जटायु के कटे पंख, खण्ड-16 / मृदुला शुक्ला
गर्मी की छुट्टियां पड़ गई थीं, जब सुवास असमंजस से भरा बालकोनी में खड़ा रहा कुछ सोचता रहता था। कुछ वरीय शिक्षकों को छोड़ अन्य शिक्षक अपने घर या गोमिया से बाहर कहीं घूमने निकल गए थे। चहल-पहल भरी कॉलोनी सुनसान होने लगी थी। सुवास और वरुण को स्कूल प्रबंधन कमिटी की ओर, कुछ अनुभवी शिक्षकों के साथ अतिरिक्त कार्य करने के लिए रुकने का आग्रह किया गया। दोनों ने इसे स्वीकार कर लिया, क्योंकि दोनों को कोई विशेष काम नहीं था। व्यस्तता भरे उस वक्त में तो पता भी नहीं चला कि कब दस दिन बीत गए. वरुण अपने घर जाने की तैयारी कर रहा था। सुवास न तो जीतपुर जाना चाहता था ना ही भागलपुर जाने को उत्सुक था। जीतपुर में पुरानी यादें और पापा का उतरा हुआ चेहरा, उसके कदमों को
बांध देता। भागलपुर भी नहीं जाना था क्योंकि वहीं पर तो उसने अतुल मामा के साथ मिलकर अपने सपनों में रंग भरे थे। वरुण ने परिस्थिति को देखते हुए उसे अपने गाँव चलने पर जोर दिया। सुवास की मनःस्थिति और उसके अतीत से वरुण परिचित हो चुका था, इसलिए उसे अकेला छोड़ना उसे उचित नहीं लगा। सुधांशु की बहन की शादी थी, इसलिए वह छुट्टी होते ही चला गया था। ऐसे में सुवास ने वरुण की बात पर उसके गाँव जाना ही उचित समझा।
गिरीडीह से पंद्रह किलोमीटर दूर एकदम हरियाली के बीच था वरुण का गाँव। बड़ा परिवार, बड़ा-सा घर और एक दूसरे से गले मिलते मिट्टी के बने घर जो उसके किसी न किसी रिश्तेदार का था। वरुण के माँ, बाबुजी भी सुवास को देख खुश हुए, अपनेपन से सभी को मिलाया। सुवास को थोड़ा अचरज हुआ कि वरुण के दोनों छोटे बच्चे उसे 'काका' कहकर बुलाते थे। माँ ने बताया कि बड़े भाई अरुण के बच्चों के साथ ये भी उसे काका कहते ही नहीं, समझते भी हैं। सुवास ने सोचा कि अच्छा तो इसे कहते हैं सम्मिलित या संयुक्त परिवार जहाँ माँ बाबुजी घर की सारी शक्ति समेटे सबको संरक्षण देते हैं। यहाँ इकाई का कोई महत्त्व नहीं था। दिनभर सुवास भी वरुण के साथ घूमा करता था। खेत, खलिहान, बाँसबाड़ी, अमराई सबकुछ था वरुण के बाबुजी के पास, लेकिन उन्हें घमण्ड अपने चार जवान बेटों पर था। मेहनतकश लोग थे, दिनभर काम, कभी रस्सी बना रहे, कभी गाय और गोबर में लगे रहे, कभी सब्जियों की क्यारियों में, उस गर्मी में कुएँ से पानी निकालकर सींच रहे थे।
एकदिन अपने बगीचे की ओर सुवास को लेकर निकला। वरुण ने हाथ से इशारा कर बताया कि ये दस आम के पेड़ बाबुजी ने लगाए थे और दो पेड़ उनके बाबुजी ने ये जो नये चार पेड़ थे ये मैंने और भैया ने लगाए थे। तभी उसकी नजर सामने के खेत पर पड़ी, जहाँ सामने मैदान में वरुण के बाबुजी, माताजी, भाई और चाचा गमछा पहनकर मिट्टी से लथपथ थे। सुवास उन्हें पहचान भी नहीं पाया था। जब वरुण उनसे बात करने उनके पास गया तब सुवास की समझ में आया। उसे हैरान देखकर वरुण ने कहा कि "घर का पिछला हिस्सा अभी बन नहीं पाया है, इसीलिए ईंट पकाना ज़रूरी है। इस तपती गरमी में ही ईंटें ठीक से सूख पायेगी, तभी सब काम में लगे हैं।"
