जटायु के कटे पंख, खण्ड-26 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादल की शादी तय हो गई थी। स्कूल में छुट्टियां नहीं हुई थीं, सुवास का जाना मुश्किल लग रहा था। अचानक एक दिन बादल नौकरी से सीधे गोमिया आ गया। उसे सुबह-सुबह आते देख सुवास पूछ बैठा, "सब ठीक तो है ना?"

बादल ने अपनी अटैची अन्दर रखते हुए कहा, "सब ठीक है, आपलोगों को ले जाने आया हूँ।"

नाश्ता पानी हो चुकने के बाद सुवास ने अपनी दुविधा बताई, "इच्छा तो हमलोगों की भी बहुत है लेकिन प्राइवेट स्कूल में काम इस तरह का फैला होता है कि अपनी मर्जी से छुट्टी भी नहीं ली जा सकती। चित्रा का क्लास में सिलेवस पूरा नहीं हो पाया था, समझ में नहीं आ रहा कैसे जाना होगा।"

बादल ने अपने कपड़े निकाल कर रखा और चाभी वाला खिलौना संकेत को दिखाकर उसे खेला रहा था। वहीं से बोला, "मैं ये सब नहीं जानता। आपलोग नहीं जायेंगे तो मैं भी नहीं जाउ$ंगा।"

चित्रा नहाकर निकली तो बादल को देख बोल पड़ी, "अरे बादल आप यहाँ भतीजे के साथ खेल रहे हैं और वहाँ शादी कौन करेगा?"

बादल कुर्सी पर बैठ गया फिर बोला, "भैया आपने तो अपनी शादी में आने से मना कर दिया था, फिर भी मैंने आपकी मदद की थी, अब मेरी शादी में भी आपलोग न आएँ, यह तो सरासर बेईमानी है।"

चित्रा थोड़ी देर चुप हो गई फिर कहा, "जाने की इच्छा तो हमलोगों की भी बहुत है लेकिन छुट्टी की समस्या है और अपनी भी नैतिक जिम्मेदारी है कि संकेत के जन्म के समय ली गई छुट्टी के कारण स्कूल में सिलेवस पूरा नहीं कर पाई हूँ, ऐसे में जाना अच्छा लगेगा बोलिए?"

"मैं यह सब कुछ नहीं जानता हूँ, जाना तो है ही और अभी भूख लगी हैं, नाश्ता लाइए."

रविवार का दिन था इसलिए सब निश्चिंत थे।

शाम होते-होते बादल ने भाई भाभी को अपने साथ जाने के लिए राजी कर लिया। दूसरे दिन उनदोनों ने अपनी छुट्टी का आवेदन पत्रा दिया और जीतपुर के लिए निकल गए. सुवास जानता था कि ज़्यादा देर रुकने से स्कूल में फिर बहस छिड़ेगी और निकलते समय मन खराब होगा।

चित्रा पहली बार अपने बच्चे को लेकर ससुराल की देहरी पर पहुँची तो मन का कोना उस कम्पनी के र्क्वाटर के लिए भी भावों से भींग गया, जहाँ उसका सुवास बचपन से जवानी तक उठता बैठता ओर उदास हो जाया करता था।

विवाह के घर में शोर शराबा, रिश्तेदारों की आवाजाही और रस्म रिवाजों का दौर चल रहा था। वर्मा जी भी अपने बेटे, बहू और पोते को अपने आंगन में पाकर प्रसन्नचित हो गए. संकेत लोगों की गोदियों में घूमता हुआ, कहाँ-कहाँ चला जाता, चित्रा जान भी नहीं पाती। चित्रा सास के साथ रसोई घर में लगी थी तभी गाँव से रिश्तेदार आए थे, सास ने चित्रा को समझाया कि तुम्हारे यहाँ तो परदा नहीं होता होगा, लेकिन यहाँ तुम बड़ों के सामने सिर पर आँचल रखा करना। चित्रा उत्सुकता से सबकुछ देखती और इस नए घर में घुलने मिलने का प्रयास कर रही थी।

दरवाजे पर बाजे वाले आ गए थे। सुवास उनलोगों को नाश्ता करने के प्रबंध में जुटा हुआ था। तभी भागलपुर से बड़ी मामी, मामा, विकास और उसकी पत्नी अपने बच्चों के साथ आए. सुवास जल्दी से वापस लौटा। हाथ से सामान लेते हुए मामी से पूछा, "मामी और लेाग नहीं आए, नानी भी नहीं आई."

