जटायु के कटे पंख, खण्ड-1 / मृदुला शुक्ला
शिखा ने उस बड़े से अहाते के गेट का लैच खोला ही था कि अंदर बच्चों के साथ खेलते सुवास की नजर पड़ गई. वह दौड़ता हुआ पहुँचा, "शिखा मौसी तुम इतने दिन क्यों नहीं आई?"
शिखा की आँखें गीली हो गईं, उसने झुककर उसे अपने से लगा लिया। अहाते के एक छोर पर बने घर से नीरू किसी काम से निकली तो हँसते हुए वह आगे बढ़ी, "बाप रे शिखा जी, आज किधर सूरज उगा है।"
शिखा उठकर खड़ी हो गई, "क्या करूँ भाभी, आजकल स्कूल में इतना काम है कि समय ही नहीं मिल पाता।"
"अरे इतना भी क्या काम, बस ननद लोगों के ऐसे ही ठाठ हैं, भाभी की याद ही कहाँ से आयेगी।" नीरू ने आकर शिखा को अपनी बाँहों से घेर लिया। शिखा मुस्कुराती हुई बोली-बड़ी खुश दीख रही हैं भाभी, ऐसे खूबसूरत टॉप्स भैया ने दिए हैं क्या?
नीरु ने हँसते हुए कहा, "हाँ आप और आपके भैया, दोनों ही महान हैं ना, इसी से।"
दोनों बातें करती हुई दरवाजे तक पहुँच र्गइं, तब शिखा को ध्यान आया कि उसके साथ-साथ सुवास भी चला आ रहा है। उसने जैसे ही सुवास को देखा वह उसके हाथों को पकड़ खींचने लगा, "मौसी पहले मेरी किताबों को देख लो ना।"
नीरु ने सुवास को समझाया, "बेटा, मौसी अभी नहीं जा रही हैं। थोड़ी देर बैठने दो, चाय-पानी के बाद फुरसत से तुम्हारी नई किताबें भी देखेंगी।"
सुवास का उदास चेहरा देखकर शिखा ने उसके गाल थपथपाए, "सुवास तुमको पता है ना कि मैं तो यहाँ आती ही हूँ, बस तुमसे मिलने। ज़्यादा समय मिलकर बैठेंगे ना! खेलेंगे भी, इसी से ज़रा सबसे मिल लेती हूँ, तब तक तुम खेलो।"
सुवास ने अपने नन्हें हाथों को हिलाया, "पक्का, चली मत जाना। शिखा ने भी हाथ से इशारा किया-एकदम पक्का।"
शिखा जब बैठक में पहुँची तो प्रतिमा देवी सुवास की नानी, वहांँ कुरसी पर बैठी, चश्मा लगाए चावल बीन रही थीं। शिखा को देखकर उन्होंने भी हँसकर उलाहना दे दिया, "क्या शिखा, मास्टरनी बनकर चाची को ही भूल जाती हो।"
शिखा ने पैरों को छूते हुए कहा, "चाची दस दिन ही तो हुए हैं और आप भी कहेंगी तो भाभी तो घर से ही निकाल देगी।"
वह पास में बैठकर बातें करने लगी। थोड़ी देर बाद नेहा चाय लेकर आई तो सास दोनों बहुओं को छोड़कर घर के काम में लग गई.
नेहा और नीरू के बीच बातचीत करते हुए काफी देर हो गई तो सुवास बेसब्री से उसके पास भागा-भागा आया, "मौसी तुम्हारी बात कब खतम होगी? चलो न मेरे कमरे में।"
शिखा ने जीभ काटते हुए कहा, "भाभी मैं तो सच ही भूल गई थी ज़रा इसकी किताबें तो देख लूं, बेचारा कब से इंतजार कर रहा है।"
शिखा जब घर के बाहर वाले बड़े कमरे में आई, जो बस विद्यार्थियों के लिए ही बना था, चार-चार चौकियां, टेबल कुर्सी और रैक पर ठूंसी हुई हर तरह की किताबें। शिखा को पुराने दिन याद आने लगे। सुवास ढूंढ-ढूंढकर अपनी किताबें, कॉपी, पैंसिल दिखाता रहा और वह उसे देखकर वाह-वाह करती जाती पर उसका मन कहीं और भटक रहा था। सुवास ने पूछा, "मौसी आज आप ठीक से खेल भी नहीं रही हैं, आपकी तबीयत खराब है क्या?"
