जटायु के कटे पंख, खण्ड-15 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
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नये स्कूल में सुवास को आए कई माह बीत गए थे। इस बीच वह एक बार भी जीतपुर नहीं गया था। इस शांत और छोटी-सी जगह में वह पिछली बातेां और यादों से निकलना चाह रहा था। प्रकृति की खुली गोद में बारूद का कारखाना उसे यह सोचकर बड़ा अजीब लगता। लेकिन लोग मिलनसार थे। भले ही सुविधाओं का अभाव था, लेकिन ज़िन्दगी और भावों का अभाव नहीं था। फिर भी वह सबसे दूर रहना चाहता था क्योंकि उसे डर लगता कि अनजाने ही वे लोग किसे पुरानी बातों के सिरे को छेड़ने की कोशिश न करने लगे।

चार दिन की छुट्टी पड़ गई थी। बरुण और सुधांशु भी अपने घर चले गए. सुवास का मन अपने फ्लैट में बैठे-बैठे उकता गया था। सवेरे से मन भी भारी था। वह शाम में घर के बाहर सड़क पर टहलने निकल गया। जय सेन गुप्ता भी अपनी छोटी-सी बेटी को बहलाने सड़क पर निकला हुआ था। उसने दूर से ही हाथ हिलाया, "गुड इवनिंग मि। सुवास कैसे हैं?"

सुवास ने थोड़ा सहज होते हुए अभिवादन का जवाब दिया फिर बोला, "शाम को मन नहीं लगा तो टहलने निकल आया हूँ।"

तब तक सेन गुप्ता पास आ गया था। वह बोलने लगा, "बाहर तो निकलना ही चाहिए, टीचर्स कॉलोनी में लोग बहुत अपनेपन से रहते हैं, लेकिन आपका घर तो धनबाद या झरिया है ना, आप छुट्टियों में नहीं गए."

सुवास थोड़ा हकला गया, " नहीं... हाँ जाना तो चाहता था, पर अभी-अभी ही आया हूँ, इसीसे और कुछ काम भी थे। आपका घर कहाँ है, सुवास ने बात बदल दी।

सेनगुप्ता की बेटी तब तक सो चुकी उसने उसे दूसरे कंधे पर टिकाते हुए कहा, "मेरा घर वर्द्धमान है, लेकिन बीबी बच्चों के साथ जाना जल्दी-जल्दी नहीं हो सकता न।"

बाद में सेनगुप्ता ने आग्रह किया, "चलिए आज हमारे घर की चाय पीने, दोस्त तो आज आपका इंतजार कर नहीं रहे।"

सुवास, बरुण और सुधांशु एक ही ब्लॉक के अलग-अलग फ्लैट में एक साथ खाना बनाते और खाते थे। इसी से वे लोग अपनी ही दुनिया में रहते। उस दिन सेनगुप्ता के घर और भी चार पाँच शिक्षक आ पहुँचे। हँसी मजाक के साथ नाश्ते का दौर चला तो वह इतना हो गया कि खाना ही हो गया था।

बातों-बातों में, चौहान ने पूछा कि "आप फर्स्ट क्लास एम.ए. हैं और आपको स्टैंडर्ड टू एवम फोर्थ क्लास मिला है पढ़ाने को, ऐसा क्यों?"

"सुवास ने धीमे से मुस्कुराकर कहा कि-ऐसी बड़ी बात नहीं है, क्लास तो बस क्लास है।"

"फिर भी मि। सुवास आप उ$ँचे क्लास में जयादा कम्फर्ट फील करेंगे और बच्चों को भी कुछ ज़्यादा मिलेगा" राव ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।

सेनगुप्ता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "सर, सारा रुटीन तो आप ही बनाते हैं, ये थ्योरी यहाँ क्यों समझा रहे हैं।"

राव ने अपनी बड़ी और गड्ढे में धँसी आँखों को उस पर टिकाते हुए कहा-आप इसे समझो, मैं करता हूँ लेकिन अपनी मर्जी से नहीं। मेरे को बोला मैं कर दिया।

सोनाली डे वहाँ सबसे कम उम्र की शिक्षिका थी। छोटे क्लास में संगीत और खेल का क्लास रहता था। वह बोल पड़ी, "चोपड़ा का खोपड़ा कब घूम जाय, पता नहीं।"