मामी हँसने लगी, "मैं तो आई, मेरे बारे में कुछ नहीं पूछा नानी परसों आएँगी, बहू भोज के दिन सारे लेाग पहुँचेंगे। अब नानी को आने जाने में कष्ट होता है अतुल अपनी गाड़ी से लेता आएगा।"

सुवास खुश हो गया, "अच्छा अतुल मामा को फुरसत मिल गई, तब तो बड़ा अच्छा लगेगा।"

सुवास को लगा इतने दिन तक जो एक धुंधलका था इस पारिवारिक समारोह ने दूर कर दिया।

हँसते खेलते पाँच दिन गुजर गए और सुवास परिवार समेत गोमिया लौट आया।

चित्रा और संकेत की तबीयत इस भागदौड़ से थोड़ी गड़बड़ हो गई थी। फिर भी चित्रा ने आकर नए सिरे से घर ठीक किया। संकेत अब चलने लगा था, इसलिए उसके पीछे भागती दौड़ती चित्रा जाती थी। उसे दिन में संभालने वाली लड़की भी बहन के पास चली गई थी, इसलिए उसे वरुण या सुधांशु के घर में रखकर जाना पड़ता था। आने के अगले दिन चित्रा स्कूल गई तो तीसरी घंटी में उसके पीरियड नहीं थे। वह स्टाफ रूम में सोफे पर सिर टिकाए आँखें बंद किए बैठी थी। तभी चपरासी आकर बोला कि-प्रिंसिपल सर आपको बुला रहे हैं। चित्रा ने सामने रखी किताबों को ड्रावर में रखा और बैग उठाकर प्रिसपल के चेम्बर में चली गई.

पिं्रसपल ने नकली मुखौटे पर मुस्कुराहट चिपकाते हुए पूछा, "कैसी हैं चित्रा मैडम।"

"ठीक हूँ सर।"

"थोड़ी थकी लग रहीं हैं।"

"हाँ घर में शादी ब्याह हो तो थोड़ा रुटीन गड़बड़ हो जाता है।"

"आप इतनी पढ़ी-लिखी हैं, आपने खुद बिना तामझाम के कोर्ट में शादी की, फिर इन बिहारियों को समझाती क्यों नहीं। काम को अनदेखा कर और पैसों की बर्बादी कर शादी करना क्या अच्छी चीज है।"

चित्रा को बातों में छिपे नश्तर चुभ गए, थोड़ा रोष भी हुआ। उसे अन्दर ही अन्दर उसे पीकर सिर्फ़ इतना कहा, "सर सभी की अपनी परम्परा है, वे जमीन से जुड़े हैं, उनकी खुशी, उनका प्यार इसी रूप में दिखता है। ये सच्चा है, ये दिखावा नहीं है।"

"चित्रा मैडम आप भी" सुवास सर की तरह बात करने लगी हैं। कम से कम आप तो इस सबसे निकलिए, आप तो मराठी हैं। "

"नहीं सर मैं हिन्दुस्तानी हूँ और मैंने ब्याह भी एक हिन्दुस्तानी से ही किया है, जिसका अपना परिवार है, माँ-बाप हैं, एक बंधन है आपस में। हमारा भी परिवार अपनी जगह ऐसे ही बंधनों को निभाता है।"

प्रिंसिपल का असली चेहरा सामने आने लगा। उसने गंभीरता से कहा, "लेकिन आपको मालूम है न कि तीन क्लास में आपके सिलेवस पूरे नहीं हुए हैं और परीक्षा अगले महीने है।"

हमें इसका एहसास है। मैं एक्सट्रा क्लास लेकर उनके पाठ्यक्रम को पूरा करूंगी, ये मेरी जिम्मेवारी है।

चोपड़ा उसकी बात से संतुष्ट नजर नहीं आ रहा था और उसने फाइल अपने सामने सरका ली थी। चित्रा उठ खड़ी हुई और प्रिंसपल को अभिवादन कर बाहर आ गई.

