जटायु के कटे पंख, खण्ड-20 / मृदुला शुक्ला

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सुवास ने विवाह की जानकारी बादल और अतुल मामा दोनों को दे दी थी। उसने बहुत कुछ सोचकर बादल को विवाह में उपस्थित होने से मना कर दिया था। उसे पता था उसके इस कदम से पापा बहुत आहत होंगे, ऐसे में दूसरा बेटा भी इस फैसले में शामिल था, सोचकर उन्हें अपने अकेले होने का एहसास सालेगा।

बादल ने उसकी बात मान ली थी, लेकिन जल्द ही वह पटना से सीधे उसके पास पहुँच गया था। रात भर बादल रुका, चित्रा से मिला उसे सुवास के विषय में बचपन की ढेरों बातें बर्ताइं, जिसे चित्रा ने कभी गंभीर होकर और कभी हँसकर सुना। भाई से समझने और समझाने में रात बीत गई कि जीतपुर में इस विवाह पर उठे तूफान को कैसे संभाला जाए. बादल ने अगले दिन जीतपुर जाकर विवाह के विषय में बता दिया।

बासुदेव बाबु को उनके एक सहकर्मी से कुछ दिन पूर्व ही आभास हो गया था। उसने हजारीबाग के विवाह निबंधन कार्यालय में सुवास को देखा था। बादल के द्वारा जानकर घर में सन्नाटा खिंच गया था। वर्माजी को अत्यंत दुःख हुआ। एक डोर जो बाप बेटे के बीच अभी-अभी बंधी थी, बीच में ही खुल गई. उन्हें लगा कि जो बेटा बीमारी में उनकी दिनरात सेवा कर रहा था, अपने कमाए पैसों से दवाई, फल वगैरह कसम देकर खरीदकर ला रहा था, जिसने रिश्तों और सम्बंधों को अपनी इच्छा से कुछ दिन पहले स्वीकारा था, वह कोई दूसरा था या उसका कोई छल था। उस दिन उन्होंने दिन में कुछ नहीं खाया, शाम को चारपाई पर आकर लेट गए. एक छोटी-सी बात पर गुस्सा हो गए और उठकर बैठ गए. फिर उन्होंने बादल को सुनाना शुरू किया, "मैं ही ग़लत था, उसके नए नाटक को सच समझ बैठा था। उसने मुझे कभी बाप समझा ही नहीं। न उसे घर के दायितव की चिंता है न मर्यादा की। बहन कुँवारी बैठी है, भाई का रिश्ता आना बाकी है, लोग क्या कहेंगे? कुछ भी नहीं सोचा उसने।"

बादल कोने की एक कुर्सी पर चुपचाप बैठा था, लेकिन दिमाग और कान इधर ही लगे थे। वह उठकर पापा के पास बैठा और बोला, "पापा विश्वास कीजिए कि बहुत दिन बाद भैया खुश दिखाई दे रहे थे लेकिन घर की चिंता उन्हें परेशान किए हुए है। आपको तो वे विवाह के लिए मना कर चुके थे ना, ऐसे में हमें बस इसी से खुश होना चाहिए कि उन्होंने शादी कर ली और उनका चुनाव भी सही है।"

पापा ने चुभती नजरों से देखा तो वह सिटपिटा गया।

माँ ने कटीं हुई सब्जी एक ओर रखी और आकर सामने खड़ी हो गई. वह खुलकर सुवास के पक्ष में आ गई थी। उसने तेज आवाज में कहा-क्या घर की मर्यादा और कुँवारी बेटी की बात कर रहे हैं। शादी ही तो की है सुवास ने कहीं किसी जगह आवारागर्दी या डाका तो नहीं डाला है। हम भी उसका ब्याह करते तो क्या पता कैसी लड़की होती। पढ़ी लिखी लड़की है। बड़े घर की होकर भी सुवास को पसंद किया, मतलब पैसों से रिश्ते को उ$पर रखती है। फिर भी हम खुश नहीं हैं तो हमारा दुर्भाग्य है।

वर्माजी ने चिढ़ते हुए कहा, "ठीक है, अच्छा काम किया है, तुम लोग ढोल बजाकर सबको बताओ, मैं तो कहीं निकलने लायक ही नहीं रहा।"

