जटायु के कटे पंख, खण्ड-17 / मृदुला शुक्ला
टिफिन में डाक आती थी। सुवास के लिए भी चिट्ठी थी। वर्षा ने लिखा था कि पापा की तबीयत अच्छी नहीं है, माँ अपने पैर-दर्द से परेशान है, बगल वाली खेमका चाची के घर चोरी हो गई, लेकिन सामान में सिर्फ़ टूटी साइकिल गई, बादल भैया इन दिनों रात-रात भर पढ़ते हैं, अब उसके चाय पीने पर माँ डाँटती नहीं, " इसी तरह की ढेरों बातें। वर्षा की चिट्ठियों की वजह से ही, वह घर से जुड़ा है, नहीं तो घर जाने की उसकी इच्छा ही नहीं होती। पुरानी यादों के साथ बिताए दिन के झोकें, उसकी आँखों को कड़वाहट से भर देते थे।
सुवास स्कूल से आकर यों ही थका-सा अपनी चौकी पर लेट गया था। कमरे में अँधेरा घुस चुका था, शाम ढल चुकी थी, उसने रौशनी नहीं की। गर्मी के दिन थे लेकिन गोमिया की प्रकृति ने ठंडक की एक चादर डाल दी थी। सुवास के घर के सामने से ही विष्णुगढ़ की ओर जाने वाली सड़क जाती थी। सुवास आखिर उठकर बालकोनी में खड़ा हो गया। सड़कों पर गुजरते अजनबी कारवां को देखता रहा। ट्रेकर पर लदे लोग और बाज़ार करके पैदल लौटते ग्रामीण। शहर की चमक-दमक से दूर यह शांत जगह अब सुवास को अच्छी लगने लगी थी, स्कूल के कुछ अप्रिय लोगों और प्रसंग के बाद भी। धीरे-धीरे उसमें आत्मविश्वास भी आ रहा था, अंग्रेज़ी स्कूल में अपनी हिन्दी मीडियम की पढ़ाई और बिहारी होने के बाद भी। वह लोगों से घुलने मिलने की कोशिश भी कर रहा था। सुवास भी यही सोच रहा था कि वह अब बदल रहा है, तभी नीचे से सुधांशु ने आवाज दिया, "अरे आपलोग अभी यहीं हैं, आज डिनर पार्टी की तैयारी करनी है।" सुवास ने बगल के फ्लैट के दरवाजे पर जाकर वरुण को आवाज दी, वह आया तो बोलने लगा, "सुवास जी मेरी इज्जत रख लीजिएगा, मैं प्लेटें तो साफ कर दूंगा, पर खाना बनाना मुझसे नहीं होगा।"
सुवास ने चाय पीते हुए मुस्कुराकर कहा-आप क्या समझते हैं, मुझे कुछ आता है, जो कुछ कच्चा पक्का बना रहा हूँ यही आकर। क्योंकि मजबूरी है, मैं तो रसोई में कभी बचपन में भी नहीं गया।
सामने वाले फ्लैट में सुधांशु के घर सभी बैचलर लोगों ने मिलकर पार्टी रखी थी। चित्रा और सीमा एकदम भिड़ी हुई थी। कुछ लड़के आलू और प्याज छीलने में लगे थे। हो हंगामा हो रहा था, टेप फुल स्पीड में बज रहा था। अकेले रहने वाले आठ जनों ने मिलकर उन सात परिवार को खाने पर बुलाया था। जिनके घर ये लोग अक्सर नाश्ता-खाना खाया करते थे। बात सीमा और सुधांशु ने ही की थी। कमल किशोर की शादी की वर्षगाँठ थी। इन दोनों ने कहा कि-भाभी जी आपका घर तो हमलोगों का स्थाई होटल बन ही गया, तीज त्योहारों पर भी हमलोग आपलोगों के घर ही जमते हैं इस बार हमलोगों के हाथ का खाना खाकर देखे। फिर एक ग्रुप ने आपस में तय किया और मौजमस्ती के साथ सब-सब जुट गए. रविवार को क्लब में कोई न कोई कार्यक्रम होता या फ़िल्म दिखाई जाती थी अतः अगले दिन सुबह उठने की हड़बड़ी। इसी से शनिवार को ही पार्टी रख दी गई.
वरुण के लिए सबकुछ नया था। लड़कों ने सबों के घर जाकर कुर्सियां इकट्ठी की, टेबल को मिला जोड़ा और तीन चौकियों का डायनिंग टेबल बनाया गया। चित्रा ने सुवास से पूछा, "मि। सुवास आप क्या बना रहे हैं?"
