियर लड़के की तलाश की बात भी होने लगी थी।

इंटर में निशा का नाम भी लिखा दिया गया। वहाँ भी सारी जिम्मेवारी सुवास ने ही उठाई. कॉलेज की बस से निशा जब जाती तो पूरा परिवार अपने को सबसे अलग समझता था। वापसी में धीरे-धीरे निशा खुद भी आने लगी, क्योंकि बस को आने में शाम सात बज जाते।

सुवास दोपहर में बी.एड की तैयारी में व्यस्त था, प्रैक्टिश लेशन में रहना ज़रूरी था, इसलिए एक माह से नहीं आया था जीतपुर। आने पर निशा के घर गया तो रिंकी पढ़ाई में लगी थी और माँ सब्जी काट रही थी। सुवास वहीं कुर्सी पर बैठ गया और दूबे जी की पत्नी से ही थोड़ी बात कर रहा था तभी निशा ने आकर कॉलेज से एक फार्म को लाकर दिया। मेरिट कम पोवरिटी, निर्धनता सह मेधावी का स्कालरशिप का फार्म था। सुवास ने फार्म को पढ़ा और उसे भरने के लिए निशा के पढ़ने के टेबल तक आया। फार्म भरते-भरते उसने मुस्कुरा कर कहा, "तुम इस फार्म को भर रही हो, चाची तुम्हारे लिए अफसर दुल्हा ढूंढ रही हैं।"

सुवास ने निशाा को छेड़ने के लिए कहा था, लेकिन निशा ने कहा, "ये सब माँ का सपना है, जिसकी सच्चाई माँ भी जानती है, तीन बहनों के ब्याह के बाद एक भाई भी है, इसी से आप अपना ध्यान फार्म भरने में लगायें।"

सुवास को लगा, निशा शायद थोड़ी अनमनी-सी है, वह समय नहीं दे पाता है। उसने सर को झुकाए हुए ही उसे नजर उठाकर प्रश्नभरी आँखों से देखा तो निशा ने मुस्कुराकर सबकुछ ठीक होने का आश्वासन दिया।

दूसरे दिन वह जीतपुर में ही था कि वर्षा और मौसी में बात हो रही थी। वर्षा की एक सहेली का जन्मदिन था। वह 'फूसबंगला' में रहती थी, टाटा कोलयरी की अफसर कॉलोनी में। मौसी ने साफ मना कर दिया, वह तकिया में मुँह छिपा रो रही थी। सुवास ने उसे एक गिलास पानी देकर पहले हँसाया फिर भरोसा दिया कि "तू वहाँ जाएगी बस चुप हो जा।"

बर्माजी आफिस गए थे, मौसी सो रही थी। उसने वर्षा को इशारा किया और उसे लेकर सहेली के घर पहुँचा दिया। कोहली साहब की बेटी पिंकी उसकी अच्छी दोस्त थी। गेट के अंदर एक तरह की सुरक्षा और आजादी दोनों थी। दो घंटे बाद सुवास उसे जाकर ले आया। पिंकी उस दिन बहुत खुश थी, ढेरों बातें थीं उसके पास। वर्षा खुश लौटी लेकिन घर आकर खूब हंगामा हुआ। मौसी ने जब वर्षा पर हाथ उठाना चाहा तो सुवास ने उसे अपने पीछे कर लिया और हाथ के इशारे से बता दिया, "बस बहुत हो गया।"

मौसी बुत बनी खड़ी रही, वर्मा जी भुनभुनाते हुए वहाँ से हट गए. बादल ने समझदारी दिखाते हुए कहा, "भैया आपको नहीं ले जाना चाहिए, वर्षा अब बड़ी हो गई है।"

"अरे छठे क्लास की लड़की बड़ी हो गई और बड़ी भी हो गई तो क्या उसे घूमने, फिरने, कहीं जाने की आजादी नहीं मिलेगी।"

"माँ बोलती है यहाँ के लोग बड़े गंदे हैं, यहाँ का समाज वैसा नहीं है।"

"तो क्यों नहीं है वैसा समाज, हमीं कितने खुले दिल के हैं, हमीं से तो बनता है समाज।"

"हाँ ठीक है लेकिन हमारी कॉलोनी से तो वर्षा ही सिर्फ़ जाती है झरिया पब्लिक स्कूल पढ़ने।"

"छोटे अब तू तो कम से कम इस सबसे निकल" कहकर सुवास वहाँ से हट गया।

अगले दिन भी सुवास देवघर नहीं गया था। निशा ने बताया था कि आज दो ही क्लास हैं, कालेज में मिलना है।

सुवास धनबाद कॉलेज के गेट पर खड़ा था तभी निशा निकली और उसने एक रिक्शा ठीक कर लिया। सुवास खड़ा मुस्कुरा रहा था उसने टोका-यहीं पेड़ के नीचे बात करते हैं या किसी रेस्टोरेंट में चलते हैं। निशा ने रिक्शा को शक्ति मंदिर चलने को कहा। सुवास थोड़ा हिचकिचा रहा था, निशा बोली-बहुत दिन से मन था, आज वहीं चलते हैं।

दोनों ने जाकर मंदिर में दर्शन किए, सिर झुकाया और बाहर चबूतरे पर बैठ गए. दोपहर का समय था। लोगों का आना जाना कम था। निशा गंभीर थी, घुटने पर ठुड्डी टिकाए हाथ से जमीन पर कुछ लिख रही थी। सुवास ने पूछा, "क्या चुप रहने को यहाँ लाई हो।" निशा ने कुछ जवाब नहीं दिया तो सुवास ने उसका सिर उ$पर उठाया, कजरारी आँखें भींगी हुई थीं। सुवास थोड़ा विचलित हो गया।

"सर मेरे घर वाले मेरे लिए लड़का देख रहे हैं, अब क्या होगा? मुझ पर विश्वास है ना, मैंने प्रतियोगिता की तैयारी छोड़ बीएड इसीलिए तो करने का सोचा। बस दो तीन माह में मैं किसी प्राइवेट स्कूल में ही ज्वाइन कर लूंगा और तब तुम्हारे घर में बात करूंगा।"

"सर क्या वे मान जाएँगे?"

"मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाउ$ं तो सिर्फ़ तुम्हें और हमें मानना है हाँ उनका आशीर्वाद ज़रूर लूंगा।"

निशा सुवास के कंधे पर सिर रख सिसक पड़ी। तभी जल्दी ही लोगों के आने जाने से सावधान हो अलग बैठ गई. सुवास ने बहुत तरह से समझाया। आइसक्रीम खाकर दोनों अलग-अलग अपने घर पहुँचे।