शिखा की आँखें फिर छलछला आईं; इस घर में बचपन से आती रही है। वह सुनैना की बाल सखी थी, उषा उसकी छोटी बहन भी हमेशा साथ रहती थी। चार भाई और दो बहनों के साथ चाचा-चाची के हँसने, मजाक करने की आदत से वह घर हर समय मानो गननाता रहता। शिखा को अपने घर का सन्नाटा नहीं अच्छा लगता, घर की मोटी-मोटी दीवारें और हमेशा बंद रहने वाली खिड़कियों से भागकर वह सुनैना के इस बड़े से बगान और आंगन वाले घर में आ जाती, जहाँ उ$षा के खिलखिलाने, नकल करने, दूसरों को चिढ़ाने के कारण घर में हर समय हंगामा मचा रहता। सुबीर और सुधीर भैया तो बस उन तीनों को छेड़ते ही रहते थे। शिखा के जीवन में वह दिन भी आया था जब उससे ग्यारह साल बड़ा भाई पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड गया था। माँ ने पुश्तैनी घर गिरवी रखकर रुपया जुटाया। शिखा के बाबा की इच्छा नहीं थी, लेकिन त्रिया हटा के सामने नहीं चली थीं। पाँच साल किसी तरह काटे थे सबने। फिर एक दिन एक पोस्टकार्ड आया, शिखा ने उसे माँ को पढ़कर सुनाया था कि भाई अब नहीं लौटेगा, उसने वहीं घर बसा लिया है।
यह सबसे मुश्किल समय था। शिखा, जो अपने भाई को दुनिया का सबसे अच्छा भाई मानती थी। सहेलियों के सामने उसका बखान करती रहती थी, कुछ समझ नहीं पा रही थी। पड़ोसियों तक खबर धीरे-धीरे एक दूसरे से होकर पहुँचती जा रही थी। वह बड़ी हो रही थी। दो साल तो फिर भी बात को झूठ मान कर लोग जीते रहे। दो साल बाद पिता रिटायर होकर बिस्तर पर पड़ गए. माँ बदहवास-सी कभी खूकू को देखती कभी बीमार पति को। क्या होगा अब? पेंशन के पैसे इतने कम कि घर चलाना मुश्किल। जमापूंजी खत्म हो रही थी। बेटे पर सारी आशाएँ टिकी थीं। सब कुछ मिटता-सा लग रहा था। घर भी नहीं रह पायेगा, सोचकर ही शिखा के पिता जर्जर होते जा रहे थे। तब सुनैना को ही शिखा ने रो-रोकर बताया था सब। अन्य सहेलियों की तरह सुनैना ने आँखें टेढ़ी नहीं की थीं। उसका हाथ पकड़ सीधे अपने घर ले आई थी। कमरे में बिठाकर उसे समझाया था, "सब दिन एक जैसे नहीं रहते, सब ठीक हो जाएगा।"
शिखा ने कहा था, "सुनैना मैं क्या करूं, माँ की तबीयत ठीक नहीं है-कोथाय गेले रहे शान्तनु? कह-कहकर नींद से जागती है। बाबा बस चुप से लेटे रहते हैं।"
उस उम्र में भी सुनैना ने गंभीरता से कहा था, "शिखा जो हो गया, वह तो हो गया, लेकिन अब तुझे ही सब संभालना है। भाई तो यहाँ की हालत देख नहीं रहा। पर तू एक बार चिट्ठी भेजकर फटकार तो सकती है कि बीच राह में क्यों छोड़ दिया।"