सुवास को कुछ नहीं समझ में आया तो उसने कह दिया, "मुझे खीर बनाने को दे दो, मैं एक जगह बैठकर यही कर सकूंगा।" जॉन और औरेलिया सबसे ज़्यादा खुश थे कि आज उन्हें खाना नहीं बनाना पड़ेगा। सेन गुप्ता की छोटी-सी बेटी सबका खिलौना बनी हुई थी। जब थोड़े से काम बच गए तब लड़कियों ने कहा कि अब वे लोग सारा काम संभाल लेंगीं, वे लोग बैठ जाएँ।
सभी बैठकर गप्पें मारने लगे। लोग वरुण को चिढ़ा रहे थे जो अपनी पत्नी और बच्चों को गाँव में रखकर कुँआरों में शामिल था।
चौहान ने कहा कि प्रिंसपल ने बुलाकर उससे कहा, "आप के क्लास में कुछ बच्चों की कापी बिल्कुल सादी थी, उन्होंने होमवर्क नहीं किया था।"
मैंने भी उन्हें बताया, "मैं रोज उन्हें बोलता हूँ लेकिन वे करते ही नहीं, अब आगे मैं उन्हें पढ़ाउ$ं कि ऐसे लड़कों के पीछे पड़कर सिलेबस को अनदेखा कर दूं।" लेकिन वे माने ही नहीं, अपनी बात ही कहते रहे, मेरा मन एकदम भन्ना गया।
किसी ने कहा, "ये समस्या तो है कि बच्चे पढ़ना ही नहीं चाहते" सैनी ने काफी पीते हुए कहा, "अरे एकाध को पीट दो, तभी समझेंगे।"
"पर कारपोरल पनिशमेंट तो एलाव ही नहीं है और आप जेन्ट्स लोग पीटकर उनकी आदत खराब कर देते हैं।" सुधांशु बोल पड़ा, "हाँ मैम आप उनको लोरी सुनाइये और उसकी बात मानिए. परसों खेल के समय टेन्थ क्लास के दो लड़के आपस में भिड़ गए, एक का सिर फूटा दूसरे की कोहनी छिल गई. उस पर सख्त आदेश है कि आप इन्हें दंड न दें, बताइये हम ताली बजाएँ।"
कमलकिशोर ने कहा, "सर ये इंडस्ट्रीयल एरिया है ना इसी से। अन्य जगह तो अभिभावक ही कहते हैं कि मेरे बच्चे को जैसे भी हो, आप संभालिए."
"यहाँ ऐसी बात नहीं होने की। एक वजह तो यह भी है कि वे समझते हैं मैं उनसे ज़्यादा कमा रहा हूँ।"
वरुण ने बात काटी, "नहीं नहीं ऐसा नहीं है।"
"अरे, मि। वरुण आप विश्वास कीजिए, एक दिन मैंने मृत्युंजय सिंह को पीट दिया था क्योंकि उसने क्लास के एक लड़के को पीटा था। दूसरे ही दिन उसके पिता स्कूल पहुँचे यह कहते हुए कि मैं कंट्रोलर हूँ आठ हजार रुपए कमाता हूँ और ये टीचर जो ढाई हजार रुपए कमा रहा है, अपने को क्या समझता है। बच्चे से गलती हो गई तो समझाने के बजाय पीट देगा?"
तब तक सीमा भी काम खतम कर तौलिये से हाथ पोछती हुई आ गई थी, उसने भी कहा, "ऐसे भी कुछ लोग हैं, उसके फादर तो हर एक सप्ताह बाद कम्पलेन लेकर पहुँचते रहते हैं।" जॉन ने फिर चिढ़ाया, "उसका मूड थोड़ा ठीक हो जाता होगा मैम से मिलकर।"
सीमा ने टेबल पर पड़ी कड़छी उठाकर धमकाया तो सभी जोर से हँसने लगे।
सुवास बहुत देर से चुप बैठा था। उसने कहा, "देखो समाज में बदलाव तो हुए हैं। शिक्षकों को पैसे भले ही ज़्यादा मिलने लगे हैं पर इज्जत घटी है। पैसे और ज़्यादा भी मिलेंगे तब भी वह सम्मान नहीं मिल सकता जो हमारे टीचर को मिला करता था। अनुभव की इज्जत नहीं। नई शिक्षा प्रणाली कहती है वर्ण पीछे सिखाओ, पहले वाक्य और शब्द सिखाओ. विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दो और 'ज्ञ' वर्ण का ज्ञान बाद में कराओ."
