जटायु के कटे पंख, खण्ड-19 / मृदुला शुक्ला
विद्यालय में प्रिसपल ने मीटिंग बुलाई थी। उसमें अन्य बातों के अलावा के.जी.कैंप के बारे में बात हुई. इसी सप्ताह शनिवार और रविवार को स्कूल के छोटे बच्चों, के.जी.क्लास के बच्चों के लिए विद्यालय परिसर में कैंप लगाया जाना था। उसमें टीचर और सीनीयर स्टूडेंट ही बच्चों की देखभाल, भोजन, खेल का सभी प्रबंध करेंगे। शुक्रवार की शाम बीस टीचर, बारहवीं क्लास के पचास बच्चे और के.जी. के एक सौ बीस नन्हें-मुन्ने अपने सामानों के साथ विद्यालय पहुँच गए. सुवास, वरुण, सुधांशु, जॉन इत्यादि के साथ महिला शिक्षिकाएँ भी थी। नये टीचर के लिए यह सब रोमांचकारी और थोड़े असमंजस से भरा पल भी था।
चित्रा और मिसेज द्विवेदी ने पिछले साल भी इसमें भाग लिया था। इसी से वरुण को समझा रही थी, "सर के.जी के बच्चे पूरे दो दिन अपने घर से दूर विद्यालय में रहते हैं, शिक्षकों की निगरानी में। उन्हें हर तरह से परखने, समझने और बच्चों के करीब जाने के लिए ही इसका आयोजन होता है।"
सुवास भी नए उत्साह से बच्चों के साथ था। पुरानी यादें कहीं धुंधलाने लगी थीं। वरुण अपने गाँव समाज से उसकी तुलना कर कहीं खो जाता था।
अगले दिन बच्चों ने नाश्ता किया और उन्हें नहलाने की जिम्मेवारी पुरूष शिक्षकों को दी गई. बड़े से पाइप से बच्चे एक दूसरे पर पानी डालकर नहाने का मजा ले रहे थे। सुवास भी बच्चों को बड़ी देर से पानी में खेलकर उन्हें नहला रहा था। सभी बच्चे और शिक्षक धीरे-धीरे पानी से बाहर आ गए थे लेकिन बच्चे थे कि ज्योंहीं कोई उन्हें बुलाने जाता, पाइप से उन्हीं को पानी डाल भिगोने लगते।
धमाचौकड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। सहायक बनी बारहवीं की लड़कियां लाचार होकर चित्रा के पास गईं और बताया, "सर तो खुद भी पानी से खेल रहे हैं, राहुल बड़ी देर से नहा रहा है, उसे किनारे लाकर दे तो उसे पोछकर तैयार कर देते।" किसी ने चिल्लाकर सुवास को मना किया तो सुवास वहीं से बोला, "अरे मैं क्या कर सकता हूँ, इनको संभालना मेरे वश की बात नहीं।" चित्रा नहा चुकी थी। लेकिन वह तेजी से उन बरसते पानी की फुहार के बीच चली गई और तीन चार बच्चों का एक साथ हाथ पकड़कर जबरदस्ती बाहर ले आई. सुवास के पीछे नन्हा राहुल छिप गया। सुवास ने उसे अपने से चिपका लिया। पल भर का उसका वह स्पर्श सुवास को अनिर्वचनीय सुख से भर गया। बचपन में कभी-कभी बड़े मामा भी नहलाते समय उसे मामी के पास से उठा लाते थे, ऐसे ही चिपकाकर। बड़े होने पर सोचता कि पिता का प्यार भरा स्पर्श ऐसा ही होता होगा-आश्वस्त करने वाला। आज राहुल के साथ मानो जमी बर्फ पिघल रही थी। वह कुछ सोच ही रहा था कि तब तक चित्रा बाकी बच्चों को अन्य लड़कियों के हवाले कर के सुवास से बोली-सुवास आप कुछ समझते नहीं हैं, ये कोमल बच्चे हैं, देखिए इसके ओठ नीले पड़ गए हैं। इनके माँ-बाप ने बड़े विश्वास के साथ इन्हें हमारे पास भेजा है। ये खिलौने नहीं, इंसान हैं, इन्हें सर्दी-गर्मी लगती है" चित्रा बोलती जा रही थी और राहुल के बदन और बाल भी पोंछ रही थी।
सुवास की नजर जब राहुल पर पड़ी तो वह शर्मिंदा हो गया।
"आय एम सॉरी मैम, मुझे ध्यान रखना चाहिए था।"
