जटायु के कटे पंख, खण्ड-18 / मृदुला शुक्ला

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सुवास को हड़बड़ी में देखकर चित्रा ने पूछ लिया, "इतनी जल्दबाजी में स्कूल से क्यों निकल रहे हो।"

सुवास ने पास आकर धीरे से कहा, "तुम्हें लौटकर बताता हूँ, अभी वक्त नहीं है।"

सुवास शनिवार को राँची निकल गया था। वहाँ से वापस लौटने पर वरुण के साथ ही चित्रा के घर गया। थोड़ी देर में सुधांशु भी वहीं आ गया था। उसने हँसते हुए कहा, "मैम के हाथ की चाय पीने से खुद को रोक नहीं सका, इसी से यहाँ हाजिर हो गया।" चित्रा ने हँसते हुए कहा, "चाय तो ऐसे भी मिल जाती है, पहले लोग आएँ तो सही।"

चित्रा उनको बैठक में बिठाकर अंदर रसोई में चाय का पानी हीटर पर चढ़ा आई. प्लेट में रेवड़ियां और मूंगफली उनके सामने रखकर कहा, "आप लोग तब तक टाइम पास कीजिए."

वरुण ने मूंगफली के दाने को मुँह में डालते हुए कहा, "हमलोग इतने भी बेकार नहीं रह गए. हमसे पब्लिक स्कूल अच्छी तरह काम लेना जानती है।"

सुवास ने गरदन हिलाते हुए कहा, "काम तो बच्चे तब करोगे जब भाभी जी बच्चों के साथ आएँगी और दो पाटों में पिसोगे।"

चित्रा चाय ले आई थी, कप को आगे बढ़ाते हुए बोली, "कब आ रही हैं?" वरुण ने कहा-"नहीं चित्रा जी ये ऐसे ही बोल रहा है। वरुण थोड़ा चिंतित हो गया था। सुवास ने कुरेदा तो बोला," भाई कॉलेज छोड़कर झारखंड आंदोलन के लिए

इधर उधर भटकता है, घर में किचकिच होती है। यहाँ काम का प्रेशर रहता है,

उधर घरवाले समझते ही नहीं। छोटे बेटे की तबीयत लगातार खराब चल रही है। "

"तो यहाँ ले आओ, यहाँ सारी सुविधाएं हैं, इतने अच्छे स्कूल में बच्चों की फ्री पढ़ाई होगी, रहने को घर, मेडिकल सुविधा, बिजली पानी मुफ्त और मुझे भी कभी-कभी भाभीजी के हाथ का खाना नसीब हो जाएगा।" मुस्कुराते हुए सुवास ने अपनी बात खत्म की।

"वरुण ने एक बार सुवास को देखा और चित्रा की ओर मुड़कर कहा" सुवास तो हर बात चुटकी में हल कर देते हैं। माँ बाबुजी को बुरा लगेगा कि बेटा बुढ़ापे में माँ को काम करने के लिए अकेली छोड़ गया, बच्चों को दादा दादी से दूर कर दिया, ये सब आपने सोचा? "

"लेकिन वरुण एक न एक दिन तो बच्चों को लाना ही होगा उनकी पढ़ाई लिखाई भी देखनी है।"

"हमारा परिवार, हमलोगों का गाँव ये समझ ही नहीं सकता। तुम तो मेरे गाँव गए थे न। कैसी परिस्थिति में फँस गए थे। पूरा गाँव, पिताजी को आकर कहने लगेगा कि मैं स्वार्थी हो गया हूँ, परिवार की चिंता नहीं करता।" वरुण कहते-कहते रुआँसा हो गया था। सुवास भी जानता था कि कभी अपनी बनियान भी नहीं धोने वाले सुवास को अकेले रहने में कष्ट होता है, लेकिन उसके पास उपाय नहीं है।

सुधांशु ने माहौल को गंभीर देखकर कहा, "अरे तेरे साथ नहीं आ सकती, मैं जाता हूँ देवर लक्ष्मण बनकर, मेरे साथ तो ज़रूर आने देंगी, चिंता मत कर।"

थोड़ी देर बाद सुधांशु और वरुण को अपने काम से निकलना था। वे लोग चले गए तो सुवास ने चित्रा से कहा, "चित्रा मुझे दस दिन के लिए पाँच सौ रुपए चाहिए, तुम्हारे पास होंगे तो देना।"

चित्रा ने कहा, "चेक दे देती हूँ, कल बैंक से निकाल लेना।"

सुवास ने चित्रा को देखते हुए पूछा, "ये भी नहीं पूछोगी कि क्या काम है?"