"आपको तो ऐसा ही लगेगा, शुभ शगुन की बात है, यह मन में मनाया जाता है, ढोल बजाने का समय होगा तो वह भी बजेगा। क्यों निशा की माँ ने सबकुछ जानकर भी ढोल नहीं बजवाया था क्या? हम बेटे के अरमानों की लाश पर ढोल नहीं बजाते हैं। उसकी खुशी हमारी खुशी है।" इतना कहते-कहते वर्माजी की पत्नी का चेहरा तमतमा गया। बादल भी हमेशा चुप रहने वाली माँ के इस रूप को देखकर हैरान हो गया।

वर्माजी ने आँखें बंद कर ली। बादल ने माँ को वहाँ से उठाया, वर्षा को पानी लाने को कहा और माँ से दूसरी बातें करने लगा। अगले दिन बादल अपने काम पर लौट गया। जाते-जाते पिता के हाथों में सुवास की एक चिट्ठी पकड़ाकर गया जिसमें उसने बिना अनुभूति के विवाह के लिए माफी और नए जीवन के लिए आशीर्वाद मांगा था।

अतुल मामा ने विवाह की खबर मिलते ही सुवास को एक बधाई तार भेज दिया और कानपुर आने का आमंत्राण भी दिया। अतुल की चिट्ठी के द्वारा ही सुवास के विवाह की खबर भागलपुर पहुँची तो नानी उदास हो गई थी। आह भरकर कहने लगी, "बिना माँ का बेटा था, कौन करता उसकी शादी।" बड़ी मामी ने टोकते हुए कहा, "माँ जी अभी तो वर्ष भर पहले हीे विकास की शादी हुई है और विवाह के लिए तो वही नहीं तैयार हो रहा था न। अब कर लिया तो खुश हो जाइए."

' खुश होने लायक ही तो नहीं छोड़ा, अपने से शादी करके. "

"अतुल ने भी तो अपने से ही चुना था न।"

"लेकिन उसने अपनी जात से चुना था, तो हमें भी एतराज नहीं था।"

मामी ने कह तो दिया-अब छोड़िए माँ जी जात-पात की बात" लेकिन एक सूनापन बड़ी मामी के चेहरे पर भी फैल गया था जैसे अपनी कोई चीज खो गई हो।

सुवास को तकलीफ हुई कि किसी ने भागलपुर से भी कोई शुभकामना या आशीर्वाद नहीं भेजा था। फिर ये सोच मन को तसल्ली दी कि इतना तो होना ही था, यही क्या कम है कि बादल और अतुल मामा, परिवार के बीच उसे जगह दिलाने में जुटे थे। उन्हीं की चिट्ठियों से दोनों घरों का समाचार मिल जाता और वह फिर से कहीं खो जाता।

"स्नेहा इन प्रश्नों के उत्तर एक बार फिर से देखो, कई गलतियां रह गई हें।" चित्रा ने स्नेहा को पुकार कर बुलाया और कापी आगे कर दी। स्नेहा ने फिर से अपनी लिखी हुई पंक्तियों को देखना शुरू किया तो चित्रा रसोई में चली आई. बाहर बैठक में सुवास, रोहित दवे, जॉन और बरुण के साथ बैठा स्पोर्ट्स सम्बंधी चर्चा कर रहा था। चित्रा ने चाय बनाई और बिस्किट निकालते हुए स्नेहा से कहा, "चाय दे आओ और सुनो चाय ट्रे में ले जाना, नहीं तो छलक जाएगी।"

चंचल स्नेहा ने चाय के कप ट्रे में रखे तो चाय ट्रे में छलक कर गिर पड़ी, स्नेहा खड़ी हो गई. चित्रा के रोकते-रोकते भी हँसी निकल गई, "आखिर वही हुआ न, अच्छा रूको मैं ठीक कर देती हूँ, अब तुम जाओ, मैं रसोई साफ करके आती हूँ।"

"मैम आप रसोई इतना साफ क्यों करती रहती हें, यह तो खाना बनाने से फिर गंदा हो ही जाएगा न।"

"इसलिए कि जहाँ हम भोजन बनाते हैं, वह जगह पवित्रा भी होनी चाहिए, लेकिन इसलिए भी कि हमलोग ज़्यादा समय यहीं बिताती हें तो यहाँ मन भी लगना चाहिए."

स्नेहा टुकुर-टुकुर चित्रा का मुँह देखती रह गई. गाँव देहात से आई स्नेहा अपनी चित्रा आंटी से बहुत कुछ सीखना चाहती थी। चित्रा का भी ध्यान इसी ओर रहता कि वरुण अपने परिवार के कारण लोगों से अलग थलग न पड़ जाए.