तब तक सीनीयर लड़कों का एक दल आया और भीगे हुए सुवास को खींचकर फिर पानी की धार के बीच ले गाया। शिक्षक और छात्रा की दूरियां मिट गई थीं। वरुण किनारे खड़ा जोर-जोर से हँस रहा था। अपने शिक्षकों से रातभर में ही ये घुलमिल गए थे और प्रिंसपल के आने तक पूरी मस्ती कर लेना चाहते थे। सुवास इशारे से वरुण के पास उनलोगों को भेजना चाहता था, लेकिन वरुण तब तक भाग खड़ा हुआ था। नई पीढ़ी, नये स्कूल का यह नया तरीका सुवास को अपने दिनों की याद दिला गया था, जहाँ मर्यादा और अनुशासन के नाम पर छात्रा कभी शिक्षकों को अपनी बात कह ही नहीं सकता था।
दोपहर में जब हॉल में बच्चे खाने बैठे तो लगा कि चिड़ियों का झुंड उतर आया हो। सुवास ने कभी बच्चों को इतने ध्यान से देखा ही नहीं था कि वे कैसे खाते हैं, खाते-खाते दाएँ बाएँ कैसे मुड़ जाते हैं, कौन-सी बात याद पड़ जाती तो खाना छोड़कर दोस्त के पास भागकर चले जाते हैं। एक बच्चा भी अपनी माँ को परेशान कर देता है, यहाँ तो पूरे डेढ़ सौ छोटे बच्चे खाना खा रहे थे। लड़कियां और शिक्षिकाएँ उन्हें तरह-तरह से समझा कर खिला रही थीं। हाथ धुलानेवाली जगह में मरियम और किस्टो को देखने के लिए शिक्षकों की ड्यूटी लगी थी।
छात्रों ने सुवास को जानकारी दी कि रात को बिस्तर कम पड़ गए थे, मंगाना होगा। सुवास ने रसोइये के सामानों की लिस्ट एक लड़के को पकड़ाई और आफिस के फोन से गद्दे वाले को फोन करने चला गया।
फरवरी का गुनगुना-सा दिन था, बड़ी उत्तेजना, व्यस्तता और महकता हुआ बीत गया।
रात में सुवास थक चुका था, भीड़ और कोलाहल से थोड़ा हटकर स्कूल के पीछे वाले हिस्से के लॉन में जाकर बैठ गया। वह जगह अत्यंत मनोहर था। गुलाब की कई किस्में उसमें गोलाकार रूप में लगाई गई थीं, जिसे लोहे की मोटी जंजीरों से बीच-बीच में स्तंभ डालकर घेरा गया था। जंजीर और स्तंभ लाल, पीले, नीले बच्चों को भाने वाले रंग से रंगे गये थे। उसी के बाहर एक कोने में था बड़ा-सा कचनार का पेड़, उसके चारो तरफ से सीढ़ीनुमा संगमरमर का चबूतरा बना था। सुवास स्कूल में अपनी खाली घंटी में अक्सर अपनी किताब लेकर यहाँ बैठ जाता था। छायादार पेड़ होने के कारण धूपछाँह का मनोहारी मिलन होता और गुलाब की भीनी-भीनी खुशबू भी आती। सुवास वहीं बैठा था, लोग खाने जा चुके थे। चित्रा अपने साथ दो प्लेट खाना लेकर आई और एक उसे देकर, दूसरे से स्वयं खाने लगी। सुवास ने अपने स्वभाव के विपरीत एक बार चित्रा को देखा और कहा, "इतना ध्यान रखने के लिए शुक्रिया।"
चित्रा धीरे से मुस्कुरा दी। आज जब सुबह चित्रा ने उसे झिड़का था और तमतमाते हुए राहुल को उसके पास से खींचकर ले गई थी। सुवास उसे एकटक देखता रह गया था। उस समय उसने साड़ी को उ$पर कर आँचल को कमर में लपेटकर खोंस लिया था। अपने लंबे बालों को यों ही लपेटकर जूड़ा बना लिया था और चेहरे पर पसीने की बूंदें थीं। सुवास की आँखों को उसका रूप बड़ा भला लगा था-एक अलग चित्रा थी।
चित्रा को लगा कि सुवास को उसका यह अधिकार जताना बुरा लगा इसलिए उसकी प्लेट लाकर पास में बैठकर खाने लगी थी। इधर उधर की बातों के बीच ही, रात को सोने से पहले सभी को प्रार्थना के लिए बुलावा आया और वे लेाग भी उठ गए.
