जटायु के कटे पंख, खण्ड-24 / मृदुला शुक्ला

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सुवास घर में बैठा स्कूल में होने वाली प्रदर्शनी और उससे सम्बंधित कामों की तैयारी में पेपर तैयार कर रहा था-कितने कमरे लगेंगे, कितने टेबल टूल या बाहर स्टॉल के लिए टेन्ट या बच्चों के गेम की लम्बी चौड़ी फेहरिश्त बनाने में वह सुधांशु और वरुण के साथ जूझ रहा था। तभी स्टेशन वैन घर के सामने रुकी और उससे मौसी, पिताजी, वर्षा सभी उतरने लगे। सुवास टीचर्स फ्लैट के दूसरी मंजिल में रहता था। सुवास ने उ$पर से ही झाँक कर देखा और थोड़ा सोचने लगा कि इनके लिए स्टेशन बैन किसने बुक कराई होगी? तब तक वरुण हँसने लगा। बोला कि "जाइये अब आप क्या काम कर पायेंगे।"

"अच्छा वरुण इन्हें पता कैसे चला और बिना सूचना के ये आ कैसे सकते थे, ये तो कभी आए भी नहीं थे। पिताजी की भी तबीयत ठीक नहीं रहती।" सुवास को सोचता देख सुधांशु ने कहा-सभी बात अभी ही कर लेंगे। शादी की बात नहीं बतायी तो ठीक था लेकिन ऐसी खबर तो उन तक पहुँचनी ही चाहिए. "

सुवास धीरे से मुस्कुरा पड़ा, "अच्छा समझा ये सब आप लोगों ने किया है।"

सुवास तेजी से नीचे उतर चुका था। पिताजी के हाथों से सामान लेकर वह रास्ता दिखाते हुए आगे बढ़ा। बाकी सामान वरुण और सुधांशु लेकर आए.

चित्रा नाश्ता कर आराम कर रही थी। मुन्ना सोया था तभी हड़बड़ाती हुई वर्षा कमरे के अन्दर पहुँच गई, "भाभी मैं आ गई, मुन्ना कैसा है, अरे कितना सुन्दर है, एकदम आपके जैसा, लेकिन कितना छोटा है, अभी सो रहा है, इसे जगा दूं।"

एक पर एक सवालों के साथ वर्षा आई तो चित्रा हड़बड़ा गई. उसने पहले वर्षा को नहीं ंदेखा था, लेकिन उसकी तस्वीर सुवास के पास देखी थी, खासकर जब कॉलेज में पढ़ रही थी। वह धीरे पलंग से उठ खड़ी हो गई, प्यार से उसका हाथ पकड़ा और पूछा, "तुम कैसी आई?"

तब तक सुवास अपनी मौसी और पिताजी को लेकर चित्रा के कमरे में पहंँुच चुका था। चित्रा ने सिर पर आँचल रख दोनों को प्रणाम किया फिर रसोई में काम करने वाली को चाय नाश्ता बनाने को कहा। मौसी ने जोर से आवाज दी, "दुलहिन तुम अभी रसोई में नहीं जाओगी हमलोग अभी तुम्हारे हाथ का बना खाएँगे भी नहीं। इक्कीस दिन बाद ही हम तुम्हारे हाथ का बना खाएँगे। ऐसे भी यह समय आराम का होता है।"