स्नेहा ने एक दिन चित्रा से कह दिया था, "पैंटिंग कितनी अच्छी बनाती हें आप।"

"स्नेहा मैं ने इसे स्कूल में ही सीखा था, दो साल तक। तुम्हारे स्कूल में भी 'सरकार' सर हें जो बड़े अच्छे ड्राइंग टीचर हैं, उनसे सीखो।"

"ना बाबा मुझसे ये सब नहीं होगा।" स्नेहा ने गरदन इनकार में हिला दिया।

"क्यों तुमने उस दिन घर में कितनी सुंदर अलपना बनाई थी" चित्रा ने प्रशंसा करते हुए उसकी ओर देखा।

"धत् वह तो ऐसे ही बना दी थी, हमलोग इसको चौक पुरना कहते हैं मैम, पूजा पाठ में बनता है।"

"हाँ हाँं हमारे यहाँ भी रंगोली होती है।"

आए दिन चित्रा इस बात के प्रयास में होती कि स्नेहा के आत्मविश्वास को बढ़ा सके. पंद्रह अगस्त के उपलक्ष्य पर क्लब में 'अल्पना प्रतियोगिता' प्रतिवर्ष होती थी। चित्रा ने स्नेहा का नाम भी प्रतियोगियों में लिखा दिया। घर आकर स्नेहा को मुस्कुराते हुए बताया कि तुम्हारा नाम हमने प्रतियोगिता के लिए दे दिया है। अब अच्छी-सी अल्पना बनाना।

"हाय रे बप्पा हम वहाँ क्या करेंगे।"

चित्रा ने स्नेहा की चोटी धीरे खींच कर हँसते हुए कहा, "हाँ हमने तो अपना काम कर दिया, अब तुम समझो या गणपति बप्पा।"

सुवास ने अंदर आते हुए पूछा, "क्या बातें हो रही हैं?"

"मैम ने मेरा नाम अल्पना प्रतियोगिता में दे दिया, मैं तो कुछ नहीं बना पाउ$ंगी।"

सुवास ने हँसते हुए कहा, "चित्रा का चुनाव इतना ग़लत तो नहीं होता है।"

सप्ताह भर बाद परिणाम आया तो स्नेहा ने प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाया था। पुरस्कार वितरण के दिन वरुण भी बेहद खुश था, इस स्नेहा की वजह से वहाँ गाँव जाकर कितना परेशान हो जाता था लेकिन यहाँ चित्रा ने मानो उसे नई राह दिखा दी थी।

सुवास शाम को 'हॉबी कलास' से लौटा तो चित्रा चाय बनाकर ले आई. सुवास ने गौर किया कि चित्रा कुछ कहना चाह रही थी। सुवास ने बिस्कुट कुतरते हुए पूछा, "बड़ी खुश नजर आ रही हो, कुछ खास बात है क्या?"

"आज चेतन की चिट्ठी आई है।"

सुवास ने हाथ में कप उठाते हुए कहा, "तभी मैं सोच रहा था कि आज चाय में चीनी ज़्यादा कैसे पड़ गई, सही बात तो यही है कि चेतन और राहुल जैसे शिष्य की बात हो तो तुम तो मुझे भूल ही जाती हो।"

चित्रा ने थोड़ा चौंककर चाय का कप मुँह में लगाया, "अरे मैं तो चीनी डालना ही भूल गई" चित्रा मुँह पर हाथ रख हँसने लगी। सुवास तब तक चीनी का डिब्बा उठा लाया था। चित्रा ने दोनों कप में चीनी मिलायी और बोलने लगी, "तुम्हें भी राहुल या चेतन की याद आती हो तो मेरे साथ बात कर सकते हो। ऐसे भी यहाँ रहते हुए चेतन तो तुमसे ही ज़्यादा हिलमिल गया था।"

"मुझे उसी से तो तुम्हारे बारे में सारी जानकारी मिल जाती थी।" चित्रा ने चौंककर देखा तो सुवास हँसने लगा।

कुछ देर चुप रहकर सुवास ने पूछा, "वहाँ कैसे रह रहा है चेतन?"