रात में सभी सो गए, सिर्फ़ वरुण और सुवास जगे थे, वे आपस में बात कर रहे थे तभी स्कूल की हेडगर्ल सोनी सिंह की आवाज कॉरीडोर से आई, "सर सो गए क्या?"
"क्या बात है सोनी अंदर सब ठीक है ना?" दोनों कमरे से निकलकर कॉरीडोर में आ गए.
"जी सर ठीक तो है कुणाल को पेटदर्द था तो मेरे पास दवाई थी दे दिया, स्नेहा बिस्तर से नीचे सो रही थी उसे रिनी ने ठीक से सुला दिया। सोनाली ने उल्टी कर दी थी, मरियम से साफ करवा दिया। फिर भी सर बुखार की दवाई चाहिए." सुवास चिकित्सा और सोने की सुविधा सम्बंधी चीजों का प्रभारी था। इसी से पूछा, सिन्हा सर के पास होगी दवाई, उनसे मिली? "
सोनी ने जवाब दिया, "वे सो गए हैं, पी.टी.आई. उठने के मूड में नहीं है, चिंता मैम ने कहा, आप से बात करूं।"
वरुण ने पूछा, "किसे बुखार की दवाई चाहिए, बच्चे को या किसी बड़े को?"
"राहुल को बुखार हो गया है सर, बड़बड़ा रहा है। मैम ने कहा कि छोटा बच्चा है, सर से पूछकर दवाई ले आओ." सोनी बोलकर चली गई.
सुवास हड़बड़ा कर आफिस के फोन तक गया, हास्पीटल फोन करके दवाई का नाम पूछा फिर फर्स्ट एड बॉक्स से दवाई निकालकर हाल के दरवाजे तक गया, दस्तक दी तो अंदर खुसफुसाहट हुई. चित्रा ही दवाई लेने दरवाजे तक आई तो सुवास ने धीरे से कहा, "सब मेरी गलती है।"
चित्रा ने हाथ के इशारे से बताया, "कोई बात नहीं ठीक हो जाएगा। सुवास ने अंदर झांका तो सारे बच्चे यहाँ वहाँ जमीन पर सोए थे। कुछ सोचते हुए कहा-ऐसा करते हैं यहाँ तो सभी जमीन पर सोए हैं, हमलोगों के कमरे यानी स्टाफ रूम में दो फोल्डिंग खाट बिछी हैं, राहुुल को वहीं सुला देंगे, हमलोग, नंदू, किशोर और वरुण सभी मिलकर इसे संभाल लेंगे। तुमलोग दिन में काफी थक चुकी हो, आराम से सोओ."
