जटायु के कटे पंख, खण्ड-13 / मृदुला शुक्ला

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बीएड की परीक्षा खतम कर सुवास जीतपुर पहुँचा तो निशा दुर्गापूजा में घर जाने की तैयारी में थी। बहुत कम देर की मुलाकात हुई थी। बाद में चिट्ठी के द्वारा लिखा था कि रिश्ते ढूँढने का काम माँ जल्दी से जल्दी करना चाहती है, इसीलिए उसे लेकर गई है। सुवास बड़ा उखड़ा-उखड़ा-सा महसूस कर रहा था। रिजल्ट का भी इंतजार लंबा खिंच रहा था। त्यौहार के अवसर पर भागलपुर जाने के विषय में सोच ही रहा था कि पता चला विजयादशमी के दिन अतुल की सगाई होने जा रही थी-नये फैसन में रिंग सेरेमनी के साथ। अतुल को बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिली थी, इसी से इसी समय यह आयोजन भी रख दिया गया था। कानपुर से अतुल मामा ने सुवास को एक पोस्टकार्ड भेजा था, अपने पुराने अंदाज में लिखा था, "भांजे, मामी तो तू ही पसंद करेगा, मामा सिर्फ़ उसे घर लाने का काम करेगा, इसलिए जल्दी पहुँच।"

चिट्ठी पढ़कर सुवास मन ही मन हँसा-' खूब हाँकते हो मामा। "भागलपुर पहुँचकर उदासी की धूल कहीं धुलपुँछ गई थी। पूजा में वह खूब घूमा। लाजपत पार्क, बंगाली टोला, मिरजान, मुंदीचक, नाथनगर और अपने खंजरपुर में बहुत सालों बाद पूजा की रौनक देख रहा था। हालांकि, धनबाद, कतरास और झरिया के पंडालों की भव्यता और खर्च यहाँ नहीं दिख रही थी। परंतु नौ दिन के चंडीपाठ और पारंपरिक विधि विधान से वह अभिभूत था। सगाई वाले दिन उसने अतुल मामा को छेड़ा," मामा मुझे खूब पता है कि इस मामी को तुमने आठ साल पहले ही पसंद कर लिया था, फिर भी मुझे बीच में क्यों ला रहे हो। "

अतुल ने हँसकर बताया था कि "बहुत पहले एस.एम.कॉलेज जाने के क्रम में वह लगातार उससे मिलता था। उसने ही उससे वादा लिया था कि नेतागिरी वगैरह बहुत हो गयी, पढ़ाई कर नौकरी करो तभी वह उसके बारे में सोचेगी। डाक्टर की बेटी है ना, रिश्तों की भी नब्ज पहचानती थी। उसके बाद ही यह रिश्ता आया था।"

सुवास ने कहा, "मामा अगर वह कायस्थ नहीं होती तो?"

अतुल के मुँह से निकल गया कि "तो तो क्या मैं भी-सुबीर भैया और शिखा दी की तरह वहीं रोक नहीं दिया जाता।"

अतुल को लगा कि इतनी पुरानी बात नहीं उठानी चाहिए थी, लेकिन बात मुँह से निकल चुकी थी। सुवास को आगे समझने के लिए बहुत कुछ मिल चुका था। सुवास ने सोचा कि अतुल मामा ने जिसे पसंद किया, वह सबको पसंद आ गई. ऐसे भी घर में छोटे थे, उनको आजादी भी मिली हुई थी। लेकिन उसके भाग्य में क्या होगा। बहुत दिनों बाद सुवास पहले की तरह हँस बोल रहा था।