सीनियर क्लर्क सेनगुप्ता ने, बच्चों के भविष्य के प्रति लापरवाही और स्कूल हित के खिलाफ छुट्टी लेने के कारण 'उसे कारण बताओ नोटिस' पकड़ा दिया।

चित्रा भौंचक-सी खड़ी रह गई. उसे सुवास की बताई घटना याद आ गई. यह विद्यालय है या बंधुआ मजदूरों का कारखाना, जहाँ व्यक्ति अपने सुख दुःख में अपनी छुट्टी भी नहीं ले सकता। उसकी आँखें पनिया गईं। सात साल से लगातार विद्यालय के एक-एक कार्यक्रम में जी जान से खड़ी रही, एक-एक बच्चे की पीठ पर उसका हाथ रहा, स्कूल में उठी हर एक समस्या को सुलझाने के लिए उसने दिन और रात नहीं देखा और आज उसकी सारी क्षमताओं, सारी ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह लग गया था। कागज के टुकडे़ ने उसके आत्मविश्वास को हिला दिया था। अनमनी-सी वह क्लास करती रही। वह लोगों से नजरें छिपा रही थी। विद्यालय में चलती ओछी राजनीति के कारण उसने स्टाफ रूम में कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा।

घर आते-आते वह बिल्कुल बिखर गई थी। संकेत को वरुण के घर से लाकर नहलाया, धुलाया, खाना खिलाकर सुला भी दिया। लेकिन उससे एक दाना भी मुँह में नहीं डाला गया। संकेत की बगल में वह बिना पलक झपकाए लेटी रही। बैंक के काम के कारण सुवास देर से घर पहुँचा तथा शांत घर और निष्चेष्ट लेटी चित्रा को देख पूछने लगा। चित्रा ने कुछ जवाब नहीं दिया। सुवास ने धीरे से चित्रा के सिर पर हाथ रखा तो चित्रा के अंदर दबा गुबार निकल गया। वह सुवास की गोद में सिर रखकर रोने लगी। काफी देर भी जब कुछ बोल नहीं पाई तो तकिए के नीचे से आफिस से मिले 'लेटर' को दिखा दिया।

सुवास उसे देख तमतमा गया, लेकिन फिर उसने चित्रा की ओर देखकर कहा, "चित्रा तुम इस बेतुके से पत्रा को लेकर परेशान हो। इतनी संवेदनशीलता अच्छी नहीं है। इन सब का महत्त्व ही क्या है। तुमने स्कूल को इतना अपना समझ लिया है कि तुम्हें अन्दर तक पीड़ा पहुँची है। लेकिन ये प्राइवेट स्कूल शोषण के अड्डे हैं, तुम इसके लिए क्यों जी जला रही हो।"

"सुवास मुझे प्रशंसा की भूख नहीं है, मैं कुछ अधिक भी नहीं चाहती, लेकिन यह शिक्षण मेरी रोजी रोटी नहीं मेरा जुनून है। मैं अपने आप से ज़्यादा बच्चों के भविष्य को सोचती हूँ। मैं जानती हूँ कि बहुत से लोग ऐसे नहीं होते, लेकिन उन्हें ऐसे 'नोटिस' नहीं मिलते और मैंने परिवार के नाम पर चार दिन क्या दे दिये, मुझपर इतने बड़े-बड़े इलजाम लगा दिए."