पहले तो चित्रा ने मना किया। फिर वही राहुल को गोद में लेकर बाहर निकली। हॉल का दरवाजा भिड़का दिया और सोनी तथा चिन्ता को बोलकर आई कि राहुल को पहुँचाकर आ जाएगी। बाहर सुवास ने राहुल को उठाया और अपने कमरे में सुला दिया। राहुल का बुखार बढ़ता ही जा रहा था। चित्रा ने देखा तो वह पानी से पट्टी करने लगी। चित्रा की बेचैनी और घबराहट से सुवास से रहा नहीं गया। वह फिर आफिस खुुलवा कर डॉ।बैनर्जी से बात करने पहुँचा। बड़ी देर बाद डा।साहब ने फोन उठाया, फिर उसे दूसरी दवाई देने को कहा। सुवास इसी भागदौड़ में लगा रहा। बुखार कम होने लगा था। उसने चित्रा को सोने जाने को कहा। वरुण ओर नंदू ने बारी-बारी से जगकर राहुल को देखा। चित्रा चली तो गई लेकिन बार-बार आकर देख जाती थी। हालांकि हाल का दरवाजा भिड़ाने के बाद उतने बड़े गलियारे को पार कर रात के समय यहाँ तक आने में सिहरन-सी लगती। बेचैनी थी कि उसे सोने नहीं दे रही थी।
तीन बजे भोर के बाद राहुल ठीक होने लगा, बुखार पूरी तरह उतर गया। वह करवट बदलकर आराम से सो गया। वरुण और नंदू टेढ़े मेढ़े होकर खाट के नीचे सो गए. सुवास ने सोचा अब तीन बजे भोर में सोने का कोई मतलब नहीं रहा। पहले भी बहुत रातें जागकर बिताई थीं, लेकिन उन रातों से यह रात अलग थी। आज कुछ अलग ही अनुभव हुआ था, पराया कैसे अपना बन जाता है और रिश्ते सिर्फ़ खून के नहीं होते। वह क्यों सिर्फ़ अपने परिवार के विषय में सोचकर दुखी होता रहा था। वह कमरे से निकल बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गया। आधे घंटे बाद जब चित्रा राहुल का हाल जानने आई तो लौटते वक्त सुवास को वहाँ देख, वहीं पर बैठ गई. सुवास दूर अंधेरे की खुलती हुई परतें देख रहा था। उसने एक बार नजर उठाकर देखा फिर कहा, "ठंढ लग जाएगी, मौसम अभी बदला नहीं है।"
चित्रा गुमसुम-सी बैठी रही। सुवास ने कमरे में जाकर चादर उठायी और चित्रा के उ$पर डाल दिया। चित्रा ने धीरे से उसे अपने चारो ओर समेट लिया और बोली, "ठंड तो लग रही थी, लेकिन अंदर जाने का मन नहीं कर रहा था। धन्यवाद।"
"थक गई होगी, रात भर आना-जाना ही करती रही हो" जम्हाई लेते हुए चित्रा बोली-"बस आज का दिन है शाम तक बच्चे अपने-अपने घर को लौट जाएँगे।"
थोड़ी देर गुमसुम रहने पर एकाएक सुवास बोल पड़ा, "पता नहीं फिर कभी कह पाउँगा कि नहीं, लेकिन अपने स्वभाव, अभाव और विचारों को देख मुझे लगता है कि हमदोनों में बहुत कुछ है जो एक-सा है। कोई और कुछ कहे या समझे, हमलोग ही इस बात को समझ लें कि क्या हम एक साथ चल सकते हैं तो शायद ज़्यादा अच्छा होगा।"
चित्रा अवाक होकर उस शख्स को देख रही थी, जो अपने आप में समाया रहता था, मीटिंग के अलावा, बात करना नहीं चाहता था। समस्याओं से घिरा उसके पास आता था। आज कैसे अपनी बात कह गया है। फिर ऐसे सवालों का जवाब क्या उसी तरह दिया जा सकता था।
चित्रा ने बात बदल कर कहा, "आप हरदम कहते हैं कि मैं ठेठ बिहारी हूँ, चाहे अच्छा समझो या बुरा।"
"हाँ कहता हूँ, यह तुम्हारे लिए जानना और भी ज़रूरी है" हल्के से हँसकर सुवास ने कहा।
"आप ऐसी भी बात कर सकते हैं, आज एक रात में सच क्या-क्या देखा।" मुस्कुराती हुई चित्रा बोली।
"उस क्या-क्या में मैं भी था क्या?"