"कोई सही काम ही होगा, इसी से नहीं पूछा, अब तुम्हीं बता दो।"

"मैं शनिवार को हड़बड़ा कर निकल रहा था, तुमने मुझसे पूछा था। मैं ने उस समय नहीं बताया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरे राँची जाने की बात प्रिंसपल तक पहुँचे। वर्षा से होस्टल में मिलने गया था। प्रिंसपल साहब या तो मुझे यहाँ के काम में उलझा देते या फिर राँची के आफिस के काम मेरे कंधे पर डाल देते। वहाँ जाने पर पता चला कि उसे फार्म भरना है। उसने चिट्ठी भेजी थी जो मुझे मिली नहीं, इसी से तुमसे पैसे लिए."

"पापा ने पैसे नहीं भेजे थे क्या?"

"वर्षा की पढ़ाई के लिए उसे मैं ही रुपए भेजता हूँ, वह मेरी जिममेदारी है।"

"सुवास तुम तो घर भी नहीं जाते हो।"

"हाँ चित्रा यह बात मेरे नौकरी के पहले की है जब उसने कहा था कि वह धनबाद में नहीं पढ़ेंगी, उसे राँची में पढ़ना है। मैंने तभी उसे कह दिया था। यह मेरे और वर्षा के बीच की बात थी।"

चित्रा ने कहा, "सुवास तुम बहुत अच्छे इंसान हो, अपने परिवार के प्रति संजीदा भी, लेकिन यह बातों से भी झलकता तो अच्छा होता।" उसने फिर पूछा।

"वर्षा क्या यह समझती है कि वह अपने भैया के लिए क्या है?"

"कभी तुमने उसे बताया भी है क्या?"

"जो प्यार बातों से बताया जाए, क्या उसे प्यार ही कहेंगे?" सुवास ने जवाब दिया।

चित्रा ने बात बदल दी, "अच्छा छोड़ो, पापा की तबीयत कैसी थी? तुमने इस बार तो उन्हें सब कुछ बता दिया था न।"

"मैंने कहा न अपनों को कुछ भी बताया नहीं जाता। उन्होंने सब समझ लिया मेरी पीड़ा, मेरा क्षोभ, मेरा अकेलापन सबकुछ और मुझे ही दो बातें मानने को कहा।"

बाप-बेटे के आपस के नये बनते रिश्ते की बात सुन चित्रा खिल उठी, "तुमने अब तो उनकी दोनों बातें मान ली होंगी। इसी से वे इतनी जल्दी ठीक हो गए."

सुवास रहस्यपूर्ण ढंग से मुस्कुरा दिया, "मैंने कहा, एक बात आपकी मैं मानता हूँ, एक बात आप मेरी मानेंगे।"

चित्रा बिना कुछ बोले सुवास को देखती रही, थोड़ी देर बाद सुवास ने कहा, "उन्होंने कहा था मौसी को माफ कर दो, वह खुद को दोषी समझती हें, तो मैंने कहा मैंने उन्हें ' कभी कुछ कहा नहीं पर अब मैं उन्हें दिल से माफ करता हूँ। दूसरी बात के लिए मैंने मना कर दिया।"

चित्रा ने धीरे से कहा, "बीमार आदमी को भी मना कर दिया।"

"हाँ चित्रा मैंने कह दिया कि घर में अब मेरी शादी की बात नहीं उठनी चाहिए, मैं शादी नहीं कर सकता।"

चित्रा ने गर्दन झुका ली, सिर्फ़ कहा, "यह तुम्हारा व्यक्तिगत फैसला है, इसमें तुम्हें कोई क्या कह सकता है।"

सुवास उठ खड़ा हुआ, "अच्छा अब चेक दे दो, में कल ही पैसे निकाल कर मनिआर्डर कर दूंगा। अगले वेतन में, तुम्हारा हिसाब चुका दूंगा। दरअसल पापा की बीमारी में रुपए बैंक से निकल गए. अच्छा धन्यवाद।" सुवास चला गया ओर चित्रा कमरे को सहेजने में लग गई.