"तुम्हारे पिताजी भी ईंटें बना रहे हैं" आश्चर्य से सुवास ने पूछा तो वरुण ने हँसते हुए कहा, "हाँ सभी है और तुम्हारी खातिरदारी के लिए हीं मुझे छोड़ दिया है, नहीं तो मैं भी वहीं होता और तुम मुझे न पहचान कर लौट जाते।"
सुवास ने आखिर अपने दिल की बात कह दी, "वरुण बहुत गर्मी है, उन्हें रोको, ऐसे भी तुम्हारे यहाँ क्या कमी है, आदमी रखकर काम करवा लो।"
"है ना, दो मजदूर रखे हैं, मिट्टी तैयार कर देते हैं, बाकी काम घर के लोग कर लेते हैं। ईंट भट्ठा लगेगा तब फिर आदमी रख लेंगे।" जब सुवास इसके बाद भी वहीं खड़ा रहा तो वरुण ने कहो, "चलो चलो कलम चलाने वाले हमारे दोस्त, न तो वे रुकेंगे, न उन्हें कुछ होगा। ये मेहनत करने वाले हैं। यह मिट्टी, यह जमीन ही हमें सबकुछ देती है। हम ढेरों सब्जियां उगाते हैं, हमारी माँ और चाची जाकर हाट में बेच आती है। पैसे, ऐसे ही नहीं आते सुवास बाबु," वरुण इतना बोलकर हँसने लगा तो सुवास भी हँस पड़ा। "
सुवास के सामने जीवन का नया अध्याय खुल रहा था। वरुण का बड़ा भाई, जिला बोर्ड का कर्मचारी था, वह भी बी.ए पास था। वही मिट्टी लाकर दे रहा था, जिसे सांचे पर माँ, पिताजी और चाचा गढ़ रहे थे। कितने स्वाभाविक हैं ये लोग, लेकिन कितने दिन ऐसे रह पायेंगे, जो हैं जैसे हैं सबके सामने है। सुवास ने जब वरुण से पूछा, "तुम्हारी पीढ़ी तक तो ये चल जाएगा वरुण लेकिन नई पीढ़ी क्या यही करेगी?"
"अब आगे का नहीं पता, लेकिन बच्चों को हम काम से नफरत करना तो नहीं सिखाएँगे। ये भी बचपन से अपने दादा और बाप को काम करते देख रहे हैं तो काम की इज्जत ज़रूर इनके मन में रहेगी।"
वरुण यहाँ आकर कितना आत्मविश्वास से भरा दीखता है, जबकि गोमिया के उस पब्लिक स्कूल के अंग्रेज़ी के भूत से सदा आतंकित रहता था। यह भी अच्छा हुआ कि सुवास ने उसे ठीक से पहचाना।
नये नये अनुभवों से गुजरता सुवास अपने आपको समझाता और बहलाता पंद्रह दिन रह गया था। गाँव में बिजली के खंभे तो लग गए थे लेकिन रौशनी नहीं पहुँची थी। लोग जल्दी खा पीकर सो जाते। सुवास सोचता यह सब तब हो रहा है जब युवा प्रधानमंत्राी लोगों को कम्प्यूटर युग में ले चलने की बात कर रहे हैं।
सुवास उस दिन भी जल्दी सो गया था। रात में नींद खुल गई. हवा तेज थी, गरमी में अच्छा लग रहा था, लेकिन नीम की पत्तियों की सनसनाहट से मन थोड़ा डरा डरा-सा लगता। अमावस्या को दो तीन दिन रह गए थे, इसलिए अंधकार गाढ़ा था, सुवास को कुछ फुसफुसाहट-सी सुनाई पड़ी और दूर कहीं सन्नाटे को चीरती कुछ आवाजें। सुवास उठ बैठा, बगल के बिस्तर पर वरुण के छोटे दो भाई सोते थे, वे दोनों बिस्तर खाली थे। उसे लगा ज़रूर गाँव में कुछ घटना घटने वाली है। पीरटाँड़ भी पास ही था, पता नहीं उग्रवादी या डकैत ही कुछ अनहोनी को अंजाम देने का सोच रहे हों। उसने जोर से शंभु और शेखर को पुकारा। वरुण ही अंदर से हड़बड़ाता हुआ आया। उसने सुवास से चुपचाप सो जाने को कहा। सुवास ने कहा, "अरे वरुण कुछ होने वाला है और सावधानी की जगह तुम सोने की बात कर रहे हो। गाँव में इतने लोग हैं तुम्हारे; उनको जगाकर बताओ."
