जटायु के कटे पंख, खण्ड-14 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
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सुवास फिर उसी बेरंग ज़िन्दगी में लौट आया था, पहले से ज़्यादा तल्खी और कांटों भरे दिन होते थे। बस घर में पड़ा रहता, दुकान तक जाता तो सोचता किसी की नजर में न आ जाए. लेकिन सिंह चाचा का घर सामने ही पड़ता तो वे कुछ न कुछ पूछने के बहाने उसे रोक लेते। कभी बताते कि उसने भी दोनों बेटियों को, नानी के घर से परीक्षा देने के लिए, वहीं भेज दिया। कभी नंदू हलवाई की धूर्तता की कहानी बताने लगते। लेकिन जहाँ और लोग उससे मिलकर जानबूझकर निशा या उसके परिवार की बात करते, उसके जख्मों को उधेड़ना चाहते। सिंह चाचा मानो उसके दर्द को समझते हुए बिना बताए, कहीं और बहलाना चाहते थे। धीरे-धीरे वह भी बस सिंह चाचा से ही बात करने लगा था। पापा को एक नया अंदेशा होता, इसलिए बादल से उसके विषय में पूछताछ करते रहते। एक दिन सुवास ने अपने कमरे से सुना, "मैं क्या उनकी जासूसी करता रहता हूँ और सिंह चाचा तो अब पीते भी नहीं।"

"तुम्हें कैसे पता?"

"मैं उनका मुँह तो नहीं सूंघता, लेकिन क्या अब पहले जैसा तमाशा होता है, क्या अब सिंह चाची रोती हुई आती है, तो उसका मतलब सबकुछ ठीक हो गया।"

सुवास को पहले भी लगा था कि पापा उसके जीवन में घटी घटना से उसके सिंह चाचा के साथ बात करने को जोड़ कर देख रहे थे। लेकिन सिंह चाचा ने अनेक बातों के बीच ही खुले मन से उसे बताया था, "बेटा जीवन में दुख और चिंताएं तो थीं, लेकिन पीना और महाजन का चक्कर मेरे सबसे बड़े कष्ट थे। बीमार होने पर डाक्टर साहब और मेरी बेटी ने उसे छुड़ा दिया। बेटी ने अपने नाना को मना लिया कि मुझे ब्याज के चक्र से निकालें और मुझे मनाया कि कभी शराब नहीं छुएँ।"

सुवास ने आश्चर्च से देखा था तो हँस पड़े थे, "कोशिश किए जा रहा हूँ।" सुवास अपने जीवन के विषय में सोच भी रहा था। बादल एक दिन उसके कमरे में आया। वह बहुत खुश था, "भैया मैं पीओ की तैयारी के विषय में सोच रहा हूँ। पापा तो राँची भेजना नहीं चाहते, इस जीतपुर में वैसी पत्रिकाएं भी नहीं मिलती, कैसे होगा?"

"मैंने शिक्षक बनने को सोचा तो पापा नाराज थे बोले, लेकिन तू तो साहब बनने की सोच रहा है।"

"ख्वाब तो इनका भी बड़ा है, वे यू.पी.एस.सी की परीक्षा में बैठने कह रहे हैं, लेकिन मैं इसे ही महत्त्व देता हूँ।"

उसके बाद उत्साह से भरा बादल ढेरों ढेर बातें बताता रहा। सुवास के दिमाग में कोई बात नहीं आ रही थी। एक शून्य जो उसके जीवन में आ गया था, वहाँ ये सारी बातें बेमानी लगतीं। सुवास को उदासीन देखकर बादल वहाँ से चला गया था। सुवास को रातों को नींद नहीं आती, इस समय उसकी आँखें झपक गयी थी। बाहर की चीख पुकार से वह हड़बड़ाया हुआ-सा उठा। पता चला कि सायरन की आवाज खदान के अंदर हुई दुर्घटना के लिए बज रहा था। ड्यूटी में गए लोगों के परिवार आशंका में रो रहे थे। सिंह चाची भी अपनी छोटी दो बेटियों के साथ गली में निकल कर सबों से पूछताछ कर रही थीं।

सुवास ने आसमान में दमकते सूरज को देखा। उसे याद आया कि एक दिन वह आफिस के उसी हिस्से में था, जहाँ से लोग ड्यूटी जाते थे। एक मजदूर उस बादल भरे दिन में सूरज को खोज रहा था, दिख जाने पर उसे प्रणाम कर वह अंदर चला गया। सुवास ने पान वाले निमाई से पूछा था तो उसी ने बताया कि, "ये लोग सूरज देवता से कहकर जाते हैं कि उस अंधेरे से सही सलामत तुम्हारे उजाले में आने तक तुम्हारे भरोसे हूँ।"