सुधांशु विज्ञान शिक्षक था उसने हँसकर कहा, "अरे हाँ तुम्हें भी तो क्लास वन की हिन्दी मिली है ना क्या करते हो?"
" मैं तो पुरानी परंपरा से ही पढ़ाता हूँ, पूरे वर्ण की बारहखड़ी क, का कि की से उच्चारण और वर्त्तनी दोनों सही करवा दी है।
"इससे रल्हन मैम तो नाराज हुई होगी" चिन्ता ने पूछा तो सुवास हँसने लगा-हाँ हुई न, बहुत हुई, प्रिंसपल ने बुलाया भी। मैंने कहा कि मैं ऐसे ही पढ़ाउंगा, ताकि उनकी मात्राएं सही हो आप तीन साल बाद बात करें।
"चोपड़ा को समझ में तो आया नहीं होगा। वह स्वयं संयुक्ताक्षर नहीं बोल पाता है। बल्ब को बलब और समुदाय को समुधाय कहता है।" हिन्दी शिक्षक प्रणव झा ने कहा।
चलिए स्कूल की समस्या को छोड़िए और अब दूसरी बातें भी करें। भाभी जी लोगों को बोर कर दिया हमलोगों ने" चित्रा ने सबको झिड़कते हुए कहा। सेन गुप्ता की पत्नी बड़ी सुंदर थी, बंगला सौंदर्य, सिंदूर की बड़ी-सी लाल बिंदी, हाथ में शंखा पोला और सोने की चूड़ी छनकती थी। बड़ी आँखें और बड़े केश। ओरेलिया को जब मौका मिलता वह बालों में फूल टांक लेती, चिंता झा हमेशा अस्तव्यस्त दिखती। आज तो चित्रा ने भी काली बिंदी और काले पीले चेक की साड़ी बांधी थी। चित्रा हमेशा अपने बालों की आधी चोटी गूंथ कर आधी छोड़ देती थी, आज भी उसने वैसा ही किया था।
खाना लग गया और लोगों ने मजे लेकर खाया। चित्रा ने साबूदाना के बड़े और मूंगफली, नारियल डालकर बड़ी अच्छी मराठी सब्जी बनाई थी। लोगो ंने उस चटपटी सब्जी की बहुत तारीफ की। सुवास ने भी उस पर प्रशंसा की नजर डाली थी, मुँह से कुछ बोले बगैर।
जीतपुर से फिर चिट्ठी आई थी। यह लगातार पाँचवी चिट्ठी थी। पिताजी की बीमारी की खबर से वह अंदर से परेशान था, लेकिन उ$पर से शांत बना रहता था। उस दिन स्कूल में किसी बात पर गर्मागम बहस हुई और जयराम तथा चौहान आपस में भिड़ गए, सुवास टेबल पर माथा झुकाए बस कुछ सोचता रहा। थोड़ी देर में सब सामान्य हुआ और घंटी की आवाज पर लोग क्लास जाने लगे तो खन्ना ने चिढ़ाया, "बिहारी भाई तुम कहाँ पहुंच गए हो, यहाँ आरा, पटना सब हिल गया।" सुवास बस देखता रहा था, चित्रा ने पास आकर पूछा, "मि। सुवास कुछ बात है क्या, आप एकदम चुप बैठे हैं।"
सुवास बिना कुछ जवाब दिए वहाँ से उठकर अपने क्लास में चला गया। चित्रा को बुरा लगा था। वरुण घर गया हुआ था, उसका भाई झारखंड आंदोलन में भाग लेने के कारण कॉलेज छोड़कर इधर उधर आता जाता रहता था। माँ, पिताजी इस वजह से बहुत परेशान थे। वरुण के नहीं रहने से सुवास ने भी स्कूल से आकर खाना नहीं बनाया। दूध, कार्नफ्लैक्स खाकर लेटा तो जीतपुर की याद आने लगी। बादल, वर्षा, मौसी और पापा के साथ-साथ निशा की भी। उसे लगा कि उसने किसी को खुशी नहीं दी सभी के प्रति वह दोषी है। उसके अंदर बहुत कुछ मथ रहा था अपराध बोध से उसकी आँखें छलक आई थीं। लेकिन पापा के प्रति अपनी कर्त्तव्यहीनता की तीक्ष्णता में उसे निशा की याद एक कसक-सी बनकर उभरी, जिसे वह अब सह सकता था। उसे गेम्स क्लास में चार बजे जाना था। वरुण की अनुपस्थिति में वह अंदर से ही अकेला महसूस कर रहा था। मैदान की