वरुण उसकी चारपाई पर बैठ गया और बोला, "सुवास सारे गाँव वाले को पता है कि क्या होने वाला है और उनकी मर्जी से होने वाला है तुम बाहरी आदमी हो, बस सो जाओ."
सुवास अब चकरा गया था। ये रात में खुसुरपुसुर घर के अन्दर और बाहर दूर बगीचे से आता शोर आखिर ऐसा क्या हो रहा था इस गाँव में। पहली बार उसे यहाँ आने के फैसले पर शंका होने लगी थी। उससे रहा नहीं गया तो वरुण ने
धीरे धीरे बताया कि गाँव के छोर पर एक घर है सोनामन्ती का। उसका पति कुएँ में गिरकर मर गया था। बेटा भी दस साल की उम्र में चेचक होने से खत्म हो गया था। एक बेटी है ससुराल रहती है। गाँव में सबका विश्वास है कि वह डाइन है। इधर गाँव में तीन चार असमय मौत हो गई. उसे गाँव से तो निकाल दिया गया था लेकिन वह कुछ न कुछ मांगने गाँव के किसी घर में आ जाती है। इस बार ओझा को बुलाकर उसे नचाया जाएगा या उसका उपाय किया जायेगा। इसी से तुम्हें मना कर रहा था। सारा गाँव वहीं जमा है, बगीचे और मैदान के बीच में।
सुवास के बदन में फुर्ती आ गई, "वरुण फिर तुम यहाँ क्या कर रहे हो, चलो किसी तरह रोको इसे।"
वरुण ने हाथ से एकदम मना कर दिया, "सुवास यह शहर नहीं है, जहाँ सब अपने मन की करते हैं। यहाँ सारा गाँव एक बात बोलता है, एक साथ चलता है। तुम बिल्कुल शांत रहो, कल कुछ भी नहीं होगा, सब ठीक हो जाएगा।"
लेकिन सुवास ने उठकर कमीज पहनी और वरुण को कहा, "मैं अकेला ही जा रहा हूँ, तुम चलना चाहो तो चल सकते है।" वरुण थोड़ी देर हकबकाया-सा खड़ा रहा, फिर अंदर गया और साथ चलने को तैयार हो गया यह कहकर कि "तुम वहाँ सिर्फ़ समझाओगे और जो वे करेंगे उस पर बात नहीं बढ़ाओगे।"
लेकिन बात आखिर बढ़ ही गई थी। तीन चार गाँवों के लोग लालटेन, पेट्रोमैक्स और लकड़ियां जलाकर उजाला कर बैठे थे। एक औरत को तरह-तरह की गालियां लोग बके जा रहे थे। ओझा झोंटा खींच-खींच कर उसे सारी मौत की जिम्मेवारी लेने को कह रहा था। साथ ही यह डायन विद्या किससे सीखी, इसके लिए उसकी पीठ पर सरासर बेंत की छड़ी ओझा बरसाता, फिर थोड़ी देर बाद चिल्लाता मंत्रा पढ़ता। उस प्रौढ़ा की साड़ी खुल गई थी, ब्लाउज फट गए थे, वह रोती, गिड़गिड़ाती, "हाय गे मइया, हाय हो बप्पा" कहकर चीखती जा रही थी।
सुवास बिल्कुल आवेश में आ गया था। बीच में जाकर उस महिला के सामने आ गया। लोग भौंचक हो गए. शहराती लड़के को देख कुछ लोग पुलिस वगैरह की बात सोच शायद भयभीत भी हुए. लेकिन जब वरुण को साथ देखा तो पूरा गाँव भड़क गया। अब लोग वरुण और सुवास से भिड़ने लगे। किसी ने गाँव के सम्मान का प्रश्न बना लिया। सुवास भी जिद पर अड़ गया कि "आप मुझे मार दें, लेकिन डायन के नाम पर इस औरत को नहीं पिटने दूंगा।"