गाड़ियों के बेचैन हार्न, अफरा-तफरी और चीखना चिल्लाना बता रहे थे कि कुछ अघटित घट चुका है। आज भी तो खान के अंदर जाने वाले लोगों ने सूरज को अपनी रक्षा का भार सौंपा होगा। मुंशी चाचा गली में खड़े होकर बता रहे थे कि, "अफसर तो अपनी गलती छुपाएगा ही। लेबर, रोज कह रहा था कि मशीन सब जंग खा गया है, सुनता कौन है? और हमलोगों की भी गलती है। कहते हैं पम्प आपरेटर सो गया था। अंदर जो लकड़ियों का सहारा होता है, मजदूर उसको जलावन के लिए खींच लेता है, सुनते हैं उसके कारण भी कोयले की चट्टान खिसक गई, जिससे तीन लेबर घायल हुए हें।"

कितनी बात सच थी कितनी कल्पना लेकिन अस्पताल से एम्बुलेंस धनबाद के सेंट्रल अस्पताल के लिए जा चुकी थी। सिंह चाचा भी घायल हुए थे, उन्हें वहाँ से कलकत्ता भेजा गया, एक की मृत्यु हो गई और एक की अंगुली काटनी पड़ी थी।

सुवास खड़ा-खड़ा सिहरता रहा, ज़िन्दगी कितनी सस्ती है। तभी पापा ने बादल की जिद करने के बाद भी उसे माइनिंग में जाने की इजाजत नहीं दी थी। वह तो आया भी नहीं था उस समय तभी जीतपुर, चासनाला की दुर्घटना ने पापा को हिला दिया होगा। सिंह चाचा का क्या होगा, बचने के बाद भी क्या पूरी तरह सुरक्षित रह पायेंगे।

रात में वर्माजी घर लौटे थे तो बहुत दुखी थी। सिंह जी का शायद एक हाथ काटना पड़ेगा, बिल्कुल चूर हो गई थी हड्डियां। सवेरे से आफिस में धरना, प्रदर्शन, सरकारी साहबों की गाड़ियों और इन्क्वायरी दस्तों की घुड़दौड़ शुरू हो गई थी। दूसरे दिन बादल ने राँची जाने के विषय में बात की। वर्माजी उखड़ गए, "तुमलोग को समय, कुसमय कुछ भी समझ नहीं है। अभी आफिस में दम मारने की फुर्सत नहीं, इतनी बड़ी दुर्घटना और तुम्हें राँची घूमने की बात याद है।"

बादल सन्न खड़ा रह गया। ऐसे बिगड़ते तो पापा को सुवास ने कभी नहीं देखा था। सच ही वे बेटों के सामने हारते जा रहे थे या दूबे चाचा के बदल जाने पर और सिंह चाचा की दुर्घटना से अकेले पड़ गए थे। बादल ने फिर सुवास से ही पैसे के लिए कहा। सुवास के पास सौ दो सौ रुपए थे। उसे दे दिया। बादल अगले सप्ताह राँची अपनी किताबों और दो चार कपड़े के साथ चला गया। दोस्तों के पास पंद्रह दिन रहकर वापस आता। वर्षा अपनी पढ़ाई और माँ को मदद देने के काम में ही लगी रहती कभी-कभी चाय नाश्ता के समय अपने स्कूल की कुछ बातें सुना जाती थी। सिंह चाचा अस्पताल में पड़े थे। सुवास को समय काटना कठिन लगा तो आखिर, "धनबाद पब्लिक स्कूल" में अपना आवेदन पत्रा जमा कर आया। भाई को उदास देख बादल राँची से एम.ए. का फार्म लेता आया था ताकि सुवास अपने को व्यस्त रख सके. सुवास ने प्रायवेट से ही एम.ए करने का सोचा, क्योंकि तब तक धनबाद पब्लिक स्कूल में नौकरी हो गई थी।

स्कूल ज्वाइन करने के बाद सबसे पहले मनोज शर्मा से सामना हुआ, "आइये सर वेलकम, मैं आपका परिचय आपके बच्चों से करा देता हूँ, मैं यहाँ ज्योग्राफी का शिक्षक हँू।"

सुवास ने अपनी सर्ट थोड़ी ठीक। इसे बादल इस बार अपनी पसंद से लेकर आया था ओर उसी ने पहनने की जिद की थी। वह मनोज शर्मा के पीछे चल दिया।

क्लास में घुसते ही 'गुडमार्निंग सर' के समवेत स्वर से वह थोड़ा असहज हो गया था। मनोज शर्मा ने ही बच्चों को शांत रहने कहा और उसका परिचय कराया। वह विश्वास करना चाहता था कि अब वह एक जिम्मेदार पूर्णकालिक शिक्षक हो चुका था।

अगले दिन प्रिंसपल ने अपने आफिस में बुला कर पूछा, "तो कैसा लग रहा है मि। सुवास आपको?"