इधर वरुण कुछ ज़्यादा ही चुप रहने लगा था। सुवास भी वर्षा को लेकर परेशान था। मनिआर्डर तो उसे मिल गया था लेकिन आए दिन कॉलेज बंद हो रहे। कभी रथयात्रा और रामजन्मभूमि में छात्रा बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। कभी बजरंगदल में शामिल होकर अच्छे और कई हुड़दंगी कामों में लगे थे। जब से मंडल कमीशन की बात आई-छात्रा गुटों में बँटने लगे। सामाजिक न्याय का नारा समाज के उथलपुथल का कारण बना हुआ था। विद्यार्थी सबसे ज़्यादा आंदोलित थे, दोस्तों की अदलाबदली हो रही, कुमार और प्रसाद के पीछे सरनेम या जातिसूचक शब्दों की खोज तत्परता से हो रही थी। सुवास चिंतित था स्कूल के बड़े बच्चों के व्यवहार से भी और वर्षा के होस्टल में रहने से भी। स्कूलों में शिक्षकों के बीच भी आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तीर चलते। उस समय वरुण बड़ी कश्मकश में दीखता। विद्यालय में ज्यादातर सवर्ण शिक्षक थे, इस वजह से वरुण अपने को अलग थलग पाता, जैसे उसी से कुछ गलती हो गई हो। इसी बीच स्कूल में सेनगुप्ता ने बताया कि विद्यालय का एक पुराना विद्यार्थी शेखर दिल्ली में पढ़ता है, वह कल ही लौटा है, उसने बताया कि दिल्ली में सड़कों पर लोग उतर गए हैं और भट्टाचार्य का बेटा जेल में है, अग्रवाल साहब के बेटे की पुलिस की मार से कंधे की हड्डी टूट गई है।

सुवास ने कहा, "क्या ये सही हो रहा है बच्चे अपना भविष्य भूल कर किस चीज में पड़े हैं, उन्हें इस रास्ते से क्या मिलेगा।"

मिश्रा जी काफी उत्तेजित थे बोलने लगे, "जब भविष्य है ही नहीं तो और क्या करेंगे।"

"नहीं मिश्राजी जो आगे बढ़ चुके हैं, उन्हें आगे बढ़कर रास्ता ढूँढना ही होगा, उन्हीं की जिम्मेवारी़ है।"

मिश्राजी चिढ़ गए मि।सुवास आप जिस बिरादरी से आते हैं, वे तो सभी जगह अपना हित देख लेते हैं, गरीब सवर्णों का क्या होगा। जयराम ने कहा, "कल एक लड़के ने बीच सड़क पर आग लगा ली।" दिनेश यादव बोल पड़ा, "उसे जानकर जलने दिया अपने ही लोगों ने।" सुवास और वरुण एक दूसरे का मुँह देखने लगे। लोग जोर-जोर से बातें किए जा रहे थे, पुराने सारे सम्बंध और मधुरता को भूलकर। सुवास पहले थोड़ा उत्तेजित हुआ, फिर वहाँ से निकल पड़ा पेड़ की छाया में खड़ा हो गया। उस शाम वरुण अकेले कमरे में पड़ा था। रोज जमने वाली महफिल आज सूनी थी। सुवास ने आखिर वरुण को जाकर कहा, "वरुण चलो सड़क पर चक्कर लगाया जाय और ये सब कुछ दिन का उफान है शांत हो जाएगा। हाँ राजनीतिज्ञों ने इसे इस तरह से किया है ज़रूर कि उनके वोटर बँट जाएँ।"

वरुण ने कहा, "सुवास मुझे क्यों लगता है कि सब मुझे ही सुना रहे हैं, मेरी क्या गलती है कि मैं पिछड़े वर्ग से आता हूँ।"

सुवास ने कहा, "छोड़ ये सब बातें भूल और याद रख कि मैं तेरा दोस्त हूँ। वह तो कहो कि अच्छा है जो चार दिन से सुधांशु यहाँ नहीं है, नहीं तो वह तो मारपीट कर लेता।"