"मैं इसी से तो खुश हूँ कि दादा-दादी के पास जाकर काफी हद तक समझदार हो गया है। पढ़ाई में भी मन लगा रहा है और स्कूल की सभी गतिविधियों में भाग लेने लगा है। जानते हो उसने मुझे ही समझाया है कि मेरी चिन्ता नहीं करेगी, मैं समझ गया हूँ कि सबकी अपनी ज़िन्दगी होती है और मम्मी पापा ने भी ज़रूर कोशिश की होगी एक साथ रहने की, लेकिन नहीं हो पाया तो वे सिर्फ़ मेरे कारण बँधे रहते और जब मैं अपनी ज़िन्दगी जीने लगता फिर वे क्या करते? इसी से मुझे अब न तो कुछ बुरा लगता है ना ही शिकायत है।"

चित्रा ने चेतन की चिट्ठी का पूरा पैराग्राफ पढ़ दिया।

सुवास थोड़ा अचंभित रह गया। खिड़की के बाहर देखते हुए उसने चित्रा से कहा, "चित्रा इस बात को समझने के लिए मुझे इतने वर्ष लग गए और तुम्हें मेरी ज़िन्दगी में आना पड़ा और चेतन ने कितनी जल्दी समझ लिया। यह बदलाव मुझे भी बहुत अच्छा लगा।" चित्रा कुर्सी पर बैठी एकटक चेतन की चिट्ठी को देख रही थी। सुवास ने पास आकर कंधे को छुआ-चित्रा! चेतन बहुत अपना बन गया था, उसके रहने से घर भी भरा-भरा लगता था, लेकिन उस समय तुम हमेशा उसके लिए चिंतित रहती थी। अब उसके लिए खुश हो जाओ.

चित्रा की आँंखें भीग गई थीं। उसने भारी आवाज में कहा, "कुछ विद्यार्थी होते ही ऐसे हैं कि हम उनको हमेशा याद करते हैं। राहुल को ही देखो वह कौन लगता है हमारा? लेकिन हर छोटी बड़ी बात कह जाता है, किसी चीज के लिए जिद करता है, हर दो चार दिन पर कुछ पढ़ने या पूछने के बहाने घर पर आ जाता है।"

"सुवास ने चित्रा की आँखों में झाँकते हुए कहा-राहुल तो मेरी जान है चित्रा, अरे उसने ही तो हमें मिलवाया था।"

चित्रा ने समझने के लिए आँखें उर्ठाइं तो सुवास बोल पड़ा, "याद करो उसकी बीमारी में ही तो हमने के.जी.कैंप के दौरान तुमसे अपने मन की बात कही थी।"

चित्रा हँस पड़ी, "अच्छा तो अगर राहुल बीमार नहीं पड़ता, हम परेशान नहीं होते तो तुम मुझे भी भूल ही जाते। इस बात से मैं भला कैसे खुश हो सकती हूँ?"

सुवास ने कहीं दूर देखते हुए कहा-" चित्रा, राहुल हमारा मानसपुत्रा है, यों ईश्वर को मंजूर था तो हम वैसे भी मिलते, लेकिन एक उत्तरदायित्व से बंधकर ही हम करीब आए थे और यही बात तुममें, मुझे सबसे अच्छी लगी थी।

चित्रा ने गंभीरता के साथ सुवास को देखा, कितना बदल गया था सुवास, औरों से कितनी अलग थी इसकी सोच।

बाहर से सुधांशु ने आवाज लगाई तो चित्रा का ध्यान टूटा। वह पत्रा को टेबल के दराज में रखते हुए बोली, "चेतन ने यह भी लिखा है कि सुवास सर के सिर में अक्सर दर्द रहता था, क्या अभी भी रहता है?"

सुवास ने चित्रा को चिढ़ाते हुए कहा, "बता देना उसे कि सिर पर तो अब तुम सवार रहती हो, फिर दर्द कहाँ रहेगा?"

"हाँ-हाँ यही लिख दूंगी, जैसे चेतन मुझे पहचानता ही नहीं" " हँसती हुई चित्रा उठी, तब तक सुधांशु भी घर के अंदर आ गया। चित्रा अंदर बच्चों की कापियां देख रही थी। सुधांशु ने तिलकुट का एक डिब्बा पकड़ाया-पिछले रविवार गया चला गया था तो तिलकुट लेता आया।

"अच्छा आप घर चले गए थे, छुट्टी मिली थी क्या?"