सुवास ने नम्रता से जवाब दिया, "किस सिलसिले में सर"

प्रिंसपल ने सामने फैले फाइल पर दस्तखत करते हुए थोड़ी देर चुप्पी

साध ली, फिर बोले, "सब कुछ यहाँ का विद्यालय, पढ़ाई, बच्चे और कलीग।"

सुवास ने संक्षित-सा जवाब दिया, "ठीक है सर"

प्रिंसपल ने दुबारा पूछा, "फिर भी पहली राय तो सबकी होती है।"

"सर अभी तो मैंने ठीक से सब देखा भी नहीं। कुछ वक्त बाद पूछते तो शायद बता सकूंगा।"

सुवास की साफगोई से जहाँ वाइस प्रिंसपल थोड़े प्रभावित हुए वहीं प्रिंसपल थोड़े निराश। उन्हें नए लोगों से प्रशंसा सुनने की आदत थी। सुवास नहीं चाहता था कि वह मूल्यांकन के तौर पर वह कुछ बोल जाए, जिसे स्वयं ही बदलना पड़े।

प्रिंसपल बड़ी देर तक उसे यहाँ के नियमों, कायदे, कानून और अनुशासन की बात बताते रहे। बाद में शिक्षकों की जिम्मेवारी और अनुशासन की बात शुरू की।

सुवास से पूछा, "आप स्कूल कैसे आएँगे, मतलब आपका घर तो काफी दूर है। हमारे यहाँ 'बस' तो है लेकिन हम बस की सुविधा शिक्षकों को नहीं दे सकते, क्योंकि बच्चों की संख्या ही बहुत है।"

सुवास को पता था कि शिक्षक भी बस से ही सफर करते थे। फिर भी उसने मदद मांगने के बजाय कहा कि "समय आने पर समस्याएँ अपने आप सुलझ जाती है। मैं भी कुछ उपाय कर लूंगा।"

प्रिंसपल चाहते थे कि सुवास उधर से आने वाली 'बस' से, बच्चों के साथ ही आए. क्योंकि इसमें उनका स्वार्थ था। जामाडोबा और फूसबंगला की ओर से आने वाली बस के ड्राइवर से बच्चों की अनुशासनहीनता की जो शिकायत मिलती, उस पर नजर रखी जा सकती थी। सुवास के रुचि न दिखाने पर वह चुप हो गए.

सुबह दूसरे दिन से ही एक किलोमीटर पैदल चलकर मोड़ तक आता फिर ट्रेकर, कभी बस पकड़कर विद्यालय पहुँचता था।

विद्यालय जाने के क्रम में वह रोज निशा के घर के सामने से ही गुजरता था। न चाहते हुए भी उसकी आँखें खपरैल के झुके-झुके से उस घर की ओर चली जाती, जहाँ सन्नाटा पसरा होता। जिस चौखट के झुटपुटे अंधेरे में उसने निशा को कितनी बार कितनी तरह से सुना था। उस ओर देखते ही डर लगता था। निशा का परिवार उसकी शादी के लिए घर गया तो सिर्फ़ दूबेजी ही लौटकर आए थे। परिवार के लिए इतने बड़े कलंक की बात थी कि वे साथ नहीं आए. हाँ निशा, शादी के बाद ससुराल में बहुत सुखी है, यह बात दूबे जी हर आने जाने वाले को कहते रहे थे।

बादल बीच-बीच में आता तो घर थोड़ा बदल जाता। लेकिन सुवास अब एम.ए. के नये कोर्स की किताबों और स्कूल के बच्चों के होमवर्क की कापियों के बीच अपने को खोता जा रहा था। वर्षा अपनी इंग्लिश की किताब लेकर खड़ी थी, "भैया, बहुत दिनों से पढ़ाया नहीं, अब ज़रा इन प्रश्नों को तो समझा दो।" सुवास ने उस दिन बहुत मन से उसे पढ़ाया। जब जाने लगी तो उसने इस माह में मिले वेतन को निकालकर वर्षा के हाथ में देकर कहा-"पापा को दे देना।"

वर्षा उछल पड़ी, "भैया आपको सेलरी भी मिल गई और सारा पैसा पापा को क्यों दे रहे हैं, फिर मुझे क्या दीजिएगा।"

रोकते-रोकते भी सुवास के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई. अपनी नटखट बहन को कहा-तुझे सबकुछ मिलेगा परंतु तेरी शादी पर।

वर्षा ने कहा, "आपकी बहन हूँ मैं। शादी वादी कुछ नहीं जानती, बस मुझे राँची के होस्टल में पढ़ना है। दसवीं के बाद यहाँ नहीं पढ़ूंगी। आप मुझे भेजेंगे ना रांची?"