"चित्रा नौकरी करना सहज नहीं होता और बहुतों को नोटिस इसलिए नहीं मिलता कि वे प्रबंधक की खुशामद कर सकते हैं, ग़लत को भी सही कह सकते हैं। यहाँ भावनाएँ और कर्त्तव्यनिष्ठा नहीं देखी जातीं। लेकिन तुम अपना मन मत खराब करो। मैं आज शिक्षकों से बात करता हूँ। उठो खाना खाओ."

चित्रा का मन भारी था, फिर भी उसने सुबह का बनाया खाना गरम किया और खाने बैठ गई. लेकिन उसी दिन उसे लग गया कि अब वह विद्यालय में ज़्यादा दिन नहीं रह पायेगी।

चित्रा ड्राइंग-रूम में बैठी टी.वी. देख रही थी, तभी बिजली कड़कने से केबल फेल हो गया। चित्रा ने टी.वी. का स्वीच ऑफ कर दिया। मेघ की गड़गड़ाहट से डरकर संकेत उसके पास भागकर आ गया। संकेत को गोद में उठाकर बरामदे में आ गई. सुवास कुछ काम से बाहर गया था। बाहर लगातार बारिश हो रही थी इसी से चित्रा बालकोनी से बार-बार झाँक आती थी। उसे चिंता भी हो रही थी।

कई दिनों से मौसम का कहर जारी था। आसमान में घने मेघ हर समय छाए रहते। कभी धीमे और कभी जोर से बारिश की बूंदें गिरती रहतीं। सूरज के दर्शन दुर्लभ थे। चित्रा और सुवास भी विद्यालय बड़ी कठिनाई से जा पा रहे थे। कभी किसी की गाड़ी में बैठकर कभी छतरियों के भरोसे स्कूल जाते। दुर्गापूजा करीब थी, लेकिन पूजा को लेकर उत्साह और चहल-पहल बाज़ार से गायब थी। घर की दीवारें सीलन से भर गई थीं। बाहर पहाड़ी नदियाँ अपनी सीमा तोड़कर उफना रही थीं।

चित्रा और सुवास ने दुर्गापूजा में जीतपुर जाने का सोचा था। बादल अपनी पत्नी समेत वहाँ आने वाला था। चित्रा पिछली बार विद्यालय में हुए कड़वे अनुभव के बाद भी जाने का मन बना चुकी थी। लेकिन बरसात के प्रकोप ने सब कुछ बिगाड़ दिया था। उसका मन भी और लोगों की तरह ही बुझा बुझा-सा था। अष्टमी पूजा के दिन बादल अपनी पत्नी समेत गोमिया पहुँच गया। मेघ के बीच सूरज की थोड़ी लालिमा दीखने लगी थी और बारीश थम गई थी। उनलोगों के आने से घर में थोड़ी रौनक आ गई.

चाय नाश्ता के बीच बादल से सुवास ने जीतपुर के हालचाल पूछने शुरू किए तो वह थोड़ा गंभीर हो गया। चित्रा ने रसोईघर से ही पूछा कि "माँ ने पूजा के बीच में तुम्हें आने कैसे दिया।"

"भाभी वहाँ पूरे झरिया धनबाद के हालात देखकर माँ ने ही हमें यहाँ आने के लिए जोर दिया। बहू पहली बार आई थी पूजा मनाने, लेकिन वहाँ तो हर ओर मातम पसरा है।"

सुवास ने पूछा, "टी.वी. पर देख तो रहा था कि लगातार वर्षा से धनबाद झरिया में बड़ी क्षति पहुँची है, लेकिन जीतपुर में भी उसका असर पड़ गया है।"

"भैया हर ओर हरहराता पानी और उसमें उतराते बर्त्तन भांडे, खाट, मवेशी, जो जीतपुर के बड़े नाले और सड़क तक पहुँच गए. कितने घर गिर गए. गजलीटांड का तिमंजिला, वरसों पुराना मकान बहकर कहाँ चला गया पता भी नहीं चला, उनके नीचे रिक्शेवाले सोया करते थे, उनका क्या हुआ मालूम नहीं।"