चित्रा ने असमंजस की स्थिति में सुवास की ओर देखा-तो उसने भी ना समझने की मुद्रा में कंधे झटक दिए. चित्रा धीरे से अपने कमरे में आ गई थी। उसके बाद तो सुवास को लगा कि उसका फ्लैट ही जीतपुर का घर बन गया था, लेकिन गुमसुम और उदास-सा नहीं हँसता, खिलखिलाता। वर्षा अब पिताजी से डरती नहीं थी, पिताजी में भी बहुत बदलाव आए थे। मौसी तो अपनी बहू और पोते की देखभाल में ऐसी लगी रहती कि चित्रा कभी-कभी सोच में पड़ जाती कि ये अपने लिये तो कभी वक्त निकाल ही नहीं पाती हैं। कितनी नसीहतें, कितनी सीख, कितने तरह से संभाल-ये खाना, ये नहीं खाना, ऐसे बैठना, ऐसे उठना और सुवास के बचपन की घटनाएँ वह बताती रहती। चित्रा भ्रम में पड़ जाती कि सुवास ने बताया था कि मौसी बोलती ही नहीं है, न पिताजी किसी बात में हस्तक्षेप करते हैं। यहाँ तो मौसी बिल्कुल अलग थी और पिताजी ने भी आते ही बाज़ार का काम संभाल लिया था। समय कैसे-कैसे सबको बदल कर रख देता है, यह सोचकर वह मुस्कुरा पड़ती। घर के अंदर सास का संरक्षण और ननद की चटपटी बातें, चित्रा को लगा वह व्यर्थ ही डर रही थी। अकेलेपन को नियति मान बैठी थी, सुवास के परिवार वाले भी उसी की तरह अच्छे हैं। सुवास स्कूल में बेतरह व्यस्त था। मौसी ने सुवास को सुनाते हुए कहा कि चाहे स्कूल में कितना भी काम हो लेकिन परसों मुन्ना का छठी उत्सव होगा। घर का पहला बच्चा है और पितरों को न्योता खबर नहीं ये कैसे हो सकता है। सुवास ने चित्रा से कहा कि "मुझे कुछ नहीं पता इस सबका, जितने रुपए की ज़रूरत होगी माँ से पूछकर बता देना।" मौसी वहीं पर खड़ी थी हँस पड़ी, "अब पोते की छठी के लिए भी हम तुमसे पैसे लेंगे क्या, दादा भी कमाते हैं।"

सुवास गर्दन झुकाकर स्कूल के लिए निकल गया। हल्दी और अदरक का हलवा, बत्तीसा, सोंठ पता नहीं कितनी चीजें चित्रा के सामने वह ला-ला रख देती थी और उसे खिलाकर तृप्त हो रही थी। चित्रा मौसी की इस प्रसन्नता के आगे झुकी जा रही थी। छठी उत्सव भी इस अंग्रेज़ी स्कूल के माहौल वाले परिसर में अपने ही भागलपुर वाले अन्दाज में कर मौसी पिताजी दोनों खुश थे। मौसी ने चित्रा को गोटे वाली पीली साड़ी पहनाई, काजल पहनाने के लिए वर्षा को नेग दिया और अपनी बड़ी-सी नथ चित्रा के नाक में पहना कर मानो उनलोगों ने उसे बिहारी बहू बना अपने अरमान पूरे कर लिये। कांसे की थाली बजा पितरों को नये मेहमान के आने की खबर भी दे दी। छठी माँ का पूजा कर उसके लिए आशीर्वाद मांगा। पड़ोस में बसे अलग-अलग प्रांत के शिक्षक परिवारों ने इसका आनंद लिया और चित्रा के भाग्य को भी सराहा। सुवास भी चित्रा के इस रूप को देख चकित था कि स्टाफ रूम में छोटी-सी बात पर इतने तर्क करने वाली चित्रा कैसे बिहार की मिट्टी में घुली मिली जा रही थी। सोचा कि इतना बड़ा मन नारी ही रख सकती है कि सब कुछ अपना बना लेती है।

उस दिन सुवास घर आया तो मौसी, वरुण के यहाँ गई थी, वर्षा दूसरे कमरे में सो रही थी, पिताजी बाहर टीवी देख रहे थे। वह अपने कमरे में आया तो चित्रा मुन्ने के कपड़े तह कर रही थी। काम तो चित्रा पहले भी करती थी, लेकिन आज कल एकदम गृहणी और माँ लगने लगी थी। सुवास एकटक उसे देखने लगा। चित्रा लजाकर हँस पड़ी, "ऐसे क्यों देख रहे हो"

"कभी ऐसा देखा नहीं, तुम कितनी बदल गई हो चित्रा।"

"कैसे?"

"क्योंकि अब मेरा ध्यान नहीं रखती हो।"

"यह तो मैं भी कह सकती हूँ।"

"लेकिन तुम्हारी देखभाल तो सभी लोग कर रहे हैं ना?"