सुवास ने गरदन हिलाकर सहमति दे दी। वर्षा ने सुवास के पहले वेतन को लेजाकर पापा को दिया। लेकिन थोड़ी देर में वापस लौट आई. उसने आँखें चमकाते हुए कहा, "पापा ने कहा कि भैया को ही रखने बोलो, ज़रूरत होगी तो ले लूंगा।"

सुवास उदास-सा बहुत देर तक अपनी उस सीमित पर पहली कमाई को बस देखता रहा। वह जानता था कि पापा ने रूपये नहीं लिए क्योंकि उसके टीचर बनने और निशा प्रसंग से नाराज थे। वह क्या कर सकता था, दोनों ही बातें उसके लिये नियति ने लिख दी थीं।

सात आठ माह बाद निशा का परिवार लौटा तो गली में फिर नए सिरे से खुसुर-फुसुर होने लगी थी। सुवास अब सवेरे एक घंटा पहले ही निकल जाता और शाम को अँधेरा होने पर लौटता। एक दिन बादल ने बताया कि गली में आज निशा की माँ जोर-जोर बोल रही थी, "कुछ जलनखोर लोग मेरी बेटी के बारे में झूठमूठ का हल्ला उड़ा रहे थे। हमरी 'निसवा' जैसी बेटी तो किसी महतारी ने अब तक पैदा नहीं की है। बड़का घर में ब्याह कर आए तो कलेजे पर साँप लोट रहा है।"

सुवास अपनी आँखों पर बाँहें रखे चौकी पर चुपचाप लेटा रहा। वह जानता था कि वह ऐसा क्यों बोल रही है और जानता बादल भी था। फिर भी सुवास अपराधी बन सोचता कि मौसी को रोज-रोज ऐसी-ऐसी बातें सुन कितनी तकलीफ कितना अपमान लगता होगा। निशा की कसम ने उसे बांध दिया था। वह यह भी सोचता कि ईश्वर उसी से ऐसा क्यों करता कि जिसे उसका सहारा बनना होता, उसे छीन लेता।

सुवास का मन धीरे-धीरे स्कूल में लगने लगा था। जीतपुर से उसका रिश्ता बस रात में सोने और सुबह निकल जाने तक ही था। शनिवार-रविवार राँची जाकर वहाँ के प्रोफेसर से मिलकर नोट्स की तैयारी करता। इस सबसे व्यस्तता और बढ़ गई थी। सोमवार को वह सीधे राँची से ही धनबाद पहुँचता था। उस सोमवार को भी पहुँचा तो हड़बड़ी में दूसरे वर्ग की उपस्थिति पंजिका उठाकर क्लास रूम में घुस गया था। नीलाक्षी मिस ने विद्यार्थी से अपने क्लास रजिस्टर को मंगाकर उसका रजिस्टर भिजवाया। प्रार्थना के बाद स्टाफ रूम में आया तो वहाँ गरमागरम बहस चल रही थी। हिमांशु एकदम उखड़ा हुआ था। वह तेज-तेज बोले जा रहा था, "जिसे जो कुछ कहना है, सामने कहने की हिम्मत रखे, ऐसी ओछी हरकत हिमांशु सिंह सहने वाला नहीं है। मैं खूब जानता हूँ यह सब किसका किया कराया है।"

सुवास ने प्रश्न भरी आँखें संजय पर टिकाईं तो उसने कंधे हिला दिए. बाद में पता चला कि हिमांशु ने स्कूल आकर साइन करने के लिए रजिस्टर खोजा तो नहीं मिला। उस समय प्रार्थना शुरू हो चुकी थी। बाद में भी जब रजिस्टर क्लर्क हरिशंकर ने नहीं दिया तो हिमांशु उखड़ गया। घंटी शुरू होने पर रजिस्टर प्रिंसपल के पास चला जाता है और उसमें लाल निशान लग जाते हैं। आम तौर पर हिमांशु लेट आने वालों में नहीं था और क्लास में भी कभी देर से नहीं जाता था। पंडित जी को घेरने के चक्कर में उस दिन हरिशंकर ने रजिस्टर छिपा दिया था और जब बात बढ़ गई तो पंडित जी को बिना कुछ बोले ही वक्त की रियायत मिल गई.