अतुल और रजनी की सगाई धूमधाम से हुई. 'रिंग सेरेमनी' में अतुल और रजनी के खिले चेहरे और लोगों की चुहलबाजियों के बीच भी सुवास कुछ सोचने लगता, "एक कसक-सी उठती कि क्या उसके जीवन में भी ऐसे पल आएँगे। ' अतुल ने गंभीर देखकर सुवास को छेड़ा तो सुवास ने बात टाल दी," मामा इस शेरवानी में जँच तो रहे हो, लेकिन समाजवादी से सामंतवादी दिखने लगे हो। "अतुल ने हँसकर मारने के लिए हाथ उ$पर उठाया तो सुवास जल्दी से झुक गया। शिखा मौसी भी वहीं पर थी," अरे-अरे उसे क्यों मारता है, शहबाला बनेगा तेरी शादी में। "

"शिखा दी आप भी इसे बच्चा ही समझ रही हैं, माँ की तरह।" शिखा चार दिन पहले आई थी तो सुवास को पीछे मुड़ने कहकर उसकी पीठ की लंबाई को बित्ते से नापने लगी थी।

"मौसी यह क्या कह रही है? लंबाई घट जाएगी" हँसता हुआ सुवास बोला तो शिखा ने कहा, "तू कितना लंबा हो गया सुवास, एकदम अपने पापा पर गया।" नानी भी वहीं खड़ी थी उन्होंने भी समर्थन में सिर हिलाया। शिखा असल में सुवास के लिए स्वेटर बना रही थी। सगाई के अगले दिन ही गिफ्टपैक कर सुवास को थमाया, "विजयादशमी का उपहार है तुम्हारे लिए."

शिखा मौसी अब पहले जैसी नहीं रह गई थी। उनकी माँ गुजर चुकी थी। उस पुराने से घर में एकाकी शिखा मौसी की कल्पना कर सुवास का मन खराब हो जाता था। सोचता कभी अपनी घर गृहस्थी होगी तो शिखा मौसी को वहीं रहने कहूँगा। लेकिन क्या वे मानेंगी? स्वाभिमानी शिखा मौसी ने ज़रूर रिश्ते ठुकराए होंगे, या फिर बिना अभिभावक के वे स्वयं रिश्ता बनाने की इच्छुक नहीं होंगी। प्यार ने तो इतना दर्द दिया था कि शायद वे उस घर से जुड़ी रहकर रोज मरती और जीती होंगी। सुवास के दिमाग में अनेक बाते एक साथ चलती थीं और जब से अतुल के मुँह से सुबीर मामा और शिखा के सम्बंधों के बारे में चर्चा सुन ली थी वह उनके प्रति और भी भीग उठा था। शिखा के साथ दूर के रिश्ते की एक विधवा भतीजी रहती थी, जो उम्र में उससे भी बड़ी थी। स्कूल से आकर शिखा अपनी भतीजी का ही ध्यान रखती, उन्हें भला क्या सुख हो सकता था, फिर भी वे दो जनी थीं, यही बहुत था।

कानपुर लौटने से पहले अतुल ने सुवास से कहा, "चल सुवास तुझे सीढ़ीघाट लिए चलते हैं, जहाँ तेरी मामी से मिला करता था और गंगा के किनारे जहाँ तू एक बार जाकर बैठा था और चाची पकड़कर लाई थी।"

"आप ग़लत बोल रहे हैं मामा, नानी मुझे पकड़ कर नहीं लाई थी और मैं दोस्त के साथ था।"

"हाँ हाँ दोस्त, क्या नाम था उसका।"

"चेतन नाम का दोस्त था, वहीं पर घर था उसका, लेकिन मुझे इसके लिए कितनी डाँट पड़ी थी।"

अतुल हँसने लगा, "अच्छा चल न, आज न तुझे न मुझे डाँट पड़ेगी।"

सुवास ने शिखा मौसी का दिया गिफ्टपैक खोलकर उनके बिने हुए सुंदर से स्वेटर को देखा और कुछ सोचते हुए उसे ही पहन लिया। अतुल ने अपने जैकेट का बटन बंद करते हुए कहा, "तू तो इस स्वेटर में एकदम जँच रहा है बेटा। ये पहनकर मेरे साथ चलेगा तो मामी तुझे ही पसंद कर लेगी। लंबा भी तो मुझसे ज़्यादा है।"