"आप उलझाइये नहीं। हाँ मैं बता दूूं कि मैं मराठी हूँ चित्रांगदा पैठणकर मैंने अपनी स्कूली शिक्षा राँची से प्राप्त की। तीन साल कॉलेज में भी पढ़ा तो पापा का ट्रांसफर हो गया। पापा के दोस्त देवेन्द्र काले यहाँ मैनेजमेंट में थे, उन्होंने ही मुझे उस स्कूल में रखवा दिया। मेरा संगीत विषय था, इसी से शुरू में संगीत शिक्षिका बनकर रही। मेरी माँ तो पापा के साथ भोपाल चली गई, मेरी दीदी जो विधवा है, वही मेरे साथ प्रायः रहती है। यहाँ मन लग गया तो भुवनेश्वर से बी.एड कर रही हूँ। इस साल पूरा हो जाएगा। अब तुम नए सिरे से सोचना कि तुम मेरे साथ चल सकते हो या नहीं।"
सुवास ने धीरे से कहा, "अपनी नियति को इंसान कहाँ जान पाता है। सच कहो तो मैं यहाँ भी नहीं टिकता लेकिन धीरे-धीरे मन लगता गया और लगा कि शायद मेरे जीवन में कुछ होने वाला है।"
प्यार और प्रेम शब्द से अब डर लगता है। बहुत पीड़ा झेली है। सामाजिक दबाव और लोगों की मनगढंत कहानियों से भी मन खौलने लगता है। जब धनबाद में था तो मुझसे सात आठ साल बड़ी रेवा सेन से बात करने पर भी लोग क्या-क्या बात बनाते थे। यहाँके लोग इस अर्थ में खुले विचार के हैं, लेकिन हमें ही इन्हें कुछ कहने का मौका नहीं देना है।
चित्रा ने इस पर कुछ नहीं कहा। सुवास का जी हल्का हो गया था। सुवास उठ खड़ा हुआ, लोग जगने लगे थे। सुवास ने खड़ा होकर हाथ चित्रा की ओर बढ़ा दिये, सहारा देने के लिए. थोड़ी-सी शर्म के साथ चित्रा ने भी हाथ आगे बढ़ा दिया था।
चेतन के पापा से, चित्रा ने बात कर सारी स्थिति फिर से बताई थी और उसे अपने पास रखने का प्रस्ताव दिया था। पहले तो वह थोड़ा हिचकिचाए फिर तैयार हो गए. चेतन को ट्यूशन में सुविधा होगी, यही बात चित्रा ने अपने स्कूल और कॉलोनी के लोगों को समझाया था। चित्रा की जिम्मेवारी बढ़ गई थी। चित्रा की रेणु दीदी ने पहले तो समझाया लेकिन फिर उन्हें भी चित्रा के फैसले में कोई कमी नहीं दिखी थी। जब चित्रा को परेशान देखती तो ज़रूर कुढ़ती रहती थी। जब से चेतन आया था, चित्रा हरपल उसके विषय में सोचती, उसके ट्यूशन उसका खाना पीना, उसकी मनःस्थिति में इतना उलझी रहती कि अपना ही ध्यान रखना भूल गई थी। एक दिन स्कूल में चित्रा की तबीयत खराब हो गई, प्रेशर लो हो गया था, शरीर पसीने से तर बतर हो गया, थोड़ी देर को चक्कर भी आ गया था। चित्रा ने सोचा कि बात कहने से और बढ़ेगी इसी से वह चेतन को क्लास से घर ले जाने के लिए निकाल लाईं और अपना कुछ काम बताकर रिक्शे पर बैठ हास्पीटल आ गई थी। वहाँ से वापस लौटते समय चेतन ने अपराधी भाव से पूछा, "आप मुझे लेकर बहुत चिंतित रहती हैं ना। मेरे ही कारण आपकी तबीयत खराब हो गई."
चित्रा ने फीकी मुस्कान के साथ कहा, "तबीयत किसकी खराब नहीं होती। आज तुम थे तो मैं आराम से हास्पीटल और घर चली जा रही हूँ।"
घर आने पर रेणु दीदी ने सब सुनकर गरम दूध का गिलास चित्रा को पकड़ाया और चेतन को समझाने लगी थी, "तुम बस अपनी पढ़ाई का ध्यान रखो। परीक्षा करीब है और तुम्हें अच्छा करना है।" चित्रा बाँहों को आँख पर रखे लेटी हुई थी, उसके ओठ के कोने मुस्कुरा पड़े।
स्टाफ रूम में सुवास अपनी आलमारी से किताब निकाल क्लास जाने की हड़बड़ी में था, तभी चित्रा अपने क्लास से आई. उसने सुवास से सवाल किया, "सुवास तुमने बताया नहीं कि वरुण का परिवार आया हुआ है।"
सुवास ने सुनकर भी अनसुना कर दिया और तेजी से क्लास की ओर निकल गया। टिफिन में जब दोनों फिर मिले तो चित्रा ने अपना सवाल थोड़ी तल्खी के साथ पूछा। सुवास ने अपनी किताब टेबल पर रखकर कहा, "तुमने भी मुझे नहीं बताया कि तुम्हारी तबीयत खराब हो गई थी।"
"यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है।"
"तुम्हारा सवाल ही सही नहीं है। तुम खुद अस्वस्थ थी। कर्त्तव्यपालन में लगी हुई थी, मुझसे बात करने का समय ही नहीं था तुम्हारे पास" थोड़ा उत्तेजित होते हुए सुवास ने कहा तो चित्रा ने हँसकर कहा, "बड़े फ़िल्मी अंदाज में बात कर रहे हो आज, क्या बात है?"