टिफिन में सबकुछ शांत हुआ, तब रेवा सेन ने हँसते-हँसते पंडितजी को चिढ़ाया, "पंडित जी ये सब हंगामा किसके कारण हुआ, आपको भी मालूम होगा।"

पंडित जी ने भोलेपन से जवाब दिया, "मिस मैं तो नौकरी करने आता हूँ। इसीलिए कभी क्रोध या आवेश में नहीं आता। बॉस की आज्ञा सिर आँखों पर।"

सभी हँसने लगे थे। सुवास ने मुस्कुराकर कहा, "पंडितजी कल से प्रार्थना के समय विद्यालय में रहेंगे।"

दोनों हाथ जोड़ते हुए पंडितजी ने एकदम दयनीय-सी मुद्रा में कहा, "सुवास जी मैं हर समय प्रार्थना में ही होता हूँ। आप लोग न देख पाएँ, यह मेरा दुर्भाग्य।"

सभी लोग हो-होकर हँसने लगे। क्योंकि पंडित जी काम से कोसों दूर भागते थे। बातों के जाल में बस उलझाते और मुस्कुराते थे। उस समय लोग और जोर से हँस पड़े, "जब कहा कि आप को व्यर्थ में समय नहीं गँवाना चाहिए, अपने-अपने क्लास जाएँ।"

वे न्यूज पेपर लेकर सोफे पर बैठ गए तो संजय ने याद दिलाया, "पंडित जी पहली घंटी, पाँचवीं 'ए' में आपका ही क्लास है।"

"अच्छा-अच्छा" कहकर पंडित जी मुस्कुराने लगे।

विद्यालय के पच्चीस साल पूरे होने के उपलक्ष्य पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होना था। दो सप्ताह से चहल-पहल मची हुई थी। वार्षिकोत्सव तो हर वर्ष मनाया जाता था, जिसमें रेवा सेन का कार्य बहुत बढ़ जाता था। लेकिन इस बार तो सारे शिक्षकों को साफ कह दिया गया था हर कोई अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ेगा। सुवास भी अपने क्लास के बच्चों से एक छोटा-सा एकांकी करवा रहा था। चार घंटी पढ़ाई के बाद सभी उसमें लग जाते और उसमें समय कभी-कभी लंबा भी खिंच जाता था।

रेवा सेन जब बच्चों को नृत्य या संगीत सिखाती तो पूरी तरह डूब जाती थी, हालांकि उन्हें माइग्रेन का भी अटैक हो जाता था। न उन्हें खाने की सुध रहती न छुट्टी की घंटी की आवाज सुनाई देती। सुवास सेे सात-आठ साल बड़ी होगी इसलिए उसे तुम कहकर हीं पुकारती थी। एक दिन रेवा ने कहा, "सुवास मुझे तुम्हारे हेल्प की ज़रूरत है।"

सुवास हँस पड़ा, "मैम मैं तो आपकी कला का 'क' भी नहीं जानता मैं क्या मदद करूंगा।"

"नहीं-नहीं तुम कर सकते हो। पहले पीताम्बर मिश्रा मदद कर देते थे। वे तो यहाँ से छोड़कर चले गए, मैं बहुत परेशान हूँ। इन बच्चों पर तो नहीं छोड़ा जा सकता।"

"अच्छा तो बताएँ, मुझे क्या करना है?"

"देखो ना ये सारे कार्यक्रम तो मेरे ही सिर पर है। उसे तो मैं देख ही रही हूँ। लेकिन, कैसेट, टेपरिकार्डर, लाईट, माइक, साउंड इफेक्ट, लड़कों का मेकअप वगैरह ढेरों काम हैं जो किसी न किसी मेल टीचर को संभालना ही होगा। सीनियर टीचर से बोलने में अच्छा नहीं लगता। इसी से टेंशन में हूँ।"

"अरे ऐसा क्यों कह रही हैं, मैं हूँ ना?"