अंधकार में एक पतली से रौशनी की लकीर-सी दिख पड़ी थी। अलग खानपान, अलग सोच विचार के बीच भी परिवार ने मुसीबत में फँसी छोटी उम्र की इस लड़की का साथ दिया, प्यार और भरोसा देकर।
बंगाली समाज उस समय तक शान्तनु के वापस लौटने की उम्मीद और उससे विवाह की इच्छा के कारण संपर्क में था। बात फैलते ही अभावग्रस्त परिवार में आए दिन होने वाले खर्च और मदद के डर से दूर-दूर रहने लगे थे। शिखा ने हिम्मत नहीं हारी थी। वह पहले गाना सिखाती थी, बाद में ट्यूशन भी पढ़ाने लगी। सुनैना की पढ़ाई आगे नहीं हुई. लेकिन दोस्ती की गाँठ बड़ी मजबूत थी।
श्रीवास्तव जी ने कह दिया कि छह बच्चों का खर्च और दो लड़कियों का ब्याह इस सबमें वह बेटियों को कॉलेज में नहीं पढ़ा सकते। उनकी पत्नी ने भी कहा कि—लड़कियां पढ़कर कौन-सा कमाने जाएगी, बस इतनी ही पढ़ाई बहुत है। सुनैना के ब्याह के लिए भागदौड़ होती रही। सुनैना ने प्राइवेट से परीक्षा देने की बात की थी, लेकिन घर में किसी ने साथ नहीं दिया था, तो वह भी सिलाई, कढ़ाई और रेडियो सुनकर खुश रहने लगी थी। उस समय शिखा रोज आया करती थी। उसने सारी परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत जुटाई थी। वह लगातार भाई को पत्रा देती रही थी। घर पर कर्ज बहुत बढ़ गया था। उसे छोड़ने का दबाव बढ़ रहा था। आखिर परिवार जाता कहाँ? तभी ईश्वर ने सुन ली। शिखा की लिखी चिट्ठी भाई की अंग्रेज पत्नी के हाथ लगी। उसने पति से उस चिट्ठी को पढ़वाया।
और एक दिन भाई का पत्रा आया कि वह भागलपुर नहीं आ सकता, क्यों उसे समय नहीं है, लेकिन कलकत्ता पहुँच रहा है, वह वहीं मिले तो उसकी समस्या को सुलझाने की कोशिश करेगा।
चिट्ठी पढ़कर एक बार शिखा ने सोचा कि वह जाय ही नहीं बेकार तमाशा खड़ा हो जाएगा। लेकिन हिम्मत करके इक्कीस साल की उम्र में पहली बार शहर से बाहर, एक रिश्तेदार को लेकर गई. भाई से चंद मिनटों में बात की, खरी-खरी सुनाकर, घर से बेघर होने की बात बता और उसका जिम्मेवार भी ठहराकर चली आई. उसने न तो विनती की न माँ बाबा के प्यार की दुहाई दी बस स्वाभिमान के साथ गई, भाई को कठघरे में खड़ा किया और चली आई.
माँ ने कपार ठोक लिया, इतना पैसा खर्च करके गई ही किसलिए थी। महीने भर बाद भाई ने पैसे भेजकर घर छुड़वा दिया। परिवार की इज्जत रह गई. शिखा की इस संकल्पशक्ति को देख, सुनैना के घर वाले को उसमें झांसी की रानी नजर आने लगी थी। वे सुनैना को प्यार तो पहले भी करते थे अब सम्मान भी करने लगे। शिखा इस परिवार के स्नेह में डूबती चली गई.
