जटायु के कटे पंख, खण्ड-25 / मृदुला शुक्ला
चित्रा की "मैटरनीटी लीव" खत्म हो गई थी और उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया था। स्कूल के कार्यभार से वह थक जाती थी, लेकिन उसकी उपस्थिति में संकेत को संभालने वाली लड़की अपने घर चली जाती थी, इसलिए उसे घर के काम जल्दी निपटाने पड़ते थे। सुवास की मदद से वह थोड़ा आराम कर पाती थी। फिर भी बच्चे की देखभाल में वह कमजोर हो गई थी, यह सुवास भी समझ रहा था।
रात से संकेत की तबीयत खराब थी और चित्रा का मन स्कूल जाने का नहीं हो रहा था, इसी से छुट्टी का आवेदन पत्रा भेज दिया था। लेकिन आधे घण्टे बाद स्कूल से चपरासी आया कि नाइन्थ क्लास की मौखिक परीक्षा होने के कारण उसका स्कूल आना ज़रूरी है। चित्रा का मन रो उठा। उसे लगा कि नौकरी छोड़ दे। लेकिन पैसों की ज़रूरत इस नये-नये बसे घर को थी, वर्षा की भी जिम्मेवारी थी, इसलिए इस नौकरी को चलाना ही था। तनाव से भरी वह, बच्चे संभालने वाली लड़की को ही सबकुछ समझा कर स्कूल पहुँची। औरेलिया के पूछने पर उसकी आँखें भर आई. कुरेदने पर बोलने लगी, "पता नहीं मैं सही कर रही हूँ या नहीं, लेकिन कभी-कभी मन में बड़ा अपराध बोध होता है कि मैं माँ के हिस्से का पूरा प्यार नहीं दे पा रही हूँ।"
"ग़लत सोचती हो तुम, तुम्हारा प्यार ही उसके साथ है और जीवन में तो ऐसे रास्ते आते ही हैं जो बड़े कठिन होते हैं। औरतों में ही ताकत होती है कि वह एक साथ सारे काम कर सके."
"औरेलिया यह भी सही है कि अपने इन विद्यार्थियों को भी हम परीक्षा के बीच तो नहीं छोड़ सकते, ये भी तो अपने ही बच्चे हैं, लेकिन इस दोराहे पर मैं क्या करूं?" चित्रा थोड़ी सहज हुई.
"देखो चित्रा बच्चों की तबीयत में ऐसे थोड़े बहुत उतार चढ़ाव आते हैं, तुम एक बार घर जाकर देख आओ, अब तक ठीक हो गया होगा।" जॉन रोज औरेलिया के साथ टिफिन के लिए मोटरसाइकिल से घर आता था। औरेलिया ने जॉन से जाकर बात की और चित्रा को उसके साथ घर भेज दिया।
चित्रा घर पहुँची तो वरुण की पत्नी और स्नेहा, संकेत को अपने घर ले आई थी और वह मजे से सो रहा था। बुखार उतर चुका था, छाती में कफ की घरघराहट भी नहीं थी। थोड़ी देर में जगा तो उसके कपड़े बदल दूध पिला दिया। उसे खेलते देख चित्रा के जी में जी आया और फिर स्कूल के लिए जॉन के साथ ही लौट गई. सुवास से मिलकर चित्रा ने बताया कि अब चिन्ता की कोई बात नहीं है, स्नेहा और उसकी मम्मी ने उसे संभाल लिया है। धीरे-धीरे चित्रा घर और स्कूल के बीच तालमेल बिठाने में सफल हो रही थी। दोपहर को स्कूल से आकर पहले संकेत को ही समय देती थी। उस दिन भी उसे लेकर बालकोनी में खड़ी थी। उसके फ्लैट के सामने सड़क की दूसरी ओर वन विभाग का छोटा-सा पार्क था। जहाँ सुबह लोग घूमने जाते थे। आज वहाँ अजीब-सा कोलाहल सुनाई दे रहा था। पेड़ों की आड़ से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन झारखंड आंदोलनकारियों के झंडे, डंडे और नारों की गूंज से लग रहा था कि आज कॉलोनी के अन्दर भी कुछ हो रहा था। सुवास स्कूल से देर से आता था। उसने ही आकर बताया कि जयप्रकाश पार्क के सारे अशोक के पेड़ों को काटकर सड़क पर बिछा दिया है और फूलों की क्यारियों में हल चलाकर तीसी बो दिया गया है। सुवास ने गंभीरता से कहा कि आंदोलनकारी तो चले गए हैं, लेकिन उस उजड़े, बिखरे और लाशों की तरह बिछे अशोक, आम, गुलमोहर के पेड़ मन को दुखी कर देते