उसके बाद सुवास सभी काम रेवा से पूछ कर करने लगा। आयोजन के एक दिन पहले वह अपने बच्चों का पूरा रिहर्सल देखने और समझाने के बाद रेवा सेन के पास आया। सामने रखी झाड़ियां, लंबे चौड़े परदानुमा दृश्य देखकर पूछा, "ये यहाँ क्यों पड़े हैं मैम।"

"अरे इसे नृत्यवाटिका के दृश्य में डालना है, उसे मत हटाना।" रेवा ने जल्दी से कहा।

तभी सुवास के पैरों में लंबे-लंबे दुपट्टे फँस गए. उसने उसे उठाया तो रेवा ने कहा, "इनको पगड़ी बांधनी है इस दुपट्टे से, सीखना होगा।"

सुवास ने एक लड़के के सर पर पगड़ी बांधने की कोशिश की तो बोला, "हो जाएगा मैम, मैं बांध दूंगा।"

तब तक नीलाक्षी और विमला बहन पटेल ने कहा, " पहले इन लड़कों की

धोती बांधने की समस्या का हल कीजिए. "

रेवा ने पूछा, "सुवास तुम्हें बच्चों को धोती पहनानी आती है।"

सुवास ने सिर खुजाते हुए कहा, "मैंने सिर्फ़ अपने नानाजी को धोती पहनते देखा है। फिर भी आप सिखा दें तो मैं कोशिश करता हूँ।" सुवास ने एक लड़के को धोती पहनाकर दिखाया तभी रेवा ने कहा, " अरे नहीं सुवास यह तो बंगाली

धोती है, ऐसे लटर पटर नहीं चलेगा। इसको कसकर बांधना होगा, इनलोगों को नाचना भी है, ऐसे तो पैर में फँस जाएगा। "

सुवास ने हड़बड़ाकर धोती पहनाना छोड़ दिया। दूसरी जद्दोजहद पगड़ी

बांधने की हुई. कल ही कार्यक्रम था, आज फुल ड्रेस रिहर्सल थी, इसी से हड़बोंड मची थी। सुवास और संजय दोनों कैंटीन से मंगाकर नाश्ता करते थे। संजय दो बार झांककर जा चुका था।

मणिकांत बाबु बरामदे से जा रहे थे। टिफिन और तैयारी में कमरे खाली हो गए थे। एक क्लास रुम में ंसुवास एक बच्चे की पगड़ी बांधते हुए झुका था, रेवा भी वहीं पर देख रही थी, तभी सुवास ने सिर उठाया और उसका सिर रेवा के सिर से टकरा गया।

'ओ माँ' कहते हुए रेवा पीछे हटी, सुवास थोड़ा सकपका गया तभी उसके सिर को पकड़कर रेवा ने कहा, "एक बार और टक्कर लगाओ."

बीच में बैठा छोटा बच्चा चौंधियाई आँखों से बस टुकुर-टुकुर देख रहा था। मणिकांत बाबु उसी समय उधर से गुजरे। उन्होंने दोनों को माथा लड़ाते और हँसते देखकर क्या समझा पता नहीं। आकर हिमांशु सिंह से बोले, "सुवास बहुत स्मार्ट लड़का है।"

हिमांशु सिंह ने पूछा, "ऐसा क्यों कहा आपने।"

"अभी नहीं बताउ$ंगा, धीरे-धीरे पता चलेगा।" रहस्यपूर्ण मुस्कुराहट से खीजकर हिमांशु सिंह बोला

"तो यह बात भी तभी बताते।" मणिकांत बाबु बस अपने आप मुस्कुराते रहे।

आठ महिला शिक्षिका में रेवा सेन ही थी जो सभी के साथ खुलकर बात करती या हँसी मजाक किया करती थी। कार्यक्रम बहुत सफल हुआ। सभी शिक्षकों के साथ रेवा सेन को प्रिंसपल ने विशेष धन्यवाद दिया था। इसी कारण से एक टी पार्टी भी उनके तरफ से दी गई. रेवा ने सुवास को अपनी मदद के लिए धन्यवाद कहा और बोल उठी, "सुवास आज जँच रहे हो, इस स्वेटर का डिजाइन बहुत अच्छा है, किसने बनाया है?"

सुवास थोड़ा झेंप गया। यही वाक्य साल भर पहले अतुल ने भी कहा था। तब वह कितना खुश था। भविष्य के सपने उसकी दौलत थे। आज तो बिल्कुल कंगाल हो चुका था, लेकिन बाहर की दुनिया तो वैसे ही चल रही थी। उसने यादों से बाहर आते हुए कहा, "इसे मेरी शिखा मौसी ने बनाया है, जो कि मैम आपकी तरह बंगालन है।"

सभी स्टाफरूम में टिफिन खा रहे थे। रेवा ने अपना लंच बॉक्स सुवास और संजय की ओर बढ़ा दिया, "आपलोग रोज क्या समोसा और कचौड़ी खाते हैं, लीजिए आज मेरे घर का पराठा खाइये, मजा आ जाएगा।"

दोनों ने पहले ना-नुकुर की लेकिन शेखर, जो दूर बैठा था, पास आकर बोला, "खा क्यों नहीं रहे हैं आपलोग। मैम आलू पराठा बहुत अच्छा बनाती हैं।"