सुवास भी हँस पड़ा, "सच तो यह है कि वरुण के परिवार आने से उस पर जिम्मेदारियां बढ़ गईं, बेटे को डाक्टर को दिखाना, बाज़ार का काम और गृहस्थी के सामान जुटाने में मैं उसके साथ भागदौड़ में लगा था। लेकिन आज, जब चेतन ने बताया कि तुम्हें तीन दिन पहले स्कूल में चक्कर आ गया था, हास्पीटल भी गई थी और डाक्टर ने दो दिन रेस्ट करने की सलाह दी, तब मुझे बुरा लगा था। तुम पर नहीं स्वयं अपने आप पर।"
चित्रा ने आँखें झुकाते हुए कहा, "कुछ खास नहीं था, बस कमजोरी-सी लग रही थी। अब तो रेणु ताई (दीदी) ने सारा मोर्चा संभाल लिया, छोड़ती ही नहीं।"
"चेतन कैसी तैयारी कर रहा है, अब तो परीक्षा भी करीब आ गई." सीमा को स्टाफरूम में घुसते देख, सुवास ने बात बदल दी।
"कोशिश में हमदोनों लगे हैं, ईश्वर करे हमदोनों अपने-अपने मकसद में सफल हों। पहले से बहुत ठीक है। धीरे-धीरे जीवन की इस घटना को भी सामान्य ढंग से ले पाएगा।" चित्रा ने धीरे-धीरे बताना शुरू किया।
"असंभव है चित्रा, हाँ मैं यह मनाता हूँ कि उसके अंदर संवेदना बची रह जाए, नहीं तो पत्थर हो जाएगा।"
संध्या के समय सुवास चित्रा के घर चेतन को सोशल साइंस और हिन्दी विषय में मदद कर दिया करता था। रात में जब उठकर जाने लगा, चित्रा भी सीढ़ियों से उतर उसके साथ बाहर तक छोडने आई. सुवास ने एक बार आसमान की ओर देखा और कहा, "चित्रा मैं रोज इन तारों से कहकर जाता हूँ कि तुम्हारा ध्यान रखे, तुम स्वस्थ रहो।"
"क्यों तुम इतने कमजोर हो गए हो कि असमान के तारे मेरी रक्षा करेंगे" हँसते हुए चित्रा ने कहा।
सुवास कुछ पल गंभीर बना रहा फिर उसके ओठ काँपे, "ऐसी बात नहीं है, चित्रा, इन्हीं तारों में किसी में मेरी माँ भी बैठी है, उन्हीं से तुम्हारी सलामती के बारे में कहता हूँ।"
चित्रा की आँखों में आँसू उमड़ आए. सुवास ने धीरे से चित्रा की आँख में झाँका, मुस्कुराते हुए कहा, "अरे आज मेरे आँसू तुम्हारी आँख में क्यों आ गए?"