ड्यूटी समाप्त होने पर घर लौटते समय अँधेरा छा गया था, काले बादल घर पहुँचने से पहले ही जमकर बरस पड़े। उसके घर से पहले चित्रा का घर पड़ता था। वह बिना कुछ सोचे अपने भींगे कपड़ों के साथ चित्रा के घर में घुस गया। बालकोनी में थोड़ी देर सोचते हुए ही उसने कालवेल बजाया। दरवाजा चित्रा की बड़ी दीदी, जो उसके साथ ही रहती थी, उसी ने खोला। सुवास ने भीगे कपड़े की वजह से बालकोनी में ही बैठने की बात की। लेकिन दीदी ने जबरदस्ती बैठक में आने पर जोर दिया। थोड़ी देर में चित्रा पहुँची। उसने घर के कपड़े पहन रखे थ, लुंगीनुमा कपड़े के उ$पर ढीला ढाला कुरता। उसे देख थोड़ा सकपकाई लेकिन फिर बैठ गई. इस समय चित्रा के चेहरे पर टीचर जी वाली सख्ती या तनाव नहीं था, धुलाधुला-सा चेहरा और ढीली ढाली चोटी. वह चाय लाने के लिए उठी तो उसकी दीदी ने सुवास से घर का हाल समाचार पूछना शुरू किया। सुवास धीरे-धीरे बता रहा था कि पापा की तबीयत खराब है। इस पर उन्होंने सवाल किया, "ज्यादा खराब तो नहीं है ना?"
"पता नहीं दीदी, धनबाद के सेंट्रल हास्पीटल में भरती हें।"
जब तक दीदी कुछ कहती चित्रा चाय ले आई थी, वह बैठी फिर खड़ी होकर बोलने लगी, "जब आदमी अपने को बहुत महान समझने लगता है कि अपना दुख भी नहीं बाँट सकता। तो आदमी एकदम अकेला हो जाता है।"
दीदी वहाँ से हट गई. सुवास दिन में चित्रा के पूछने पर जवाब नहीं देने के कारण चित्रा के आहत होने पर, झेंपा हुआ-सा बैठा रहा। चित्रा को अपने द्वारा कहे वाक्य पर थोड़ी ग्लानि हुई, धीरे से पूछा, "आपके पिताजी बीमार हैं तो आपको जाना चाहिए, आपने छुट्टी के लिए प्रिंसपल से बात की?"
सुवास की खामोशी से थोड़ा बेचैन होकर चित्रा ने पूछा, "आप तो सब के दुख दर्द में शामिल होते हैं, वे आपके पिता हैं, बात क्या है?" सुवास की आँखें छलछला गईं। थोड़ी देर कुछ सोचकर उठी, चाय के कप और दो कुर्सियों को बालकॉनी में ले आई और सुवास को वहीं बुला लिया। चाय खतम होने पर चित्रा ने सुवास के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, "मि। सुवास आप मुझे अपनी तकलीफ बता सकते हैं।"
अपने दोनों हाथो को आपस में फँसाते हुए असमंजस से भरकर सुवास ने कहना शुरू किया, "मैं समझ नहीं पा रहा हूँ चित्रा कि मैं क्या करूं। मैंने कभी पापा से ढंग से बात ही नहीं की। अपने अकेलेपन का जिम्मेवार मैं उसे ही मानता रहा हूँ। अब जब सोचता हूँ कि माँ ने तो जनम के साथ ही मुझे छोड़ दिया था अगर पापा को भी कुछ हो गया तो मैं अपना आक्रोश किस पर व्यक्त करूंगा या मैं माफी भी किससे मागूंगा। अभी तक जब उनके करीब रहा ही नहीं, अब जो भी करूंगा वह दिखावा ही समझा जाएगा।"
चित्रा ने भर्राये कंठ से सुवास को सब कहने दिया फिर धीरे से कहा, "तुमने कभी किसी को अपनी बनाई दुनिया में शायद शामिल ही नहीं किया। लेकिन इस समय मैं इतना ही कहूँगी कि तुम्हारे अंदर जो इतना कुछ भरा है, लोगों से, भगवान से, परिवार से जो शिकायतें हैं, इन्हें थोड़ी देर को भूल जाओ और पिताजी की बीमारी में एक आम बेटे की तरह जाओ. जो तकलीफ तुम महसूस कर रहे हो उनके लिए उसे बताओ."