"जानते हो, सुधांशु एक दिन भिड़ गया था मिश्रा जी से कहने लगा भूल गए वह दिन जब हमलोग को दरवाजे पर बैठने नहीं देते थे, अभी आरक्षण होने दीजिए तब देखिएगा।"

"यही तो बात है कि अहम का टकराव बन गया है आज की परिस्थिति में आरक्षण। इससे किसी का भला नहीं हो सकता। खैर मैं उसे भी समझा दूंगा।"

सुवास और वरुण दोनों को उस रात बड़ी देर तक नींद नहीं आई थी। एक बबंडर उठा था, जिसने दबे कुचले लोगों के मन में आशा जगा दी थी तो कहीं आशंका की बिजली कौंध रही थी।

स्कूल के रास्ते में चित्रा की भेंट सुवास से हुई तो उसने कहा-"आज ज़रा घर आइयेगा आप से कुछ सलाह लेनी है।" शाम को सुवास चित्रा के फ्लैट में पहुँचा तो, चित्रा बैठक में ही थी। वह किसी गंभीर चिंता में डूबी थी। इधर उधर की बात अन्यमनस्कता से करने के बाद उसने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, "मैं कई दिन से तुमसे एक बात करना चाहती थी। चेतन गुप्ता को तो तुम जानते हो, मेरी ही क्लास का स्टूडेंट है। हर क्षेत्रा में अच्छा है, शुरू से कभी क्लास में सेकेंड नहीं आया पिछले दो टर्म में स्थान एकदम नीचे हो गया है। पास होना मुश्किल हो जाएगा। क्लास में भी बुत बना बैठा रहता है। टिफिन में भी खेलने नहीं निकलता। मैंने पूछा तो बस मुझे देखता रहा था।"

"समस्या क्या है? आखिर बीमार है?" सुवास ने पूछा।

"घरेलू समस्या है, लेकिन मैं बड़ी उलझन में हूँ, यह लड़का इस बार फाइनल परीक्षा में फेल हो जाएगा तो संभल नहीं पाएगा।"

"उसके अभिभावक को बुलाओ."

"डायरी में लिखकर बुला भेजा था। मैं सोच रही थी कि माँ आएगी तो सही होगा, लेकिन उसके पापा आए."

सुवास ने मुस्कुराकर कहा, "उन्होंने कहा होगा कि इतने ट्यूशन वगैरह लगा दिए हैं, जैसा हर पेरेन्ट्स कहते हैं।"

"हाँ यह भी कहा और बात भी सही है, माँ बाप दोनों डाक्टर हैं, पैसे की कमी नहीं।"

"फिर उनके पास वक्त नहीं होगा चित्रा, ऐसे में तुम क्या करोगी।"

"सुवास बात इतनी सीधी नहीं है, वक्त तो उनके पास पहले भी कम था। उसके पापा कह रहे थे कि उसकी माँ डायवोर्स चाहती है क्योंकि वह किसी और के साथ रहना चाहती है। बहन बहुत छोटी है, नहीं समझती है। चेतन अभी किशोर उम्र का है। दिन रात उसी माहौल में रह रहा है। अपने आपको कहीं पर भी नहीं देख पा रहा। कॉलोनी के लड़के व्यंग्य करते हैं।"

सुवास गंभीर हो गया। उसके सामने अपना अतीत था जो एक दूसरे रूप में सामने आ गया था। माँ के रहते माँ के संरक्षण का अभाव और बाप के रहते एक अजनबी-सा रहना कितना कष्टप्रद होगा। उसकी आँखें डबडबा गई.

"सुवास मैंने एक दिन उसे लाइब्रेरी में बुलाकर पूछा सबकुछ। वह अंधेरे में देख रहा था। बहुत समझाने के बाद उसने कहा-मैम आप मुझे कुछ दिन मतलब परीक्षा तक अपने पास रख लीजिए मैं पास कर जाउ$ंगा। परीक्षा के बाद मैं दादी के पास चला जाउ$ंगा।" सुवास उसी तरह बैठा रहा। जीवन की कैसी विडंबना है और शिक्षण पेशे के लिए कैसी-कैसी अग्निपरीक्षा।

"सुवास मैं क्या करूं। मैं इस लड़के को ना कैसे कह दूं, अगर इस बच्चे ने कुछ कर लिया तो। माँ बाप दोनों अपने जुनून में हैं। मारपीट और अनबोलापन के बीच यह पिस रहा है। लेकिन यह जिम्मेवारी लेने पर लोग मुझसे भी सवाल करेंगे।"