चित्रा कहीं खो चुकी थी, बुदबुदाते हुए कहा, "इसे ही तो प्रेम कहते हैं सुवास, इसे पहचानो।"
सुवास ने हौले से चित्रा के कंधे पर हाथ रखा और कहा, "रात भीग रही है, अंदर जाओ." सुवास वहाँ से नई अनुभूतियों और रिश्तों केे नये अर्थ लेकर वापस आया।
वरुण हजारीबाग एक रिश्तेदार की शादी में एक दिन के लिए गया था। वापस लौटने में देरी हो गई थी, फिर भी छुट्टी न होने से वह आधे घंटे विलंब से स्कूल चला गया। उसकी पहली घंटी खाली थी। दूसरी घंटी में क्लास में ही था कि प्रिंसपल चोपड़ा ने अपने आफिस में बुलाया। बुलाने की वजह, वरुण के बेटे आशीष के खिलाफ मिली शिकायतें थीं। उसने अपनी कक्षा के दो लड़कों को पीट दिया था। तीनों लड़के खड़े थे। वरुण शर्म से गड़ गया, वहाँ दो अन्य शिक्षक भी बैठे थे। उसने प्रिंसपल को कहा-मुझे बहुत बुरा लगा है लेकिन आगे ऐसा नहीं होगा। "शाम को सुवास को बरुण ने बताया," आशीष इस तरह मेरा नाम बदनाम करेगा सोचा नहीं था। "
सुवास ने वरुण से कहा, "बात गंभीर है लेकिन बिना सबकुछ जाने हताश होने से काम नहीं चलेगा। आशीष को तुम कुछ मत कहो मैं देखता हूँ।" आशीष ने चुप्पी ओढ़ ली थी और घर में किसी भी बात पर झल्ला उठता था, स्कूल नहीं जाने के बहाने ढूँढता था। सभी सोच ही रहे थे कि एक दिन चौहान ने बताया कि आशीष को क्लास के कुछ बच्चे चिढ़ाते हैं, उसके इंगलिस उच्चारण पर उसके बोलने पर हँसते हैं, बच्चे जान गए हैं कि वह गुस्सा होता है तो उसे और उकसाते हैं। इसमें भी जब से उसने मैथ्स में सर्वोच्च अंक लाए हैं तब से और भी झगड़ा होता है। चार लड़कों का ग्रुप अक्सर इसे वरुण के नाम से भी चिढ़ाता है कि बाप के नाम से मैथ्स में नंबर मांग लेता है। सुनकर सुवास और वरुण एक दूसरे का मुँह देखने लगे। लड़का इतने दिनों से इसी तनाव और आक्रोश में जी रहा था और वरुण की नाराजगी के कारण कुछ बोल भी नहीं रहा था। सुवास ने वरुण को कहा तुम एकदम सामान्य रहो, ऐसी समस्या चित्रा और औरेलिया मैम सुलझा देंगी। क्योंकि हमारे बीच में पड़ने से स्कूल में राजनीति होगी और बच्चों तक भी ग़लत संदेश जाएगा। वरुण ने लाचारी से कहा, "सुवास मैं क्या कर सकता हूँ यहाँ के लिए ऐसे भी अयोग्य हूँ, गाँव देहात का प्राणी। तुमको जो सही लगे करो।"
सुवास ने चित्रा से बात की और कहने लगा, "चित्रा क्या समय आ गया है, हम कभी प्रतिभा की कद्र करना चाहते ही नहीं। उस देहात से, जहाँ अभी भी किशोरी लड़कियों की शादी होती है, ओझागुनी से इलाज होता है, डाइन कहकर औरतें मार दी जाती हैं, वैसे गाँव ने इस स्कूल को मैथ्स का एक सच्चा और प्रतिभावान शिक्षक दिया। कितनी मेहनत की होगी वरुण ने यहाँ तक पढ़ाई के लिए. लेकिन यहाँ तो" थोथा चना बाजे घना"वाली बात है। बच्चे तो हमारी छाया हैं, तुम किसी भी तरह बिना कटुता बढ़ाए बच्चों के बीच आशीष को भी घुलने मिलने और बराबरी का हक दिलाओ. उसकी कमियों को हम दूर करेंगे, लेकिन पहले तुम देख लो।"
चित्रा और औरेलिया ने अलग-अलग तरह से पाँचवे क्लास के बच्चों को समझाया। आशीष के उ$पर छींटाकशी करने से उनकी भी बदनामी हो रही है, उनके घर की बदनामी हो रही है ये सारी बातें, कुछ शासन कुछ प्रेम से बताकर इस समस्या का समाधान कर दिया। सप्ताह भर बाद सब कुछ सामान्य होने पर चित्रा ने सुवास से कहा-तुम्हारे दोस्त की एक बहुत बड़ी उलझन सुलझा दी है, बताओ क्या दोगे?