नवजोत कौर बोल उठी, "पराठा तो हम पंजाबी ही ज़्यादा खाते हैं।" रेवा ने मुस्कुराते हुए कहा-बिल्कुल ठीक बात है। आप से ही तो सीखा है बनाना। "

स्कूल के इस माहौल में सुवास थोड़ा-थोड़ा संभलने लगा था। थोड़ी नोकझोंक, थोड़ी हँसी मजाक थोड़ी राजनीति और थोड़ा अपनापन स्कूल में हमेशा छाया रहता।

विमला बहन पटेल के पति गुजर चुके थे। बेटा बाहर रहता था। इसलिए उनके छोटे मोटे काम कभी डाक सम्बंधी कभी बैंक का और कभी दवाई ला देने का काम संजय या सुवास कर दिया करते थे। रेवा को रेलवे का रिजर्वेशन करवाना था। स्कूल की टाइमिंग के चलते वह परेशान थी। तभी विमला पटेल ने सुवास को कहने को कहा।

रेवा ने झिझकते हुए सुवास से बात की तो सुवास हँस पड़ा, "इसमें क्या समस्या है मैम, मैं कल पहले आकर रेलवे काउंटर पर ही चला जाउंगा, आपका काम हो जाएगा।" दूसरे दिन टिकट लेकर जब सुवास स्कूल आया तो रेवा नहीं आई थी। अगले दिन रविवार था, इसलिए उसने सोचा कि टिकट उनके घर तक पहंँुचा ही देना उचित होगा। वह बाहर से ही वापस आना चाहता था लेकिन रेवा ने घर के अंदर बुलाकर उसे अपने भैया भाभी से मिलाया और बोली-आज अचानक छोटी बहन आ गई, इसीलिए स्कूल नहीं जा सकी थी। उनकी छोटी बहन और छोटे भाई की शादी हो गई थी, लेकिन पता नहीं क्या वजह थी कि रेवा ने शादी नहीं की थी। सुवास उस दिन देर तक रेवा के विषय में सोच रहा था। शायद पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उन्हें शादी की मोहलत न दी हो या उसने भी प्रेम में धोखा खाया हो।

क्लास में टेस्ट परीक्षा की कापियां जमा हो गई थीं। सुवास उसे बांधकर घर ले जा रहा था। संजय ने स्टाफरूम की आलमारी में ही कापियों को रख दिया। सुवास ने याद दिलाया-"संजय जी एक सप्ताह में रिजल्ट दे देना है, कल रविवार है, फिर भी आपने कापियां स्कूल में ही छोड़ दीं। संजय ने कहा," सुवास जी मुझे मालूम है कि समय कम है लेकिन रविवार के दिन मुझे सुबह में अपने काम करने हैं। कपड़ों से लेकर सब्जी भाजी तक और बच्चों की चीख-पुकार अलग से। "

सुवास ने फिर कहा, "नाश्ता वगैरह भी तो बढ़िया मिलता होगा।"

"अरे क्या बताउ$ँ बाकी दिन का तो ठीक है लेकिन रविवार के दिन तो मेरी पत्नी टी.वी. के सामने से तब तक नहीं हिलती जब तक रामायण सीरियल खत्म नहीं हो जाता।"

सुवास हँस पड़ा, "तब तो भई हमीं अच्छे हैं, मौसी सात बजे नाश्ता नियम से करा दिया करती।"

"इतना ही नहीं सुवास जी इस बात पर मेरी माँ का भी पूर्ण समर्थन उन्हें प्राप्त है। बस हमारे घर पर तो अरुण गोविल और दीपिका का ही राज हो गया है।"

वहाँ खड़े सारे लोग हँसने लगे। पंडित जी को एक बहाना मिल गया बोलने लगे ये टी.वी. तो एक रोग हो गया है। बच्चों की आँखों पर इसका कितना बुरा प्रभाव पड़ता है। संजय ने चुटकी ली, "पंडितजी आप यहाँ है अभी और घर जाएँगे अचानक तो देखेंगे बेटा टी.वी. खोले बैठा है, भले ही कृषि दर्शन ही देख रहा हो।"

सुवास के कॉलेज का साथी सुशांत जीतपुर आया था। उसे देखकर और बहुत दिनों बाद उससे मिलकर उसे अच्छा लगा। रात में वह उसी के घर ठहर गया। इस बीच सुवास के जीवन में जो कुछ घट चुका था, उसके विषय में उसे पता नहीं था। लेकिन सुवास के परीक्षा परिणाम के कारण वह सोच रहा था कि सुवास कहीं किसी अच्छी जगह लग चुका होगा या कहीं प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा होगा। सुशांत इस समय दिल्ली में प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था। इसी से उसने बहुत चाहा कि सुवास यहाँ की नौकरी छोड़ उसके साथ ही आगे के लिए तैयारी करे।

