जटायु के कटे पंख, खण्ड-23 / मृदुला शुक्ला
स्कूल से घर आकर चित्रा ने बिखरे हुए जूठे बर्त्तनों और कपड़ों को ठीक किया। उसका स्वास्थ्य नरम-गरम होता रहता था इसी से जब थोड़ा ठीक लगता वह जल्दी काम निपटाने लगती। उसने सोचा पहले सब्जी बना ले। बच्चों की कापियां भी घर लेती आई थी, जिसे देखना था। सब्जी उतार कर वह आटा गूंथने लगी थी तभी सुवास बाहर से आ गया। आते ही जोर से बोलने लगा, "चित्रा कितनी बार कहा कि मेरे आने तक रसोई में मत जाओ, लेकिन एक तुम हो कि समझना ही नहीं चाहती।"
चित्रा ने एक तरफ चूल्हे पर चाय चढ़ा दी थी। उसे छानकर आई तो सुवास को टोका, "सुवास आप अपने मन के अंदर भरे इस भय को हटा दें। मुझे कुछ नहीं होगा और यह जान लें कि दुनियां में सभी औरतें माँ बनती हें, उस कष्ट को सहने की उसमें ताकत होती है। आपकी माँ के साथ जो हुआ वह एक दुर्घटना थी, उसे भूल जाएँ।"
सुवास अपनी कमजोरी पकड़े जाने पर झेंप गया। लेकिन फिर भी उसने समझाना चाहा, "तुम जितना काम करती हो, स्कूल और घर के बीच दौड़ती रहती हो, इसका तुम्हारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। देखो तुम्हारे पैर सूजे हुए हैं ऐसे में रसोई में खड़ी हो जाती हो।"
चित्रा ने एक नजर अपने पैरों पर डाली फिर बोल उठी, "अच्छा छोड़ो भी, आज स्कूल में ज़्यादा देर हो गई. कार्यकारिणी समिति की मीटिंग में क्या हुआ? प्रदर्शनी का क्या हुआ?"
"हाँ मीटिंग तो हुई, बहुत से प्रस्ताव भी पास हुए, गरीब बच्चों की मदद के लिए बुक बैंक और छात्रावृत्ति की योजना भी बनी। प्रदर्शनी के लिए भी कमिटी बनाई गई."
सुवास ने टेबल पर रखी फाइल चित्रा की ओर बढ़ा दी। चित्रा ने पन्ने पलटे और प्रदर्शनी की तिथि देख कुछ सोचकर मुस्कुरा दी। सुवास ने देखा तो कह ही दिया हाँ वह भी सोच रहा था कि उस समय तो चित्रा मैडम आराम करेगी मुसीबत में उसकी ही जान फँसेगी। चित्रा को एक अलग चिन्ता थी कि वह तो उस समय छुट्टी पर होगी नई भूमिका में, लेकिन उसके विद्यार्थी को प्रदर्शनी के लिए कौन सलाह या निर्देश दे रहा होगा।
वरुण की पत्नी को आते देखा तो ठीक से बैठते हुए बोली, "आइये भाभी जी" वरुण की पत्नी आपरेशन के बाद ठीक हो रही थी। वह हाथ के कटोरे को टेबल पर रखते हुए तबीयत के विषय में पूछने लगी। बातचीत के बाद वह उठते हुए बोलने लगी, "कढ़ी बनाई थी तो सोचा कि अभी ही दे आउ$ं, आपको तो अच्छा लगता है ना।"
चित्रा हँसते हुए वरुण की पत्नी के हाथों को पकड़ मुस्कुरा पड़ी "भाभी जी आप तो खुद ही कमजोर हैं फिर भी मेरा कितना ख्याल रखती हैं, उस दिन गरम-गरम आलू चॉप भी सुरभि देकर गई थी। मैं तो कुछ सही तरीके से बना भी नहीं पाती।"
"क्या मैडम जी आप सोचती है यह सब। गाँव घर में तो दूजीवा होने पर कितना जतन से रखा जाता है, जो खाने का मन करे बोल दिया कीजिए."
चित्रा थोड़ा शरमा गई. जाते-जाते वह कहती गई कि कोई परेशानी हो तो बता देगी, क्योंकि अब वह बिल्कुल ठीक है। चित्रा ने उठते हुए कहा, "हाँ भाभी जी आपलोगों का ही तो सहारा है।"
सुवास कमरे में बैठा स्कूल के ही काम कर रहा था। चित्रा ने आकर टोका, "फिर काम शुरू हो गया, अभी तक तो वही सब कर रहे थे।"
सुवास ने फाइल एक ओर सरका दी और हँसने लगा। सच ही इन प्राइवेट स्कूलों में, जहाँ भविष्य की कोई गारण्टी नहीं, मैनेजमेंट को कब कौन-सी बात बुरी लग जाए और महीने भर की नोटिस पर निकाल बाहर करे पता नहीं। लेकिन काम का कोई अन्त नहीं। अगर अभी नहीं करेगा तो ये स्कूल उसे चित्रा के साथ हास्पीटल भी नहीं जाने देगा। सुवास ने चित्रा को देखा और आँखों के इशारे से बैठा लिया।
"चित्रा अपनी तकलीफ छिपाना मत, मैंने एम्बुलेंस, स्टाफ, ब्लडडोनेट करने वाले का नाम पता सब रख लिया है। बस तुम अपना ख्याल रखना।"
चित्रा का मन भी घबराया-सा रहता था लेकिन सुवास के इस रखरखाव और संवेदनशीलता से अपने को मजबूत कर लेती, फिर भी उसकी आँखें भीग गईं और वह उसके साथ सट गई.