"नहीं-नहीं छुट्टी कहाँ मिलती, सेकेन्ड सटरडे और सनडे में ही जाकर लौट आया, मि। चोपड़ा को खबर ही नहीं होने दी।"

"मुख्यालय छोड़ने की अनुमति लेकर जाना चाहिए था। नियम तो यही है।" सुवास ने उसकी ओर देखते हुए कहा।

"आप मानते रहे उसका रूल रेगुलेशन। इन प्राइवेट स्कूलों में कुछ भी रूल्स या नियम नहीं चलते।"

"कह तो आप सही रहे लेकिन देखिएगा एक से एक चुगलखोर है हमारे स्कूल में, वे ज़रूर कुछ बोलेंगे।"

"सुवास जी आपका अपना अनुभव भी तो है ना। जब अपने पिताजी की बीमारी में आप गए थे तो लौटकर आने पर कैसे" कारण बताओ"का नोटिस पकड़ा दिया था, हमारे साथ भी यही होगा और क्या?"

सुधांशु को जल्दी जाना था इसलिए चला गया। सुवास चुपचाप बैठा सोचता रहा।

चित्रा जब काम खतम कर लौटी तो सुवास को गंभीर देख पूछने लगी, "क्या हुआ, अभी तो खुश-खुश थे।"

"चित्रा! इन प्राइवेट स्कूलों में काम करने वालों को इन्सान कब समझा जाएगा। सुधांशु ने पुरानी बात याद दिला दी। हम अपने सुख-दुख के समय भी छुट्टी नहीं ले सकते।"

चित्रा ने कहा, "मुझे भी याद है तुमने बताया था कि पिताजी की बीमारी में छुट्टी लेने पर प्रिंसपल नाराज हो गए थे।"

सुवास बताने लगा, "अस्पताल से लौटने पर पिं्रसपल ने बुलाकर पहले चाय पानी के लिए पूछा फिर नकली मुस्कुराहट के साथ कहा-किसी संस्था के रूल्स रेगुलेशन के बारे में आपका क्या ख्याल है?"

मैं थोड़ा चकराया था पूछा, " किस सम्बंध में?

चालाकी के साथ बोले-यही कि ये होने चाहिए या नहीं, या इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं है। मैं थोड़ा चौकन्ना हो गया और कहा कि इनके बगैर तो संस्था एक कदम नहीं चल सकती है।

"फिर भी आप बिना आवेदन पत्रा दिए चले गए."

"मैंने प्रतिवाद किया-नहीं सर मैंने आफिस में आवेदन पत्रा दिया था।"

"आपने मुझसे नहीं कहा था-यह सुनकर चित्रा मेरा दिमाग गरम हो गया फिर भी मैंने समझाना चाहा-सर पिता की बीमारी की खबर और ट्रेन के टाइम में इतना समय नहीं बचा था और सर रूल्स रेगुलेशन किसी भी इम्पलाई की सुविधा के लिए बनते हैं इम्पलाई रूल्स रेगुलेशन के लिए नहीं होते। आपातस्थिति तो हर रूल्स को तोड़ती ही है। किसी की वजह से किसी को परेशानी न हो-यही मुख्य है। मेरे पिताजी की ज़िन्दगी मेरे लिए उस समय सभी परेशानियों से ज़्यादा बड़ी थी।"

सुवास सचमुच बीते दिनों में जाकर आवेश से भर गया। चित्रा ने अपना हाथ सुवास के कंधे पर रख दिया। सुवास ने उस हाथ को अपने हाथ में पकड़ा और धीरे से मुस्कुरा दिया। फिर उसने कहना शुरू किया, "जानती हो चित्रा मैंने तुम्हें पूरी बात नहीं बताई थी, उस समय मि।चोपड़ा मुस्कुराता रहा, लेकिन वह मुझसे खीज गया था, इसलिए फाइल में उलझने का नाटक करने लगा। मैं उस दिन वहाँ से निकलकर क्लास चला गया। आखिरी घंटी में क्लर्क बैनर्जी ने" सोकाउज"नोटिस मेरे हाथों में पकड़ा दिया। मैं एकदम हतप्रभ था इस दोगली नीति पर।"

"छोड़ो सुवास इन बीती बातों को, जीवन में सब कुछ मन का कहाँ होता" चित्रा ने प्रसंग को बीच में ही काटते हुए कहा।