जब सुशांत जिद करने लगा तो उसने रात में संजीदा स्वर में बताया कि "सुशांत तुम्हारी भावना की मैं इज्जत करता हूँ लेकिन कुछ घटनाएँ जीवन बदल देती हैं। अब मेरा मन महत्त्वाकांक्षा पालना ही नहीं चाहता और शिक्षण का यह पेशा ही मेरा 'पैशन' बन गया है। विद्यार्थियों के बीच ही अब सुकून के पल पाता हूँ।"

उसके दर्द को सुशांत ने महसूस किया तो इस सिलसिले में आगे बात नहीं की। सवेरे दोनों दोस्त एक साथ धनबाद के लिए निकले। रास्ते में सुशांत ने बातों-बातों में कहा कि "अगर शिक्षण में ही रहना चाहता है तो गोमिया के पब्लिक स्कूल में क्यों नहीं चला जाता। यहाँ से अच्छी तनख्वाह, बेहतर सुविधाओं के साथ बच्चे भी पढ़ने वाले हैं।" सुशांत स्वयं भी उसी स्कूल से पास हुआ था। इसी से ढेर-सी बातें बताईं और स्कूल की वैकेन्सी के विषय में भी बताया।

धनबाद के स्कूल में रहने से जीतपुर आना पड़ता था जो उसके लिए रोज अग्निपरीक्षा के समान होता। इधर कुछ दिनों से स्कूल में भी मणिकांत जी अक्सर रेवा सेन के सम्बंध में कुछ न कुछ कहकर मनोरंजन करते थे, जिससे वह बड़ा असहज हो उठता था। यह सब सोचकर भी उसने सेंट जॉन पब्लिक स्कूल के लिए आवेदन कर दिया था।

कुछ ही दिन उपरांत गोमिया के स्कूल में साक्षात्कार भी दे आया। ज्वाइन करने के लिए कुछ समय मांग लिया था। एम.ए. की परीक्षा हो चुकी थी, नहीं तो गोमिया जाने के उपरांत शायद वह फँस जाता या असुविधा ज़्यादा होती।

स्टाफ रूम में फिर गहमागहमी थी, टिफिन ब्रेक में मिठाई का दौर चल रहा था। मणिकांत बाबु अंदर आए तो पूछ बैठे, "मिठाई कौन खिला रहा है।"

विमला पटेल और नवजोत कौर ने एक साथ कहा, "खाने से मतलब रखिए सर, मिठाई बस मिठाई है।"

"मैम, आपलोगों से तो कोई बात पचती नहीं। मिठाई कैसे पचा लेंगी, जिन्होंने खिलाया है, उनका नाम तो पता चलना चाहिए." व्यंग्य भरे शब्दों में मणिकांत जी ने कहा।

संजय ने हाथ में मिठाई का पैकेट देकर कहा, "खाइये सर सुवास की तरफ से है, कोई खतरा नहीं है, न आतंकवादी साजिश।"

मणिकांत जी ने फिर से जोड़ा, "लेकिन उद्देश्य मेरा मतलब किस चीज के लिए मिठाई खिलाई जा रही है।"

इस बार हिमांशु सिंह ने गंभीर आवाज में कहा, "सर इसमें दो वजहें हें, एक खुशी की, दूसरी गम की, पहले क्या सुनेंगे?"

मणिकांत जी ने कहा, "पहले खुशी की, अच्छी खबर ही सुना दें"

संजय ने हँसते हुए कहा, "सुवास जी ने इतिहास से एम.ए. फर्स्ट क्लास से कर लिया।"

मणिकांत जी का मिठाई खाने वाला मुँह खुला रह गया। क्योंकि वे भी इतिहास से एम.ए. थे लेकिन थर्ड क्लास। उन्हें अपने उ$पर तलवार लटकती हुई लगी।

तब तक संजय ने कहा-दूसरी तकलीफ की खबर यह है कि सुवास जल्द ही हमलोग को छोड़कर गोमिया जा रहे हैं, वहाँ इस स्कूल से बेहतर भविष्य, ज़्यादा सुविधाएं हैं।

अब जाकर मणिकांत बाबु का खुला मुँह बंद हुआ।

बाद में सुवास के साथ मिलकर संजय, रेवा, विमला, नवजोत सभी इस प्रसंग को याद कर भीगी आँखों से भी हँस पड़ते थे।