"अरे शिखा दी आई है, मैं भी सोच रहा था उनके घर जाने की।" अतुल की चहकती आवाज से अतीत के भंवर में फँसी शिखा को मानो झटके से किनारा मिल गया। वह हड़बड़ाकर बड़े कमरे से निकल बैठकखाने में आ गई-तू तो रोज ही मेरे घर के चक्कर लगाता है ना, ऐसे ही गप्प हांकता है। "हँसते हुए शिखा ने कहा," अच्छा शिखा दी विद्यालय कैसा चल रहा है" अतुल कुर्सी पर शिखा के बगल में बैठ गया।
"कैसे चलेगा, बस उसी तरह, जो काम कर रहा है, उसके सर पर बोझा, बाकी सब मस्त। हमारे यहाँ कुछ टीचर तो बस स्वेटर बीनने के लिए ही आती है।" शिखा ने अतुल की बात का जवाब देते हुए कहा।
"तो आप भी बीनयें न स्वेटर, सच बड़ा ही रचनात्मक कार्य है"। "हाँ अब तू मार खायेगा। बच्चों को भविष्य के लिए तैयार करना क्या रचनात्मक कार्य नहीं है।"
"ठीक है आपकी बात भी, लेकिन सच बताएँ शिखा दी टीचरों की मौज ही मौज है-बच्चों को डाँटो, मारो और उस काम के भी पैसे लो-यह हुआ न रचनात्मक कार्य।" अतुल शिखा को चिढ़ाने लगा।
शिखा ने अतुल को धमकाते हुए हाथ उठाया, "जानते हो कारपोरल पनिशमेंट, शारीरिक दंड अब एकदम मना है।"
अतुल ने निराश होते हुए कहा, "तब क्या करेंगे टीचर।" शिखा अपनी
धुन में बोलती जा रही थी, "बात भी तो ग़लत है पिछले साल मोक्षदा स्कूल में एक दीदीमुनी ने शास्ती (दंड) दिया था, लड़की को धूप में खड़ी करके. वह बेहोश हो गई थी।"
"छोड़िए शिखा दी, ये लड़कियां ऐसे ही नाजुक बनती है। हम लड़कों को तो कुछ नहीं होता, हमने क्या अपने स्कूल के सिंघाड़ा सर और बीड़ी सर से कम मार खाई है।"
"चुपकर, सर लोगों का नाम बिगाड़ कर बोलता है, अब डंडा खायेगा। पिछले महीने ब्यायज स्कूल में भी तो टीचर की मार से हाथ की हड्डी टूट गई थी।" शिखा ने अपनी मुस्कुराहट को रोकते हुए अतुल को जवाब दिया।
झेपते हुए अतुल बोल पड़ा, "मान गया शिखा दी पूरी खबर रखती हें, अरे वह तो मेरे ही स्कूल का लड़का था। लेकिन वह तो मरियल-सा था ही, बेचारा मास्टर बदनाम हो गया।"
"अभी भी बदमाशी सूझ रही है ना, मारने से क्या विद्यार्थी ठीक होता है।"
"विद्यार्थी ठीक हो न हो, मास्टर का मूड तो एकदम फ्रेश हो जाता है ना।" अतुल इसबार हँस पड़ा, तो शिखा भी हँसते हुए उसके कान पकड़कर बोली, "दुष्ट है हमेशा का। मेरा माथा खराब कर देता है।" अतुल हँसता हुआ कंधे उचकाता हुआ चला गया।
नीरू बोली, "क्या शिखा जी आप भी अतुल जी की बातों के फंदे में पड़ गईं।"
शिखा ने गंभीर होते हुए कहा, "नहीं भाभी यह हमेशा दूसरों के काम आता है, हिम्मत भी बढ़ाता है, जैसे सुनयना और हँसाता है उषा की तरह।"
सुनैना का नाम लेते हुए शिखा की आँखे दीवार पर लगी उसकी तस्वीर पर टिक गईं। शादी के पहले की तस्वीर थी, साड़ी का पल्लू नीचे की ओर लटक रहा था, माथे पर लंबी-सी बिंदी थी और बड़ी आँखों में खिंची काजल की रेख। शिखा की आँखें भीग गईं। बातों के क्रम में शिखा ने, रोटी बनाती हुई नीरू से पूछ लिया, "भाभी सुवास का क्या सोचा है, अब तो बड़ा हो गया, क्या अभी भी उ$षा के पास नहीं रह पायेगा।"
नीरू ने हाथ से रोकते हुए, दूर आंगन से कपड़े समेटकर लाती नेहा को देखा और धीरे से बोली, "क्या बताउ$ं शिखा जी, इसे भेजने के नाम पर मेरा ही कलेजा फटने लगता है। इत्ता-सा था, जब पूरा-पूरा दिन रोता था, छाती से सटाकर रुई के फाहें में दूध भिंगाकर चटाती थीं, अब दूर करना"-आवाज भर्रा गई नीरु की।
शिखा ने बात संभालने की कोशिश की, "हाँ भाभी-वह तो मैं क्या जानती नहीं, लेकिन सुवास का भी अपने घर में कुछ अधिकार है ना, इसे वहाँ से भी जुड़ना होगा, इसी से कहा।" नेहा तब तक नजदीक आ गई थी, नीरू ने अपनी आँखें पोंछ ली। नेहा ने कहा, "मैं भी यही कहती हूँ कि अपने माँ-बाप को जानना समझना बच्चे के लिए बहुत ज़रूरी होता है।"
शिखा नेहा से बहुत ज़्यादा हिली मिली नहीं थी, इसी से सिर हिलाकर सहमति दे दी। नीरू ने नजरें झुकाए रखीं। रोटियां बन गईं तो नीरू खड़ी होने के पहले कमर सीधी करने लगी। शिखा ने उसे देखते हुए कहा, "भाभी अब तो इस हालत में आपको भी थोड़ा आराम चाहिए."