सुवास झेंप गया-मामा हर वक्त आप मजाक करते रहते हैं। असल में ये स्वेटर इसलिए सुंदर है कि इसमें मौसी का प्यार है।

अतुल उस दिन सुवास के लेकर सूर्यास्त से पहले ही सीढ़ीघाट पहुँचा था। गंगा के उ$पर सूरज की अंतिम किरणें पड़ रही थीं। सुवास को छठ दामोदर नदी का घाट याद आ गया जहाँ निशा के हाथों से लोटा लेकर उसने डूबते और उगते सूरज को अर्घ्य दिया था। उसे पता भी नहीं चला कि कैसे उसके ख्यालों में ही सही, गंगा और दामोदर का अंतर मिट चला था। उसे कहीं खोया देखकर अतुल ने फिर सुवास को कुछ पूछा था। सुवास का चिंताग्रस्त चेहरा देख अतुल ने उससे जानना चाहा कि बात क्या है?

सुवास के मुँह से बात फिसल गई, "मामा सोच रहा था कि आप बहुत लकी हैं कि रजनी मामी आपको मिल गई."

अतुल के "क्यों?" पूछने पर कहने लगा कि "क्योंकि वह बहुत अच्छी है" अतुल इतने लोगों के बीच, नाट्यमंडली, एन.जी.ओ, राजनीतिक संगठनों और अब प्रतिष्ठित पत्रिका समूह के 'एडीटर' के पद पर रहकर जीवन को इतना समझ चुका था कि बात का सिरा समझते उसे देरी नहीं लगती।

उसने झट कह दिया, "तू मत घबरा तेरी पसंद के सामने भी कोई अड़चन नहीं रहने दूंगा। माँ बाबु जी के सामने बहुत कुछ चल गया। मैं हूँ ना।"

सुवास की उदासी छँटी नहीें, अतुल ने दुबारा उसकी पीठ पर हाथ रखा। , "सुन सुवास मैं तेरा मामा हूँ, जिसमें माँ शब्द दो बार आता है। जो तू माँ से कह सकता था, मुझे बता सकता है। क्या अभी से कोई अपने लिए पसंद कर ली है। तो मैं कहूँगा पहले कुछ बन जा।"

"मामा ऐसी कोई हड़बड़ी मुझे नहीं है, फिर भी..."

"तो फिर यह फिर भी क्या है।"

सुवास ने टालना चाहा, "पता नहीं कुछ है भी या नहीं। लेकिन जब से उससे मिलने लगा हूँ, सबों के प्रति शिकायतें कम हो गई हैं दिन अच्छा गुजरता है। कभी लगता है कि कोई मेरा भी ध्यान रखने वाला है।"

"अरे, तो उसे ही ना प्यार करते हैं" अतुल ने बात हल्का करना चाहा। लेकिन सुवास ने मामा की ओर खाली नजरों से देखा, जिसमें पानी झिलमिला रहा था।

"कैसी लड़की है" इस बार अतुल ने संजीदगी से पूछा, "जीजा जी को पता है सब कुछ।"

"लड़की अच्छी है मामा, सरल है, इंटर में पढ़ती है, पड़ोस में रहती है।" रुक-रुक कर सुवास ने बताया।

"दीदी, जीजाजी को बता दे सबकुछ, कुछ दिन बाद ही सही, पर बात कर।"

"वे लोग ब्राह्मण है" मामा। मैं तो खैर पापा से बात कर भी लूं पर वह तो कभी अपने पिता से बात कर ही नहीं पाएगी। बिल्कुल पुराने ढंग के लोग हैं। "

अतुल ने सुवास के चेहरे पर छाई बेबसी और चिंता की लकीरें देखीं तो उसे आश्वासन देता हुआ बोल उठा, "अभी से इतना क्यों सोचता है। कहीं काम पर लग जा, उसे भी पढ़ने बोलो और फिर देखते हैं, तेरा मामा है ना बात करने के लिए."