सुवास ने सोचने में समय लिया यह जानकर कि उससे भी अभागे लोग हैं। माँ के पास नहीं जा सकता क्योंकि माँ किसी और के साथ शादी कर रही है। बाप के साथ नहीं रहेगा क्योंकि उसने बाप को, अपनी माँ को पीटते देखता था। दादी के घर जाना चाहता है। लेकिन अभी तो उस बच्चे का वहाँ से निकलना ज़रूरी है। सुवास ने एक झटके के साथ कहा, "चित्रा तुमने बिल्कुल सही सोचा है। तुम एक शिक्षिका हो, उसे संभालना, माँ बाप के बाद तुम्हारा ही काम है। उसे अपने घर में कुछ माह रखकर देखो, पढ़ाई के साथ उसके मन को मजबूत बना दो।"

चित्रा जो बहुत देर से गंभीर और भरी हुई आँखें लेकर बैठी थी, सुवास की इस सलाह से आँखें पोछने लगी। लगा उसके मन का एक बोझ उतर गया। इसके पहले उसने चिंता, सीमा औरेलिया से भी पूछा था, सभी ने उसे इस आग में कूदने से मना किया था।

सुवास ने चित्रा के चेहरे पर आश्वस्त होने का भाव देखा तो मुस्कुरा कर बोला कि "अब मेरी रिहाई हो सकती है, मैं घर जाउ$ं।"

चित्रा ने हँसते हुए सहमति में गर्दन हिला दी।

स्कूल का माहौल फिर अपने रंग में आने लगा था। देश की हवा भी बदल रही थी। नए चुनाव के पूर्व ही राजीव गांधी की नृशंस हत्या ने देश को झकझोर दिया था। सबकुछ सामान्य होते हुए भी विश्वविद्यालय में परीक्षाएँ विलंब से हो रही थीं। वर्षा की भी परीक्षा अभी हुई नहीं थी, इधर मौसी उसकी शादी के लिए लड़का देखना चाहती थी। सुवास अपनी प्राइवेट स्कूल के टीचर वाली तनख्वाह से दहेज के रूपये जोड़ने की सोच भी नहीं सकता था। बादल अवश्य पी.ओ. में चुन लिया गया था और अभी टेªनिंग के तौर पर इधर उधर पोस्टिंग हो रही थी। सुवास घर से धीरे-धीरे जुड़ता जा रहा था तो अनेक समस्याओं को भी समझने लगा था। सुवास बालकॉनी में खड़ा कुछ सोच रहा था। वरुण ने आकर पूछा, "चाय पीना है सुवास?"

सुवास बोला, "हाँ मैं बना लेता हूँ, आप तो ..." कहकर वह हँसने लगा-इतनी कड़वी चाय पिलाते हैं...

वरुण भी झेंपकर हँसने लगा, "मैं तो कुछ बनाने जानता ही नहीं।"

"अरे मैंने भी धनबाद जाने के बाद ही सीखा था।"

"रही सही मिस चित्रा ने सिखा दिया न।"

"अरे वरुण जी आप तो एकदम स्मार्ट हो गए हैं, क्या भिंगाकर मारते हैं।"

दोनों ने मिलकर ठहाका लगाया तो सारी धुंध छँट गई, तभी मिश्रा और राव सर ने उ$पर देखते हुए कहा, "हमलोग भी आ रहे हैं चाय पीने सुवास जी."

"ज़रूर सर। हमारा सौभाग्य होगा।"

उ$पर आकर राव सर ने बताया कि अगले सप्ताह के.जी कैंप लगना है, ढेरो काम पड़े हैं, पूरा प्रोग्राम चेकआउट करना है इसलिए बैठ नहीं पाउ$ंगा। उनलोगों के जाने के बाद दोनों मित्रा बाहर निकले तो सुवास ने भरोसा दिया, "इस बार घर चलकर मैं भाभी के आने की बात करूंगा।"

वरुण हँसने लगा, "सुवास मुझपर दया करो, एक बार में तुम्हारा जी नहीं भरा गाँव जाकर।" सुवास ने हँसकर दोस्त का कंधा थपथपा दिया।