नीरू कमरे से बाहर आंगन में आ गई और बोली, "गोलू के जनम के दस साल बाद प्रिगनेंसी से थोड़ी प्रोबलेम तो है। आपके भैया कहते हैं," माँ नहीं संभाल पायेगी, इसलिए मायके चली जाओ. नेहा का खुद का छोटा बच्चा है, सुबीर और सीमा के बच्चे स्कूल जाते हैं, इससे नहीं आ पायेगा। ऐसे में सुवास की चिंता लगी रहेगी। "
तभी शिखा को ध्यान आया कि सुवास इंतजार कर रहा होगा। नाश्ते की प्लेट को पकड़े-पकड़े वह सुवास के पास चली आई. सुवास ने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया, "शिखा मौसी आपको पता है मेरा नाम स्कूल में लिखा गया और नानी ने यह भी बताया कि जैसे स्कूल में सर और मिस है, वैसे ही आप भी मिस हैं।"
सुवास अंदर से अपने स्कूल बैग लाने गया तो दूसरे कमरे में आ गई, देखा कि सुवास की नानी के हाथ में दूध का गिलास था और सामने नेहा खड़ी थी। पता नहीं क्या बात हुई थी, लेकिन नानी के हाथ काँप रहे थे। जैसे चोरी पकड़ी गई हो। नेहा बिना कुछ बोले चली गई तो नानी ने धीरे से कहा, "सुवास बहुत जिद्दी हो गया है, खाता पीता कुछ नहीं, सारा दिन दौड़ता भागता रहता है उसी के लिए दूध ले जा रही हूँ।" शिखा ने उनके चेहरे की तरफ देखा तो समझ नहीं पाई कि अपराधबोध का भाव क्यों है? तभी धमकता हुआ सुवास आ गया।
आड़ी तिरछी लकीरों से बनी अपनी पेंटिंग दिखा रहा था। नया बैग, पानी का बोतल और किताबें-एकदम उछाह में छलकता सुवास का चेहरा-शिखा ने उसे अपने से सटा लिया। सुवास ने ढेरों खबरें दीं कि कैसे तैयार होता है, गोलू भैया अक्सर लेट हो जाते हैं। नाश्ते में रोज पराठा कोई नहीं खाता लेकिन उसे खाना होता है।
शिखा ने उसके माथे के बालों को सहलाते हुए कहा, "तू तो बहुत बड़ा हो गया सुवास, अब ज़रा मुझे भी पकड़ कर उठा तो।"
सुवास ने सच ही सारी ताकत लगाकर मौसी को उठाना शुरू किया तो शिखा मुस्कुराने लगी। चाची ने कहा, "स्कूल से सीधे इधर आई है, खाना खाकर जाना।"
"नहीं चाची, माँ भी घर में इंतजार कर रही होगी, फिर कभी।" अरे तो जाकर खाना बनायेगी, दिन रात खटती है। माँ के लिए रोटी ले लेना, सब्जी तो वह खायेगी नहीं, दूध के साथ दे देना। " आज्ञा के स्वर में सुवास की नानी ने कहा तो वह कुछ नहीं बोल पाई. कितना ख्याल रखते हैं सब उसका, इतने साल बाद भी। फिर भी अंदर कुछ कसक गया। इतना कुछ होते हुए भी वह इस घर की नहीं हो सकी थी। शिखा ने विचारों को झटका और गेट खोलकर निकली, साथ में पहुँचाने के लिए अतुल अपनी साइकिल के साथ खड़ा था-सदा की तरह आज्ञाकारी।