सुवास आगे कुछ भी नहीं बोल पाया, न निशा के बारे में न अभी की परिस्थिति के विषय में। वैसे भी मामा इतने खुश थे और आज रजनी मामी के साथ शापिंग पर जाना था। अपनी पीड़ा को छिपा सुवास भी हँस पड़ा, "अरे मामा ये सब तो ऐसे ही कह गया, जब होगा देखा जाएगा।"

सुवास को आश्चर्य भी हुआ कि वह अतुल मामा को बिना सोचे समझे इतनी बात कैसे बता गया। लेकिन अब तो कह चुका था।

अगले दिन अतुल अपनी नौकरी पर लौट गया और सुवास को एक बड़ा सहारा दूर जाता दिखा। लेकिन बड़ी मामी उसे छोड़ना नहीं चाहती। मंझली मामी अब बांका में रहती थी और बड़े मामा का तबादला भागलपुर ही हो गया था। सगाई और त्यौहार में सब जुटे थे इससे घर भरा-भरा लगता था। उस रविवार को बड़ी मामी उसे लेकर कुप्पाघाट चली गई थी। आजकल पूजापाठ ज़्यादा करने लगी थी। रविवार को मेंहीदास आश्रम सत्संग जाने लगी थी। मांस मछली भी छोड़ दिया था जिससे मामा कभी-कभी नाराज भी होते, लेकिन मामी हँसकर टाल जाती थी। जब मामी ने उसे कुप्पाघाट और सत्संग चलने को कहा तो बड़े मामा बोले, "एक तो ऐसे ही यह दुुनिया से भागता है अब क्या उसे संत बनाकर छोड़ेगी।"

सुवास हँसने लगा। मामा के 'संत' कहने पर उसे निशा के साथ अपने प्रेम सम्बंध की याद आ गई. उसने सोचा अगर अभी अतुल मामा होते तो पता नहीं क्या कह जाते कि उसे उठकर भागना पड़ता।

मामी का निश्छल प्यार देख उसकी आँखें भीग जाती थीं। एक दिन दोपहर में बैठी वह चावल से कंकड़ चुन रही थी, घर में सब लेटे बैठे थे, सुवास ने उनके हाथ से सूप लेकर कहा-"मामी अब आप बूढ़ी हो रही हैं, ऐसे आँखों वाले काम मुझे करने दें।" मामी ने एक बार उसे देखा और आँखें पोछने लगी। सुवास अकबका गया "मामी कोई गलती हो गई क्या?"

"नहीं सुवास जिस दिन से तू गया, मैं हमेशा अपने को दोषी मानती रही कि अगर मैं तुम्हें अपना बेटा कहती थी तो तुझे रोक क्यों नहीं सकी।"

"मामा व्यवहारिक बने रहे, पर मैंने तुझे अपने कलेजे से लगाया था तो वह व्यवहारिक ज्ञान नहीं था सुवास मेरे मन की पुकार थी। फिर मैं झूठी बनी तुम्हारे सामने। तू मुझे माफ तो कर सकेगा न।"

मामी के गालों पर आँसू बह रहे थे। सुवास ने हाथ बढ़ाकर उन्हें पोछा और कहा, "तुम 'माँ' हो और मैं 'मी' हूँ फिर बीच में माफी कैसे आ सकती। आपने कुछ भी ग़लत नहीं किया था मामी, हाँ आपसे दूर जाकर मैं अकेला हो गया था। इस 'मी' को माँ के लिए बहुत दुख हुआ था, लेकिन गुस्सा नहीं।"