सुवास ने थोड़ी देर सोचा, उसके चेहरे पर एक ठीठ-सी मुस्कुराहट उभरी उसने कहा, "हाँ काम तो तुमने बहुत बड़ा किया है तो मैं सोचता हूँ कि अगर तुम्हें कुछ चाहिए तो मैं अपना नाम तुम्हें देता हूँ, इसी खुशी में।"
चित्रा जब तक कुछ समझती, वरुण जो वहीं खड़ा था हँस पड़ा, उसे हँसते देख। चित्रा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, तब बरुण को भी समझ में आया, वह दुबारा हँसने लगा। सुवास ने ओठ पर अंगुली रखकर पहले उसे चुप कराया फिर बोला, "वरुण हमारी शादी कोर्ट में होगी, तुम्हारा भी काम किया है चित्रा ने इसलिए गवाह में दस्तखत करना होगा।" वरुण ने हाँ में सिर हिलाया और कहा, "वह वक्त तो आने दो।"
जब वरुण चला गया तो चित्रा बोलने लगी, "आप इतनी बड़ी-बड़ी और ऐसी बात इतनी सहजता से कैसे कह देते हैं।" सुवास ने कहा, "अनुभव सब सिखा देता है मैडम और मैं कोई कहानी बनने से पहले ही सम्बंधों को नाम देने पर विश्वास रखता हूँ। आगे तुम सोचो।"
चित्रा ने कहा, "परसों आई (माँ) और पापा आ रहे हैं। मैंने सारी बातें बता दी हैं।"
"मेरी योग्यता पर सवाल नहीं उठाये न पैठणकर साहब ने?"
"वे तो इसी में खुश हैं कि मैं शादी करने को तैयार हूँ। ऐसे भी बिहार की पली बढ़ी हूँ तो वे मेरे लिए मराठी लड़का ढूंढकर भी क्या करते, मैं ही इनकार कर देती तो?"
सुवास ने कहा कि "फार्म तो भर कर हम जमा कर देंगे, लेकिन एक महीने बाद जब शादी के लिए जाएँगे तभी सबको बताएँगे।"
चित्रा ने उतावली से कहा, "हमलोग मिल तो सकते है ना।"
सुवास ने उसके सिर पर हल्की चपत लगाते हुए कहा, "पहले अपनी 'आई' और पापा को संभालो मैडम, नहीं तो बात बिगड़ जाएगी।"
चित्रा के घर से सुवास अपने घर की ओर चला आया। चित्रा के माता पिता राँची में बीस साल रहने के कारण पूरे विद्यालय परिवार के साथ अच्छा सम्बंध रखते थे। सुवास और चित्रा के पापा के बीच में बातचीत हुई. चित्रा की माँ ने भी सुवास को पसंद किया, दीदी तो पहले से ही खुश थी। सुवास ने विवाह से पहले घर में खबर ही नहीं की, उसने चित्रा से साफ कह दिया कि तुम्हारी पहली चुनौती होगी मेरे घर में अपने लिए जगह बनाना। नियत दिन को वरुण और सुधांशु, सीमा और चिंता के साथ चित्रा के परिवार वाले हजारीबाग कोर्ट गए. चित्रा ने अपनी माँं के दिए कपड़े और जेवर पहने थे। सुवास ने एक साड़ी और मंगलसूत्रा चित्रा के लिए खरीदा था। रजिस्ट्रार के दफ्तर में जब दोनों ने दस्तखत किए तब सीमा ने दोनों को माला देकर एक दूसरे को पहनाने को कहा। इस छोटे से अपनों की मंडली में माला पहनाते वक्त भी चित्रा एकदम घबरा-सी रही थी। वरुण ने सुवास द्वारा खरीदी साड़ी और मंगलसूत्रा उसे पकड़ाया तो एक गरिमा और लाज के भार से दबी चित्रा का रूप निखर आया था। सुवास भी उसकी ओर चाहकर भी नहीं देख पाया था। चित्रा के पापा ने होटल में सबको खाना खिलाया। वह रात चित्रा के घर ही बिताकर सुबह उसके पापा और माँ ने दोनों को उसके फ्लैट के लिए बिदा किया। चित्रा सुवास की ज़िन्दगी में एक शांत बहती नदी या एक हल्के सुगंध के झोंके की तरह आ गई थी।