हैं। पार्क के तालाबों में खिले कमल पर ढेरों मिट्टी डाल दी है। शाम को चित्रा अपने पड़ोस और सुवास के साथ ही जब वहाँ देखने पहुँची तो उसकी आँखों में पानी तैर आया। तहस नहस किया हुआ वह पार्क अंग्रेजों ने बनवाया था, लेकिन आज वह हिन्दुस्तानियों का था। लेकिन बिहार, झारखंड के झगड़े में सबकुछ नष्ट हो रहा था। मूर्तियॉं टूटी पड़ी थीं। फब्बारे का संगमरमरी हिस्सा खंडित हो गया था। चित्रा लौट आई गुमसुम सी, कुछ सोचती हुई, उसने रात में खाना नहीं बनाया। सुवास ने चित्रा को समझाया, "झारखंडवासियों को ठगा गया है, ऐसा इन्हें लगता है, इसलिए ही उनके मन में क्रोध है, अधिकार खोने का दर्द है, कुंठा है, अपनी बात नहीं सुने जाने की खीज है ये सब कहीं तो निकलेगा।"
"लेकिन सुवास यह तरीका सही लगता है कि जिसे बनाने में बरसों लगते हैं? ये पेड़ तो चाहकर भी अपनी मर्जी से महीने भर में इतने बड़े नहीं किए जा सकते, इनको काट रहे हैं।"
"ये तो पेड़ों को बचाने वाले थे, लेकिन जब इन्हें लगता है कि इनकी ही चीज इनकी नहीं रही तभी तो ये ऐसा करने पर उतर आए."
"मैं नहीं मानती इसे, प्रकृति से प्रेम करने वाला अपनी ही सृष्टि को नुकसान नहीं पहुँचाता, इसमें और लोग शामिल हैं, जिन्हें कुछ और चाहिए."
"तुम्हारी बात भी सही है, जिस दिन तुम्हें अस्पताल से लेकर लौट रहा था, रास्ते में तुम्हारी चिंता के सामने मुझे यह आंदोलन भी व्यर्थ लग रहा था। लेकिन जोश, जुनून और आक्रोश में आंदोलन, अपनी दिशा स्वयं तय करने लगता है। एक तरफ इनकी वर्षों की मांग है, दूसरी तरफ लालू यादव कह रहे हैं कि उनकी लाश पर झारखंड बनेगा। यह कैसी समझदारी है।"
चित्रा उदास होकर कमरे में जाकर लेट गई और सुवास किताबों के पन्ने उलटता सोचता रहा कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विश्वास और प्रेम के बीच दोनों राज्यों का बँटवारा हो। आखिर साझा इतिहास रहा है उनका। भौगोलिक सीमाएँ प्रांतों के लिए बने तो ठीक लेकिन मन में बनती जा रही सीमाओं से डर लगता था।
अगले दिन आंदोलन का दूसरा रूप था। स्कूलों को बंद करा दिया गया। शिक्षक को गेट के बाहर रोक दिया, बच्चों को भी गेट से बाहर निकाल कर घर जाने को मजबूर कर दिया गया। जो बच्चे स्कूल बस से जाते थे, वे तो निकल गए. आसपास के बच्चे भी पैदल चले गए. लेकिन जिन छोटे बच्चों को माता पिता पहुँचाते और ले जाते थे या जो दूसरी बसों से आते थे, उनकी जिम्मेवारी स्कूल पर थी। कुछ सीनियर छात्रा अपनी जान पहचान के बच्चों को लेकर गए. कुछ को दूसरी बार बस आने पर उससे छोड़ा गया। उस दिन बड़ी अस्तव्यस्तता रही। चित्रा चाहकर भी समय पर घर नहीं पहुँच सकी। लड़कियाँ रह गई थीं, जिन्हें छोड़ा भी नहीं जा सकता था, न अनजान लोगों के साथ भेजा जा सकता था। संकेत का घर में रो-रोकर बुरा हाल था। अब वह माँ को पहचानने लगा था और ठीक समय पर उसे माँ की ज़रूरत भी महसूस होने लगी थी, इस समय वह बोतल से दूध नहीं पीता था। सुवास उसे लेकर टहलाता रहा और वह भूखा ही सो गया। विद्यार्थियों को पहुँचाने वाली बस, जगह-जगह जाम में फँसती निकलती हुई तीसरी बारी में जब लड़कियों को घर पहुँचाने गई तब चित्रा तीन शिक्षिकाओं के साथ अपने घर के लिए, स्कूल के बाहर बने शेड से निकली। चित्रा का भी बुरा हाल था। मातृत्व से छाती फट रही थी और उत्तरदायित्व के बोझ और भूख, प्यास से सिर में दर्द हो रहा था। घर पहुँचते ही सुवास ने हाथ के इशारे से बताया कि संकेत अभी-अभी सोया है पहले तुम कुछ खा लो, फिर बच्चे को जगाना। चित्रा ने संकेत के कमरे में जाते हुए कहा, "सुवास मुझे एक कप चाय पिला दो मैं मुन्ने के भूखे रहते नहीं खा सकूंगी।" सुवास चाय बनाने चला गया और चित्रा बच्चे के पास जाकर लेटी कि संकेत हुमक कर उसकी छाती से लग गया, चित्रा ने इसे आँचल से ढक लिया। सुवास जब चाय लेकर आया तो माँ बेटे को देख मुस्कुरा पड़ा।