चित्रा सुवास के करीब आ गई और उसने उसके बालों को विखरा दिया, फिर उसकी आँखों में आँखें डाल बोली, "मैं कभी नहीं बदल सकती सुवास। हाँ तुम्हारे परिवार का प्यार देख मुझे तुम पर घमण्ड होता है।"

सुवास अब मुन्ना के करीब बैठ गया था उसने चित्रा से कहा, "अपना ध्यान रखा करो, रातभर इसके साथ जागती हो।"

"मैं सोच रही थी कि माँ और पिताजी ने तो सारे फर्ज पूरे कर लिए हमें उनलोगों के लिए कपड़े वगैरह देने चाहिए. मैं अपने कान के बुन्दे तो वर्षा को काजल पहनाते समय ही दे रही थी, लेकिन माँ ने देने नहीं दिए. जाते समय दे दूंगी।"

"मैंने तुम्हें एक नई साड़ी भी अभी तक लाकर नहीं दी है मैं क्या कहूँ।"

"सुवास मैं और तुम का झगड़ा छोड़ो, अब हम बड़े हो गए हैं, जो भी करना है हमें ही करना है।"

दो दिन बाद जब वर्माजी जाने लगे तो अपनी पत्नी की ओर देखकर बोले, "अब इस माया से मुक्त हो दादी जी."

मौसी की आँखें छलछला आईं, "इस बार मुन्ना की बड़ी याद आएगी, दुलहिन अच्छी तरह से संभालना, बच्चा बहुत सुकुमार होता है।"

चित्रा की भी आँखें भरी हुई थीं। जब सब लोग चले गए तो घर फिर से सूना हो गया था। दस पन्द्रह दिन तो चित्रा जैसे दूसरी दुनिया में थी। चित्रा अब धीरे-धीरे घर के काम करने लगी थी, लेकिन परिवार की छाया से बिल्कुल भीग गई थी।

स्टेशन से सभी को बिठाकर जब सुवास लौटा तो वह भी उदास और खाली-सा आकर बालकोनी में ही बैठ गया। चित्रा जब मुन्ने के रोने पर उसे चुप कराने बाहर लेकर निकली तो सुवास को खामोश बैठे देखा। उसने बच्चे को उसकी गोद में देकर कहा, "इसकी दादी को पहुँचा दिया है तो लो अब अपनी ड्यूटी में लग जाओ तो मैं ज़रा खाना बना लूं।"

सुवास ने बाँहों में उसे उठाते हुए कहा, "तुम्हारे दादाजी का आदेश है कि जल्दी से तुम्हारा नाम रखा जाए नहीं तो बस मुन्ना ही रह जाएगा।"

सुवास के लिए चाय और अपने लिए हार्लिक्स लेकर चित्रा सामने ही बैठ गई और पूछने लगी, "तो क्या सोचा है इसका नाम?"

"अरे तुम तो खाना बनाने के नाम पर इसे मुझे देकर गई थी ना, अभी गप्पे मारने बैठ गई."

चित्रा हँसने लगी तो सुवास ने कहा, "चित्रा अभी तक मैं जैसा भी था जो भी था सब तुम्हें पता है। लेकिन इसके आने से जीवन में कुछ अच्छे संकेत मिले हैं। ज़िन्दगी से एक सकारात्मक रिश्ता जुड़ रहा है। मैं इसका नाम संकेत ही रखूंगा, तुम कुछ और चाहो तो बोलो।"

"तुमने सोचा है तो ठीक ही सोचा है। जीवनमें जो भी नया होगा शुभ होगा अच्छा होगा, यही बताने आया है हमारा बेटा।"

दोनों की बातचीत के बीच ही सुवास की गोदी में ही संकेत सो गया था। माँ बाप सपने बुनते रहे रात ढलती रही। तब उन्हें होश आया कि खाना तो बना ही नहीं। फिर हँसकर वे उठे, बच्चे को सुलाया और ब्रेड दूध खाकर ही सोने चले गए.