एक औरत जिसके बच्चे की मौत शायद एक माह पहले हुई थी, उसने सुवास को देखते हुए कहा, "तोहनी आपना के बड़का वीर बहादुर समझे र्हइं तो फौज में भरती हो जाहीं।" कुछ लड़के मारपीट पर उतारु हो गए थे। तब वरुण के बाबु जी ने आँख के इशारे से वरुण को, सुवास को घर ले जाने को कहा। आधी भीड़ इस
व्यवधान से नाराज हो लौट गई थी। ओझा दांत पीसता खड़ा रहा था। वरुण सुवास का हाथ पकड़कर, खींचता अपने घर ले आया था। उस दिन औरत बच गई थी।
मुँहअंधेरे सुबह ही सुवास को लेकर वरुण अपने गाँव से चल दिया था। सुवास ने भीगी आंखों से उस महिला के ताड़ के पत्ते से बने उस झोपड़ी को देखा था और मन ही मन माफी मांगी थी।
गरमी छुट्टी के बाद स्कूल खुला तो विद्यालय तेज गति से चल पड़ा था। माह भर बाद ही वार्षिक परीक्षा होनी थी, इसी से शिक्षक और बच्चे एकदम बिना फुरसत के अपने-अपने काम कर रहे थे। तब भी जब फुरसत होती सुवास की आँखों के आगे एक दुबली पतली काया मैली कुचैली अधखुली साड़ी में खड़ी होकर मानो उसे धिक्कारती कि वह कुछ नहीं कर सकता था उसके लिए.
परीक्षाएं खत्म हो गई थीं। रिजल्ट बनाने की तैयारी चल रही थी। स्टाफ रूम में बैठे वरुण से खन्ना ने आकर कहा-मि। वरुण रौल नं। सिक्स का मार्क्स एक बार फिर से देख लो तो? वरुण ने कापी निकाली और देखकर कहा, "ठीक तो है।"
"क्यों यहाँ भी तो नंबर मिल सकते थे?" रेखागणित के एक सवाल के उत्तर पर अंगुली रखकर खन्ना ने कहा तो वरुण ने इनकार में गर्दन हिला दी।
खन्ना चला गया तो वरुण ने सुवास से पूछा, "ये सेवेन्थ क्लास का रौल नं सिक्स कौन है? मैं तो उस क्लास में पढ़ाता नहीं, आप तो पढ़ाते हैं ना।"
सुवास ने अपनी कापियों का बंडल बांधते हुए कहा, "हाँ मैं उस क्लास में पढ़ाता हूँ। बिल्कुल गैर जिम्मेदार विद्यार्थी है दूसरे विद्यार्थियों को भी हँसा कर पढ़ने से भटकाता है।"
' उसकी ये पैरवी क्यों कर रहे थे? " कुछ सोचते हुए वरुण ने पूछा।
"ट्यूशन का चक्कर होगा पर आपने तो सही नंबर दिये है ना?"
"हाँ हाँ मैंने तो एक बार फिर चेक कर लिया है।"
बात आई-गई हो गई थी। लेकिन दो दिन बाद ही चित्रा अपने क्लास के मार्क्स और रजिस्टर लेकर वरीय शिक्षक एन.पी.सिन्हा सर के पास पहुँची, वे परीक्षा विभाग में भी थे।
"सिन्हा सर, ज़रा ये नंबर देखिए, अनिमेष गांगुली का है। मिश्रा सर ने इसे कितने अंक दिए हैं, जबकि हम सभी जानते हैं कि वह कितना और क्या पढ़ता या जानता है।"
चित्रा के हाथ से नंबर वाला कागज लेकर सिन्हा सर देखने लगे। जॉन गेम टीचर था। टेबल पर तबला बजाते हुए हँस पड़ा, "मैम ऐसा चलता है, उसे आप जानती नहीं हैं।"
"नहीं सर मैं अनिमेष को जानती हूँ, इसी से कह रही हूँ" चित्रा ने प्रतिवाद किया।
सुमित सरकार ने धीरे से मंद हँसी के साथ कहा, "वह सिर्फ़ अनिमेष नहीं है, वह पी.के.गांगुली का बेटा है, समझी मैम, स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य।"
चित्रा एकदम भरी बैठी थी। बोल पड़ी, "सर यहाँ हर कोई किसी न किसी का बेटा है और प्रबंधन समिति में होने से उसका हक बनता है तो परीक्षा ही न दे।"