मामी के चेहरे पर भी अब उम्र की झुर्रियां आ गयी थीं, चमकने वाली आँखों पर चश्मा चढ़ गया था। बालों के किनारे-किनारे नहर की तरह सफेदी झलकने लगी थी। फिर भी मामी उसे मौसी से सुंदर लगी। इसलिए कि मामी जो महसूस करती थी वही उनकी आँखों, बातों, हावभाव में झलकता था जबकि मौसी के चेहरे को पढ़ना बहुत मुश्किल था।

बादल की चिट्ठी से पता चला कि निशा दिवाली से पहले जीतपुर आ गई थी। सुवास का मन वहाँ नहीं लगने लगा। वह जिदकर छठ के पहले ही जीतपुर पहुँच गया। छठ के दिन ही इन्दिरा गांधी की हत्या की खबर से देश सन्न रह गया था। उसके बाद शुरू हुआ उत्तेजना और जुनून का तांडव। सुवास घर में कैद हो गया था। उड़ती-फिरती खबरें आतीं और मनहूस सन्नाटा फैल जाता। कभी किसी दूधवाले की हत्या, कभी कैंटीन में अफवाहों की हवा चलती रहती। कर्फ्यू का दौर आया तो निशा से मिलना और कठिन हो गया। एक दिन बाहर खड़ा था तो लोग बातें कर रहे थे नागपाल के भी कई ट्रक जला दिए गए, उसके चचेरे भाई की जमशेदपुर में हत्या कर दी गई. सुवास सोचता रह गया कहाँ से आते हैं ये बलवाई, कैसी भीड़ आ खड़ी होती है। वही नागपाल, जिसने एक ही राज्य का होने पर भी जीतपुर को इतना अपना समझा था कि उसे गाली की तरह 'भगलपुरिया' कहकर सम्बोधित किया था, जिसकी तीन पीढ़ी धनबाद, सिंदरी में फली-फूली, जो कभी पंजाब गया ही नहीं, उसे या उसके भाई को किसने सजा दी होगी। इतने-इतने दोस्तों से घिरा सरदार जिसमें सभी तरह के लोग थे कैसे अकेला हो गया था। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ सामान्य र्हुइं। सुवास को कभी कभार किताबों में रखे, निशा के छोटे-छोटे पन्नों से कुछ बातें मालूम होतीं, जिसे निशा स्वयं घर में आकर मौसी को पकड़ा देती थी सुवास को देने के लिए.

नया साल आ गया, कॉलेज खुल गए, सुवास ने राहत की साँस ली। चंद कदमों के फासले पर निशा का घर था लेकिन वहाँ भेंट नहीं हो सकती थी, कॉलेज में समय निकाल कर मिलना तय हुआ।

सुवास ठीक समय पर पहुँचा था लेकिन निशा उसके पहले ही गेट से बाहर खड़ी थी। उस बार निशा ने कहीं जाने की बजाय कॉलेज के पीछे लगे पेड़ की कतारों में से एक पेड़ के नीचे बैठने की जगह चुनी। कॉलेज में क्लास चल रही थी। लोगों की भीड़ यहाँ नहीं थी। निशा चुप बैठी थी, नहीं वह लगातार रो रही थी। उसने बड़ी देर बाद मुँह खोला कि उसे देखने लड़के वाले आ रहे हैं। माँ को मना किया तो उन्हें शक हो गया। पूछने पर उसने सब कुछ बता दिया था। निशा सिसक रही थी, "माँ ने पागलों की तरह मेरे केश खींचे, हाथ के पंखे से मुझे मारा। आज भी बड़ी मुश्किल से आना हो गया। मैं हार रही हूँ सर, मैं फेल हो गई."