सुवास भी उठ खड़ा हुआ और बाहर सड़क पर टहलने निकल गया। चित्रा ने घर को थोड़ा ठीक-ठाक किया और बालकोनी में जाकर खड़ी हो गई. आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे, नीचे बच्चे शोर मचा रहे थे। बगल के घर में सक्सेना के रिश्तेदार आए हैं, खूब हो हल्ला वहाँ भी हो रहा था। चित्रा ने सोचा परिवार का आना कितना सुखद लगता है। उसके घर में तो कभी कोई आयेगा ही नहीं। इस अभाव की बात वह सुवास से कर उसका जी नहीं दुखाना चाहती। सुवास परिस्थितियों के बीच डटकर खड़ा है, यही उसे सुकून पहुँचाता था।

भागलपुर से कभी-कभी कोई खबर आ जाती थी, ज्यादातर वहाँ की खबर अतुल मामा की चिट्ठी से मिलती थी, या फिर विकास भैया के द्वारा। भागलपुर दंगे के कारण वहाँ जो दहशत का माहौल महीनों छाया रहा उसके कारण भी सुवास इधर चिन्तित रहता था। दरअसल सुवास ने विकास को पत्रा लिखा था कि उसका एक मित्रा भागलपुर का ही है उसके द्वारा कतरनी चूड़ा और भागलपुरी चादर, बिछाने वाला भेज दे। उसी से पता चला कि अखबार और टीवी के द्वारा जो खबरें मिली थीं, स्थिति उससे ज़्यादा खराब थी, लूम वगैरह तबाह हो गए थे, कारीगर काम छोड़ गए थे, व्यापारियों ने पैसा लगाना बंद कर दिया था, इसी से चादर वगैरह सही तरह से नहीं मिलेगी और धान, चूड़ा सबकी तो उस समय फिकर ही किसी को नहीं थी। सप्ताह भर से सुवास गुमसुम था। चित्रा ने जब उसे कुरेदा तो सुवास का दर्द छलक आया, "चित्रा बात सिर्फ़ भागलपुर की नहीं है, मुझे हर कहीं यही अलगाव दीख रहा है। हम कहाँ से एक हैं यह समझने की कोशिश कोई नहीं करता, लेकिन हम अपने ही जैसे लोगों से कहाँ और कैसे अलग हैं यही मुख्य विषय रह गया है, फिर वही झगड़े, वही दंगे, आम लोगों के लिए बस आँसू और तबाही।"

"सुवास मनुष्य के अन्दर कमजोरियां होती हैं लेकिन फिर वही लोग एक दूसरे से प्यार भी करते हैं। जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ेगी ये नासमझी भी दूर होती जाएगी।"

"गलत सोचती हो चित्रा, शिक्षा ही सही नहीं हो रही तो ये शिक्षा क्या भला कर सकती हें। राजनेताओं की रोटियाँ भी इसी पर सेकी जा रही हें। मंडल कमीशन की गरमी में बच्चे झुलस रहे हैं, क्यों कोई इन्हें ठीक तरह से समझाता नहीं, बस अपने-अपने मोहरे बना कर खेल रहे हैं।"

चित्रा ने बातचीत में काटते हुए कहा, "अच्छा तुम्हारी भेंट मिश्राजी से हुई थी क्या?"

सुवास ने जानना चाहा कि ऐसा क्यों पूछ रही है। चित्रा ने बताया कि दिल्ली से शेखर आया है सिन्हा जी का लड़का, उसी से पता चला कि मिश्रा जी और माधवन सर के लड़के मंडल कमीशन के विरोध में सड़क पर उतरे थे, वे आज आठ दिन से जेल में हैं।

सुवास कुछ सोचता हुआ बैठा रहा। चित्रा ने फिर उसे टोका, "तुम्हें जाकर मिश्राजी से पता करना चाहिए."

"' मैं क्या कहूँगा जाकर, इंजीनियर बनने गया आपका बेटा जेल कैसे पहुँच गया, नहीं मैं नहीं जाउ$ंगा।"

"मनोज ऐसा तो नहीं था, पढ़ने में भी अच्छा था, दिल्ली जाकर राजनीति करने लगा।" चित्रा के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गई थी।

"चित्रा मैंने कहा न कि नीति के लिए नीयत चाहिए. ये सारी बातें बाँटने के लिए ही उठती है, हमारे बच्चे स्थिति की गंभीरता को समझे बिना बँट रहे हैं, हम कुछ नहीं कर पा रहे।"

चित्रा का ध्यान घड़ी की ओर गया तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। रात ज़्यादा हो गई थी, चित्रा खाना खिलाने की तैयारी करने लगी।