जॉन सदा मस्त रहने वाला दक्षिण भारतीय आदमी हिन्दी बोलकर बहुत ज़्यादा खुश हो जाता था-मैम वह मैनजमेंट में है, तो कुछ बनता है ना।
"नो सर मैं ऐसा अपनी जानकारी में नहीं होने दूंगी। इस तरह का गड़बड़ घोटाला मेरे क्लास में नहीं होगा। हम बच्चों के प्रति उत्तरदायी हैं। उनके पास दो-दो विषय के पेपर गए हैं और वे अच्छे विद्याथर््ीा को कम और ग़लत को ज़्यादा अंक दिए जा रहे हैं।"
तब तक सिन्हा सर ने पेपर चित्रा को लौटाते हुए कहा, "मैं मिश्रा सर से बात करता हूँ, ये ग़लत है।"
उनके जाने के बाद जॉन ने फिर मसखरी की-सर जानते नहीं घोटाले ही तो आज की पहचान हैं। पता है ना मि।क्लीन राजीव गांधी पर भी बोफोर्स घोटाले का, आं क्या कहते हैं हिन्दी में-जॉन शब्द खोजने लगा तो वरुण ने मुस्कुराते हुए कहा, "आरोप..."
"हाँ हाँ आरोप लग रहा है।"
उसी समय जॉन की पत्नी औरेलिया ने किताब से नजरें उठाकर उसकी तरफ देखा तो जॉन ने शांत होकर टेबल पर माथा रख लिया और आँखें बंद कर ली। सभी स्टाफ यह देख हँस पड़े। ऐसा ही होता, जब जॉन ज़्यादा बकबक करता तो उसके साथी औरेलिया का नाम लेकर उसे चिढ़ाया करते।
सुवास इस ओर से एकदम अलग कापियॉ देखने में व्यस्त था। जब सब लोग जोर से हँसने लगे और मरियम चाय लेकर भी आ गई तब सुवास ने वरुण से पूछा, "क्या बात हो गई, बड़ी गहमागहमी थी"
वरुण इस हो हल्ले में भी सुवास को एकाग्र काम करते देख हँसने लगा। चित्रा का चेहरा लाल हो गया, वह चाय का कप पकड़ कर बाहर जाते-जाते बोलती गई, "आप लोगों ने मेरा मन दुखा दिया। बताइये हम टीचर हैं और कापियों में अंक देने को इतना लाइटली लेते हैं, मजाक उड़ाते हैं। मैं तो इस बात को लेकर प्रिंसपल तक जाउ$ंगी।" अब सुवास को लगा कि बात कुछ गंभीर थी और वह कापी चेक करने में व्यस्त रहा। वरुण से पूछा तो उसने बताया, "वही क्लास सेवेन्थ का रौल सिक्स यानी अनिमेष गांगुली को दिए गए नंबर की बात हो रही थी।" सुवास चुप रह गया।
चार दिन बाद क्लास में सुवास की भेंट चित्रा से हुई तो सुवास ने ही बात छेड़कर पूछा कि "क्या आप अनिमेष की कापी के सम्बंध में प्रिंसपल से मिली थीं।"
चित्रा ने उस दिन की पूरी बात बताकर कहा कि "वह मिली थी लेकिन इतना लेक्चर देने वाला व्यक्ति मेरे पर मुस्कुराता रहा-जैसे एक मैं ही बेवकूफ हूँ। बार-बार कहता रहा मिश्रा जी को ऐसा नहीं करना चाहिए यह तो उनके सोचने का विषय है।"
सुवास ने गंभीरता से पूछा, "तो फिर नतीजा क्या निकला?"
चित्रा ने भरी भरी-सी आवाज में कहा, "कुछ भी नहीं, मिश्रा जी के दोषों को गिनाते रहे।"
"आपने कुछ कहा नहीं?"
"मैंने कहा था कि मैं अपने बच्चों को क्या कहूँ। तो उन्होंने कहा आप अच्छी वक्ता हैं, स्त्राी हैं, मदरली उनको समझा सकती है।" सुवास साँस रोके हाथ मलता रहा।