अगली सुबह सुवास ने चित्रा से बात की, "चित्रा अगर तुम्हें तकलीफ हो रही हो तो तुम नौकरी छोड़ सकती हो।"
"सुवास मैंने तीन महीने की 'मैटरनीटी लीव' ली है यानी बिना काम के पैसे लिए हैं और अब बच्चों की परीक्षा के पहले मैं नौकरी छोड़ दूं तो क्या यह बेईमानी नहीं होगी। अगर छोड़ना ही होता तो तभी छोड़ देती। फिर और भी तो शिक्षिकाएँ यहाँ माँ बनकर नौकरी कर रही हैं।"
"मैं तुम्हारी परेशानी देखकर कह रहा था"
"हाँ एक बार मुझे भी ऐसा लगा था, तब औरेलिया ने मुझे समझाया कि जो परिवार नहीं चला सकती वह स्कूल क्या चलाएगी? अपने बच्चे का प्यार तो सच है लेकिन इतने बच्चों का भविष्य भी सच है, वे मुझे प्यार करते हैं, विश्वास करते हैं।"
सुवास ने चित्रा के हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा, "इसी से तो तुम मुझे सबसे अलग लगती हो। अच्छा तुम्हारे चेतन और राहुल का क्या हाल है? क्या अजीब बात है कि बचपन में, भागलपुर में मेरे दोस्त का नाम भी चेतन था।"
" चेतन मजे में है, वह फौज में जाना चाहता है, चाहे प्लस टू पास करके चाहे स्नातक के बाद। कहता है देश की सरहद पर जाकर सारी सरहदें मिट जाती हैं।
"अच्छा बड़ी-बड़ी बात बोलने यानी लिखने लगा है।"
"हाँ अब बड़ा हो गया, राहुल भी क्लास में अच्छा कर रहा है, जेनरल नॉलेज टेस्ट में सबसे जयादा नंबर मिले थे, उसे स्कालरशिप भी मिलेगी।"
"हाँं, तुम्हारे तो सभी विद्यार्थी समझदार हैं, मेरा विद्यार्थी जितेन्द्र महतो तो बोर्ड में सेकेन्ड डीविजन से आगे नहीं जा पायेगा।" सुवास थोड़ा गंभीर हो गया।
"हमलोग भी घर में भी स्कूल की ही बात लेकर बैठ जाते हैं।" चित्रा जोर से हँसने लगी।
घर की चर्चा से सुवास को याद आया, "अरे भूल गया था, आज घर से चिट्ठी आई थी। बादल की शादी तय हो गई है।"
चित्रा ने खुश होते हुए पूछा, "अच्छा शादी कब है?"
सुवास बोलने लगा, "मैंने यहाँ भी पिताजी को बता दिया था कि गरमी छुट्टी में ही हम जा सकेंगे।"
"क्या हमारा जाना नहीं हो सकेगा?"
"परेशानी तो होगी, लेकिन मैंने ऐसा तो नहीं कहा-" सुवास के कहते-कहते उसके दोस्त लोग आ गए.
"सुवास जी अब तो आप बाहर दीखते ही नहीं"
"हाँ भई, अब हम जिम्मेवार हो गए हैं।"
"क्या मतलब है आपका, हमलोग गैरजिम्मेदार हैं।"
"सुधांशु जी ये जिम्मेदार पिता कहना चाहते होंगे" रसोई की ओर जाती चित्रा ने कहा।
"चित्रा भाभी आप तो इन्हें हर समय बचाने में लगी रहती हैं" नवीन ने पीछे से चित्रा को टोका।
चित्रा चाय चढ़ाकर लौटी तो हँसते हुए बोली, "अरे नवीनजी आप तो बड़ी जल्दी समझ गए, यही बात ज़रा सुवासजी को समझा दीजिए ना।" नवीन ने छह माह पहले ही स्कूल में काम शुरू किया था।
संकेत के जगने पर वह सोने के कमरे की ओर दौड़ी तो सुवास ने कहा, "तुम चाय बनाओ मैं उसे ले आता हूँ, इतने सारे चाचा लोग आए हैं, थोड़ी देर वे संभाल ही लेंगे।"
सबने ठहाका लगाया, "मुफ्त में अब सुवास सर चाय भी नहीं पिलाएंगे।"
माहौल गर्मजोशी से भर गया।