राजन ने उस पर जड़ दिया ' लेकिन हमारी सोना दीदी के सब समझ में आ जाता है, है ना सोनाली। "सोनाली झेंप गई, सभी ठठाकर हँस पड़े। बात उसी को लेकर हो रही थी, इसलिए वह चुप सुन रहा था। राव ने कंधे पर हाथ रखकर जाते समय कहा," मि। सुवास चिंता नहीं करने का। टैलेंट को कोई रोक नहीं सकता। "

अब सुवास मुस्कुरा दिया। सचमुच वह एक स्वस्थ और अच्छे माहौल में आ गया था।

एक दिन बरुण ने पूछा-सुवास तुम्हें पता है यहाँ एडवांस इंक्रीमेंट भी मिले हैं लोगों को। सुवास ने सहमति में गरदन हिला दी। बरुण ने झिझकते हुए कहा, "तुम्हें नहीं मिला तो तुमने बात नहीं की।"

सुवास ने ससपैन से कप में चाय डालते हुए कहा, "कुछ दिन बाद ही मि। चोपड़ा से बात करने की कोशिश की थी। पूछा था कि एडवांस इंक्रीमेंट मिलने के नियम क्या हैं?" वरुण आकर बगल में खड़ा हो गया। उसकी उत्सुकता देख सुवास हँस पड़ा-उसने मुझे बहकाने की कोशिश की कि जो सी.बी.एस.सी के पाठ्यक्रम वाले स्कूलों से आए होते हैं। मैंने उस पर कहा कि-' सर मेरा पहला स्कूल भी सी.बी.एस.सी से गाइड होता था, तो जानते हो उसने कया कहा?

बरुण भी चाय लेकर बालकोनी में सुवास के साथ खड़ा हो गया, उसने अपनी जवाब मांगने के लहजे में आँखें उस पर टिका दीं।

सुवास ने हंसकर कहा, "तब कहने लगा कि लेकिन आपने अपनी पढ़ाई तो हिन्दी मीडियम में की है ना, बताओ इस दिल्ली वाले से कौन निपटेगा?"

बरुण ने उत्तेजित होते हुए कहा, "बड़े झूठे हैं लोग, शेखर ने भी तो बंगाल बोर्ड से बंगला मीडियम से पास किया है, उसे तीन इंक्रीमेंट मिले, आगस्टीन ने भी तमिल के सरकारी स्कूल से पढ़ाई की उसे भी तीन इंक्रीमेंट मिले। ये लोग सिर्फ़ बी.ए. हैं। तुमने सारी परीक्षाएं फर्स्ट क्लास से पास की, एम.ए भी, तुम्हें नहीं दिया।"

"बरुण, इन सब बातों में नहीं पड़ना है, मैंने सीनीयर टीचर प्रसाद सर से बात की थी उन्होंने कहा-अरे इन प्राइवेट स्कूलों में कुछ भी नियम नहीं होते। जिसे पसंद करते उसके लिए कुछ भी नियम बना लेते हैं।"

मैंने उनसे भी पूछा, "आखिर पसंद आने के लिए भी कुछ क्वालिफाइंग मार्क्स तो होंगे हीं?" तो उन्होंने व्यंग्य से कहा था, "हाँ होंगे ही पर आप आ सकते हैं तो ज़रूर कोशिश करें। मैं एक कड़वा सच बोल दूं कि आपको बिहारी होने के कारण नहीं मिला।"

वरुण तैश खाने लगा, "ऐसा कैसे कह सकते हैं, वे भड़का रहे थे वे सीनीयर टीचर थे, उनको कुछ करना चाहिए था।"

वरुण महतो बिल्कुल सीधा साधा गाँव का लड़का था। उसके इंगलिश उच्चारण पर पहले बच्चे हँसते थे। बाद भी उसके मैथ्स के ज्ञान और पढ़ाने के तरीके से बच्चे उसे पसंद करने लगे। शिक्षकों के बीच उनके पहनावे और बातचीत को लेकर एक व्यंग्यवाली मुस्कुराहट चुपके से तैर जाती थी। वरुण समझ भी नहीं पाता। सुवास और सुधांशु उसे हमेशा सुरक्षा कवच दिए रहते। एक बार तो वह इतना रुआंसा हो गया था कि नौकरी छोड़कर जाने का मन बना लिया। उस समय भी सुवास ने उसे लोगों की मंशा बताई थी, वह भी कुछ लोगों की। गणित का अच्छा शिक्षक होना कुछ को इसलिए खटक रहा था कि उनकी ट्यूशन पर खतरा मंडरा रहा था।