"और उस तकलीफ का क्या करूं जो इतने वर्ष मैंने झेले। चित्रा तुम नहीं जानती, मेरे यही पिताजी थे, जिसने मुझे नानी के घर छोड़ दिया था और जब तक नानी ने स्वयं ले जाने को नहीं कह दिया, नहीं लाए. मैं अवांछित की तरह हर घर में रहा। यहाँ मेरे भाई थे, बहन थी, मेरी ज़रूरत क्या थी। वहाँ मामा मामी के अपने बच्चे थे। नानी का भरापूरा परिवार था। चित्रा, मैं तो सात साल की उम्र में बूढ़ा हो गया, क्यों छोड़ गई मुझे माँ, क्यों नहीं मेरी सौेतेली माँ ही ऐसी हुई जो मुझे मारती, पीटती, ताना देती ताकि मुझे मातृहीन जान कोई कलेजे से लगा लेता। मौसी के माँ बन जाने से किसी को फर्क नहीं पड़ा। लेकिन मुझी को हथियार बनाकर मौसी पापा के जीवन में आई थी।" सुवास कहते-कहते हॉफने लगा था। चित्रा अवाक सुनती रही थी। उसने धीरे से सुवास की आँखों से बहते आँसू पोछे और चुपचाप उसके हाथ थामे बैठी रही। अंधेरे में सुवास ने अपने को छिपाकर रखा था। चित्रा ने फिर कहा, "सुवास दुख बाँटने से घटता है और सुख बाँटने से बढ़ता है, यह सदा के लिए याद रखना कोई भी दुःख इतना बड़ा नहीं होता।"
बाहर आसमान में चांद निकल आया था, उसकी रौशनी थोड़ी-थोड़ी आने लगी थी। बहुत देर बाद सुवास ने भारी आवाज में कहा, "अपनी दुनिया में मैंने भी शामिल किया था किसी को, लेकिन वह इतनी मासूम थी, उसके खुद के दुःख इतने बड़े थे कि मैं ये सब उससे बाँट ही नहीं पाया। जब तक उसे समझाता, समाज ने उसे भी मुझसे छीन लिया।" चित्रा ने उठते हुए कहा, "अब तुम्हें और एक कप चाय की ज़रूरत है।" सुवास चुपचाप बैठा रहा। चित्रा और सुवास ने कब एक दूसरे को आप से तुम कहना शुरू कर दिया, उन्हें भावावेश और उत्तेजना के बीच याद भी नहीं। चित्रा चाय लेकर आई थी तो मन की बहुत-सी श्रृंखलाएँ खुल गई थीं, औपचारिकता के बहुत से बंधन टूट गए थे, एक नई गाँठ जुड़ रही थी, बिना दोनों के जाने। चित्रा ने फिर सुवास को पिताजी के पास जाने को बहुत समझाया।
सुवास आठ दिन की छुट्टी लेकर जीतपुर गया। वहाँ से धनबाद अस्पताल पहुँचा। बादल वर्षा भी वहीं थे, उससे लिपट कर सिसक पड़े, "भैया आप हमलोगों से क्यों नाराज थे। हमलोग कैसे संभाल सकते थे पापा को" बादल ने जब ये कहा तो सुवास को लगा कि सच ही परिवार की उससे अपेक्षाएँ हैं। वह पापा की सेवा में जुट गया। उम्र की बीमारियां थीं, जिन पर ध्यान नहीं दे रहे थे। शायद सुवास की भी चिंता थी। रातभर जगकर वह पापा की एक-एक हरकत को देखता और डाक्टर से बहस कर उन्हें जल्द ठीक करने के लिए मानो अड़ जाता था। पापा का स्वास्थ्य तेजी से सुधर रहा था। एक रात वे थोड़े बेचैन थे। डाक्टर ने देखा तो कहा कि कोई खास तकलीफ और चिंता की बात नहीं है। पापा सो नहीं रहे थे, सुवास उनके बिस्तर पर बैठते हुए बोला-"पापा कुछ कहना चाहते हैं क्या?" उन्होंने कसमसाते हुए कहा, "दो बातें कहनी थीं, एक तो मौसी को माफ कर दो और दूसरी कि अब तुम शादी कर लो, बहुत से रिश्ते आ रहे हैं।"
सुवास ने मुस्कुराकर कहा, "एक बात आपकी मैं मान लेता हूँ मौसी को माफ कर देता हूँ। दूसरी बात आप मानेंगे कि मुझे शादी के लिए कभी नहीं कहेंगे।"