बादल थोड़ी देर को चुप हो गया। सुवास और चित्रा स्तब्ध से खड़े रहे। गोमिया में भी बारिश हुई थी, लेकिन कॉलोनी के घर में वे सुरक्षित थे, पहाड़ी जगह होने के कारण आसपास चिकनी सड़कों पर पानी नहीं जमा था, न तो उनके आसपास किसी की रोजी रोटी पर बन आई थी। परन्तु धनबाद, झरिया, भागा, गोविन्दपुर तो मानो एकदम थम गया था। सुवास को माँ बाबुजी की याद आई तो उसने भाई से कहा कि "माँ बाबुजी को ले आते, यहाँ दो-चार पूजा पण्डाल तो बनते ही हैं, ऐसी परिस्थिति में वे अकेले रह गए, क्योंकि वर्षा भी होस्टल में ही रुक गई है।"

बादल की पत्नी ने सब्जी काटते हुए कहा, "भैया, हमने चाहा था, लेकिन वे बहुत दुःखी थी। अपने घर जो-काम करने वाली रुकमी है, उसका घर फूसबंगला में है। रात को बारिश का पानी जब नालो, नदियों से उफना कर चारो तरफ बह रहा था तो उसकी झोपड़ी भी बह गई और उसका बेटा पानी के तेज बहाव में पड़ गया। तीन दिनों बाद पानी उतरा तब तीन किलोमीटर दूर पेड़ से अटका और उसकी लाश मिली। उसी को लेकर माँ बाबुजी परेशान हैं।"

चित्रा विचलित हो गई. उसे याद आया कि बादल की शादी में उसका पाँच साल का बेटा, बालों में तेल चुपड़े और आँखों में मोटी-काजल की रेख लगाए रुकमी के साथ आता था। कभी-कभी संकेत के खिलौने भी छूकर देखता। रुकमी को उसके साफ रंग पर कितना घमण्ड था। कहती थी, "दुलहिन इसे आपके पास ही पहुँचा देंगे, देखने में एकदम बबुआन जैसा लगता है, आप पढ़ा लिखा देंगी तो सच में साहब बन जाएगा।"

कैसा लगा होगा रुकमी को। यह प्राकृतिक आपदाएँ गरीबों का कितना कुछ छीन लेती हें। अपनी झोपड़ी, बिछावन और टूटे फूटे बरतन जोड़ने में ही इनकी ज़िन्दगी चली जाती है, एक बार में ही वर्षा की कहर ने सबकुछ तबाह कर दिया उस पर से बेटे या माँ का छिन जाना कितना त्रासद है। ऐसे में वहाँ बाज़ार क्या-सजते और लोग उत्सव क्या मनाते। दिनभर यही चर्चा होती रही। शाम को सभी को इससे निकालने के लिए सुवास ने दुर्गापूजा घूमने का कार्यक्रम बनाया। संकेत की बालसुलभ क्रीड़ाओं से भी सभी का ध्यान उस ओर चला जाता और वे लोग फिर खुश हो जाते।

वासुदेव बाबु वर्षा की शादी के लिए परेशान थे। नौकरी से सेवानिवृति का समय आ गया था। वर्षा की पढ़ाई भी पूरी होने जा रही थी। ब्याह के सिलसिले में वे लड़का देखने पटना जाने वाले थे, लेकिन बरसात ने सब गड़बड़ कर दिया था। बादल ने इस सिलसिले में भी सुवास से बात की। दहेज प्रथा तो प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और शादी इतने दिखावे के साथ हो रही थी कि वर्मा जी अपने को असहाय-सा महसूस करते। उन्होंने दोनो बेटों को अपनी यह चिन्ता बताई थी। सुवास ने पत्रा के जरिये पिता को भरोसा दिया था, लेकिन भला प्राइवेट स्कूल का एक शिक्षक मदद ही कितनी कर सकता था। बादल और रेखा के जाने के बाद घर फिर से पहले की तरह हो गया। सुवास को चिन्तित देखकर चित्रा ने टोका, "आप आजकल गंभीर से रहते हैं, बादल ने कुछ कहा है क्या?"