सुवास ने उस दिन भी बरूण को समझाया कि उन्होंने सच्चाई बता दी इसीलिए मैं चुप हो गया था, बरना कोई हमें कभी कुछ नहीं बताएगा। हमें अपनी जगह बनानी है। बरुण कसमसाता रहा था कि बिहार के इन प्राइवेट स्कूलों में आज भी अंगरेजी शासन चलता था और बिहारियों को उनकी सादगी की सजा मिलती थी।

सुवास को पढ़ाने की घंटियां भी ज़्यादा मिली थी। पैतीस छत्तीस घंटी पढ़ाने के बाद वह निढाल हो जाता। हिन्दी और इतिहास दोनों में उसे बोलना और समझाना पड़ता था। सुवास क्लास लेकर स्टाफ रूम में बैठा ही था कि बाबुलाल अरेंजमेट रजिस्टर लेकर उसके पास आ गया। दो घंटी खाली थी, दिनभर में। सोचा बच्चों की कापियां एक घंटी में जाँच लेगा तो दूसरी घंटी में थोड़ा आराम कर पायेगा न्यूज पेपर के साथ। लेकिन क्लास मिल जाने से उसने रजिस्टर पर साइन किया और स्टाफ रूम से निकल गया। कारीडॉर में कक्षा निरीक्षण के लिये मि। चोपड़ा निकल चुके थे। बड़ा-सा मुँह फाड़े मुस्कुरा कर उसे देखा। उन सवाल भरे चेहरे को देख सुवास ने स्वयं कह दिया-अभी-अभी अरेंजमेंट क्लास साइन की है, क्लास थ्री में हिन्दी पढ़ाने जा रहा हूँ। उसने 'थ्री' और 'हिन्दी' शब्द पर जोर दिया।

मि। चोपड़ा ने चालाकी से हँसकर कहा-हाँ मि। सुवास आप उन बच्चों को बेहतर पढ़ा सकेंगे। ' सुवास बिना उनकी बात सुने आगे बढ़ गया था।

सुवास के दिन विद्यार्थियों के बीच कभी डाँटते, झिड़कते, मुस्कुराते, हँसते कट रहे थे। एक दिन सुबह अपने क्लास में घुसा और बच्चों के समवेत स्वर से अभिवादन का जवाब दिया तो उसे लगा क्लास में कुछ हुआ था। सामने हीं शुभम बैठा था, सदा की भांति गंभीर। तीसरी पंक्ति में शेखर था। बच्चों से ही पता चला कि उसने सुबह-सुबह नया तमाशा किया था। मम्मी के फेश पावडर की डब्बी घर से उठा लाया था और डेस्क पर चढ़कर पंखे के सामने छोड़ दिया। सारे बच्चे हवा में उड़ते पावडर के साथ इधर उधर भागने और छींकने लगे थे। सुवास के आने तक सब शांत हो गया था, पर नीचे गिरी कापियां, लंच बॉक्स हड़बड़ाहट की कहानी कह रहे थे। सुवास ने कड़ी नजर से अपने उन छोटे विद्यार्थियों को देखा तो उनकी कशमसाहट कम हुई. बच्चे ने उसकी तरफ सहायक पुस्तिका बढ़ा दी। रिया गुप्ता ने 'नचिकेता' पाठ निकाल कर कहा, "सर इसे समझा दें।"

सुवास ने नचिकेता की कहानी बतानी शुरू की, बच्चे सुनते रहे। बूढ़ी गाएँ दान करने पर नचिकेता का अपने पिता को टोकना उन्हें बड़ा मजेदार लगा। वे मुँह पर हाथ रखकर हँस रहे थे। लेकिन नचिकेता के यमराज के पास जाने की बात सुनकर पूरा क्लास सन्नाटे में बदल गया था। सभी बच्चे ध्यान से सुन रहे थे। तभी किसी ने कहा कि पीछे बैठा केशव सो रहा था। सुवास का मन भी हट गया। उसने सोचा जोर से डाँटकर उन्हें ठीक कर दे। पर इतने छोटे बच्चे उसकी डाँट नहीं सह पाएँगे। यही सोचकर उसने किताब बंद की और केशव को आँख और मुँह धोकर आने को कहा। वह अब पढ़ाने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन रिया ने पूछ लिया " सर आत्मा क्या चीज होती है, नचिकेता उसी के बारे में क्यों पूछ रहा था।