सुवास ने उसके आँसू अपने रुमाल से पोछा फिर किसी तरह अपने को संभाल कर समझाया, "जहाँ इतने दिन सहा थोड़े दिन और हिम्मत रखो या कहो तो," मैं तुम्हारे घर अभी बात करने जाता हूँ। महीने भर में मैं नौकरी ढूँढ लूंगा। "

"आप समझ नहीं रहे हैं सर। मेरा परिवार कायस्थ लड़के से कभी भी ब्याह को तैयार नहीं होगा। आपलोगों में किसी से भी नहीं। वे तो मुझे बीस बीघा खेत और इंटरफेल इकलौता लड़का देख, बक्सर के गाँव में ब्याहने को तैयार हैं।"

सुवास ने निशा की बाँह, गर्दन पर पड़े मार के नीले निशान देखे। सूजी हुई, लाल आँखें देखी। सदा खिलखिलाने वाली लड़की उसकी वजह से कैसी मुरझा गई थी। वह कसमसा रहा था। निशा दुपट्टे में मुँह छिपाए रो रही थी, "सर अच्छा था, मैं घर में दिनभर गाना सुनती, चादरों पर कसीदे के बेलबूटे काढ़ती थी। दुनिया जहान पढ़ाई, कॉलेज, भविष्य-ये सब तो आपने मुझमें जगा दिया। मुझको तो उसी दुनिया में जाना था आखिर।" अपने आपको रोकते-रोकते भी उसने निशा को हिम्मत रखने की सलाह दी थी। हताश होकर जब सुवास लौटा तो पता चला कि निशा की माँं इतने दिनों की दोस्ती को भूल, घर में मौसी को बहुत कुछ सुनाकर गई थी।

बहुत दिन बाद उस दिन पापा नेे उसे बुलाकर पूछा तो उसने सबकुछ कह दिया। अपने गुस्से को किसी तरह रोककर उन्होंने कहा, "सारी कमाई इज्जत मिट्टी में मिला दी।" अब हर समय उनकी काटती नजरें सुवास का पीछा करती थीं। सुवास के लिए घर भी कैदखाना बन गया था। दिन काटना मुश्किल लगता, रात में आँखों में मिर्ची-सी लगती। सबकुछ जानकर, सुनकर भी वह चुप था क्योंकि निशा ने अपने सिर पर हाथ रखवाकर कसम ली थी कि वह उसके घर अपमान सहने नहीं आयेगा। यहाँ सारी ब्राह्मण बिरादरी एक हो चुकी है और उसे जेल तक भिजवा सकती है। " वह अपने लिए कभी डरा नहीं था, बस उसे निशा की चिंता थी।

देवघर से उसके दोस्त की चिट्ठी आई कि रिजल्ट निकल चुका, कॉलेज आकर रिजल्ट लेता जाए. उसे भी बाहर निकलने का बहाना चाहिए था। साथ ही जिस स्कूल में उसने बात करके रखा था, उसी डिग्री की वजह से रुका था। उसके बाद शायद उसके पास रहने का ठिकाना हो और अगर निशा हिम्मत कर ले तो वह दुनिया से टकरा सकता था।

उसी रात वह देवघर के लिए निकला था। फिर भी कुछेक कारणों से तीन दिन बाद रिजल्ट मिला। चौथे दिन वह लौटा तब तक सबकुछ उजड़ चुका था। निशा के माँ-बाप उसे लेकर विवाह के लिए चले गए थे। कुछ दोस्तों से कुछ बादल से उसे पता चला कि वह एक बार मिलना चाहती थी, पर किसलिए उसने उन्हीं लोगों से पूछा। 'शायद माफी मांगने के लिए' कुरेदने पर एक बार बादल ने बताया। वह दोनों हाथों से मुँह ढँक कर रो पड़ा। माफी तो उसे मांगनी चाहिए. रुसवाई उसकी हुई, प्रताड़ना उसने सहा, नफरत उसने झेला था। दोस्तों ने ही बताया कि जाते वक्त टैक्सी पर चढ़ नहीं रही थी, कसाई के हाथ बेची जा रही गाय की तरह डकरा कर रो रही थी। सुवास कीलों पर बंधे अपने जख्मी मन को लेकर छटपटाता रहता।