सुवास ने चित्रा की ओर देखते हुए कहा, "चित्रा चिन्ता की बात तो है, वर्षा की शादी होनी हैं, पैसों की व्यवस्था में बाबुजी जुटे हैं, लेकिन हमलेागों का भी तो फर्ज बनता है। पी.एफ से लोन लेने की सोच रहा हूँ, एकाध एफ.डी है उन्हें भी तुड़वाना पड़ेगा, फिर भी पूरा पड़ेगा या नहीं।"

चित्रा ने कहा, "आप ठीक ही सोच रहे हैं, आप कहें तो मैं भी लोन के लिए अप्लाय कर देती हूँ।"

सुवास ने रोका, "नहीं चित्रा, तुम अभी 'लोन' मत लो, बाद में ज़रूरत पड़ेगी तो देख लेना, वैसे भी रिफंडेबल लोन लेने की वजह से मेरे पैसे ज़्यादा तो घर आ नहीं पाएँगे।" चित्रा ने समझाया, "फिर आप इतने चिन्तित क्यों हैं, पैसों के लिए शादी कहीं रुकती है, क्या शादी का दिन तय हो गया है?" दिन तो नहीं, हाँ यह ज़रूर लगता है कि फरवरी में दिन पड़ेगा। "

"तीन महीने बहुत हैं सुवास और हमदोनों हैं ना, सब हो जाएगा।"

चित्रा ने सुवास को नाश्ता देकर संकेत को कम्पलान का गिलास पकड़ा दिया। सुवास को बहुत हल्का-सा महसूस हो रहा था। सचमुच चित्रा अगर उसकी ज़िन्दगी में न होती तो वह क्या ऐसा ही रह पाता।

वरुण घर गया था, दो दिन में लौटने की बात थी। दिवाली की छुट्टी खत्म होने पर भी जब वह नहीं आया तो सुवास को चिन्ता हुई. जब दिवाली के दिन, ये लोग, वरुण के घर मिलने गए थे, स्नेहा की माँ ने बताया था कि वरुण अपने भाई के काम से गिरीडीह से राँची जाएगा, लेकिन छुट्टी खत्म होने से पहले लौट आएगा। स्कूल खुलने पर भी नहीं लौटने के कारण सुवास ने चित्रा को उसके घर जाने को कहा। चित्रा ने जाकर देखा कि स्नेहा की माँ भी परेशान थी, लेकिन वह कुछ बता नहीं पा रही थी।

तीसरे दिन दो बजे दिन के करीब गोमिया लौटा। सुवास को उसकी अनुपस्थिति में प्रिंसपल के चढ़े तेवर की चिन्ता होने लगी थी। शाम के समय सुवास और चित्रा संकेत को लेकर ही वरुण का हालचाल पूछने गए. वरुण ड्राइंग रूम में ही बैठा था। उसने भाई के विश्वविद्यालय सम्बंधी काम की बात करते हुए बताया कि "देरी दरअसल इसलिए हुई कि मैं वहाँ स्नेहा का रिश्ता पक्का करने भी गया था। बड़ा अच्छा घर बार है, लड़का एन.टी.पी.सी. में इंजीनियर है।"

चित्रा ने कहा, "आपने अच्छी खुशखबरी सुनाई, लेकिन आप कुछ दिन रुक सकते थे, स्नेहा का भविष्य या उसके मन को जान लेते।"

वरुण ने मुस्कुराकर कहा, "भाभी आपके ही कहने पर हमने उसे बी.ए. भी करा दिया, फिर बिरादरी की बात भी रखनी थी।"