सुवास के सामने फिर नया संकट था। किसी तरह बातों को सजाकर उसने आत्मा के विषय में बताना चाहा-देखो जब तक मनुष्य जीवित रहता है, आत्मा उसके अंदर रहती है। शरीर के रहते हुए भी कोई चीज है जो नहीं रहती है तो आदमी मर जाता है। आत्मा को कोई देख नहीं सकता, छू नहीं सकता।

मयंक जोर से बोल उठा, "अरे शिवम तू नहीं जानता, भूत, हाँ वही तो दिखाई नहीं देता और आदमी मर जाता है तो भूत हो जाता है।" सब बच्चे भूत का नाम सुन, सुवास की उपस्थिति को भूल आपस में बातें करने लगे। उनके हाव भाव को देख सुवास को भी हँसी आ गई, लेकिन बगल के क्लास में भी आवाज से दिक्कत हो रही होगी, सोचकर उन्हें कसकर डाँटा, "भूत, वूत कुछ नहीं होता, क्यों चिल्ला रहे हो। मैं अब अगले दिन पढ़ाउ$ंगा।" तब तक घंटी भी बज गई. वह अपने को किसी तरह बचाता क्लास से निकला तो पीछे-पीछे से बच्चों के कोलाहल सुनाई दे रहे थे, "रिया मैं भूत हूँ, मैं कभी नहीं मरता, मैं दिखाई भी नहीं देता" , साथ ही उनके हँसने और चीखने की भी आवाजें।

स्टाफ रूप में अपने अगले पीरियड के लिए किताबें लेते-लेते वह मुस्कुरा उठा था। चित्रा का कवर्ड भी पास ही था, वह भी वहीं खड़ी थी। उसने सुवास के चेहरे पर मुस्कुराहट देखी तो पूछ बैठी, "क्या बात है मि। सुवास बड़े खुश हैं।"

"ऐसी कोई बात नहीं, बस क्लास से सीधे आ रहा हूँ, तो बच्चों की बातों से हँसी आ गई."

"किस क्लास में थे आप" चित्रा ने अपनी किताबें निकालते हुए पूछ लिया। , "क्लास थ्री 'बी' से आ रहा हूँ।"

"अच्छा तो रिया और शुभम ने ढेरों सवाल पूछे होंगे बस आड़े टेढ़े।"

"नहीं आज तो शेखर हीरो था" , मम्मी के पावडर उड़ाकर फिर रिया ने पूछा कि "नचिकेता किस आत्मा को जानने की बात कर रहा था, तो मयंक ने कहा कि" वह भूत को जानना चाहता था क्योंकि वह दिखाई नहीं देता है। फिर सारे बच्चे तरह-तरह से प्रतिक्रिया करने लगे और मैं उन्हें कुछ नहीं बता पाया। सच इतने छोटे बच्चों को ऐसे पाठ नहीं देने चाहिए. आप समझा देंगी उन्हें। "

तब तक कुछ युवा शिक्षक आ गए, "हाँ-हाँ मैम तो बहुत अच्छी तरह समझा सकती है।"

"हाँ हाँ मैं तो भूतों के बीच ही रहती हूँ इसी से"

रंजीत जो सबसे छोटा और चुलबुला था अक्सर सबको छेड़ता उसने कहा, "हमें तो ऐसा ही लगा मैम।"

चित्रा ने हाथ में पकड़ी किताब उसके सर पर मारते हुए कहा, "हाँ हाँ एक भूत तो मेरे सामने है-रंजीत-जो हर समय तंग करता है।" चित्रा इतना कहकर क्लास के लिए निकली तो सुवास भी निकल गया।

शाम को सप्ताह में तीन दिन बड़े बच्चों के लिए गेम्स की क्लास होती थी, साथ ही हॉबी की भी। जिन टीचर की ड्यूटी होती उन्हें सप्ताह में एक दिन जाना होता था। वरुण और सुवास की ड्यूटी बुधवार को लगी थी। रास्ते में हावी क्लास के लिए सोनाली डे, चिंता झा और किरण मराण्डी भी मिल गई थी।