आखिर वह दिन भी आया जब अस्पताल में सुवास एकदम किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा खड़ा था। स्कूल के स्टाफ के साथ वरुण भी नवजात शिशु को देख रहे थे। वहीं की कम्पनी के हास्पीटल में ही चित्रा भरती हुई और सुवास के दोस्तों ने सुवास को परेशान नहीं होने दिया। औरेलिया और सीमा आई तो चुहलबाजी भी शुरू हो गई. सुवास अभी भी एकदम चुप बैठा था, वरुण की पत्नी ने जाकर उसे कहा, "अब आप किस चिन्ता में बैठे हैं, सब कुछ ठीक है।"
"भाभी जी चित्रा कैसी है?" सुवास की बेचैनी का आभास पाकर उसने समझाया-एकदम ठीक है, बेटे को पाकर माँं अपना दुख भूल जाती है। "
वही खींचकर सुवास को अन्दर ले गई और कहा कि "अपने बेटे को तो देखिए, मिठाई बाद में खिला दीजिएगा।"
सबके जाने के बाद सुवास ने काँपते हाथों से अपने बेटे को उठाया था। बच्चा अपनी माँ से सटा निश्चिंत सो रहा था। चित्रा कमजोर और थकी दीख रही थी, लेकिन माँ बनने की प्रसन्नता पीले चेहरे से भी छलक रही थी।
गोद में अपने बेटे को उठाये सुवास सोच रहा था कि एक पिता बनने का सुख, जिम्मेवारी और चिंता सभी से उसके पापा भी गुजरे होंगे लेकिन एक आँधी के आने से सब कुछ बिखर गया होगा। उसने चोंककर चित्रा को देखा, उसकी आँखें बंद थी। वह बोल उठा, "चित्रा तुम ठीक हो ना।"
चित्रा ने आँखें खोल दीं, मद्धिम आवाज में बोली-"सुवास मैं बिल्कुल सही सलामत, तुम्हारे बेटे के साथ तुम्हारे सामने हूँ। अब आगे लगने वाली ड्यूटी के बारे में सोचो और वहम को निकाल फेंको।"
तब तक नर्स आ गई. सुवास ने धीरे से बच्चे को चित्रा के बेड की बगल में बने पालने में सुला दिया और बाहर निकल गया।
बाहर आकर उसने आसमान देखा, ढेर सारे तारे टिमटिमा रहे थे। हास्पीटल के लॉन में आकर उसने अपने सिर को उ$पर उठाते हुए मन में कहा, "मैं नहीं जानता हूँ कि तुम कौन-सा तारा बनकर मुझे देखती हो लेकिन आज मेरे घर में जो सुवास आया है, वह माँ के आँचल में सोया हुआ है, मेरी और तुम्हारी तरह उसकी नियति नहीं होगी यह तुम्हारा ही आशीष है।"
रात में चित्रा के पास रुकने के लिये चिन्ता और आशा घर से दुबारा आ गई तो सुवास भी घर जाने से पहले चित्रा को देखने अन्दर गया। चित्रा ने धीरे से पूछा, "बाहर क्या कर रहे थे?"
सुवास ने जवाब दिया, "भगवान को धन्यवाद देने गया था।"
चित्रा मुस्कुरा दी, "भगवान को या आसमान के तारों को जिनके भरोसे मुझे छोड़कर कहीं जाते हो।"
सुवास ने इस नई चित्रा को देखा जो सम्पूर्ण लग रही थी। वह कुछ पल खोया खोया-सा खड़ा रहा, फिर कोमलता से भर मुस्कुरा दिया।
सुवास ने चित्रा और बच्चों की देखभाल के लिए दिनभर के लिए एक दाई की व्यवस्था कर दी थी, लेकिन घर आने के बाद से सुधांशु की माँ, वरुण की पत्नी और अन्य शिक्षक की पत्नी सबने मिलकर चित्रा को हाथों हाथ लिया। घर में मेला-सा लगा रहता। सुवास की जिम्मेवारियाँ भी बढ़ गई थीं। स्कूल के सारे कार्यक्रम तय समय पर होने थे, जिससे सुवास को फुरसत नहीं मिल पा रही थी। वह चाह कर भी अपने बेटे और पत्नी के पास नहीं बैठ पाता तब उसे महसूस होता कि उसके पिता जी भी इसी तरह उत्तरदायित्व और व्यस्तता के कारण उसे समय नहीं दे पाते होंगे, जिसे वह अपनी उपेक्षा समझता रहा था। सच तो यह था कि सुवास पिता बनकर बदल रहा था।