सुवास ने वरुण का पक्ष लेते हुए कहा, "बात सही है और इतना भी करना वरुण के लिए बहुत मुश्किल था। फिर क्या उसके बाद भी दहेज देने से इनका पीछा छूट जाएगा।"

चित्रा ने कहा, "सुवास अपनी बहन की शादी में आ रही दिक्क्तों से परेशान है, लेकिन इस वजह से ही तो आप लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाना चाहते थे। खैर अब शुभ समाचार तो आपने सुना ही दिया।"

सुवास ने वरुण को मुस्कुराते हुए कहा, "वरुण जी शादी गरमी की छुट्टी में रखियेगा नहीं तो प्रिसपल आपको खा जाएगा, वे ऐसे ही भड़के हुए हैं।"

वरुण ने भी मुस्कुराते हुए कहा, "सोचता हूँ कि मिठाई का एक डिब्बा लेकर ही उसके पास आवेदन पत्रा लेकर जाउ$ं वह मौके की नजाकत को समझता है।"

"अरे वरुण जी अब तो आप प्रिंसपल से भी तेज हो गए हैं, लेकिन हमें तो मिठाई खिलाई नहीं, क्या सच हीं सगुन वगैरह भी दे आए हैं।"

"हाँ सुवास जी, जब सभी बात तय हो गई तो घर में सबने कहा कि लड़के को सगुन देकर छेका कर ही लो। वे लोग भी आऐंगे घर पर, लड़की को सगुन देने।"

चित्रा और सुवास उठने लगे तो वरुण ने पत्नी को आवाज देकर कहा कि "थैले में मिठाई है ज़रा इनलोगों को खिलाइये।"

पत्नी को आने में देरी होते देखकर वह स्वयं उठकर जाने लगा तो कराह कर बैठ गया। उसके पाँव पर कटे के निशान थे और चोट से पाँव नीला पड़ गया था। चित्रा देखते ही चौंक पड़ी, "यह क्या है वरुण जी, ये कैसे हुआ?"

"चित्रा मैम यह सब आज की व्यवस्था की देन है। सवारी गाड़ी में, कोयले की इतनी बोरियाँ भर देते हैं कि न चढ़ना संभव होता है ना उतरना। उन्हीं लोगों ने मेरे पाँव पर ही कोयले का बोरा पटक डाला। उस समय तो लग रहा था कि जान ही निकल जायेगी। एक यात्राी ने पेनकिलर टैबलेट दिया तो थोड़ा चल पाया।"

सुवास ने चित्रा से चिन्ता में भरकर कहा, "किससे शिकायत करें पूरा रेलमहकमा यह जानता है। पुलिस खुद पैसे लेकर इन बोरों को चढ़वाती है, जिनके पास पैसे नहीं होते उन्हें घसीट कर उतार देती है। तुमने देखा नहीं कोयले लदी साइकिलों के काफिले को। वे गरीब लोग तो अवैध कोयला खनन करते नहीं, वे तो मोहरे हैं-फिर भी कँही कुछ होता है क्या? चोरी और रिश्वतखोरी हमारे खून में समा गई है। पूरा प्रशासन तंत्रा भ्रष्ट है।"

वरुण ने अपने कटे पैरों को देखते हुए कहा, "सुवास जी आपके मित्रा का पाँव क्या जख्मी हुआ कि आप एकदम सरकार बदलने को तैयार हो गए."

चित्रा ने तब तक स्नेहा को आवाज देकर कहा, "स्नेहा पापा का पाँव गुनगुने पानी से धोकर एंटीसेप्टिक क्रीम लगा दो और शाम को वरुण जी अस्पताल में दिखा लेंगे।"

स्नेहा की माँ मिठाई की प्लेट रखती हुई बोली सब हो जाएगा पहले आप मिठाई, चाय तो लीजिए. वरुण हँसने लगा, "सुवास जी, यह अब तक नहीं बदली है। मिठाई के साथ चाय देती है।"