बातचीत चिंता ने ही शुरू की थी कि "आपलोगों को भी ड्यूटी मिल गई आखिर।"

सुवास ने कहा, "ठीक ही है मैम, शाम को और करना भी क्या था।"

सोनाली ने कहा, "लेकिन सर गर्मी के दिन में चार साढ़े चार बजे आना बहुत अखरता है।"

वरुण ने चिंता से पूछ लिया, "सोनालीजी तो संगीत सिखाती होगी आप क्या सिखाती हें।"

चिंता ने कहा, "हमें तो गाना बजाना या फोटोग्राफी या ललित कला जैसे विषय आते नहीं। मैं तो 'कुकरी' खाना बनाने का क्लास लेती हूँ।"

वरुण ने जब पूछा कि-उसमें तो लड़कियां ही सिर्फ़ रहती होगी? चिंता और सोनाली बताने लगी कि " लड़के भी होते हैं, जिनको बाकी किसी चीज में इंटरेस्ट नहीं होता, वे पाककला में आ जाते हैं।

वरुण का मुँह खुला का खुला ही रह गया। सुवास ने उसकी स्थिति देखी तो कहा-चलो लड़के आ गए हैं, फुटबॉल वगैरह निकाल कर देना होगा। "

वरुण इस बात को पचा ही नहीं पा रहा था, "सुवास जी ये लड़के खाना बनाना सीखकर क्या करेंगे?"

वरुण आपने सुना नहीं, सोनाली जी ने कहा, "इनकी समस्या है कि ये खाना बनाना सीखने नहीं, कुछ भी नहीं सीखने से बचने के लिए जाते हैं और किसी-किसी की रुचि होती होगी।"

"हमारे गाँव में कोई सुने कि इतने महँगे स्कूलों में लड़के पढ़ाई-लिखाई छोड़कर खाना बनाना सीख रहे हैं तो बेेटे को स्कूल से निकाल कर घर लेते जाएं। अरे एक बार की बात है, पत्नी नई थी, दिन में हम उनसे बात नहीं करते थे तो खाना खाते समय नमक उठकर खुद से ले लिया। मेरी माँ और दादी को इतना बुरा लगा और मेरी पत्नी को ढेरों बातें सुननी पड़ी थीं कि मरद मानुष बाहर काम करता है, घर में भी औरत की तरह काम करेगा।"

"वरुण जी अब आप गाँव में नहीं, बारूद कारखाना द्वारा संचालित एक इंगलिस मीडियम स्कूल में पढ़ाते हैं। उसी से इस सब से निकलिए. ये लड़के तो सोचते हैं-'होटल मैनेजमेंट' करने चला जाए."

वरुण बस हँसता रहा था। सुवास उसे बहुत पसंद करने लगा था। इसी से एकबार वह प्रिंसपल से भी उलझ पड़ा था। प्रिंसपल ने वरुण के हिन्दी उच्चारण पर कुछ कह दिया था। सुवास ने जवाब दिया था, "सर सच ही आपने कहा कि बिहार के लोग हिन्दी बहुत ग़लत बोलते हैं। लेकिन उनका ज्ञान इतना बड़ा है कि वे जानते हैं वे कहाँ और क्या ग़लत बोल रहे हैं या व्याकरण की दृष्टि से सही क्या होगा। लेकिन हमारे ही स्कूल में अन्य प्रांत के लोग तो जानते भी नहीं कि वे क्या ग़लत बोल गए."

सुवास प्रायः ऐसे उत्तेजित ढंग से किसी से बात नहीं करता था। उस दिन उसके मन की भड़ास निकल गई थी। लेकिन परिणाम क्या निकला। आफिस से बाहर निकला और आफिस में बैठे दो सीनियर टीचर ने यह बात लोगों को बता दी थी। कुछ लोगों ने उसके इस जवाब पर पीठ ठोकी थी। जब वह मैदान में था तो सुना था उसने कोहली, मेनन और खन्ना से कह रहा था, "सुवास को देखा, प्रिंसपल से लड़ बैठा, अरे ये बिहारी होते ही हें अकल से पैदल। क्या ज़रूरत थी दोस्त के लिए लड़ने की।"